दहेज़ हत्याओं पर अभी अंकुश नहीं लगा है और न ही लगेगा जब तक कि दहेज़ देने और लेने वाले इस समाज का हिस्सा बने रहेंगे. फिर जब देने वाले को अपनी बेटी से अधिक घर और प्रतिष्ठा अधिक प्यारी होती है और समाज में अपनी वाहवाही से उनका सीना चौड़ा हो जाता है तो फिर क्यों आंसूं बहायें? उसके ससुराल वाले बारात लाये थे उसमें बढ़िया बैंड और आतिशबाजी भी थी. साड़ी और जेवर भी ढेर सा लेकर आये थे कि लोग देख कर वाह वाह करने लगे.
आज उसको शादी के सात साल बाद बिल्कुल ही ख़त्म कर दिया गया.फिर मैके वालों को खबर दी कि आपकी बेटी ने फाँसी लगा ली. माँ बाप जब पहुंचे तो उसका शव जमीन पर पड़ा था. गले में रस्सी के निशान थे और उसका सारा शरीर नीला पड़ा हुआ था. उसके पिता ने रोते हुए बताया कि हमने अपनी सामर्थ्य के अनुसार शादी में खूब दहेज़ दिया था और तब ये लोग संतुष्ट भी थे लेकिन उसके बाद फिर उनकी मांगें बढ़ने लगी, जब तक रहा तो पूरा किया उसके बाद दो साल पहले बेटी माँ के घर पहुँच गयी कि वहाँ रही तो वे लोग जान से मार देंगे. उसके पास एक साल का बेटा भी था.रिश्तेदारों ने समझौता करा दिया और उन्होंने बेटी को वापस ससुराल भेज दिया. समाज में लोग अंगुली उठाने लगे थे. उसके बाद भी उसको सताया जाता रहा और आज उसकी हदें पार कर दीं. ३ साल का बेटा माँ को हिला हिला कर जगा रहा था और उसके नाना फूट फूट कर रो पड़े बेटा अब तेरी माँ कभी नहीं उठेगी.
दहेज़ के विवाद को समझौते या किसी तरह से खुद को बेच कर लड़के वालों की मांग पूरी करने की हमारी आदत ही हमारी बेटियों के हत्या का कारण बनता है. जहाँ बेटी सताई जाती है, वहाँ के लोगों की मानसिकता जानने की कोई और कसौटी चाहिए? अगर नहीं तो समझौतों की बुनियाद कब तक उसकी जिन्दगी बच सकती है? इनके मुँह खून लग जाता है वे हत्यारे पैसे से नहीं तो जान से ही शांत कर पाते हैं. ऐसे लोग विश्वसनीय कभी नहीं हो सकते हैं. इसमें मैं किसी और को दोष क्यों दूं? इसके लिए खुद माँ बाप ही जिम्मेदार है , जिन्होंने अपनी सामर्थ्य से अधिक दहेज़ माँगने वालों के घर में रिश्ता किया. उसे अपने पैरों पर खड़ा होने दीजिये. अब मूल्य और मान्यताएं बदल रहीं है. बेटी किसी पर बोझ नहीं है वह अपना खर्च खुद उठा सकती है. दुबारा उस घर में मत भेजिए कि उसके जीवन का ही अंत हो जाये.
सबसे पहले माँ बाप का यही तर्क होता है कि अगर बेटी की शादी नहीं हुई तो समाज उन्हें जीने नहीं देगा. आप किस समाज की बात कर रहे हैं. वह हमसे ही बना है न. आपकी बेटी मार दी गयी क्या समाज आपको आपकी बेटी वापस लाकर दे सकता है ? अगर नहीं तो हम उस समाज की परवाह क्यों करें? जब आपकी बेटी ससुराल में कष्ट भोग रही थी और रो रो कर अपनी दास्तान आपसे बताती थी तो क्या इस समाज ने आपसे कहा था कि उसको वापस मरने के लिए भेज दें.? बेटी हमारी है और उसका जीवन उसका अपना है - हमारा हक है कि हम उसको एक अच्छा जीवन दें, न कि दहेज़ के हवन कुण्ड में उसकी आहुति दे दें. बेटी अविवाहित रहेगी कोई बात नहीं, अपना जीवन तो जियेगी और फिर ऐसा नहीं कि सारे लोग दहेज़ लोलुप ही होते हैं . आप योग्य वर देखें चाहे वह आर्थिक रूप से सुदृढ़ न हो, अपने जीवन में सुख शांति से जी सके उसको स्वीकार कर लीजिये. बड़े घर के लालच में आकर अपनी बेटी न खोएं.
संकल्प करें की दहेज़ लोलुप परिवार में बेटी नहीं देंगे उसको सक्षम बना देंगे और उसको आहुति नहीं बनने देंगे.
आज उसको शादी के सात साल बाद बिल्कुल ही ख़त्म कर दिया गया.फिर मैके वालों को खबर दी कि आपकी बेटी ने फाँसी लगा ली. माँ बाप जब पहुंचे तो उसका शव जमीन पर पड़ा था. गले में रस्सी के निशान थे और उसका सारा शरीर नीला पड़ा हुआ था. उसके पिता ने रोते हुए बताया कि हमने अपनी सामर्थ्य के अनुसार शादी में खूब दहेज़ दिया था और तब ये लोग संतुष्ट भी थे लेकिन उसके बाद फिर उनकी मांगें बढ़ने लगी, जब तक रहा तो पूरा किया उसके बाद दो साल पहले बेटी माँ के घर पहुँच गयी कि वहाँ रही तो वे लोग जान से मार देंगे. उसके पास एक साल का बेटा भी था.रिश्तेदारों ने समझौता करा दिया और उन्होंने बेटी को वापस ससुराल भेज दिया. समाज में लोग अंगुली उठाने लगे थे. उसके बाद भी उसको सताया जाता रहा और आज उसकी हदें पार कर दीं. ३ साल का बेटा माँ को हिला हिला कर जगा रहा था और उसके नाना फूट फूट कर रो पड़े बेटा अब तेरी माँ कभी नहीं उठेगी.
दहेज़ के विवाद को समझौते या किसी तरह से खुद को बेच कर लड़के वालों की मांग पूरी करने की हमारी आदत ही हमारी बेटियों के हत्या का कारण बनता है. जहाँ बेटी सताई जाती है, वहाँ के लोगों की मानसिकता जानने की कोई और कसौटी चाहिए? अगर नहीं तो समझौतों की बुनियाद कब तक उसकी जिन्दगी बच सकती है? इनके मुँह खून लग जाता है वे हत्यारे पैसे से नहीं तो जान से ही शांत कर पाते हैं. ऐसे लोग विश्वसनीय कभी नहीं हो सकते हैं. इसमें मैं किसी और को दोष क्यों दूं? इसके लिए खुद माँ बाप ही जिम्मेदार है , जिन्होंने अपनी सामर्थ्य से अधिक दहेज़ माँगने वालों के घर में रिश्ता किया. उसे अपने पैरों पर खड़ा होने दीजिये. अब मूल्य और मान्यताएं बदल रहीं है. बेटी किसी पर बोझ नहीं है वह अपना खर्च खुद उठा सकती है. दुबारा उस घर में मत भेजिए कि उसके जीवन का ही अंत हो जाये.
सबसे पहले माँ बाप का यही तर्क होता है कि अगर बेटी की शादी नहीं हुई तो समाज उन्हें जीने नहीं देगा. आप किस समाज की बात कर रहे हैं. वह हमसे ही बना है न. आपकी बेटी मार दी गयी क्या समाज आपको आपकी बेटी वापस लाकर दे सकता है ? अगर नहीं तो हम उस समाज की परवाह क्यों करें? जब आपकी बेटी ससुराल में कष्ट भोग रही थी और रो रो कर अपनी दास्तान आपसे बताती थी तो क्या इस समाज ने आपसे कहा था कि उसको वापस मरने के लिए भेज दें.? बेटी हमारी है और उसका जीवन उसका अपना है - हमारा हक है कि हम उसको एक अच्छा जीवन दें, न कि दहेज़ के हवन कुण्ड में उसकी आहुति दे दें. बेटी अविवाहित रहेगी कोई बात नहीं, अपना जीवन तो जियेगी और फिर ऐसा नहीं कि सारे लोग दहेज़ लोलुप ही होते हैं . आप योग्य वर देखें चाहे वह आर्थिक रूप से सुदृढ़ न हो, अपने जीवन में सुख शांति से जी सके उसको स्वीकार कर लीजिये. बड़े घर के लालच में आकर अपनी बेटी न खोएं.
संकल्प करें की दहेज़ लोलुप परिवार में बेटी नहीं देंगे उसको सक्षम बना देंगे और उसको आहुति नहीं बनने देंगे.
उसे अपने पैरों पर खड़ा होने दीजिये. अब मूल्य और मान्यताएं बदल रहीं है. बेटी किसी पर बोझ नहीं है वह अपना खर्च खुद उठा सकती है. 'समझौते से मौत तक'में बहुत सही बात आपने कही है.दहेज़ का दानव, माँ-बाप और मेरी मानें तो बेटी, तीनों की परिपक्व सोंच से ही मारा जा सकता है.
ReplyDeleteबहरहाल आज नकली रावण तो मारा /जलाया ही जा रहा है.
दशहरा मुबारक .
कुँवर कुसुमेश
कृपया मेरे ब्लॉग:kunwarkusumesh.blogspot.com पर नई पोस्ट देखें.
true post word by word
ReplyDeleteनारी के ऊपर जुल्म करने वाले भेडियों को चौराहे पर सजा मिलना चाहिये.
ReplyDeleteरेखा जी हम आप की बात से पूरी तरह सहमत हैं। आपके इस संकल्प को हमने दशकों पहले लिया था। एक बहन खो चुके हैं इस कुप्रथा के कारण, क्योंकि ह्मने संकल्प लिया था कि न दहेज लेंगे, न देंगे। उसकी मौत ने तोड़ा नहीं हमें, बल्कि संकल्प और भी दृढ हुआ है। क़नूनन जो सजा दिलवा सकते थे दिलवाई। हम तो जो देहेज लेकर शादी करता है उसकी बारात या शादी का हिस्सा भी नहीं बनते, चाहे वह कितना भी घनिष्ठ संबंधी ही क्यों न हो!
ReplyDeleteएकतरफा प्रयासों से यह समस्या हल नहीं होने वाली । देखा तो यहाँ तक भी गया हैं कि अपनी बेटी की शादी में जो परीवार खुद को दहेज विरोधी दिखाने की कोशिश करते हैं वो ही घर के लडके की बारी आने पर पलटी मार जाते हैं ।ऐसे में समस्या खत्म हो तो कैसे?
ReplyDeleteभारतीय नागरिक के विचार ही मेरे विचारों से सहमत....
ReplyDelete"नारी के ऊपर जुल्म करने वाले भेडियों को चौराहे पर सजा मिलना चाहिये".
मैं उत्तरांचली हूँ. हमारे समाज में दहेज़ प्रथा का वो घातक स्वरुप अभी तक नहीं रहा है जो कि मैदानी इलाकों में व्याप्त है फिर भी इस समस्या कि शुरुवात हो चुकी है. अपने बहुत जोरदार ढंग से अपनी बात रखी है. हम सभी को मिलकर इस कुप्रथा के खिलाफ लड़ना चाहिए .
ReplyDeleteरेखाजी
ReplyDeleteहमारे समाज में अभी भी बिना दहेज के ही शादी होती है \माँ बाप अपनी ख़ुशी से अपनी बेटी को देते है और न ही तीज त्योहारों पर बेटियों को उपहार देने की ही परम्परा है | सिवाय रक्षा बंधन पर वो भी बहुत प्रतीकात्मक |लड़की की शादी में आजकल ज्यादा समस्या है की लडकियाँ लडको की अपेक्षा ज्यादा शिक्षित हो रही है और उनके लिए योग्य वर नहीं मिल पा रहे है |
मनोज जी,
ReplyDeleteमैं आपके संकल्प को नमन करती हूँ, और चाहती हूँ कि सभी ऐसे संकल्प लें तो क्या रोज रोज मरने वाली बेटियों का जीवन सुरक्षित न होगा. ये संकल्प नई पीढ़ी भी ले तो अधिक अच्छा है, चाहे बेटे हों या बेटियाँ जीवन साथी के लिए गुणों और उसकी योग्यता को ही महत्व प्रदान करें. माँ बाप का पैसा या फिर प्रतिष्ठा से शादी नहीं की जाती बल्कि एक समझदार जीवनसाथी ही सदैव साथ देता है और वही होना भी चाहिए. इस प्रथा को ख़त्म करने के लिए हमें जाति के बंधन से ऊपर उठना होगा क्योंकि जातिवाद में भी दहेज़ प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता है. अपनी सोच बदलें और सबसे अधिक युवा पीढ़ी. अगर वे डट जाएँ तो बड़े हार मान ही लेंगे.
राजन जी,
ReplyDeleteआपका कहना शत प्रतिशत सच है लेकिन यहाँ भी वही बात आ जाती है न, कि हम दहेज़ दें क्यों? बल्कि बेटी के ससुराल वालों को उनको इस बारे में प्रताड़ित करना चाहिए कि इन दोहरे मूल्यों के साथ जीने से अच्छा है कि बेटे को बेच दें और ऐसे लोग बेचते ही है, इसका पता उन्हें तब लगता है जब बहू घर में आकर उन्हें कुछ नहीं समझती या फिर बेटा भाषा में बोलनेनए रिश्तों में गहराई नापने लगता है और उन्हें उपेक्षित करने लगता है. कम से कम सम्मानकी आशा तो वे न ही करें.
बिल्कुल सही कहा है आपने. हम अगर समाज की परवाह करते रहेंगे तो अपनी बेटियों को एक खुशगवार माहौल नहीं दे पाएंगे. उसे आप उपहार देना भी चाहते है तो तो शिक्षा का, अच्छी विद्या का दें जिससे लडकी अपने पैरों पर खड़ी हो सके , उसे परमुखापेक्षी न होना पड़े.
ReplyDeleteआप योग्य वर देखें चाहे वह आर्थिक रूप से सुदृढ़ न हो, अपने जीवन में सुख शांति से जी सके उसको स्वीकार कर लीजिये. बड़े घर के लालच में आकर अपनी बेटी न खोएं.
ReplyDeleteयह सौ बात की एक बात कही आपने....वस्तुतः यही जड़ है इस समस्या की...बेटी के भविष्य को आर्थिक रूप से सुनिश्चित देखने और समाज में अपनी नाक ऊंची करने के चक्कर में स्वयं कन्या के अभिभावक अन्य सभी बातों को किनारा कर जाते हैं और अंततः ऐसे त्रासद परिणाम सामने आते हैं...
इस सार्थक पोस्ट के लिए आपका साधुवाद !!!
भारतीय नागरिक के विचार ही मेरे विचारों से सहमत....
ReplyDelete"नारी के ऊपर जुल्म करने वाले भेडियों को चौराहे पर सजा मिलना चाहिये".
सजा तो मिलनी चाहिए और मिल रही है पर क्या सिर्फ सजा से कम बन रहा है?
ReplyDeleteमाँ-बापको जागरूक होने कि सबसे जादा जरुरत है .. सिर्फ समाज के डर से वो चुप रहा जाते है मिलता क्या है बेटी कि लाश ...
सदियोसे चली आरही हमारी सामाजिक व्यवस्थाभी आज बदलने कि जरुरत है... जातपात उच-नीच ये भी इसका एक कारण है!
बेटी के लिए सुयोग्य वर होते हुए भी वो निचले जाती का है इस लिए आज भी हमारे यहाँ उसे चुना नहीं जाता !
अपनी झुटीशान या सामाजिक डर कहिये बेटी के हत्यारोको पनाह दे रहे है !
जब तक माँ बाप डरते रहेंगे तब तक बेटियां बलि चढती रहेंगी !
beti kisi pe bojh nahi, aaj betiyan bhi beton k saath kandhe se kandha mila kar chal rahi hai... wo har tarah se saksham hai....
ReplyDeleteMere blog par bhi sawaagat hai aapka.....
http://asilentsilence.blogspot.com/
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