जब मैने नोर्वे में भारतीये दंपत्ति से बच्चे छीने गए
पोस्ट नारी ब्लॉग पर पोस्ट की थी तो बहुत सावधानी से लिखा था की सब कुछ उतना साफ़ नहीं हैं जितना दिखता हैं । मेरी आशंका निर्मूल नहीं साबित हुई । आज बच्चो की पिता ने खुद कहा हैं वो चाहता हैं की बच्चे नोर्वे में रहे और अब इसके लिये उसने अपनी पत्नी को मनोरोगी कह दिया हैं ।
नारी ब्लॉग पर अपने एक पाठक को जवाब देते हुए मैने कमेन्ट में कहा था
quote
बात केवल कानून की ही नहीं हैं बात ये सोचने की हैं की अगर वहाँ के सोशल डिपार्टमेंट ने इन माँ पिता के खिलाफ शिकायत की हैं { जैसा की कल खबर मे था } और वहाँ की अदालत का फैसला हैं की क्युकी पाया गया हैं की बच्चो के पास ना तो उचित कपड़े थे और ना ही खिलोने और उनके लालन पोषण में उनके माँ पिता सक्षम नहीं थे इस लिये अदालत किसी भी वजह से उनके माँ पिता को ये बच्चे नहीं देगी और बच्चो के एक अंकल { शायद मामा } अब विदेश जा कर इनकी कस्टडी लेगे .
तरुण और राजन जो बात मेने पोस्ट में नहीं लिखी हैं आप दोनों सोच कर देखे बिना किसी इमोशन को बीच में लाकर कहीं ऐसा तो नहीं हैं की बच्चो के माँ पिता ने आर्थिक कारणों से ये सब होने दिया और पिछले ७ महीने से वो बच्चो के प्रति किसी भी खर्चे से मुक्त हैं और अब क्युकी उनको भारत आना हैं तो वो बच्चो की लड़ाई में भारत सरकार की सहायता ले रहे हैं . अगर पूरा घटना कर्म कोई देखे तो केवल माँ के माता पिता का ही टी वी में उल्लेख हैं कही भी दादा दादी की कोई बात नहीं हो रही हैं
हमारे देश में कानून व्यवस्था के चलते बच्चो की सुरक्षा का कोई कानून ही नहीं हैं पर विदेशो में हैं और नोर्वे में सब से मजबूत हैं
राजन बच्चे फोस्टर केयर मे रखने का कारण ही ये था की बच्चो को पूर्ण सुविधा नहीं मिल रही थी
उनके पास सही ढंग के कपड़े नहीं थे और मैने केवल अपनी सोच को विस्तार दिया हैं आप से और तरुण से बात करके .
भारतीयों में मूलभूत सुविधा और बचत का बहुत बड़ा कारण हैं की भारतीये विदेशो मे पसंद ही नहीं किये जाते हैं . लोग मानते हैं की हम पेट काट कर प्रोपर्टी खरीदने वालो में हैं . हम कम सहूलियतो में रह कर पैसा बचाते हैं और अपने बच्चो पर उतना खर्च नहीं करते हैं जो सही हैं [ बस सही और गलत की परिभाषा क्या हैं ये कौन तय करेगा ?? पता नहीं }
unquote
मूल प्रश्न अब भी वही हैं की हम कानून व्यवस्था को कभी नहीं देखते । हम केवल और केवल सामाजिक व्यवस्था को देखते हैं और उसके ढांचे को खुद ही बिगाडते जा रहे हैं । हम झूठ के सहारे अपने गलत काम को जस्टिफाई करते हैं और बहना बनाते हैं की हम परिवार को बचा रहे हैं ।
विदेशो में परिवार रहे या ना रहे पर कानून के जरिये समाज की व्यवस्था सही रहती हैं और बच्चो की सुरक्षा व्यवस्था , वृद्ध की सुरक्षा व्यवस्था का जिम्मा देश का हैं ।
हम कितना अक्षम और सक्षम हैं ये हम को खुद सोचना चाहिये
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" जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की " "The Indian Woman Has Arrived " एक कोशिश नारी को "जगाने की " , एक आवाहन कि नारी और नर को समान अधिकार हैं और लिंगभेद / जेंडर के आधार पर किया हुआ अधिकारों का बंटवारा गलत हैं और अब गैर कानूनी और असंवैधानिक भी . बंटवारा केवल क्षमता आधारित सही होता है
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था
हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।
यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का ।
15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं
15th august 2012
१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं
15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं
15th august 2012
१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं
"नारी" ब्लॉग
"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।
" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "
हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था
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विचारणीय.
ReplyDeleteरचना जी,
ReplyDeleteरुकिये तो सही!
इतनी जल्दी भी क्या हैं निर्णय सुनाने की.जरा हमारी भी तो सुन लीजिए.
@मेरी आशंका निर्मूल नहीं साबित हुई।आज बच्चो की पिता ने खुद कहा हैं वो चाहता हैं की बच्चे नोर्वे में रहे और अब इस के लिये उसने अपनी पत्नी को मनोरोगी कह दिया हैं।
उस आदमी ने ये बात कही हैं या आप ऐसा कह रही हैं?
चलिए पहले इसे ही साफ कर देता हूँ.जागरण की ये खबर देखें.इसमें बताया गया हैं कि उस आदमी ने पत्नी के मनोरोगी होने की बात क्यों छिपाई,बच्चों को पाने के लिए या उन्हें जानबूझकर अपने से दूर रखने के लिए ताकि उसे बच्चों का खर्च न उठाना पडे(जैसा आप कह रही है.).इसे पढें और यदि लिंक न खुले तो इसे ही एड्रेस बार में पेस्ट करें-
http://www.jagran.com/news/national-norway-custody-row-father-does-not-want-children-to-return-to-india-9037377.html
वैसे उसकी बात में दम भी हैं जरा सोचिये यदि वह पहले ही अपनी पत्नी के मानसिक स्वास्थ्य की बात स्वीकार कर लेता तब क्या नार्वे सरकार के सामने उसका बच्चों को लेकर दावा कमजोर नहीं पड जाता बल्कि तब तो सारी संभावनाएँ ही खत्म हो जाती यही नहीं वह जानता था कि ये बात उसने पहले जाहिर कर दी तो भारत सरकार का भी सहयोग उसे नहीं मिलेगा जैसा कि अब सच में हो भी रहा हैं.भारत सरकार अब आनाकानी करेगी.इसलिए यदि उसने बच्चे पाने के लिए ये बात छुपाई तो इसमें कोई दोष नजर नहीं आता.और हाँ बच्चों के पिता ने इस बात से साफ इंकार कर दिया हैं कि उसने बच्चों के नार्वे में ही रहने की इच्छा जताई थी.
लेकिन मुझे हैरानी हैं कि आप ये कैसे मान रही हैं कि इन बच्चों का पिता इस बात से खुश था कि उसे बच्चों का खर्च नहीं उठाना पड रहा.यदि ऐसा ही था तो उसे बच्चों को छुडाने का कोई भी प्रयास करने की जरुरत ही नहीं थी यहाँ तक कि भारत सरकार से अनुरोध करने की भी कोई जरूरत नहीं थी.लेकिन अब चूँकि उसे लगा कि ये बात भारतीय प्रतिनिधियों के वहाँ पहुँचने पर सामने आनी ही हैं तो उसे मजबूरी में बताना ही पडा.और वैसे भी कानूनन तलाक यदि लेना पडा तो ये बात बतानी ही पडती.
रचना जी,
ReplyDeleteरुकिये तो सही!
इतनी जल्दी भी क्या हैं निर्णय सुनाने की.जरा हमारी भी तो सुन लीजिए.
@मेरी आशंका निर्मूल नहीं साबित हुई।आज बच्चो की पिता ने खुद कहा हैं वो चाहता हैं की बच्चे नोर्वे में रहे और अब इस के लिये उसने अपनी पत्नी को मनोरोगी कह दिया हैं।
उस आदमी ने ये बात कही हैं या आप ऐसा कह रही हैं?
चलिए पहले इसे ही साफ कर देता हूँ.जागरण की ये खबर देखें.इसमें बताया गया हैं कि उस आदमी ने पत्नी के मनोरोगी होने की बात क्यों छिपाई,बच्चों को पाने के लिए या उन्हें जानबूझकर अपने से दूर रखने के लिए ताकि उसे बच्चों का खर्च न उठाना पडे(जैसा आप कह रही है.).इसे पढें और यदि लिंक न खुले तो इसे ही एड्रेस बार में पेस्ट करें-
http://www.jagran.com/news/national-norway-custody-row-father-does-not-want-children-to-return-to-india-9037377.html
वैसे उसकी बात में दम भी हैं जरा सोचिये यदि वह पहले ही अपनी पत्नी के मानसिक स्वास्थ्य की बात स्वीकार कर लेता तब क्या नार्वे सरकार के सामने उसका बच्चों को लेकर दावा कमजोर नहीं पड जाता बल्कि तब तो सारी संभावनाएँ ही खत्म हो जाती यही नहीं वह जानता था कि ये बात उसने पहले जाहिर कर दी तो भारत सरकार का भी सहयोग उसे नहीं मिलेगा जैसा कि अब सच में हो भी रहा हैं.भारत सरकार अब आनाकानी करेगी.इसलिए यदि उसने बच्चे पाने के लिए ये बात छुपाई तो इसमें कोई दोष नजर नहीं आता.और हाँ बच्चों के पिता ने इस बात से साफ इंकार कर दिया हैं कि उसने बच्चों के नार्वे में ही रहने की इच्छा जताई थी.
लेकिन मुझे हैरानी हैं कि आप ये कैसे मान रही हैं कि इन बच्चों का पिता इस बात से खुश था कि उसे बच्चों का खर्च नहीं उठाना पड रहा.यदि ऐसा ही था तो उसे बच्चों को छुडाने का कोई भी प्रयास करने की जरुरत ही नहीं थी यहाँ तक कि भारत सरकार से अनुरोध करने की भी कोई जरूरत नहीं थी.लेकिन अब चूँकि उसे लगा कि ये बात भारतीय प्रतिनिधियों के वहाँ पहुँचने पर सामने आनी ही हैं तो उसे मजबूरी में बताना ही पडा.और वैसे भी कानूनन तलाक यदि लेना पडा तो ये बात बतानी ही पडती.
bachcho ko vapas laanae ki baat hamesha naanaa naani ne kahi haen jaesa maene smaachar mae padhaa haen
Deleteis kae peechhae bahut see baatae ho saktee haen
ho saktaa haen unkae vaaris ho yae bachchae
ho saktaa haen unko lag rahaa ho bachcho kaa pitaa divorce chahtaa haen maa nahin
aur sabsae badii baat bhartiyae kanun me bachchae maa kae adhikaar me rahegae to "maintenance" kaa kharcha bhi pitaa ko dena hogaa
is case ko mae follow karugi aur jaese hi kuchh niskarsh hoga phir is par charcha karugi
रचना जी,मुझे ये बात समझ में नहीं आती कि आपको ऐसा क्यों लगता हैं कि कानून समाज के लिए नहीं बल्कि समाज कानून के लिए होता हैं.मैंने पहले भी कहा था कि कानून की भूमिका से इंकार नहीं हैं लेकिन कानून कैसे हों इसको लेकर सबके विचार अलग अलग हो सकते हैं साथ ही मैंने ये भी कहा था कि कानून हमेशा सही नहीं होता घरेलू हिंसा का उदाहरण देकर इस बात को समाझाया भी था.
ReplyDeleteबच्चों के लिए कानून बनें इससे कौन इंकार कर सकता हैं.लेकिन ऐसा कोई कानून कि बच्चे को हाथ से खिलाने,उसके साथ सोने या अच्छे कपडे या अच्छे खिलौने न होने की वजह से ही उसे माँ बाप से छीनकर अठारह सालों तक अलग रखा जाए तो ऐसे मूर्खतापूर्ण कानून का मैं तो विरोध करूँगा भले ही कानून भारत सरकार बनाएँ या फिर खुद भगवान(यदि कहीं हैं तो) ही क्यों न बनाएँ.और ऐसा नहीं हैं कि पश्चिम में सब लोग ही हर कैसे कानून को मान ही लेते हों.नार्वे में बच्चों के लिए बने ऐसे कानूनों का विरोध होता रहा हैं यहाँ तक कि अमेरिका जैसे देश में भी बच्चों के लिए शुरु कि गई हेल्पलाइन का अभिभावक विरोध करते रहे हैं क्योंकि इससे पेरेंट्स की समस्याएँ बढ ही रही हैं.
हाँ राज्य यदि गरीब माँ बाप के बच्चों की आर्थिक मदद करने का कोई कानून लाए और इस पैसे को बच्चों पर खर्च करने को बाध्य करें तो ऐसे किसी भी कदम का स्वागत हैं हालाँकि मैं आपकी इस बात से बिल्कुल सहमत नहीं हूँ कि बच्चों पर अच्छा खर्च करना मात्र ही अच्छी परवरिश करना होता हैं.जहाँ तक बात हैं भारतीयों के कंजूस होने की तो इतने बडे देश में हर तरह के लोग होंगे और आप ऐसा कोई स्पष्ट विभाजन नहीं कर सकती पश्चिम में भी बहुत से लोग फिजूलखर्च हैं तो बहुत से कंजूस भी.लेकिन वो यदि केवल भारतीय को ही कंजूस समझते हैं तो ये उनकी गलतफहमी हैं.
वैसे मैंने आपकी एक पोस्ट पर ये भी कहा था कि अब भारत में बच्चों का पालन पोषण करने के तरीकों में पहले की अपेक्षा कहीं सकारात्म बदलाव आए हैं.अब बच्चों की पिटाई पहले की तुलना में बहुत कम की जाती हैं उनकी इच्छाओं का ध्यान पहले से ज्यादा रखा जाता है लडके लडकी में भेद भी खासकर शहरी मध्यमवर्गीय परिवारों में पहले की तुलना में कम हुआ हैं.ये सारा बदलाव शिक्षा व सूचना के क्षेत्र में वृद्धि के कारण आया है.किसी कानून की इसमें कोई भूमिका नहीं रही हैं.
राजन
Deleteइस पोस्ट को लिखने के दो मकसद हैं
एक ये बताना की झूठ बोला हैं इस दंपत्ति ने
दो बच्चो के साथ उनकी मानसिक रूप से बीमार माँ गलत व्यवहार करती थी और यही मूल कारण हैं बच्चों को फोस्टर कएर में रखने का
आज दंपत्ति डिवोर्स चाहते हैं पर समाज के डर से नहीं ले पाते , निभा लो की सीख समाज देता हैं लेकिन खामियाजा सबसे ज्यादा बच्चे उठाते हैं . लोग कहते हैं हमने बच्चो के लिये अपनी जिन्दगी लगा दी ऐसे व्यक्ति के साथ अपना जीवन बीता दिया जो मन माफिक नहीं था पर क्या ये हैं सही वास्तविकता .
इस पूरी घटना मे अब पिता खुद कह रहा बच्चे नोर्वे में ही रहे तो ठीक हैं भारत का कानून उनको माँ को सौप देगा और बच्चो के लिये गलत होगा . क्या पिता को ये पिछले ८ महीने से नहीं पता था
बाकी एक बात ध्यान दे समाज अपने व्यवहार से कानून लाता हैं , कानून सामाजिक व्यवस्था की ही देन होते हैं फिर उनको न मान कर समाज कैसे अपना भला कर सकता हैं ???
और कानून हर पुरानी बात जो इस समय किसी भी कारण से गलत प्रतीत होती हैं उनके लिये बनाया जाता हैं
कानून से सामाजिक व्यवस्था सुधरती हैं लेकिन अगर समाज उन कानून को माने तो
बाते तो सही हैं...... खास कर विदेशों में क़ानून को लेकर आपके विचार सटीक हैं .....
ReplyDeleteरचना जी,मैं पहले भी कह चुका हूँ कि उस व्यक्ति ने ये कभी नहीं कहा कि बच्चे नार्वे में ही रहे तो अच्छा हैं.ये सब मीडिया के एक हिस्से ने खुद ही झूठ फैलाना शुरू कर दिया.यहाँ तक कि अब तो ये भी साबित हो गया कि उसने तलाक की बात भी कभी नहीं कही खुद मीडिया ही कहानियाँ गढ रहा हैं.और पता नहीं मानसिक बीमारी वाली बात भी सच हैं या नहीं.उस व्यक्ति ने बस ये बात मानी हैं कि हम पति पत्नीके बीच मतभेद हैं लेकिन तलाक जैसी कोई बात नहीं.
ReplyDeleteलेकिन मैं जो बात कह रहा था उस पर अभी भी कायम हूँ कि माँ बाप बच्चे को वापस चाहते हैं.यदि मान लीजिए आपसी मतभेद को छुपाकर उन्होने झूठ भी बोला हैं तो इसलिए ताकि बच्चों को वापस पाने में कोई दिक्कत न हो और अब देखिये नार्वे वाले केवल मतभेद के चलते ही बच्चों को वापस देने से इंकार कर रहे हैं.इसलिए इस दंपत्ति ने जो किया मुझे उसमें कुछ भी गलत नहीं लगा.जबकि आपका ये कहना था कि आर्थिक कारणों से माता पिता बच्चों को नहीं चाहता जो कि कम से कम अभी तक तो पूरी तरह गलत साबित हुआ हैं.
और यदि किसी पति पत्नी में बनती नहीं हैं तो इसका मतलब ये नहीं हैं कि वो तलाक ही लेना चाहते होंगे और उन्हें अलग ही हो जाना चाहिए.और यदि फिर भी कोई अलग नहीं हो रहा हैं तो इसका कारण ये ही नहीं हैं कि समाज का दबाव ही उन्हें रोक रहा हैं.मतभेद ज्यादातर स्थाई नहीं होते हैं.पश्चिम में भी पति पत्नी कोई एक झटके में ही तलाक नहीं ले लेते बल्कि इसे अंतिम विकल्प के रूप में ही बहुत सोच समझकर अपनाते हैं जबकि वहाँ सामाजिक दबाव ना के बराबर हैं.और आप कानून की दुहाई दे रही हैं तो वह भी तलाक को टालने की हरसंभव कोशिश करता हैं.मेरा मानना हैं कि इसमें किसीका दखल नहीं होना चाहिए जो पति पत्नी को ठीक लगे वो करें.आप चाहती हैं कि विवाह को बनाए रखने का दबाव नहीं होना चाहिए तो मैं कहूँगा विवाह को तोडने का दबाव भी उन पर नहीं होना चाहिए.उन्हें खुद फैसला करने दिया जाए.और नार्वे के कानून के बारे में क्या कहूँ इन लोगों को ये भी नहीं पता हैं कि पति पत्नी में यदि मतभेद हैं या माँ को कोई मानसिक बीमारी है तो भी इनका दूसरा इलाज हैं लेकिन इसका मतलब ये नहीं हैं कि उनसे उनके बच्चे ही छीन लिए जाएँ वो भी अठारह वर्ष की आयु तक.ऐसे बचकाने कानून को यदि दुनिया के सभी देश मानने लग जाए तो दुनिया में हाहाकार मच जाएगा.लोग तो बच्चे पैदा करना ही बंद कर देंगे.
खैर इस मामले में अभी ज्यादा कुछ सामने नहीं आया हैं.मैंने अभी तक जो भी कहा हैं वो केवल अभी तक आई खबरों के आधार पर ही कहा हैं और अभिे तक मुझे इसमें नार्वे सरकार ही पूरी तरह गलत नजर आ रही हैं कयास मैं नहीं लगाउँगा क्योंकि होने को तो कुछ भी हो सकता हैं.
ReplyDeleteकानून को समाज नहीं बल्कि उससे जुडे कुछ लोग ही बनाते हैं और वो कोई भगवान नहीं होते कि उनसे कोई गलती नहीं हो सकती.कानून समाज के हित में हैं तो उसकी पालना की जाएँ और नहीं हैं तो उस पर बहस की जाए,उसे बदला जाए न कि उसकी भक्ति की जाए कि कानून बन गया हैं इसलिए मानना ही पडेगा और इसमें कोई बदलाव नहीं हो सकता.वैसे ये अच्छी बात हैं कि हमारे यहाँ पर भी विभिन्न कानूनों को लेकर बहस और तर्क वितर्क होने लगे हैं.यही तो असली लोकतंत्र हैं.जहाँ कैसे भी कानून को हर हाल में मानने की बाध्यता हो वहाँ लोकतंत्र नहीं बल्कि तानाशाही होती हैं.जैसे कि अरब के अधिकांश मुल्कों में हैं और उनकी बात जाने दें चीन को ही देख लीजिए वहाँ भी कानून का ही राज चलता हैं लेकिन पता कीजिए कि समाज क्या इससे खुश हैं और इन कानूनों से उसका कितना भला हुआ हैं.
मुझे खुशी हैं कि भारत में लोकतंत्र बहुत अच्छी हालत में न सही पर ठीक ठाक काम कर रहा हैं हमें इसे और बेहतर बनाने कि कोशिश करनी चाहिए और इसके लिए समाज यानी जनता कि इच्छा को भी आपको महत्तव देना होगा.
इसके लिए समाज यानी जनता कि इच्छा को भी आपको महत्तव देना होगा.
Deleteराजन समाज की मर्जी से ही कानून बनते हैं अपने को सुव्यवस्थित करने की समाज की इच्छा ही कानून को बनवाती हैं .
जब कानून बन जाता हैं तो समाज के कुछ लोग उसको केवल इस लिये नहीं मानना चाहते क्युकी उसमे "बदलाव" होता हैं
समाज की मर्जी से बने कानूनों मे आपको इतना विश्वास नहीं होना चाहिये जब सारा समाज नार्वे की घटना को भारतीय दम्पत्ति के दुर्भाग्य के तौर पर देख रहा है। माँ की बात हटा दे तो बात बच्चों की गलती पर आती है। उनका क्या कसूर है जो वो अपनी जडों से कट कर किसी और देश में पले बढे? जब वो बडे हो जायेंगे और अपने आप को वहाँ अजनबी की तरह पायेंगे, तब क्या? वहाँ के लोग इन बच्चों को कभी अपनापन नहीं दे सकते जिन की त्वचा का रंग इनके रंग से अलग है। भारत में भी चाइल्ड वेलफ़ेयर सर्विस चलती है यहाँ भी बच्चों की परवरिश हो सकती है। पहले बच्चों को भारत ले आना चाहिये, बाद में पति पत्नी के झगडों को देखना चाहिये। नार्वे में कानून कम तानाशाही ज्यादा नजर आ रही है।
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