एक समाजवाद ऐसे भी .....एक सत्य घटना ....नथिया बुआ ने २६ वर्ष की अवस्था से लेकर ७० वर्ष तक अपना वेध्वय अकेले ही काट दिया था ना पीहर मैं कोई रहा ना ससुराल मैं ,ब्याह होते ही जिस हवेली मैं आई थी उसी के दो छोटे कमरों और एक रसोई के लिए रख कर गुजारा करती रही हवेली बड़ी थी ,एक-एक करके आठ किरायेदार हो गये थे ,७७ की उम्र के आस -पास जब बीमार पड़ी और बचने की कोई उम्मीद ना रही तो दूर-दूर के और आस-पास के तमाम लोग रिश्ते-नाते दार बन कर सेवा मैं जुट गये,हवेली का सवाल था बुआ सब कुछ देख समझ रही थी जब उसे लगा अन्तिम समय आने ही वाला है तो उसने अपने आठों किरायेदारों को बुलाकर कहा ,हवेली के जिस-जिस हिस्से में जो- जो रहता है उसकी रजिस्ट्री वो अपने नाम करा ले .मेरा हिस्सा नगर-निगम को यह कह कर दे दिया जाय की उसमे एक दवाखाना रहे.सब किरायदारों ने अपने-अपने नाम रजिस्ट्री करा ली वकील को बुलाकर.बुआ का हिस्से मैं उनकी मर्जी मुताबिक अस्पताल खुल गया, लालची और बनावटी रिश्तेदार देखते रह गए,बुआ ने ना लेनिन पढा था,ना मार्क्स ,फिर भी समाजवाद ले आई।
ये घटना रायपुर की हैं और नारी पर पोस्ट के लिये विधु लता ने भेजी हैं । ऐसी मिसाले कम ही मिलती हैं पर इनसे ही प्रेरणा भी मिलती हैं । विधु लता जी पिछले ८ वर्षो से "औरत " नाम से एक पत्रिका का संपादन कर रही हैं । ये कथा उन्होने ३ वर्ष पूर्व अपनी पत्रिका मे प्रकाशित की थी ।
यह संपत्ति का न्याय पूर्ण वितरण था। मगर इसे समाजवाद कहना उचित नहीं है। हाँ संपत्ति के उत्तराधिकार के नियम से विचलन कहा जा सकता था जिस का उसे पूंजीवाद में भी अधिकार था।
ReplyDeleteसमाजवाद में तो वह सारी ही संपत्ति समाज की हो जाती।
ऐसे समाजवाद के लिए सहज अनुभव की आवश्यकता थी जो की उस वृद्ध महिला ने जीवन के कष्टों से सीखा था |
ReplyDeleteधन्यवाद |
नथिया बुआ ने जो किया वह उनको अमर रखेगा .
ReplyDeleteकहते हैं न कि बेटा नहीं है तो नाम कैसे चलेगा? यह एक सबक उनके लिए भी है जो ऐसा कहते हैं. नाम इंसान के अपने कर्मों से चलता है. यह अस्पताल जब तक रहेगा उनके नाम को सभी एक बार याद करेंगे. उनके रिश्तेदारों कि तरह अगर अपने बेटी और बेटे भी हों तो यही कदम सबसे न्यायपूर्ण होगा.
ReplyDeleteबुआ ने जो किया वह प्रशंसनीय है मगर समाजवाद
ReplyDeleteनहीं है। समाजवाद एक नितान्त भिन्न और बेहतर सामाजिक व्यवस्था का नाम है।