नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

April 18, 2011

क्या वाकई भारत बदल रहा है?


लोग कह सकते हैं कि मैं उस माहौल में निराशा भरी बातें कर रही हूँ, जबकि भारत को क्रिकेट विश्व कप जीते पन्द्रह दिन ही हुए हैं, जबकि हर ओर अन्ना हजारे के समर्थन में भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का जोश लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है, जबकि सभी लोग ये आशा लगाए हुए हैं कि क्रान्ति होने की उम्मीद अभी बाकी है और उसके बाद सब बदल जाएगा. बच्चों से लेकर बूढ़े तक जोश और आशा से भरपूर है और मैं निराश हूँ.
जी हाँ, मैं निराश हूँ उस जड़ता से जो औरतों को आगे बढ़ने से रोके हुए है, उन अतार्किक परम्पराओं से जो उसे सुखी नहीं होने देतीं, बस सुखी होने का नाटक करने को बाध्य करती हैं, उस झूठी प्रतिष्ठा के दिखावे से, जिसके लिए उसे बार-बार त्याग करना पड़ता है और घुट-घुटकर जीने को विवश होना पड़ता है. मैं ये बातें भावावेश में आकर नहीं कह रही हूँ, बल्कि, खुद से जुड़ी कुछ लड़कियों के जीवन में पिछले दिनों घटी घटनाओं पर गहन विचार-विमर्श के बाद कह रही हूँ. मैं उन लड़कियों के बारे में ज्यादा नहीं बता सकती, पर इतना ज़रूर है कि वो हिन्दुस्तान की उन कुछ भाग्यशाली लड़कियों में से एक हैं, जिन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलता है.
जिस समस्या की बात मैं कर रही हूँ, वो कुछ लोगों को समस्या लग ही नहीं सकती क्योंकि उनके अनुसार यदि माता-पिता ने लड़कियों को बाहर पढ़ने का मौका दिया, तो लड़कियों का भी ये कर्त्तव्य बनता है कि वे उनकी आज्ञा का पालन करें और उनकी इच्छा से विवाह कर लें. लेकिन क्या यह एक विडम्बना नहीं कि लड़कियों को बाहर पढ़ने दिया जाय, उन्हें हर तरह की छूट दी जाए, लेकिन उनकी जो सबसे ज़रूरी और प्राकृतिक सी बात है विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण, उस पर पूरा नियंत्रण बनाए रखा जाए. ये सोच लिया जाय कि पढ़ने वाले बच्चों को अगरचे तो किसी से प्यार करना ही नहीं चाहिए और अगर भूले से हो भी गया तो शादी की बात तो बिल्कुल नहीं सोचनी चाहिए, यदि यह अंतरजातीय विवाह है तब तो इससे बड़ा पाप और कोई है ही नहीं.
मैं जिन दो लड़कियों की बात कर रही हूँ, उनके साथ ऐसा ही हुआ. अपनी पढ़ाई के दौरान उन्हें प्रेम हो गया. उनमें से एक लड़की ने तो अपने घर में कुछ भी ना बताते हुए सिर्फ़ इस डर से माता-पिता की इच्छा से विवाह कर लिया कि अगर घर-खानदान में उसके प्यार की बात मालूम हो गयी तो उसकी छोटी बहनों की शादी में अडचनें आ सकती हैं. दूसरे मामले में लड़की ने अपने प्रेमी के बारे में घर में बताया और उससे विवाह की इच्छा जताई. बस, फिर क्या था. घर में बवाल हो गया. लड़की को तरह-तरह से इमोशनली ब्लैकमेल किया जाने लगा. उसे अपराध बोध करवाया जाने लगा, 'हमने तुम्हारे ऊपर इतना विश्वास किया, तुम्हें इतना पढ़ाया-लिखाया और तुमने इतना बड़ा धोखा दिया' 'तुम्हें अपने प्रेम के आगे माँ-बाप की इज्जत की परवाह नहीं है. लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे?' 'लड़का अपनी जाति का होता तो कह देते कि हमने खुद ही ढूँढा है. दूसरी जाति वाले से ब्याह करवायेंगे तो सबको पता चल जाएगा कि लड़की ने अपने मन से पसंद किया है' 'सबलोग यही कहेंगे कि और भेजो लड़की को बाहर पढ़ने' वगैरह-वगैरह. मुझे मालूम है कि वो लड़की अपने माँ-बाप का कहना मानकर उनकी पसंद के लड़के से शादी कर लेगी क्योंकि जिस लड़के से वो शादी करना चाहती है, उसके घरवाले तो तैयार हैं, पर लड़का चाहता है कि बिना किसी विरोध के शादी हो. लड़की भी माँ-बाप की प्रतिष्ठा के लिए बड़े से बड़ा त्याग करने को तैयार है.
यहाँ सवाल यह उठता है कि माता-पिता की प्रतिष्ठा अधिक बड़ी है या बच्चों की खुशी. आखिर समाज और उसके नियमों को हमने अपनी सुविधाओं के लिए बनाया है, तो ये नियम बदल क्यों नहीं सकते. लड़का-लड़की दोनों एक-दूसरे से प्यार करते हैं, दोनों अपने पैरों पर खड़े हैं, फिर सिर्फ़ इसलिए उनकी शादी का विरोध कि अपनी जाति वाले क्या कहेंगे ? और बाकी समाज प्रेम-विवाह करने के कारण लड़की पर लांछन लगायेगा- ये सब कहाँ तक सही है? माँ-बाप क्यों बच्चों के प्रेम को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लेते हैं? ये माता-पिता क्यों इस बात को स्वीकार नहीं करते कि उनकी बेटी भी एक इंसान है, उसे भी प्यार हो सकता है. अगर वो अपनी बेटी को वास्तव में प्यार करते हैं तो उसके प्यार को स्वीकार करने में क्या समस्या है? आखिर कब तक हम समाज के इन सड़े-गले नियमों के अनुसार चलते रहेंगे? जब लड़कियाँ अपने जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण निर्णय नहीं ले सकतीं, तो उनके लिए क्या बदला है? आखिर लड़कियों के लिए भारत कब बदलेगा? उनके लिए क्रान्ति कब आयेगी?

21 comments:

  1. in our society we follow a custom of protecting our children to the extent that we dont treat them as adults even when they are one . our society believes that when a parent gives birth to a child they automatically own the child .
    if you look at the parents most of them earn and work to keep the family going on . find out how many parents live their lives . they believe in sacrificing their lives and they want their children to do the same

    the end result is that we have a society with principles that are ages old and are being carried forward

    most children want to be independent and want to do things on their own but they dont want to be economically independent this includes girls

    first thing is to be economically independent and then be a decision maker . when a girl or boy is dependent on their parent how can they even think of taking an independent decision of getting married to a person of their choice ???

    many questions are there

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  2. एक बात समझ में नहीं आती कि क्या समाज में लड़के-लड़कियों के प्रेम-विवाह को स्वीकारना ही विकास की निशानी है? अन्ना हजारे के अनशन का चर्चा हुआ और हर पोस्ट की तरह यहाँ भी महिलाओं का रोना भी. क्या अन्ना के अनशन में शामिल किरण बेदी नहीं दिखी? क्या क्रिकेट में नाचतीं हुईं लड़कियों के रूप में विकास सही है? पूनम पाण्डेय की तरह नंगे होने का खुला एलान ही महिलाओं का विकास है?
    हर बात में महिलाओं का रोना कई रार सार्थकता को समाप्त करता है, अपने आसपास देखिये और देख कर विचार करिए....नॉएडा की दो बहनें तो विकास की स्थिति में थीं फिर वे अवसाद में क्यों चलीं गईं? इस सवाल का जवाब किसी भी महिल मोर्चा के पास नहीं है. सफ़र में अभी भी महिलायें सुरक्षित नहीं हैं और महिलाए अपने बदन के दिखाने ना दिखाने के मुद्दे पर संघर्ष को वास्तविक संघर्ष मानतीं हैं.
    अभी भी हम सारे मुद्दे को प्यार, विवाह, बच्चे, सेक्स से जोड़ कर उन्हें बेमौत मार देते हैं. मुद्दे से भटकने से रास्ता नहीं मिलता.
    जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड

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  3. @ डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर, मुद्दे को भटकाते आप जैसे लोग हैं. यहाँ तो पूनम पाण्डेय या चीयर लीडर की बात ही नहीं हुयी. रही नोएडा की दो बहनों की बात तो उनकी इस हालत के पीछे का सच क्या है, ये यहाँ से बैठे-बैठे नहीं समझा जा सकता. और एक किरण बेदी के हो जाने से सारी महिलाओं की स्थिति नहीं सुधर जाती. बात इतनी सी है कि हम सामान्य लड़कियों के मुद्दों की बात करते हैं और आपलोग उसे अपवादों में घसीट ले जाते हैं. यहाँ अधिकांश माध्यमवर्गीय लड़कियों को अपने जीवन के विषय में निर्णय लेने का अधिकार नहीं है और आपलोग माडलों और मिस इण्डिया की बात करने लगते हैं, तो मुद्दे को भटका कौन रहा है? आप या हम?
    अपनी आख़िरी लाइन में आपने लिखा है कि हम सारे मुद्दे को प्यार, विवाह,बच्चे,सेक्स से जोड़ देते है, तो क्या जीवन में इन मुद्दों की कोई अहमियत नहीं है? अगर उपर्युक्त चीज़ें निकाल दी जाएँ तो बचा क्या? गरीबी, बेरोजगारी, भूख, भ्रष्टाचार ये सब तो स्त्री-पुरुष दोनों के मुद्दे हैं.यदि हम बलात्कार या छेडछाड की बात करते हैं तो उसे आप अपवाद कह देते हैं कि ये कुछ कुत्सित मानसिकता के लोगों का काम है. फिर तो जो दो मुद्दे बचे 'भ्रूण हत्या' और 'दहेज' हम केवल इन्हीं पर बात करें. तब तो औरतों के आगे इन दो समस्याओं के अलावा कोई समस्या नहीं है. है ना ?

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  4. जीवन में बड़े निर्णय लेने का अधिकार तो दूर छोटे छोटे फैंसले लेने का अधिकार भी माता पिता अपने पास रखते हैं...तभी तो उम्र के किसी भी पड़ाव पर आकर औरत की ज़िन्दगी के लिए फैंसले कोई और लेता है...यही कारण है कि आए दिन ज़िन्दगी की मुश्किलों से जूझने की हज़ारों कहानियाँ सुनने को मिलती हैं...

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  5. अभी कुछ रुढ़िवादी सोच को आश्रय देने वाले लड़कियों को मनुष्य मानने में भी हिचकते हैं. वे माता पिता , भाई और पति की सम्प्पति हैं. उनके लिए जैसा वे निर्ह्दारित करें वैसे ही होना चाहिए. वे अगर हैं तो उनकी इच्छानुसार चलने के लिए. ऐसा नहीं है ये सब सदियों से चलता चला आ रहा था. मगर अब तो खत्म होने की पहल होनी चाहिए. जब बच्चे अपने कैरियर के लिए बाहर रहकर पढ़ सकते हैं अपनी इच्छानुसार कंपनी या फार्म चुन सकते हैं तो फिर जीवनसाथी क्यों नहीं? आज की पीढ़ी अधिक दृढ नजर आती है. वे नहीं चाहते हैं की घर वाले आहट हों और फिर अपनी मर्जी जाहिर कर देते हैं ये बात और है की हम उसको स्वीकार करें या न करे . जीवन उनको गुजरना है और भविष्य भी उनका ही है. अगर हमने उनकी मर्जी के खिलाफ कहीं और विवाह कर दिया और वह सुखी न रही तो फिर हम कितने दिन उनका साथ निभा सकते हैं. उनके दुखी जीवन के जिम्मेदार हम ही हुए न. इस लिए बच्चों की खुशियों को देखना भी हमारी जिम्मेदारी है. सिर्फ जन्म और उनका कैरियर बनाना ही नहीं.

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  6. mujhe lagta hai hamare mata pita ya samaj ko dikkat is baat se jyada hai ki ek larki khud se faisla kaise le sakti hai?? aur ye mai kuchch analyse karke nahi kah rahi hu... mai khud inki bhukt bhogi rahi hu. maitreyi pushpa ji ne ek jagah likha hai- "aurat ko sabse pahle apne faisle ki raksha karni hogi"
    aur jaha tak nirbhar ya atmnirbhar hone ki baat hai to mera manna hai ki manushya ki svatantrata hum uske arthik stithi dekh kar tay nahi kar sakte. vo nirbhar hai ya atmnirbhar usne apne nirnay lene ka pura adhikar hai... aur ghar valo ka ye kehna ki unhone hamare liye bahut kuchch kiya isliye unki baat manni chahiye, to mera unse bas itna hi kehana hai- pash ke shabdo me- pyaar karna use na aya, jise zindagi ne hisabi bana diya!!

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  7. आज भी...लड़कियों पर माता-पिता अपना पूरा वर्चस्व चाहते हैं...कि वो एक कदम भी आगे बढे तो उनकी इच्छा से...कितने भी आधुनिक हो जाएँ पर इस विषय पर उनकी सोच एकदम दकियानूसी हो जाती है...पता नहीं कब बदलेगा सबकुछ ...

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  8. changes comes slowly.

    मेरे ब्लॉग पर आयें, आपका स्वागत है
    मीडिया की दशा और दिशा पर आंसू बहाएं

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  9. एक लंबे अंतराल के बाद आपकी पोस्ट पढना अच्छा लग रहा हैं.आपका कहना बिल्कुल सही हैं.लडकियों के लिए आज भी भारतीय समाज की मानसिकता नही बदली है.कई बार तो प्रेम जैसा कोई मामला होता ही नहीँ लोग बेवजह ही बात बना लेते है फिर भी सुनी सुनाई बातों के आधार पर ही लडकियो की पढाई छुडा दी जाती है.साथ ही एक चीज और देखने को मिलती है माँ बाप कई बार उतनी पाबंदियाँ नहीं लगाते जितनी कि भाई लगाते है.मैने कई परिवार ऐसे देखे हैं जिनमें उम्र में छोटे भाई भी अपनी बहनों के लिये 'भाई' बने रहते हैं.

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  10. मुक्ति जी,
    आपका लेख पढने को मिला , सौभाग्य हम जैसे पाठकों का


    "स्वयं" अपना "वर" चुनने की "प्राचीन भारतीय परम्परा" फिर से शुरू होनी चाहिए

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  11. मैने आज तक किसी ऐसी प्राचीन भारतीये परम्परा के विषय मे नहीं सुना हैं जिसे "स्वयं " अपना "वर " चुनना कहते हो .

    हाँ एक परम्परा तो नहीं एक विवाह पद्धती जरुर थी जो "स्वयंबर "के नाम से प्रचलित थी . इस मे कोई भी देव , दैत्य , दानव आकर भरी सभा मे बैठ जाते थे और राजा की पुत्री उनमे से अपने लिये उपयुक्त वर के गले मे जय माला डाल देती थी . पुत्री को ये हक़ तो तब भी नहीं था की वो अपने लिये "वर " चुन सके . हाँ एक लगी हुई लाइन मे बैठे देव दानव दैत्य मे से किसी को चुन कर विवाह बंधन मे बंधना होता था .

    लगता हैं "गौरव जी" इस पद्धती को ही स्वयं अपना वर चुनना कहते हैं .

    अब गौरव जी राज पाट तो रहे नहीं , राजा महराजा भी नहीं दिखते हाँ देव दैत्य या दानव की जगह किसी मानव का चुनाव अगर किसी की बहिन बेटी कर ले तो आप से आग्रह हैं उसको मान्यता दे ही दे
    सादर रचना

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  12. आराधना, पुरानी पीढी में बदलाव होगा, इसकी गुंजाइश कम ही है, इसलिये ज़रूरी है कि नयी पीढी बदलाव लाये. यदि उसे लगता है कि उसका फ़ैसला सही है तो उस फ़ैसले को अमली जामा पहनाने की न केवल कोशिश करे, बल्कि ग़लत बातों और मान्यताओं का विरोध भी करे. मध्यम वर्गीय मानसिकता में लड़की का विवाह तयशुदा तरीके से हो, इस सोच की जड़ें गहरी हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि अन्तर्जातीय या प्रेमविवाह नहीं हो रहे. हो रहे हैं, लेकिन वहां लड़की द्वारा विरोध किया गया उन मान्यताओं का, जिन्हं उस पर थोपा जा रहा था.

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  13. शब्दों को तराजू में बहुत ज्यादा तोल कर वो लिखा करते हैं जिन्हें ये डर होता है की उनकी छिपी मानसिकता खुल के सामने आ सकती है , वैसे अब आपकी टिप्पणियों के उत्तर देना बंद सा कर दिया है , मैं ये बात जाहिर नहीं करना चाहता था लेकिन आपकी इस गैर जरूरी टिप्पणी को देख कर बोलना पड़ रहा है | वैसे आपने सही कहा राज पाट नहीं रहे लेकिन एक बात है ........ तानाशाह आज भी हैं | यही लोग समस्याएं खड़ी करने में माहिर होते हैं :)

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  14. अलंकारं नाददीत पित्र्यं कन्या स्वयंवरा।
    मातृकभ्रातृदतं वा स्तेना स्वाद्यदि तं हरेत्।।

    मनु स्मृति

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  15. रचना जी,
    एक सन्दर्भ दे दिया है, आपकी बात का सम्मान रखते हुए, मेरी और से चर्चा यहीं समाप्त होती है , बाकी आपकी मर्जी

    [ये टिप्पणी हटा दीजियेगा]

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  16. मनु स्मृति ही वह पहली पुस्तक मानी जाती हैं जिसने नारी को दोयम दर्जा दिये जाने की शुरुवात की । आज भी नारी को उसकी "सही जगह" बताने का लिये मनु स्मृति का ही प्रयोग होता हैं मुक्ति आप की पोस्ट बहुत अच्छी लगी । आप नारीवाद पर काम कर रही हैं आप के ब्लॉग को पढ़ कर ये समझी हूँ । कभी मनु स्मृति और स्त्री के दोयम दर्जा इस विषय पर अपने विचार इस ब्लॉग पर रखे । आप से काफी कुछ सीखने को मिलता हैं ।
    ग्लोबल जी मानसिकता की बात ही होती इस ब्लॉग पर वो मानसिकता जो सदियों से चली आ रही हैं , बहुत भ्रम यहाँ टूटे हैं और बहुत टूटेगे । प्राचीन भारत के बारे मे , अपनी परम्पराओं के बारे मे काफी पढ़ा हैं पर हर जगह नारी को दोयम का दर्जा मिला हैं । टिपण्णी की जरुरत और गैर जरुरी टिपण्णी इस का फैसला भी अब आप करेगे ये जान कर आश्चर्य हुआ ।

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  17. सुमन जी,

    स्वयंवर वाली बात को लेकर केवल एक सन्दर्भ दिया तो उस पर भी आलोचनात्मक पोस्ट बनवानी है :)) हर वाद / विषय के दो पक्ष होते हैं कुछ फायदे और कुछ नुकसान होते हैं , आलोचनात्मक पोस्ट तो हर विषय पर बनायी जा सकती है , बात मानसिकता की ही है और इस बात की भी की हमने किन अति-प्रचारित पंक्तियों को रट लिया है

    जहां तक भ्रम टूटने की बात है इस ब्लॉग पर मेरे और मेरे जैसे लोगों के भ्रम तो कुछ ज्यादा ही मात्रा में तोड़े गए हैं ,


    @टिपण्णी की जरुरत और गैर जरुरी टिपण्णी इस का फैसला भी अब आप करेगे ये जान कर आश्चर्य हुआ ।

    मुझे आपकी इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ , मैंने बताया ना ....... भ्रम टूट गए हैं


    मैंने इस लेख पर टिपण्णी करने की मूर्खता सिर्फ इसलिए कर दी क्योंकि इस लेख की लेखिका "मुक्ति जी" हैं जिनके कुछ लेख मेरे आज तक के सबसे पसंदीदा ब्लॉग लेखों में से हैं , अब ऐसी महान भूल दोहराने का कोई इरादा नहीं है , इस ब्लॉग पर तो बिलकुल नहीं

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  18. अनुरोध कर रहा हूँ , मेरी टिप्पणी पर प्रति टिप्पणियाँ करके अपना और मेरा समय खराब ना करें

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  19. समस्यायें हैं। बनी भी रहेंगी कम या ज्यादा लेकिन बदलाव भी हो रहा है।

    अभी हाल ही में मेरे यहां सिविल सर्विसेज से चुनकर आई लड़की ने अपनी मर्जी से दूसरे धर्म के लड़के से शादी की। लड़की के घर वाले भयंकर नाराज लेकिन शादी घरवालों की मौजूदगी में हुई। सबसे ज्यादा गुस्सा लड़की का मम्मी का रहा। अब कम हो रहा है।

    दो माह पहले मैंने अपनी चचेरी बहन की शादी करवाई। लड़की जिस लड़के से शादी करना चाहती घरवाले उसके लिये तैयार नहीं थे। लेकिन लड़की उसी से करना चाहती थी। लड़की की जिद और चाहत देखकर घरवालों की मर्जी के खिलाफ़ हम लोगों ने शादी करवाई! लड़की के पिता( चाचा) बड़े भाई शादी में शामिल नहीं हुये। लड़का सामन्ती मिजाज का है, हमें पसंद नहीं है लेकिन हमने लड़की की मर्जी के अनुसार उसकी शादी करवा दी यह सोचकर कि कम से कम उसको अफ़सोस तो न होगा।

    समय बदल रहा है। आगे और बदलेगा। लड़कियों को हौसला और हिम्मत रखने की आवश्यकता है।

    आराधना के लेख और भाषा बहुत संतुलित होती है। जय हो टाइप। लेकिन खराब बात यह है कि उन्होंने अब लिखना कम कर दिया है। ये अच्छी बात नहीं है।

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  20. क्या नारी सशक्तिकरण सच में हो रहा है???

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