ये पोस्ट मेरे शोध कार्य का अंश है. मैं इस विषय पर शोध कर रही हूँ कि किस प्रकार हमारे धर्मशास्त्रों ने नारी-सशक्तीकरण पर प्रभाव डाला है? क्या ये प्रभाव मात्र नकारात्मक है अथवा सकारात्मक भी है? जहाँ एक ओर हम मनुस्मृति के "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते" वाला श्लोक उद्धृत करके ये बताने का प्रयास करते हैं कि हमारे देश में प्राचीनकाल में नारी की पूजा की जाती थी, वहीं कई दूसरे ऐसे श्लोक हैं (न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति आदि) जिन्हें नारी के विरुद्ध उद्धृत किया जाता है और ये माना जाता है कि इस तरह के श्लोकों ने पुरुषों को बढ़ावा दिया कि वे औरतों को अपने अधीन बनाए रखने को मान्य ठहरा सकें. मेरे शोध का उद्देश्य यह पता लगाना है कि इन धर्मशास्त्रीय प्रावधानों का नारी की स्थिति पर किस प्रकार का प्रभाव अधिक पड़ा है.
आज से कुछ दशक पहले हमारा समाज इन धर्मशास्त्रों से बहुत अधिक प्रभावित था. अनपढ़ व्यक्ति भी "अरे हमारे वेद-पुराण में लिखा है" कहकर अपनी बात सिद्ध करने का प्रयास करते थे, चाहे उन्होंने कभी उनकी सूरत तक न देखी हो. आज स्थिति उससे बहुत भिन्न है, कम से कम प्रबुद्ध और पढ़ा-लिखा वर्ग तो सदियों पहले लिखे इन ग्रंथों की बात नहीं ही करता है. पर फिर भी कुछ लोग हैं, जो आज भी औरतों के सशक्तीकरण की दिशा इन शास्त्रों के आधार पर तय करना चाहते हैं... अथवा अनेक उद्धरण देकर यह सिद्ध करना चाहते हैं कि 'हमारा धर्म अधिक श्रेष्ठ है' और 'हमारे धर्म में तो औरतें कभी निचले दर्जे पर समझी ही नहीं गयी' और मजे की बात यह कि यही लोग अपने घर की औरतों को घर में रखने के लिए भी शास्त्रों से उदाहरण खोज लाते हैं. यानी चित भी मेरी पट भी मेरी.
मेरा कार्य इससे थोड़ा अलग हटकर है. मैं इन शास्त्रों द्वारा न ये सिद्ध करने की कोशिश कर रही हूँ कि प्राचीन भारत में नारी की स्थिति सर्वोच्च थी और उसके साथ कोई भेदभाव होता ही नहीं था (क्योंकि ये सच नहीं है गार्गी-याज्ञवल्क्य संवाद इसका उदाहरण है) और न ये सिद्ध करने की कोशिश कर रही हूँ कि नारी की वर्तमान स्थिति के लिए पूरी तरह शास्त्र उत्तरदायी हैं... मैं यह जानने का प्रयास कर रही हूँ कि धर्मशास्त्रों के प्रावधान वर्तमान में हमारे समाज में कहाँ तक प्रवेश कर पाए हैं और पुनर्जागरण काल से लेकर आज तक नारी-सशक्तीकरण पर कितना और किस प्रकार का प्रभाव डाल पाए हैं?
वस्तुतः धर्मशास्त्रीय प्रावधानों ने नारी की स्थिति मुख्यतः उसके सशक्तीकरण की प्रक्रिया पर क्या प्रभाव डाला है... इसे जानने से पूर्व सशक्तीकरण को जानना आवश्यक है. सशक्तीकरण को अलग-अलग विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूप में परिभाषित किया है. कैम्ब्रिज शब्दकोष इसे प्राधिकृत करने के रूप में परिभाषित करता है. लोगों के सम्बन्ध में इसका अर्हत होता है उनका अपने जीवन पर नियंत्रण. सशक्तीकरण की बात समाज के कमजोर वर्ग के विषय में की जाती है, जिनमें गरीब, महिलायें, समाज के अन्य दलित और पिछड़े वर्ग के लोग सम्मिलित हैं. औरतों को सशक्त बनाने का अर्थ है 'संसाधनों पर नियंत्रण स्थापित करना और उसे बनाए रखना ताकि वे अपने जीवन के विषय में निर्णय ले सकें या दूसरों द्वारा स्वयं के विषय में लिए गए निर्णयों को प्रभावित कर सकें.' एक व्यक्ति सशक्त तभी कहा जा सकता है, जब उसका समाज के एक बड़े हिस्से के संसाधन शक्ति पर स्वामित्व होता है. वह संसाधन कई रूपों में हो सकता है जैसे- निजी संपत्ति, शिक्षा, सूचना, ज्ञान, सामाजिक प्रतिष्ठा, पद, नेतृत्व तथा प्रभाव आदि. स्वाभाविक है कि जो अशक्त है उसे ही सशक्त करने की आवश्यकता है और यह एक तथ्य है कि हमारे समाज में औरतें अब भी बहुत पिछड़ी हैं... ये बात हमारे नीति-निर्माताओं, प्रबुद्ध विचारकों, अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों के द्वारा मान ली गयी है. कुछ लोग चाहे जितना कहें कि औरतें अब तो काफी सशक्त हो गयी हैं या फिर यदि औरतें सताई जाती हैं तो पुरुष भी तो कहीं-कहीं शोषित हैं.
विभिन्न विचारकों द्वारा ये मान लिया गया है कि भारत में औरतों की दशा अभी बहुत पिछड़ी है... इसीलिये विगत कुछ दशकों से प्रत्येक स्तर पर नारी-सशक्तीकरण के प्रयास किये जा रहे हैं. इन प्रयासों के असफल होने या अपने लक्ष्य को न प्राप्त कर पाने का बहुत बड़ा कारण अशिक्षा है, परन्तु उससे भी बड़ा कारण समाज की पिछड़ी मानसिकता है. जब हम आज भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पाए हैं कि हमारे समाज में लैंगिक भेदभाव है, तो उसे दूर करने और नारी को सशक्त बनाने की बात ही कहाँ उठती है? हम अब भी नारी के साथ हो रही हिंसा के लिए सामाजिक संरचना को दोष न देकर व्यक्ति की मानसिक कुवृत्तियों को दोषी ठहराने लगते हैं...हम में से अब भी कुछ लोग औरतों को पिछड़ा नहीं मानते बल्कि कुछ गिनी-चनी औरतों का उदाहरण देकर ये सिद्ध करने लगते हैं कि औरतें कहाँ से कहाँ पहुँच रही हैं...?
हाँ, कुछ औरतें पहुँच गयी हैं अपने गंतव्य तक संघर्ष करते-करते, पर अब भी हमारे देश की अधिकांश महिलायें आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से भी पिछड़ी हैं. उन्हें आगे लाने की ज़रूरत है.
apaka prashna sahi hai aur ye bhi sahi hai ki nari ke sashaktikaran ke naam par anguliyon par gini ja sakati hain. abhi 90 mahilayen isa sashaktikaran ki paridhi men nahin aati hain. aatmanirbhar hokar bhi ve abhi purush ke shasan men jee rahi hain aur usake baad bhi galiyan aur pratadna unaki niyati bani hui hai. barabari ka bhav aaj ki peedhee men jo aa raha hai usaka aakalan abhi shesh hai.
ReplyDeleteबहुत सार्थक लेख ..अच्छी जानकारी और जागरूकता देता हुआ
ReplyDeleteBahut hi saathak aalekh mukti ji... sach mein kuch naariyon ke uthan ke kaaran ham yah kadaapi nahi kah sate hain ki naari ne bahut tarakki kar lee hai.. jab tak samaj purush-naari maansikta se uthkar nahi socha jaayega tab tak uthan kee baat bemani hai..... ham apne aas paas hi dekhte to hain sachmuch yah dekhkar afsos hota hai ki sirf shiksha hi doshi nahi hai.. shahron mein bhi naariyon kee dasha bahut achhi nahi kahi jaa saktee hai... iska prman aaye din print media aur media mein jahir hota rahta hai ....
ReplyDeletehar kshetra mein naari ko is disha mein swyam hi sochne kee jarurat hai... wah jab tak apne ko kamjor aur dusaron ke bharose madad karne ke liye pukarti rahegi tab tak kuch nahi ho sakta hai... bus use jarurat hai swyam uth khade hokar sanghrash kar apna mukam banane ki...
....Bahut badiya aalekh ke liye aabhar
बहुत सारगर्भित आलेख उंगलियों पर गिनाये जाने वाले उदाहरन देना बहुत अच्छी बात है उसमे से कितनी महिलाये है जो सबसे पीछे आज भी खड़ी है अथिक स्वतंत्र होकर भी अपन नाम भी नहीं जान पाती मै तो ये भी कहूँगी की गाँव की महिलाये सदियों से दोहरी भूमिका निभा रही है खेतो में कम करके मजदूरी करके वो आज कहाँ है ?उनकी जिन्दगी में क्या फर्क आया है ?इतने विकास के बावजूद |
ReplyDeletethanks mukti for this post
ReplyDeletewe need more such articles from other members
मुक्ति जी बहुत ही अच्छी पोस्ट के लिए बधाई...
ReplyDelete.... आपने बहुत अच्छी बात कही है धर्मशास्त्रों के बारे में ... ऐसे बहुत ही कम लोग थे या हैं जिन्हें सही मायने में इन ग्रन्थों में कही हुई बातों का सही अर्थ मालुम हो ... जिसकी जैसी आवश्यकता होती वो उसकी वैसी व्याख्या कर देता ...
और जहाँ तक नारी-सशक्तीकरण की बात है में पहले भी कह चुकी हूँ की समय तेज़ी से बदल रहा है ... हाँ थोरा वक्त लग सकता है क्यूंकि जो चीज़ सदियों से खून में घुल मिल गयी हो उसे अलग करना आसान नहीं होगा ....
नारी सशक्तिकरण के विषय में आप शोध कर रही है, जान कर बहुत अच्छा लगा. आपके द्वारा कही गयी बातें बिलकुल सही है. मेरा यह मानना है की सामाजिक समानता के लिए नारी को पहले आर्थिक रूप से सक्षम होना होगा. तभी धीरे-धीरे उसके अवचेतन में बैठी हुई पुरुषों की गुलामी सम्बन्धी अवधारणा, जो सदियों से संस्कारों के रूप में विद्यमान है,से वह मुक्त हो पायेगी
ReplyDeleteचतुर्वेदी जी ! आप इस विषय पर शोध कर रहीं हैं,ये समाज को विशुद्ध गति देने वाली सकारात्मक सोच है,बधाई हो | ये काम बहुत पहले होना चाहिए था ,खाशकर
ReplyDeleteआप जिस वर्ण -विशेष से आतीं हैं ,उनके द्वारा | चलो देर -आए ,दुरुस्त आए | खैर!
जहाँ तक धर्म-शास्त्रों का नारी के जीवन के प्रभाव की बात है ,तो नारी को सत्तर से अस्सी प्रतिशत पंगु इन कथित धर्म-ग्रंथों ने बनाया | दस से पंद्रह प्रतिशत के लिए नारी खुद जिम्मेदार है ,जिसमें विवेक होते हुए भी उसका इस्तेमाल न करना (किसी मानवीय गुण से प्रेरित होकर) भी सामिल है | वाकी हालत का शिकार
इस तरह नारी शत-प्रतिशत दुर्दशा को प्राप्त हुई | कुछ लोग मुस्लिम शासन को जिम्मेदार मानते हैं | लेकिन मुसलमानों ने नारी के शोषण को क्म नहीं किया ,
जस का तस रखा है | क्यों कि हमारा पडोसी देश-नेपाल तो कभी गुलाम नहीं रहा ,फिर भी वहां नारी दुर्दशा-ग्रस्त है ;क्योंकि वहां भारत से ज्यादा धर्म-ग्रंथों का अनुपालन होता है |
रही बात संपत्ति के बटवारे की ;तो मेरे सामने कई ऐसे उदहारण हैं जहाँ कोइ स्त्री अच्छी-खांसी संपत्ति की मालिक होते हुए किस तरह षड्यंत्र के तहत सारी संपत्ति हड़प कर उसे लाचार बना दिया गया |
समय और स्थानाभाव के कारण अंत में मैं यही कहना चाहूँगा कि "जब तक नारी,बिना किसी की परवाह किए , अपने विवेक का प्रयोग अपने उपकार और
भलाई के लिए नहीं करती है तब तक वो दुर्दशा-ग्रस्त रहेगी ही |"
bahut hi sarthak lekh
ReplyDeletekavitaji, blog par aane ke liye
dhnyvad
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
सुन्दर आलेख, मैं यही कहूंगा कि ampathetic होना चाहिये...
ReplyDeleteमुक्ति जी ! 'मेरा , 'चतुर्वेदी' उपमान से संबोधित करना आपको अच्छा नहीं लगा'; ये जानकर बहुत ग्लानि हुई | सच मानिए मेरा उनके साथ भी द्वेष या पूर्वाग्रह नहीं है जिन्होंने हमें जी भर के सताया है , आपसे तो मैं पूरी तरह अपरिचित हूँ | मैं उन बाबा साहिब का अनुयायी हूँ जिन्होंने दलित-मिशन के लिए अपने बेटे को मर जाने दिया | जब वे कामयाबी के करीब ही थे तो गाँधी जी ने षड्यंत्र रच कर उसे तहस-नहस कर दिया |
ReplyDeleteलेकिन बाबा साहिब ने उस जान-से-प्यारे-मिशन को दरकिनार करके अपने धुर-विरोधी गाँधी जी के अनसन को तुडवा कर उनकी जान बचाई थी | खैर!
आपकी समाज के प्रति सकारात्मक सोच है, आप उसी रास्ते पर निरंतर प्रयाश-रत हैं ; सो यदि आप उम्र में मुझ से बड़ीं हैं तो ढेर-सारी- दुआएं और शुभ कामनाएँ और यदि छोटीं हैं तो आशीर्वाद | निरंतर-पढो ,निरंतर-बढ़ो |
गलती-बस शब्द 'उपमान' छ्प गया है | इसकी जगह उपनाम समझें | धन्यवाद |
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