नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

June 27, 2011

slut वाल्क एक मार्च हैं इस सोच के खिलाफ की स्त्री अगर सर से पाँव तक ढकी नहीं रहती तो वो slut हैं ।

slut walk एक समाचार या एक क्रांति
समाचार था की टोरंटो कनाडा में एक पुलिस अधिकारी ने कहा था महिला को अगर सुरक्षित रहना हैं तो slut की तरह कपडे ना पहना करे । इस पर वहां की महिला ने आपत्ति दर्ज कराने के लिये वाल्क यानी मार्च किया जिसमे उन्होने हर तरीका कपड़ा पहना और कुछ बहुत ही कम कपड़ो में भी रही ।
इस के बाद ये मार्च / वाल्क कई और देशो में भी हुई और अब शायद ये दिल्ली में भी होगी ।
मीडिया ने इस पर लिखना शुरू कर दिया हैं क्युकी इंडिया में ऐसी वाल्क की कल्पना मात्र ही क्रांति हैं ।
मुद्दा क्या हैं इस slut वाल्क का महज इतना की महिला कुछ पहने या ना पहने वो समाज में केवल इस लिये असुरक्षित हैं क्युकी वो महिला का शरीर ले कर पैदा हुई हैं
टोरंटो में या कहीं भी किसी भी देश में महिला कुछ भी पहने या न पहने , पुरुष की गन्दी दृष्टि और हरकतों ने उसका जीना मुश्किल कर दिया हैं । बड़े बड़े लोग !!!!! होटल के कमरे में नगन हो कर रहते हैं और रूम क्लीनर से बलात्कार की कोशिश करते । क्युकी बड़े हैं इस लिये उम्मीद करते हैं की रूम क्लीनर उनके इस कृत्य से गद गद हो जायेगी नहीं होती तो कहते हैं वो slut की तरह कपड़े पहन कर उनको लुभा रही थी ।
slut यानी एक ऐसी स्त्री जिसके अनेक पुरुषो से यौनिक सम्बन्ध हैं । एक तरफ आप के कानून कहते हैं की पत्नी से उसकी मर्जी के बिना स्थापित यौन सम्बन्ध भी बलात्कार हैं और वेश्या से भी सम्बन्ध उसकी मर्जी के बिना बनाना बलात्कार हैं, वही आप चाहते हैं की औरते सर से पाँव तक ढकी रहे ।
slut वाल्क एक मार्च हैं इस सोच के खिलाफ की स्त्री अगर सर से पाँव तक ढकी नहीं रहती तो वो slut हैं
अब इस मार्च / वाल्क को करने वाली लडकियां अपने मकसद को पाने के लिये किस तरह इस का आयोजन करती हैं ये देखना होगा ।

इस मार्च के विरोध में जितने हैं वो सब इस मार्च का मकसद समझे , लडकियां शरीर दिखाने या कम कपड़े पहने की मांग नहीं कर रही हैंलडकियां एक सुरक्षित समाज की मांग कर रही हैं जहां वो जैसे सही और उचित लगे रह सके

संविधान और कानून हर देश में हैं और स्त्री - पुरुष के अधिकार हर देश के संविधान और कानून में { कुछ इस्लामिक देश छोड़ दे } बराबर हैं फिर अपने अधिकारों की लड़ाई इस सदी में भी नारियों को लड़नी पड़ रही हैं कभी इस विषय पर बात क्यूँ नहीं होतीक्यूँ हमेशा लड़कियों के सामायिक विद्रोह को { इस से पहले पिंक चड्ढी कैम्पेन के समय} उनकी असभ्यता समझी जाती हैं

हमारे अधिकारों का हनन होता हैं , हमे दोयम का दर्जा दिया जाता हैं , हमे slut वेश्या , नारीवादी , फेमिनिस्ट , प्रगतिशील इत्यादि तन्चो से नवाजा जाता हैं और अगर हम उसके विरोध में कुछ करते हैं तो भी हमे ही ये समझया जाता हैं विरोध कैसे करो

समस्या हमारी हैं क्युकी समाज आज भी हमको दोयम मानता हैं , तो विरोध भी हम ही करेगे और जैसे मन होगा वैसे करेगे । जितना जितना समाज हमको दबायेगा उतना उतना विरोध का स्वर मुखर होगा और हर विद्रोह का स्वर अगर संविधान और न्याय प्रणाली के भीतर हैं तो फिर उस पर आपत्ति करना व्यर्थ हैं

इस से पहले की ब्लॉग जगत में पोस्ट आनी शुरू हो और लड़कियों को असंस्कारी की उपाधि दी जाए मै अपने कर्त्तव्य की इती करते हुए इस वाल्क का मकसद आप के सामने रख रही हूँ सोच कर आपत्ति करे इस वाल्क परविरोध में साथ नहीं देना चाहते ना दे पर विरोध का विरोध बिना मकसद जाने और समझे ना करे


चलते चलते

अगर ये सब लडकियां जो slut वाल्क में जा कर विरोध कर रही हैं किसी बड़े मैदान में इकट्ठी होकर योग कर करके लेकिन उसी तरह जैसे बाबा लोग करते हैं यानी केवल एक वस्त्र में जहां शरीर का हर अंग दिखता हैं अपना विरोध करे और साथ में अनशन भी तो क्या भारतीये संस्कृति बच सकती हैं ।


बताये ताकि slut वाल्क के आयोजक जो अभी निर्णय नहीं ले पाए हैं की भारत में इसको किस प्रकार से किया जा सकता हैं कुछ सोच सके

15 comments:

  1. ladkiyon ke khilaaf aisa soch rakhna ekdam galat hai..

    wo sahi kar rahi hai athva nahi ye tark vitark nahi hai
    parantu kanoon ko unhe jeene ka pura adhikaar dena chahiye ,unhe ye na lage ki ladki hona ek paap hai,balki unhe ye lage ki ladki hona badi baat hai......saina ,sunita wiliams,kiran bedi ,sarojini naidu ,sushmita sen ,mother terresaa...jis bhoomi par karm daan kar chuki hon ...wahan aisa soch ...rakhna bhaarat ke samaj ko nahi rakhna chahiye...aur iska purjor virodh karen....

    samaaj ek accha mahaul de,unhe bhi insaan samjha jaaye ..
    dohari maansikta nahi chalegi....
    jo log aawaaz uthathe hai we log fashion shows me videshiyon ko dekhte samay lazaate nahi hain kya...........aur fir updesh dene chale aate hain ...apne soch ko jhakne ke liye............

    ab bharatiyon se hi ummed hai ki sabhi ko jeene ka adhikaar sunischit ho

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  2. अलेख विचारोतेजक है। आपके विचारों से सहमति है।

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  3. कल तक सौ में से दो महिलाएँ ही किसी गलत बात का विरोध करती थी.उनकी सोच एक जैसी थी और विरोध के तरीके भी लगभग समान थे साथ ही विकल्प भी सीमित थे परंतु आज विरोध जताने वाली महिलाएँ सौ में से दस है,जाहिर सी बात है एक ही बात का विरोध करने के तरीकों में भी पहले की अपेक्षा ज्यादा विभिन्नता मिलेगी,अब इन्होने इसके लिये तकनीक का भी इस्तेमाल शुरू कर दिया है.महिलाएँ बाकी तरीकों से भी विरोध कर रही है लेकिन वो सभी पर असरकारी नहीं है.ये ब्रा बर्निंग या गॉ टॉपलेस जैसे मूवमेंट्स की तरह नहीं है बल्कि ये मुद्दा उससे कहीं आगे का है और लगभग हर समाज में हर एक वर्ग की महिला से जुडा हुआ है. इसे गंभीरता से लेना चाहिये.आपने बहुत अच्छा लिखा है.

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  4. एक बात यहाँ जरूर कहना चाहूँगा.यहाँ आपत्ति स्लट शब्द से हो रही है.कई बार सार्वजनिक जगहों पर ठहाके लगाने,माँ बहन की गालियाँ बकने वाले,या सीटी बजाने वाले पुरुष इन सब बातों को अपने लिए सामान्य मानते है लेकिन जब कोई महिला इनके सामने यही सब करने लगती है तब इन्हें अहसास होने लगता है कि ये सब कितना गलत है.तो जो लोग कपडों की नाप देखकर किसी महिला को स्लट या बेशर्म कह देते है या ऐसा सोचते है उन्हे अब इन शब्दों के गूढार्थ समझ आ जाएँगे इसके लिए कभी कभी ऐसे कदम उठाने पडते है. और जो ऐसा नहीं सोचते है उन्हें इससे आपत्ति नहीं होनी चाहिये.

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  5. aapsab kuchh sahi kah rahi hain kintu dusre hame kya soch rahe hain iske liye ham apne ko gira nahi sakte aur main is kadam ke virodh me hoon.

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  6. शालिनी जी
    यहाँ कोई भी अपने को गिरा नहीं रहा है . उसके विपरीत यहाँ आवाज उठा कर विरोध दर्ज करवा रही हैं महिला .
    आप को अधिकार हैं असहमत होने का लेकिन आप को किसी को महज इसलिये क्युकी वो विरोध कर रही हैं "गिरा हुआ : नहीं कहना चाहिये क्युकी आप खुद एक महिला हैं फिर आप में और किसी और में क्या अंतर रहेगा ?? एक बार फिर सोचियेगा जरुर

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  7. रचना जी अंग्रेजी भाषा में "slut" शब्द का प्रयोग "कामुकता प्रदर्शित करती महिला या फिर वैश्या के लिए किया जाता है. जब टोरंटो के एक पुलिस अधिकारी ने कहा की यदि महिलाएं यौन शोषण का निशाना बनाने से बचना चाहती हैं तो उन्हें "slut" की तरह से कपडे नहीं पहनने चाहिए तो कुछ महिलाओं ने उनके इस विचार का विरोध करने के लिए "slut walk" आयोजित की जिसमे उन्होंने वहा की वेश्याओं जैसे वस्त्र धारण कर मार्च किया. मुझे उन लोगों के विरोध का तरीका समझ नहीं आया या यूँ कहें की उन लोगों की इस तरह के विरोध की मानसिकता ही समझ नहीं आई .


    जरा विचार करें. हमें बचपन से सिखाया जाता है की जब हम सड़क पार करते हैं तो हमें दायें और बाएं देख लेना चाहिए और जब सब कुछ सुरक्षित हो तभी सड़क पार करनी चाहिए. इसी तरह से वाहन चालकों को भी समझाया जाता है की सड़क पर सुरक्षित तरीके से वाहन चलायें. पर क्या होता है ? रोजाना कोई न कोई पैदल यात्री सड़क पर घायल हो ही जाता है. इस पर अगर कोई अधिकारी इस बात को दोहरा दे की सड़क पर देख भाल कर ही चलाना चाहिए तो क्या इस बात का विरोध करने के लिए पैदल यात्री आंख पर पट्टी बांध कर सड़क पर चलना शुरू कर देंगे.

    मुझे इन महिलाओं का ये आन्दोलन वैसा ही लगता है जैसे की पैदल यात्री सड़क पर वाहन चालकों को ढंग से वाहन चलने की सीख देने के लिए आँखों में पट्टी बांध कर बीच सड़क पर चलना शुरू कर दें.

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  8. रचना,
    इस पोस्ट के लिये शुक्रिया।
    "बोल के लब आजाद हैं तेरे" की जगह

    "देंगे हर बार तुम्हे आजादी की तकरीरें,
    शर्त ये है कि लफ़्ज हमसे जुदा न हों" ज्यादा सुनाई देता है। क्या खूब मापदण्ड हैं समाज के कि विरोध हो तो वो भी हमारी अपेक्षा के अनुरूप। दुहाई है इलाही...

    शायद लोग इस प्रकार के किसी भी प्रयास की आत्मा को समझ नहीं पाते। चाहे वो "गे प्राईड परेड" हो या फ़िर "पिंक चड्ढी अभियान" या कि "स्लट वाल्क मार्च" । यकीनन ऐसे अभियानों में आपने अपने जो मन मंदिर में खुद को खुश और अपने prejudices को justify करने के लिये जो मूरत बना रखी है उस पर ठेंस लगती है। तो, वैसी ही ठेंस हर उस शख्स को हर उस वक्त लगती है जब आपके समाज का विकृत चेहरा अपना सर उठाता है। आप इस प्रकार के अभियानों की शाक वैल्यू के बारे में बात करते हैं। आप कहते हैं कि इससे कुछ नहीं होने वाला, फ़िर क्यों आपको इसकी चिन्ता सताती है? आप क्यूं भूल जाते हैं कि कभी कभी बहरे कानो को जगाने अथवा अपने मन की भडास निकालने के लिये चिल्लाना भी जायज है।

    हाँ, सब एक से नहीं होते । संभव है कि हर अभियान में कुछ ऐसे तत्व हों जो आपको मुंह फ़ेरने पर बाध्य कर दें अथवा जिनका नजरिया संयत न हो। लेकिन कानून के दायरे में अपनी बात किसी भी प्रकार से कहने का उनको पूरा हक है।

    बाकी फ़िर कभी.

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  9. मुझे इन महिलाओं का ये आन्दोलन वैसा ही लगता है जैसे की पैदल यात्री सड़क पर वाहन चालकों को ढंग से वाहन चलने की सीख देने के लिए आँखों में पट्टी बांध कर बीच सड़क पर चलना शुरू कर दें.



    विचार शून्य जी
    ऐसा केवल इंडिया में हैं . विदेशो में पैदल चलने वाले और सड़क पार करने वालो के लिये बड़े से बड़ा वाहन रुक जाता हैं . उनका इंतज़ार करता हैं और उनके सड़क पार करने के बाद आगे बढ़ता हैं . अपनी माता जी को इटली , फ्रांस ले गयी थी अपने साथ वो सड़क पर एक साइड में खड़ी हो गयी की कब सड़क खाली हो और वो पार करे . मैने कहा आप पार कर ले वहां ड्राइवर खुद रोकेगे . पर वो मेरा हाथ पकड़े खड़ी रही और हमारे samnae वहाँ वाहन की लाइन लग गयी और सब उनको हाथ से इशारा कर रहे थे की पार कीजिये .
    मैने जापान , सिंगापूर मलेशिया इत्यादि में भी यही देखा हैं बस थाईलैंड में नहीं देखा .

    ये इस लिये बता रही हूँ की उस समय मेरी माँ की आयु ६२ साल की थी और वो भी बचपन की सुनी बातो से वही सड़क पर रुक गयी थी और दाये बाये देख रही थी पर सड़क पार नहीं कर रही थी और उनकी वजह से वाहन चालक परेशान हो रहे थे क्युकी वो कानून तोड़ कर अपना वाहन किसी पैदल सड़क पार करने वाले को खडा देख कर नहीं ले जा सकते थे

    अगर आप इसको ज़रा दूसरी नज़र से देखे तो पैदल सड़क पार करने वाला दोयम दर्जे पर होता हैं और वाहन चलाने वाला उसको कभी भी मार कर आगे बढ़ सकता हैं . इस लिये जो मार कर आगे बढ़ सकता हैं कानून बना कर उसको रोकना चाहिये या जो मर सकता हैं उसको मार ही देना चाहिये .

    जेब्रा कोस्सिंग वहाँ भी हैं लेकिन इतनी लाल बत्ती सडको पर आप को नहीं दिखेगी वाहन चालक के लिये कानून सख्त हैं


    उसी तरह पुरुषो की गन्दी हरकतों के लिये महिला को दोष देना गलत हैं . महिला को ये कहना तुम slut की तरह कपडे पहनती हो तो तुम्हारा यौन शोषण निश्चित हैं नितान्त गलत हैं क्युकी यौन शोषण कहा नहीं होता हैं घरो से लेकर दफ्तर तक में जहां महिला सिर से पाँव तक ढकी रहती वहाँ भी .

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  10. neelansh
    rajan
    neeraj

    mudaae ko samjhanae kae liyae shukriyaa

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  11. .
    .
    .
    रचना जी,

    आपका आभार इस पोस्ट के लिये, मैं भी इस पर लिखना चाहता था पर आपने लगभग सभी कुछ कह दिया है...

    अपनी ओर से एक एक सवाल जरूर उछाल दिया है...



    ...

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  12. इस तरह का मोर्चा दुनिया के लिए पहली बार होगा किन्तु भारत के लिए ये नया नहीं है | आज से सालो पहले देश के पूर्वोत्तर भाग में सेना के जवानो द्वारा वहा की लडियो के बलात्कार और हत्या की घटना के विरोध में ४५ से ६० साल की २० -२५ महिलाओ ने बिलकुल निर्वस्त्र हो कर प्रदर्शन किया था सेना के खिलाफ और नारे लगाये थे की आओ और हम से बलात्कार करो और ये सब मिडिया के सामने ( मिडिया को वहा तो जाने की भी इजाजत नहीं थी) या उसे दिखाने के लिए नहीं हुआ था उसके बाद भी घरो से छतो से छुप कर उसे सुट किया गया और लगभग हर चैनल पर उसे दिखाया भी गया था पर लोगो की यादास्त बड़ी कमजोर है |

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  13. विचारशून्य, आपकी पुरुष की तुलना वाहन या वाहन चालक से व स्त्री की तुलना पैदल यात्री से बहुत रोचक व सत्य के करीब लगी। मीठी मीठी बातें करने से क्या होता है, सच तो सच है और वह यह है कि वाहन चालक को चुपके से पैदल यात्री को कुचलकर भाग जाने की अलिखित अनुमति समाज ने दे रखी है। बस पकड़े नहीं जाना चाहिए। पैदल की कुचले जाने पर मरहम पट्टी करने से पहले हम उससे यह भी पूछ सकते हैं कि 'देखकर नहीं चल सकते क्या? या बिना आवश्यक काम के सड़क पर थे ही क्यों?' सड़क तो वाहनों व वाहन चालकों के तेज दौड़ाने का मजा लेने के लिए होती हैं।
    यह स्लट वॉक का तरीका क्रूड व भौंडा भी लग सकता है किन्तु शायद अब ये तरीके ही हमारी झोली में बचे हैं। प्रेम से, क्रोध से, खुशामद से हर तरह से स्त्री ने अपनी तरह से जीने का अधिकार पाने की कोशिश की है और असफल रही है। वह तुम्हारे अनुसार जीते जीते थक गई है। अब उसे अपने लिए अपने अनुसार जीने दो, अपने अनुसार विरोध करने दो। सच तो यह है कि ऐसे ही तरीके सफल भी होंगे। जरा कल्पना कीजिए। एक गाँव में एक स्त्री का अपमान कर उसे मारपीटकर नग्न घुमाया जाता है। गाँव की सन्नारियाँ ये सब करती हैं....
    १.चुप रहती हैं।
    २.अनुनय विनय करती हैं कि ऐसा न करें।
    ३.अपने घर के पुरुषों से कहतीं हैं कि यदि ऐसा हमारे साथ होता तो? यही सोचकर आप अन्य के साथ ऐसा न करें।
    ४.स्त्रियों की बैठक बुलाकर इस कृत्य की भर्त्सना करती हैं।
    ५. जुलूस निकालती हैं। नारे लगाती हैं। स्त्रियों का सम्मान करो के प्लेकार्ड लेकर घूमती हैं।
    ६. अपराधियों को पकड़कर पीटती हैं।
    ७. सारे गाँव की स्त्रियाँ सन्नारियाँ नहीं केवल स्त्रियाँ, अपराधियों के परिवार की भी, इकट्ठे हो नग्न हो जुलूस निकालती हैं।( बोलो अब क्या कर लोगे? और किस किसको घूरोगे? तुम्हारी अपनी बहना, मैय्या बिटिया व पत्नी भी इन्हीं में है। )
    ८. हाँ सबसे महत्वपूर्ण तो मैं भूल ही गई थी। पुलिस में रपट लिखवा आती हैं.
    घुघूती बासूती

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  14. एक वक्त के बाद ऐसे मोर्चे ज़रूरी हो जाते हैं...बिल्कुल कान के पास आकर चीख़ने जैसा..यूक्रेन का एक 'फीमेन'(femen) नाम का संगठन जिसमें औरतें टॉपलेस मोर्चा निकाल कर प्रदर्शन करती हैं...अपने लिए ही नहीं दुनिया भर की औरतों के लिए उनके मोर्चे होते रहते हैं और उसका असर भी होता देखा गया है......

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  15. अपने हक के लिए लड़ना प्राकृतिक नियम है,पर लड़ाई का उद्देश्य और तरीका ज़रूर ठीक होना चाहिए.आपकी सारी बातों से सहमति है पर क्या आप लड़कियों को बाबाओं की तरह योगासन में रहना उनकी आज़ादी की अभिव्यक्ति कहना चाहती हैं? वैसे हर मामले में स्त्री की पुरुष से तुलना करना ही स्त्री को कमतर बनाना है !आधुनिकता की दौड़ में बने रहने के लिए खुले अंग रहना,भड़काऊ कपडे पहनना जितनी अपनी आज़ादी या निजता है उतनी ही उससे प्रभावित होने वाले की भी.
    'बेशर्मी-मोर्चा' वालों का तर्क है कि 'शर्म' तो देखने वाले की आँख में होनी चाहिए,भाई कितना अव्यावहारिक है कि जो प्रकृति का नियम है उसके अनुसार क्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रिया भी होनी है और यह क्रिया करने वाला भी जनता है !
    तो भाई,अभी हमारी आँखें इतनी बंद नहीं हुई हैं कि हम सामने अंगार देखकर भी बरफ की सी ठंडक महसूस करें.ऐसे शिक्षित होने में बहुत समय है !

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