एक आम आदमी धर्म का जानकर नहीं होता है उसे तो जो पंडित जी लोग बता दे की वेदों पुराणों में यही लिखा है तो वो उसे ही मान लेता है | किन्तु समय समय पर कुछ लोग पंडितो और स्वघोषित वेदों पुराणों के जानकारों की बातो को नकारते रहते है | अब देखिये कमला भारद्वाज जी और बल मुकुंद जी क्या कह रहे है उनके अनुसार तो वेदों में कन्यादान शब्द नहीं है ये तो बाद में लिखे गए कुछ अन्य ग्रंथो में है | लीजिये लेख पढ़िए और अपनी जानकारी कुछ और बढाइये |
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कमला भारद्वाज/ बाल मुकुंद।।
अनुजा विवाह के मंडप में बैठी है। पुरोहित एक मंत्र का पाठ करते हैं जिसका अर्थ है : 'अमुक गोत्र में उत्पन्न..... अनुजा नाम वाली, यथाशक्ति वस्त्रों तथा आभूषणों से सुसज्जित कन्या को, पुराणों में बताए गए कन्यादान की फल की कामना से मैं पिता तुम्हें पत्नी के रूप में अपनाने के लिए वर के लिए संप्रदान करता हूं।' (अमुकगोत्राम ......पुराणोक्त ....संप्रददे ....) पिता अनुजा का हाथ लेकर वर के हाथों में देते हैं और रो पड़ते हैं। नाजों में पली अपनी लाड़ली का आज उन्होंने कन्यादान कर दिया।
यह मंत्र पारस्करगृह्यसूत्रम के हरिहर भाष्य से लिया गया है। इस सूत्र में कन्यादान के लिए पिता द्वारा मंत्र पाठ के साथ संकल्प लेने की व्यवस्था दी गई है। अनुजा का विवाह इसी सूत्र में बताई गई विधि से संपन्न हो रहा है। उत्तर और दक्षिण भारत के ज्यादातर क्षेत्रों में आज यही विधि सबसे ज्यादा प्रचलित है।
लेकिन वेदों में 'कन्यादान' जैसा कोई शब्द नहीं है। उनमें कन्या, पाणिग्रहण, प्रतिग्रहण और दान जैसे शब्दों का अलग-अलग संदर्भों में प्रयोग हुआ है। दान के महत्व का वर्णन करते हुए ऋग्वेद में कहा गया है कि गौ, अश्व तथा वस्त्रों का दान करने वाले सौभाग्यशाली होते हैं और उनके घरों में अनेक प्रकार के धन सदा उपलब्ध रहते हैं। (ऋग्वेद 5-42-8)। अथर्ववेद में दान दी जाने योग्य वस्तुओं के नाम गिनाए गए हैं। इनमें जनने वाली गौ, बोझा ढोने वाले बैल, वस्त्र, सुवर्ण आदि वस्तुओं को दान करने से दाता को उत्तम गति प्राप्त होने का उल्लेख मिलता है। (अथर्ववेद : 9-5-29)।
पर वहां किसी भी उद्धरण में दान के लिए बताई गई वस्तुओं में कन्या के दान का विचार प्राप्त नहीं होता। वैदिक विवाह परंपरा में कन्या को प्रदेय द्रव्यों से परे रखा गया है। वह दान देने वाली वस्तुओं के समकक्ष नहीं है। दान का अर्थ है किसी वस्तु पर से अपने स्वत्व (अपना मानने) का अधिकार त्याग देना। कन्या न ही वस्तु है, और न ही उसके विवाह के पश्चात माता-पिता एवं संबंधियों से उसका संबंध समाप्त होता है। ऐसा नहीं होता तो सती अपने पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में नहीं गई होतीं। इसके अलावा दान देने के लिए शर्तें नहीं थोपी जातीं, लेकिन कन्या के लिए वर को पाणिग्रहण के समय सात वचन देने होते हैं और प्रतिग्रहण का संकल्प लेना होता है।
वैदिक काल में भी भारतीय समाज पितृमूलक था। माता-पिता की इच्छा कन्या के लिए माननीय थी। लेकिन कन्या की भावना का भी सम्मान किया जाता था। माता-पिता को यह सुनिश्चित करना पड़ता था कि कन्या को अभिरूप पति के साथ सुखमय जीवन बिताने का अवसर प्राप्त हो। इसकी पुष्टि राजा रथवीति के आख्यान से होती है। श्यावाश्व ऋषि ने राजा से उनकी कन्या से विवाह का प्रस्ताव किया। राजा ने पहले अपनी रानी शशीयसी से सलाह की। रानी ने पुत्री से पूछने के बाद कहा कि श्यावाश्व को पहले ऋषित्व प्राप्त करना चाहिए। जब श्यावाश्व ने यह पद और प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली, तभी रथवीती ने उन्हें अपनी बेटी का पाणिग्रण करने की इजाजत दी। (बृहद्देवता 5-50-80)
वेदों के बाद ब्राह्माण ग्रंथों की रचना हुई, जिनमें वेदों की व्याख्या की गई थी। चूंकि वेदों में कन्यादान की बात नहीं कही गई थी, इसलिए ब्राह्माणों में भी ऐसे किसी उल्लेख का प्रश्न नहीं उठता। शतपथ ब्राह्माण में सुकन्या कहती है कि मेरे माता-पिता ने मुझे जिस पति के साथ प्रणय सूत्र में बांधा है, उसके साथ मैं आजीवन रहूंगी। (सा होवाच यस्मै मां पितादान्नैवाहं तं जीवंतं हास्यामीति 4-1) इस मंत्र में अदात् शब्द का प्रयोग दान अर्थ में नहीं है, यह माता-पिता द्वारा विधि-विधान से विवाह कराने का ही संकेत है।
ब्राह्माणों के बाद उपनिषद आए जिनमें वेदों से अलग आध्यात्मिक तत्वों पर विचार किया गया। इनका कर्मकांड या भौतिक जीवन से कोई संबंध नहीं था। इसलिए इनमें भी कन्यादान का उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन उपनिषदों के बाद पुराणों में कहीं-कहीं ऐसी चर्चा मिलती है। अग्निपुराण में कन्यादान को सबसे उत्तम दान माना गया है। बाद के काल में स्मृतियों में कन्यादान की व्यवस्था को सूत्रबद्ध करने की कोशिश दीखती है।
मूल रूप से वैदिक अनुष्ठान में विवाह के पांच चरण माने गए हैं :
वाग्दानञ्च वरणं पाणिपीडनम्।
सप्तपदीति पंचांगो विवाह: प्रकीतिर्त:।।
वाग्दान से सगाई, प्रदान- से कन्यादेय- या कन्या को दिए जाने वाले उपहार, वरण-यानी वर द्वारा स्वीकृत करना, पाणिपीडन- पाणिग्रहण करना तथा सप्तपदी- से सात वचनों के पालन की प्रतिबद्धता का भाव लिया जाता है। इन पांच चरणों में भी कन्या के दान का संकेत स्पष्ट नहीं होता। केवल कन्या को दिए जाने वाले उपहार और उसके लिए उपयोगी वस्तुओं के दान का संकेत मिलता है।
यह देखना दिलचस्प है कि जब वेदों में कन्या को दान करने की बात नहीं की गई थी, तो स्मृतियों और सूत्रों में यह परंपरा इतने ठोस रूप में कैसे अवतरित हुई? इसे शायद मनुस्मृति के एक श्लोक से समझा जा सके, जिसका अर्थ है कि विवाह के लिए इच्छुक पिता अपनी कन्या अति उत्कृष्ट, शुभ गुण, कर्म और स्वभाव वाले, कन्या के सदृश, रूप और लावण्य आदि गुणों से युक्त वर को ही दे। (मनुस्मृति : 9-88)। श्लोक में कन्या देने का अर्थ है वर को पाणिग्रहण करने की इजाजत देना। लेकिन यह इजाजत पिता ही क्यों देता है? क्योंकि विवाह के पहले कन्या को अपना कहने का अधिकार (स्वत्व का) पिता के ही पास होता है। यह बात मनुस्मृति के एक अन्य श्लोक से स्पष्ट होती है, जहां लिखा है :
पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने।
रक्षंति स्थविरे पुत्रा:, न स्त्रीस्वातंत्र्यमर्हति।।
( मनुस्मृति : 9-3)
अर्थात कन्या जब कुमारी रहती है तो पिता उसका लालन-पालन और उसकी रक्षा करता है, युवा अवस्था में पति और बुढ़ापे में पुत्र। स्त्री अरक्षित नहीं रह सकती। यहां स्वतंत्रता का अर्थ फ्रीडम या लिबर्टी नहीं है, बल्कि अरक्षित होना है।
ऐसा लगता है कि वेदों में कन्या के लिए योग्य वर सुनिश्चित करने की जो बात कही गई थी, उसी ने समय के साथ अभिव्यक्ति बदल कर पुराणों में 'पुण्य' का रूप धारण कर लिया। और वर को कन्या का हाथ थामने की स्वीकृति देना 'कन्या के दान' में बदल गया। पिता पुण्य की कामना से कन्या का दान करने लगे। इस तरह 'कन्यादान' पुराणों और स्मृति काल की लोक संस्कृति से निकला हुआ शब्द है, जो कन्या के विवाह के समय माता-पिता के कर्तव्य, संकल्प और भावुकता को रेखांकित करता है। इसीलिए यूरोपीय इतिहासकार विंटरनिट्ज भी इन सूत्रों को 'फोक लोर जर्नल' कहते थे।
गृह्यसूत्रों की रचना ईसा की छठी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के बीच गृहस्थ जीवन को सुव्यवस्थित करने के लिए की गई थी। इनमें से बहुत सारे सूत्र मौखिक परंपरा से आगे बढ़े। सूत्र ग्रंथों में विवाह की जो वैदिक पद्धति बताई गई है, आज भी हम उसी का अनुपालन करते हैं -पाणिग्रहण और प्रतिग्रहण इन्हीं सूत्रों के अनुसार कराया जाता है। वैदिक परंपरा का उज्वल पक्ष यह है कि कन्या को प्रदेय वस्तुओं से परे रखा गया है। तब आज के बदलते परिवेश में कन्यादान की परंपरा जारी रखने का क्या औचित्य रहता है?
great post anshumala what is needed that we put our brains and think what is good for the woman community
ReplyDeleteanshumala ji aapne bahut vicharniy vishay par aalekh prastut kiya hai kintu jaise ki kai bataen hamare yahan pramapara se aati hain aise hi aaj ye bhi ek manya parampara ka roop dharan kar chuki hai.lekin iske liye jyada chintit hone kee aavshyakta nahi kyonki aaj ke bete bahut jald hi apne karmo se swayam ko dan karane kee parampara kee shuruaat kara sakte hain.
ReplyDeleteअंशुमाला जी का वेदों में बढ़ता इंटरेस्ट काबिले तारीफ़ है , ये जिस दिन छपा था मैंने पढ़ लिया था | अच्छा हुआ ये "नजरिया" टेब में नजर आ रहा है |
ReplyDeleteसबका एक नजरिया होता है , जिसे इन लेखिका का
"I want to talk about the Un/Mis-informed Hindus...the ones who don't really know. They are not completely responsible for not knowing because it was never taught anywhere. The things they have learnt from family is unfortunately all rituals and no substance. They have grown up hating what they have heard and not surprisingly so. "
http://manukhajuria.blogspot.com/2009/08/ritual-of-marriage-and.html
"Anyone having a minimal understanding of the Sanatan Dharma could tell how feeble the word 'tution fee' is, to stand for the ritual of 'Gurudakshina'. Similarly without understanding the context the culture brings in, using the word alms for daan is like using sugar in place of honey, using gift is kind of insult and using commodity a blasphemy. "
http://manukhajuria.blogspot.com/2009/08/ritual-of-marriage-and.html?showComment=1249598304466#c9218439714401770961
भारत का इतिहास अगर आप ठीक से पढ़ें तो मनुस्मृति में कही बात कितनी प्रेक्टिकल है आप समझ पाएंगी
और शायद आप भूल गयी आप ही ने कहा था की लोग सिर्फ एक ही बार कन्यादान करना चाहते हैं , अब सोचिये अगर वो ये भी ना करते तो क्या होता ???
श्रुत्वा कन्या प्रदातारं पितर: स पितामहा:। विमुक्त्वा सर्वपापेभ्यो ब्रrालोकं ब्रजन्ति ते॥
ReplyDeleteअत: पितामहों सहित पितर लोग कन्यादान देने वाले से अपने वंश को सुनकर सब पापों से मुक्त होकर ब्रrालोक को जाते हैं। पुत्र की कामना वाले दहेज लोभ के साथ कन्या लाते हैं। ऐसे लोग दोहरा दान ग्रहण करने से पातकी श्रेणी में आ जाते हैं और कन्यादान से ही उस ऋण से मुक्ति संभव हो पाती है। इसीलिए पुत्र प्राप्ति से अधिक महत्वपूर्ण योग कन्या प्राप्ति का होता है।
http://www.jyotish.tk/2010/01/blog-post_11.html
ये आखिरी कमेन्ट है शायद.......
ReplyDeleteवैसे भी मोक्ष की बातें आप ज्यादा करती हैं मैं तो प्रेक्टिकल बात में यकीन रखता हूँ | अगर आप चाहें तो इस रिचुअल पर हर तरह के उदाहरण दे सकता हूँ लेकिन किसी पर सकारात्मक असर नहीं होने वाला , एक जवाबी पोस्ट भी बना सकता हूँ लेकिन मैं गैर जरूरी विरोध नहीं फैलाना चाहता , एक बार यहाँ (जहां से आपने लेख लिया है ) पर आये कमेन्ट भी पढियेगा ...आभार
(मेरे कमेन्ट "नहीं हटाने" का अनुरोध भी कर रहा हूँ )
पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने।
ReplyDeleteरक्षंति स्थविरे पुत्रा:, न स्त्रीस्वातंत्र्यमर्हति।।
( मनुस्मृति : 9-3)
हम नहीं समझते की नारी का विरोध कौन और क्यों करेगा वह तो जगद्जननी स्वरुप है जननी है हमारे हर रूप में अंग में शामिल है बहुत सुन्दर और रोचक जानकारियों से भरा ये आप का ब्लॉग सराहनीय कदम -शुभकामनायें
आइये आप के समर्थन के इंतजार में
स्वागत है आप का भ्रमर के दर्द और दर्पण में
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५
कृपया मिलिए हमसे सुझाव व् समर्थन-आशीष के साथ
at
www.echarcha.com (hindi section me)
www.jagranjunction.com
http://surendrashuklabhramar.ब्लागस्पाट
बढियां अनुसन्धान -गउ दान भी होता है!
ReplyDeleteयह तो अपनी अपनी सोच की बात है.... यदि शाब्दिक अर्थ पर न जायें तो... क्या स्त्री के बिना सृष्टि की कल्पना भी की जा सकती है... मैंने अभी तक जो थोड़े से धर्म-ग्रन्थ पढ़े हैं उनमें कम से कम कन्या की हत्या जैसी बात पढ़ने को नहीं मिली..
ReplyDeleteसुंदर और उपयोगी पोस्ट। इस दिशा में शोध की आवश्यकता है।
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