"वृन्दावन और मथुरा मे ८ गौशाला हैं मन्दिर की आय से जिन्हे चलाया जाता है और जहाँ तक़रीबन ५००० गाय रहती हैं । ये गाय वो हैं जिनको उनके "मालिको " ने घरो से इसलिये निकल दिया क्योकि या तो इन गायो का दूध सुख गया था या फिर किसी वजह से ये अपंग हो गयी थी । इन्हे कसाई को नहीं बेचा जाता हैं और मरने का बाद इनको जमीन मे १ किलो नमक के साथ गाढ़ दिया जाता हैं । वृन्दावन और मथुरा मे जहाँ तक़रीबन ५००० विधवा और अपंग स्त्रियाँ मंदिरो मे रहती हैं । मन्दिर की आय से इनको १० रुपए रोज और आधा किलो चावल मिलते हैं । "
ये कथन हैं एक गाइड का जो हमे मथुरा वृन्दावन मे मिला था । इसके आगे क्या ........... ? वो लोग जीवन के आर्थिक पक्ष को भूलकर भावनात्मक सोच को अपनाना चाहते हैं एक फिर से सोचे और अपनी विचारो को यहाँ दे , मै , जो उस दिन जब ये वार्तालाप गाइड और मेरी माता जी के बीच चल रहा था मूक सुन रही थी आज तक बिल्कुल स्तब्ध और मूक हूँ । क्यों नहीं गृहणी को आर्थिक रूप से स्वतंत्र और संपन्न होना चाहिये , और होम मेकर का ये हश्र है तो अपनी संवेदनाओ को भूल कर अपनी आर्थिक क्षमताओं को बढ़ना ही नारी का मूल मंत्र हो , मेरी तो यही कामना हैं ।
ये बात २००८ , २५ जून की हैं , कोई सालो पुरानी कहानी नहीं हैं ।
मेरे हिसाब से भावनात्मक सोच ही ज्यादा मायने रखती है। ऐसी भी स्त्रियां ( नहीं कहना चाहिए मां बाप) देखी हैं जिनके पास करोड़ों रुपया है बैंकों में लेकिन शरीर से अशक्त होने के कारण वो दूसरों पर निर्भर हैं और उतने ही लाचार हैं जितनी आप इन विधवाओं की बात कर रही हैं। दो तीन साल पहले मैने पेपर में पढ़ा था कि बम्बई के एक पॉश इलाके में जहां एकदम रईस लोग बसते हैं एक वृद्ध जोड़े ने बाल्कनी से कूद कर आत्महत्या कर ली क्योंकि करोड़ों का मकान होते हुए भी जिसमें वो रहते थे और भारी भरक्म बैंक बैलेस होते हुए भी उनका इतना बुरा हाल था कि हफ़्तों उनके बिस्तरों की चादर नहीं बदली जाती थी, दवा के लिए भी बहु की दया पर निर्भर थे। अपने ही घर में एक कमरे से दूसरे कमरे में घूमने की इजाजत नहीं थी।
ReplyDeleteतो ऐसे पैसे को क्या करना। दूसरी तरफ़ ऐसे भी केस देखे हैं जहां सास के पास एक पैसा भी न होते हुए बेटे बहु ने खूब अच्छा ख्याल रखा।
पैसा तो सिर्फ़ एक साधन मात्र है जिससे सुखी जीवन की सिर्फ़ आशा की जा सकती है पर असली सुख तो है रिशतों में, भावना में, प्यार में । कोई अपना हो तो गरीबी में भी जीवन सकून से कट जाता है , बाकि मौत तो शाश्वत है उस से क्या डरना।
मेरी सोच इस बारे में यही रही है हमेशा कि पैसा जरुरी है पर उतना ही जो सकून दे सके जब कोई लड़की घर में शादी कर के आती है तो यह सोच कर नही आती कि उसको इस घर में काम करने के लिए पैसे मिलेंगे ..वह एक प्यार और सम्मान की आशा ले कर आती है ...और यही भवात्मक सोच एक स्त्री को हर सुंदर रूप में ढाल देता है ..जहाँ तक मथुरा की बात है जब मैं कुछ साल पहले वहां गई थी तो वही औरते देखने को मिली जिनका परिवार अशिक्षित था या बाल विधवा थी तब लगा था कि शिक्षा का होना और अपने पेरों पर खड़ा होना बहुत जरुरी है ..और यदि आज भी वही सिथ्ती है तो जरूरत है उन अंधविश्वासों को जड़ से मिटाने की और शिक्षा के प्रसार की ..अनीता जी ने जो कहा मैं उस से पूर्ण रूप से सहमत हूँ
ReplyDelete"तब लगा था कि शिक्षा का होना और अपने पेरों पर खड़ा होना बहुत जरुरी है" सही कहा रंजना आपने
ReplyDeleteहर नारी को अपने को आर्थिक रूप से सशक्त करना होगा वरना ये कुरीतिया कभी समाप्त हो ही नहीं सकती . और श्याद यही कारन हैं की जो स्त्रियाँ काम करके धन को प्राप्त करती हैं वो आर्थिक रूप से सुध्ढ़ होना के कारन अपनी बात को ज्यादा बेहतर तरीके से कह सकती हैं . आर्थिक स्वतंत्रता स्त्री को मानसिक रूप से भी सक्षम करती है . भावनातक रूप से मन संतुष्ट हो सकता हैं पर पेट भरने के लिये और आत्म समान के लिये आर्थिक स्वतंत्रता ही एक मात्र मूल मन्त्र हैं , रंजना और अनीता जी मेरा एसा मानना है
भावानत्मक सोच के बिना आर्थिक रूप से सशक्त होना अर्थहीन लगता है...घर परिवार को प्राथमिकता देने वाली कई औरतों को अपने कैरियर से ज़्यादा परिवार को ही चुनते देखा है. शिक्षा है जो मानसिक रूप से नारी में आत्मशक्ति पैदा करती है..जिसके कारण वह कभी भी अर्थोपार्जन के लिए घर के बाहर निकल सकती है. दुबई में आकर 18 महीने काम करने के बाद लगा कि परिवार को मेरी भावात्मक स्पोर्ट की ज़रूरत है सो नौकरी छोड़ने में एक पल भी नही लगाया हाँलाकि बढ़ती महँगाई में कम धन भी तिनके का सहारा जैसा ही लगता है. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि नारी को आर्थिक रूप से सशक्त होना चाहिए लेकिन घर परिवार की कीमत चुका कर तो कतई नहीं.....!
ReplyDeletehum bhi si baat se sehmat hai,nari shiksha bahut jaruri hai,taki waqt padne par wo apne pairon par khadi ho sake,magar pariwar hamari bhi pehli pasand hai,aur pariwar ko chalane,sukhi rakhne tak ka paisa dusri.
ReplyDeleteकल एक अखबार में पढ़ा कि दिल्ली में कामकाजी औरतों की संख्या 9 प्रतिशत से भी कम है। जब हमारे देश की राजधानी में यह हाल है, तो अन्य शहरों में बेहतर स्थिति की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
ReplyDeleteस्त्री की आत्मनिर्भरता ही उसे सार्थक जीवन प्रदान कर सकती है। मगर भारतीय समाज में स्त्रियों का आत्मनिर्भर होना आसान नहीं होता है। घर और बाहर की दुनिया में संतुलन स्थापित करने की जिम्मेदारी स्त्रियों को सौंप दी जाती है। पुरुष अपनी व्यस्तता का बहाना बनाकर घर की जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाते हैं।
अधिकतर विवाहित स्त्रियाँ कमाने के बावजूद अभावग्रस्त रहती हैं। उनकी कमाई पर उनका नहीं, बल्कि उनके पति या ससुराल के लोगों का हक होता है। ऐसी स्त्रियों की घुटन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।