हम कितने ही सभ्य उदार और आधुनिक क्यों ना हो गये हों किन्तु मूल विचारधारा में बहुत परिवर्तन नही दिखाई देता । ऐसा में बिना किसी कारण के नही कह रही , क्योकि यदि ऐसा ना होता तो नित्य हमारे सामने “नारी” अपमान की घटनायें ना घटित होतीं ।
कुछ सवाल मैं अपने सभ्य समाज के उन लोगों से करती हूँ , जिनके पास बाहुबल की कमी नही और उसी के बल पर वह औरतों को उपयोग और उपभोग के सामान से ज्यादा कुछ नही समझते । आज जिस बल के दम पर वो नारी को अपमानित करके अपना मान बढा रहे है ,आखिर यह बल उनको मिला कैसे है ?? एक तरफ तो वह दुर्गा को पूजते हैं और दूसरी तरफ स्त्री को अबला भी कहते हैं । सृष्टि का आधार स्त्री और पुरुष नाम के दो पहियों पर टिका हुआ है , दोनो एक दूसरे के पूरक हैं , यदि एक भी कमजोर पडेगा तो जीवन का रथ आगे बढना असम्भव हो जायगा ।
फिर पुरुष को अपने पौरुष का इतना अभिमान क्यों ? क्यों पुरुष यह भूल जाता है कि उसके जीवन का आधार स्त्री ही है । मानसिक स्तर पर जब जब एक पुरुष बिखरता है उसे एक स्त्री के सहारे की ही जरूरत होती है । कभी वह माँ बन कर ममता लुटा कर उसको संवारती है तो कभी पत्नी बन उसके हर दुख को सहर्ष बाँट लेती है । क्यों पुरुष ऐसी स्थिति में अपने किसी पुरुष मित्र के पास नही जाता ? क्योंकि ताकत ही दुनिया में सब कुछ नही , जो काम ममता और प्यार से हो सकता है वो ताकत से नही । और ईश्वर ने ममता ,त्याग ,प्यार यह स्री को वरदान में दिये हैं । जब स्त्री स्वयं को अर्धांगिनी कह कर गर्व का अनुभव ही करती है तो पुरुष क्यों यह स्वीकार नही करते कि स्री के बिना वो भी सम्पूर्ण नही ?
पुरुष इतना स्वार्थी क्यों बन जाता है कि वक्त पडने पर जो स्त्री (किसी भी रूप में) से सहयोग लेता है , बलशाली होते ही उसे कमजोर करार दे देता है ? जिसका सहारा लेकर वह अपने जीवन को नयी दिशा देता है , उसी को अपने से आगे बढता देख नही सकता ।
आखिर फिर क्यों दुर्गा को शक्ति रूप में पूज कर उससे शक्ति की प्रार्थना करता है ? सर्वप्रथम उसे निश्चय करना होगा कि स्त्री शक्ति है या अबला ??
अगर वह स्त्री से ज्यादा शक्तिमान है तो जीवन के लिये , पालन के लिये स्त्री पर निर्भर क्यों है ??
क्यों वह जिस पेड का फल है उसी वृक्ष को काटने की कोशिश करता है ??
दुर्गा / काली शक्ति के रूप हैं जहां स्त्री त्याग और ममता कि मूरत मात्र नहीं हैं अपितु वो शक्ति हैं . पूजा शक्ति कि होती हैं त्याग और ममता कि नहीं . स्त्री अबला नहीं हैं उसको अबला का तमगा दिया जाता हैं . आप के आलेख मे भी कंडिशनिंग साफ़ दिख रही हैं वही एक बात नारी पुरुष एक दूसरे के पूरक . ये केवल और केवल एक ही रूप मे हैं पति और पत्नी . जब तक आप सब नारियां स्त्री कि विभिन रूपों को जो पुरुष के बिना भी हैं नहीं स्वीकारेगे आप नारी को खुद भी अबला ही समझेगे . आज कि नारी पुरुष के बिना भी सम्पूर्ण हैं और संविधान और कानून उसको सुरक्षा देते हैं
ReplyDeleteअपनी ताकत को पहचाने और पुरुष को नहीं खुद को बदले अपनी सोच को बदले दूसरी स्त्री के लिये , ख़ास कर उनके लिये जिन्होने पुरुष के बिना अपना एक अलग स्थान बनाया हैं . आप मे से कितनी महिला उनको सराहती हैं ???? उनकी ताकत को सराहती हैं या आप सब भी केवल पत्नी और माँ बनना ही स्त्री कि नियति मानती हैं . लेख मे जो सोच हैं वो बहुत पुरानी हैं क्युकी पुरुष स्त्री पर निर्भर नहीं हैं हां स्त्री अपनी सुरक्षा के लिये उस पर आश्रित नज़र आती हैं और बार बार उसके आगे अपने उन अधिकारों कि भीख मांगती हैं जो अधिकार उसको जनम से मिले हैं .
पलाश जी अपनी सोच मे अगर परिवर्तन लाये तो आप घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर सकती हैं जो नारी ब्लॉग कि टैग लाइन हैं
रचना जी हम जानते हैं के नारी किसी की मोहतज नही । यह सवाल मेरे उन पुरुषों से थे । ताकि वो अपनी सोच बदले ।
ReplyDeleteमै एक आत्मनिर्भर लडकी हूँ , जो किसी भी मोर्चे पर किसी भी परिस्त्थिति का सामना कर सकती है ।
शायद आप को हम यह नही बतला पाये कि हम बात किस संदर्भ मे कह रहे है ।
इसके लिये हम अवश्य ही क्षमा प्रार्थी है ।
palash
ReplyDeletekshma ki koi baat nahin haen soch kar daekho agar ham sab mil kar naari ki soch ko badalane kaa yatan karey to badlaav jaldi aayegaa
meri baat ko sahii rup mae samjhaa tumnae iskae liyae thanks
नदी में नहाते समय कोई नदी से ये नहीं कहता की मुझे डुबो नहीं देना ..बल्कि सभी सजग और होशियारी के साथ स्नान करते है ...! इसे जीवन की हार नहीं चतुराई कहते है..यह भी एक विजय हुयी !
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