धर्म और स्त्री मुक्ती को लेकर कई तरह की बहस गर्म है। चोखेर बाली पर एक तरफ़, महिलाओं का पुरोहिताई की तरफ़ बढ़ते कदम स्त्री-मुक्ती तरफदारी मे उठाये हुए कदम की तरह शिनाख्त पा रहे है। वही अंशुमाली और ब्लॉग जगत के दूसरे दोस्त कहते है की अगर स्त्री को मुक्त होना है तो धर्म को छोड़ना भी एक ज़रूरी सी शर्त है। तार्किक शर्त है।
स्त्री मुक्ती और धर्म को लेकर कुछ फुटकर विचार मेरे भी है, जो बार बार आत्म-चिंतन और बहुत तरह के लोगो के संपर्क मे आने से बने है। मुझे लगता है की जीवन के और ख़ास तौर पर सामाजिक जीवन के, सामाजिक अव्धारानाओ से जुड़े सवाल, किसी तरह के झटका समाधानों से सुलझने वाले नही है।
पुरोहिताई और स्त्री मुक्ती:
ये पुरूष द्वारा बनायी गयी व्यवस्था और दुर्ग पर औरतों की फतह की तरह दिखती है पहली नज़र मे। और तमाम संसाधनों की तरह, धर्म मे जनवादी संस्करण के उभरने का संकेत भी देता है, रूप के स्तर पर। मेरी उम्मीद है की ये फतह एक पुराने जीर्ण-शीर्ण और खाली पड़े किले की फतह से ज्यादा हो।
मेरी चिंताए अंतर्वस्तु को लेकर है, अगर वों बदले तो बात बने। नही तो कर्मकांडो मे और पुरोहिताई मे औरत की भागीदारी आज के समय मे कोई बड़ी बात नही है। न ही ये किसी सचेत प्रक्रिया की उपज है, जिसके फलस्वरूप औरतों मे इस भागीदारी की इच्छा उपजी हो। इसे लिबरल और प्रगतिशील महिलाओं के द्वारा जो एक लंबा संघर्ष भारत और उसके बाहर चला है, उसके साईड़ इफेक्ट के बतौर देखना ज्यादा उचित होगा।
वैश्वीकरण की आर्थिक व्यवस्था ने पुराणी पीढ़ी के मुकाबिले, आज की पीढ़ी के लिए कामगार से लेकर, कस्टमर सेण्टर और दूसरे अनेक तरह के रोजगार खोल दिए है। सरकारी नौकरियों से ज्यादा, एन जी ओ, की नौकरिया आकर्षक हो गयी है। एक ऐसे समय मे पुरुषो के लिए पुरोहिताई, बहुत आकर्षक नही है। समाज मे ये जो जगह खाली हुयी है, इसी को स्त्री पुरोहितो से भरा जा रहा है, और इसीलिये, ये न सही तो ये सही, की तर्ज़ पर सिर्फ़ स्त्री ही नही, दलित, और गैर-ब्राहमण जातिया भी इस पुरोहिताई का हिस्सा बन गयी है, जो उनके लिए सदा से वर्जित था। सो इसे सिर्फ़ स्त्री स्वतंत्रता के मुद्दे की तरह न देखा जाय। ये सिर्फ़ मांग और आपूर्ती का मामला है। और स्त्री के बराबरी और उसके मानव अधिकारों से इससे कुछ हासिल होगा, ये कम से कम मुगालता मुझे नही है।
ये गैर-बरहमन , और स्त्री पुरोहित भी कट्टर रूप से जातिवादी, और साम्प्रदायिक ही है, ऐसी धारणा इनमे से कुछ को देख कर मेरी बनी है। मानव मात्र की समानता की भावना इनमे नही है। जब आज ऑफिस जाती औरत, विमान चलाती औरत, और रास्ट्रपति औरत स्वीकार्य है, तो फ़िर पुरोहित औरत तो मुह मे घी-शक्कर है, इस पित्र्सत्ताक समाज के लिए ।
फ़िर भी इस संभावना को सिरे से नकारा नही जा सकता है की शायद स्त्री और दलित की भागीदारी से धरम को लेकर एक नया मंथन तीव्र हो जायेगा, और जाती-द्वेष से मुक्त एक नए मानवीय और बड़े आयाम लिए धर्म का उदय हो सकता है, जो जाती-विभाजित समाज मे नए समीकरणों के तहत एका ला सकता है। आखिरकार मीरा ने भी धर्म की शरण मे जाकर, जाति और लिंग भेद और उससे उपजे द्वेष को मध्ययुग ललकारा था। औरत के स्वतंत्र निर्णय, धर्म मे सीधे दखल के नए आयाम खोले, धर्म को भी सिर्फ़ रूप और कर्मकांडो तक की सीमा से बाहर निकल कर आत्म मंथन के लिए विवश किया। मीरा ने ज़हर पीकर भी, धर्म की अंतर्वस्तु को ललकारा, और उसके मनुष्य मात्र के लिए समान होने का दावा किया। पंडित को हटाकर रैदास से पूजन करवाना भी मीरा की हिम्मत और उनकी धर्म को लेकर मानवता वादी सोच का परिचायक है। और मेरा ये विश्वास मजबूत होता है, की अगर एक तरह की असमानता टूटेगी, तो दूसरी समांतर चल रही असमानताओं पर भी कुठाराघात देर सबेर ज़रूर होगा। दलित और स्त्री संघर्ष के इसी धरातल पर एक बार फ़िर से पुरोहिताई मे उनके दखल को भी देखना होगा।
दूसरा बड़ा सवाल ये भी है की क्या स्त्री एक शोषक व्यवस्था का एक अंग बनकर बराबरी पा सकती है ? या फ़िर दूसरे शोषितों के लिए उम्मीद की कोई किरण ला सकती है? या फ़िर एक ज़र्ज़र व्यवस्था को जीवनदान दे कर आज़ादी की राह को जाने-अनजाने और कठिन बना देंगी? क्या ये औरते, उन वैदिक मान्यताओं और रूढियों पर भी सवाल उठाएगी जो औरत की अस्मिता और स्वाभिमान पर वार करती है? क्या कभी ये कन्यादान जैसी प्रथा का, दहेज़ विरोध और घरेलु हिंसा का प्रतिकार भी करेंगी? इन स्त्रीयों को जो पुरोहित है, और जिन्हें नया-नया ये मुल्लापन नसीब हुया है, को स्वीकारना मर्दवादी समाज के लिए वरदान है। एक तो इनसे जुड़े परिवारों के लिए सीधा आय का साधन। और वृहतर समाज के लिए अपनी सविधा को बनाए रखने का आसान तरीका।
अगर भारत के इतिहास को देखा जाय तो इससे मिलता जुलता उदहारण अभी पुराना नही पड़ा है। ब्रिटिश रूल के समय, भारत मे इतने ब्रिटिश नही थे जो उनके तन्त्र को और भारत के बड़े समुदाय को परतंत्र रख सकते। इसीलिये, उनकी पुलिस , आर्मी, और प्रसाशन तंत्र मे तमाम भारतीय थे, जो उनकी इस गुलामी की व्यवस्था को सम्भव बनाते थे। सिर्फ़ आदेश और कमांड ब्रिटिश हाथो मे था, जिस पर भारत का एक बड़ा हिस्सा अपनी वफादारी, जान तक लगाने को तैयार था। पर क्या उस व्यवस्था का अंग बनकर, भारत को या सिर्फ़ उन भारतीयों को भी आजादी मिली? आज़ादी तो उस व्यवस्था को चुनौती देकर, अवरोध खड़े करके, और अवज्ञा से ही हासिल हुयी है।
धार्मिक विद्रोह और स्त्री मुक्ती.
दूसरी तरफ़ एक झटका समाधान है की "अगर स्त्री धर्म से (या कहे तो धार्मिक अन्धविश्वाशो से) अगर मुक्त हो गयी तो वाकई मुक्त हो जायेगी".मेरी राय मे नही होगी, क्योंकि धर्म कोई अलग थलग चीज़ नही है। धर्म, संस्कृति, विज्ञान, कला, कहावते, मुहवारे, और हमारा जीवन, इतिहास , सब एक तरह से आपस मे गुंथे हुए है, एक का बदलाव दूसरे को प्रभावित करेगा, और इनमे से कुछ भी जड़ नही है, ये सब लगातार बदल रहा है। ये किस दिशा की तरफ़ रुख किए है, इसे ही सचेत रूप से पहचानने की ज़रूरत है। और अगर ज़रूरत हो तो सचेत रूप से अपनाने या रिजेक्ट करने की भी।
धर्म का भी जो रूप आज हमारे सामने है, वों पहले इस तरह का नही था। त्योहारों का जो बाजारू रूप समाने है, शादी व्याह जो भयंकर जलसों मे बदल चुके है, उसका भी शहरीकरण, तकनीकी, और खर्च करने की क्षमता से, और भारत के एक बड़े हिस्से का गाँव से बेदखल होने, कृषक समाज की जड़ो से दूर होने से जितना रिश्ता है, उतना रिश्ता अब धर्म से नही बचा है। ये ज़रूर है, की ये सब धर्म के नाम पर चल रहा है। पर धर्म की और धार्मिक मान्यताओं की इस ऐतिहासिक यात्रा पर, बदलते स्वरुप पर भी बात होनी चाहिए।
अक्सर लोग धर्म की काट विज्ञान को और विज्ञान सम्मत दर्शन मे खोजते है। जिसके अपने फायदे है, और अपने नुक्सान है। विज्ञान ओब्जेक्टिविती के चलते, परमाणु बम बना सकता है, विनाश भी ला सकता, है, पर उस विनाश से बचने के लिए, जो मानवीव संवेदना है, मनुष्य मात्र के लिए सेवा का भाव है, उसे नही उपजाता। जिस तरह से धर्म का इस्तेमाल सत्ता, और राज्य ने इतिहास मे किया है, वही इस्तेमाल विज्ञान का भी हुया है, दूसरे समाजो को गुलाम बनाने के लिए, अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए।
बलशाली के लिए, विज्ञान और धर्म दोनों हथियार है, और निर्बल के लिए उम्मीद।
मैं ख़ुद किसी तरह के पूजा पाठ मे भरोसा नही करती, और और किसी ईश शक्ती से ये संसार संचालित होता है, ये भी नही मानती। पर जो मानते है, उनकी सुनने मैं, और उनके विश्वाशो को लेकर मुझे परेशानी नही है। धार्मिक आस्था को मैं निर्बल की उम्मीद की तरह देखती हूँ, और सबल की लाठी की तरह। अगर समाज के हाशिये पर खड़ी औरते, किसी तरह धर्म से अपने संबल लेती है, जीवन से हार नही मानती, और एक व्यक्तिगत स्पेस उन्हें धर्म से मिलता है, तो कुछ हद तक ये धर्म की सार्थकता है। उसी बहाने मशीन की तरह घर मे जुटी औरत को दो घड़ी का डाईवर्जन मिलता है। मन्दिर जाने के लिए ही सही घर से बाहर निकलती है, एक वृहतर समाज का हिस्सा बनती है।
धर्म और विज्ञान को लेकर मेरे अपने जीवन मे बड़ी कशमकश रही है। कभी एक सीधा सरल विश्वास था कि धर्म का विकल्प विज्ञान सम्मत दर्शन है। मेरे अपने जीवन के ज्यादातर फैसले इसी सोच के तहत आते है, पर इसकी सीमा रेखा का भी मुझे ज्ञान है। कभी कभी नयी उम्मीद और असंभव के सृजन के लिए, यथार्थ से ज्यादा कल्पना की डोर पकड़नी पड़ती है। यथार्थ को और वस्तुपरक ज्ञान को, जिसकी निश्चित काल से बंधी सीमा है, को लांघना पड़ता है, अंधे की तरह।
धर्म का जो सेवा भावः है उसके लिए सम्मान अभी भी मेरे दिल मे है। और जो आडम्बर है, साम्प्रदायिकता है, उसके लिए बेहद नफरत। और शायद हर व्यक्ति भीतर से जानता है की वों क्या कर रहा है, और जो ढोंगी है, वों धर्म का, रिश्तों का, और हर चीज़ का सिर्फ़ ढोंग करेगा। वों इतना शातिर होगा, चाहे स्त्री हो या पुरूष की उसके लिए हर चीज़ सिर्फ़ हथियार से ज्यादा मानी नही रखेगी.
धर्म का, धार्मिक मान्यताओं का, और सामाजिक मान्यताओं का भी, फैशन का, और प्रगतिशीलता का भी, लगातार मूल्यांकन ज़रूरी है। कसौटी पर बार बार, सर्वजन हिताय, और व्यक्तिगत आज़ादी , दोनों के पैमाने से। सर्वजन हिताय जहा सामजिक न्याय की कसौटी है, वही पर व्यक्तिगत आज़ादी, सर्जन और नयी संभावनाओ की। जहा भी इन दोनों के बीच सामजस्य नही है, वों समाज रोगी है। किसी भी एक कि दूसरे के कीमत पर अति, समाज के स्वास्थ्य के लिए और विकास के लिए बाधक हो जाती है.
ek jaruri aur sulhi hui post kae liyae swapandarshi ji thanks
ReplyDeleteस्वप्नदर्शी जी, इस लेख का तो हर शब्द मोती है. पोस्ट की जितनी तारीफ़ की जाए उतनी कम है. आपने मुद्दे के हर पहलू को उठाया है, बखूबी उठाया है और बहुत ही संतुलित तस्वीर प्रस्तुत की है.
ReplyDeleteपक्ष-विपक्ष से परे, असल मुद्दे की बात की है आपने. न तो पुरोहित बनकर औरतों का उत्थान या शोषण होने वाला है और न ही धर्म को छोड़ देने से. दोनों से दोनों हो सकते हैं - यानी धर्म को उत्थान व शोषण दोनों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है और जाता है; इसी प्रकार धर्म का त्याग भी उत्थान व शोषण दोनों का कारण बन सकता है. उसके उदाहरण भी दिए हैं आपने. अतिउत्तम !!
मैं तो सभी से अनुरोध करूंगी कि इस पोस्ट को ध्यानपूर्वक पढें.
वैचारिक व संयत आलेख अच्छा लगा.
ReplyDeleteस्वप्नदर्शीजी ,आपको सादर साधुवाद व बधाई ,
ReplyDeleteआपने जिस तरह गहरे सोच-विचार से "धर्मं,आस्था व स्त्री मुक्ति" जैसे गंभीर मुद्दे पर लेख लिखा है,बहुत उच्च कोटि का बन पड़ा है. वास्तव में समाज में प्रचलित इस तरह के सवाल जब बुद्धिजीवी वर्ग उठाएँगे तो उसकी गूँज दूर-दूर तक जायेगी. सर्व-विदित है कि स्त्री को कैसी मुक्ति चाहिए. वह केवल अपने लिए पूर्ण वैचारिक स्वतंत्रता चाहती है जो अभी तक संपूर्ण रूप से उसको नहीं मिली है.
१. समाज के हर क्षेत्र में प्रारंभ से पुरुषों का ही वर्चस्व रहा है. उसमे उनके द्वारा बनाई गयी व्यवस्था में महिलाओं की तांक-झांक तकपर प्रतिबन्ध रहा करता था वहीँ जब उसने कदम बढाया तो स्त्री-मुक्ति का नाम दिया.
२.वर्षों से मुख्य समाज के दायरे से अलग वो हाशिये में शोषक बनी रही तब उसकी ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया. अब जब वो चैतन्य होकर ज्यादा योग्य होकर आगे आई तो उसको नाम रखा जाने लगा.
३.पुरोहिताई ही नहीं समाज के हर रास्ते की ओर जबसे उसके सजग कदम बढ चले तो वे उसके अशम्य अपराध बनने लगे. धीरे धीरे ही सही अब नारी शक्ति जाग्रत हो चली है. और विरोध करने वालों से साहसपूर्वक अपना लोहा मनवा रही है, अपनी पहचान बना रही है. तो बस *नारी-मुक्ति आन्दोलन या विद्रोही * नारा मिल गया है.
अलका मधुसूदन पटेल
बेहद विचारपूर्ण आलेख लिखा है स्वप्नदर्शी जी ने
ReplyDelete- लावण्या
आपने जिस तरह गहरे सोच-विचार से "धर्मं,आस्था व स्त्री मुक्ति" जैसे गंभीर मुद्दे पर लेख लिखा है,बहुत उच्च कोटि का बन पड़ा है. वास्तव में समाज में प्रचलित इस तरह के सवाल जब बुद्धिजीवी वर्ग उठाएँगे तो उसकी गूँज दूर-दूर तक जायेगी. सर्व-विदित है कि स्त्री को कैसी मुक्ति चाहिए.
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