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पहले भी मैं एक आलेख इस विषय पर लिख चुकी हूँ, किन्तु लगता है इतना सामान्य सा होता हुआ विषय हमें फिर भी जीभ चिढ़ा रहा है। आखिर क्यों?
कल खबर मिली कि ५ माह का कन्या भ्रूण सड़क के किनारे पड़ा मिला और आज ५ वर्ष कि लड़की कि लाश स्टेशन पर मिली। शाल में लिपटी हुई पता नहीं कितनी देर पहले उसको यहाँ छोड़ा गया होगा।
कहते हुआ शर्म भी आती है कि कुछ दंपत्ति संतान न होने पर दूसरे से कन्या भी गोद लेने के लिए लालायित रहते हैं । ऐसे ही कुछ हुआ मेरे एक पड़ोसी ही कहूँगी, बच्चे न होने पर अपने एक रिश्तेदार कि बेटी गोद ले आये और चार साल तक उसको प्यार से पाला किन्तु उसके दुर्भाग्य से ही कहूँगी कि उन दंपत्ति को अपनी संतान के होने का सुख प्राप्त हो गया और फिर पुत्र और पुत्री दोनों ही मिले।
यही से उसके दुर्भाग्य कि कहानी भी शुरू हो गयी। सौतेली भी तो न थी, उस नन्ही जान के साथ नौकरों से भी बदतर सलूक करना शुरू कर दिया। और जब १० वर्ष की थी वह लड़की तो वे लोग वैष्णो देवी गए उसको लेकर। फिर उसको लेकर वापस नहीं लौटे। पड़ोसी भी कम न थे कभी उनके छोटे बच्चों को फुसला कर पूछते कि तुम्हारी दीदी कहाँ गयी?
वे अबोध एक बार बतला बैठे कि दीदी को वही छोड़ कर आये हैं हम लोग। उसके माता पिता को जब बात पता लगी तो वे अपनी बेटी को लेने आ गए किन्तु उन्होंने कह दिया कि आपने हमें दे दिया तो उसके बारे में भूल जाइये। यही शर्त थी हमारी गोद लेने के पहले।
जब बहुत प्रश्न उठा खड़े हुए तो कह दिया कि हमने उसको एक बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया है। वहाँ से जब पूरी पढ़ाई कर लेगी तभी वापस आएगी। इतिश्री हुई उस कन्या कि कहानी.
एक यही क्यों? कितनी लड़कियाँ स्टेशन पर या ट्रेन में मिल जाती हैं, जिनको छोड़ कर उनके माँ बाप चले जाते हैं। किस लिए सिर्फ इस लिए कि वे लड़की हैं?
इस लड़की जाति के भविष्य को इतना भयावह क्यों बना दिया है? इस समाज ने, हमने और हमारी कुरीतियों ने। कहीं लड़कियाँ खुद ही आत्महत्या कर लेती हैं कि माँ-बाप शादी के लिए बहुत परेशान होते हैं, कहीं माँ-बाप कर लेते हैं। लेकिन लड़कियाँ और उनकी शादी से जुड़ी कुरीतियाँ आज ही वही बनी हुई हैं। कहते हैं कि कुरीतियाँ तो अज्ञानी और बिना पढ़े लिखे लोगों में पलती हैं? लेकिन इन सब अपराधों की कहानी कन्या के विवाह से ही जुड़े होते हैं, पढ़ाई लिखी तो फिर भी वे किश्तों में कर्ज लेकर कर देते हैं किन्तु विवाह तो नहीं कर सकते और फिर यही सोच कर समस्या उत्पन्न होने से पहले ही वे समाधान खोज लेते हैं। क्या वाकई वह इतने ही कुसूरवार है? नहीं उनके साथ हम भी कुसूरवार हैं?
क्या यह सच है?
क्या भ्रूण हत्या लड़कों के मामले में भी होती है अगर नहीं तो क्यों?
क्या सभी पढ़े लिखे लोग दहेज़ कि मानसिकता से ग्रस्त नहीं हैं?
क्या उनको लड़की के माता-पिता से उनकी हैसियत से अधिक मांग रखना उचित है?
क्या इन हत्याओं के पीछे हम ही जिम्मेदार नहीं हैं?
क्या लड़कियों का अभिशाप बन जाने के पीछे हमारी मानसिकता नहीं है?
क्या इस जाती के खत्म हो जाने पर सृष्टि शेष रहेगी?
ये सवाल सबसे है, हम इसको कहाँ तक हल कर सकते हैं?
हल इस तरह से नहीं कि सुझाव भर दे दें बल्कि कम से कम प्रयास तो कर ही सकते हैं कि इस तरह से कन्याओं को खत्म न किया जाय।
कन्या भ्रूण हत्या..तो शोचनीय है ही,कन्या शिशु को जन्म के समय मार दिया जाता है..ऐसी तल्ख़ हकीकत भी हमारे देश में है.आपसे सहमत होते हुए कहा जा सकता है कि आपने विचारणीय आलेख लिखा है.
ReplyDeleteबहुत दुखद है ये सब और यह देखकर तो दुःख और बढ़ जाता है कि कन्या भ्रूण हत्या में खुद महिलाएं भी शरीक होती हैं ...!!
ReplyDeletekanya bhrun htya shhro me hi dekhi ja skti hai aur iske peeche tathakthit shikshit privar hi hote hai .
ReplyDeleteबहुत दुखद है।
ReplyDeleteये घटना (कन्या भ्रूण हत्या) इतनी दुखद और शर्मनाक है कि कुछ भी कहने से खुद में ग्लानि होती है. यहाँ सवाल ये नहीं होना चाहिए कि जिम्मेवार कौन है, महिला या पुरुष. समस्या को सुलझाने का प्रयास करना चाहिए.
ReplyDeleteदेखा जाए तो हो ये रहा है कि बेटे की चाहत और दहेज़ का दानव कन्याओं को मौत की तरफ ले जा रहा है. समाज में पढ़े-लिखे लोग भी हैं जो इस विषय पर कुछ भी करने और कहने से बच रहे हैं इसके पीछे कारण इस तरह के कुकृत्यों में खुद पढ़े-लिखे समाज का निर्लिप्त होना है.
सरकार भी इस सामाजिक समस्या का समाधान ढूँढने के बजाय अनजाने में पीएनडीटी एक्ट के इस्तेहार लगाकर इसका प्रचार कर रही है .
ReplyDeleteकन्या भ्रूण हत्या एक सामाजिक बुराई है और अफसोस तो इस बात का है कि इस घृणित अपराध में स्त्रियां की भागीदारी पुरुषों से कम नहीं है।
ReplyDeleteमैं ऐसे आले्खों से बहुत आहत हो जाती हूँ. पर इस बार आपके आलेख से एक बार फिर सोचने पर मजबूर हुयी हूँ कि कुछ समस्याएँ हैं जिनके बारे में बहुत लिखा-पढ़ा जाता है, अफ़सोस जताया जाता है, पर जिनका समा्धान किसी के पास भी नहीं है, न समाज के पास न सरकार के पास. हाँ, हम दोषी हैं. हमें अपने-अपने स्तर पर इस समस्या से लड़ने के उपाय ढूँढ़ना चाहिये.
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