प्रगतिशील नारियां यानी बंधी बंधाई सोच से हट कर सोचने वाली स्त्रियाँ । रुढिवादी सोच यानी एक बंधी बंधाई लकीर जिस पर सालो से नारी चल रही थी । जहाँ क्या क्या करना हैं और क्या क्या नहीं करना हैं इसका फैसला वो ख़ुद नहीं करने मे सक्षम थी , उसे कोई और बताता था । समाज के बनाए हुए नियम जिसमे नारी को बराबरी का नहीं दर्जा नहीं दिया गया । जहाँ नारी को केवल और केवल एक वस्तु माना गया पुरूष के लिये एक ऐसा खिलौना जिसका शील कभी भी पुरूष भंग कर सकता था ।
इन सब परिस्थितयों से लड़कर जिस स्त्री ने भी अपना मुकाम अलग बनाया , समाज से अपने अस्तित्व कि पुकार कि कही उसे नारीवादी कहा गया तो कही फेमिनिस्ट और कहीं प्रगतिशील का तमगा दिया गया .
प्रगतिशील शब्द का का सीधा अर्थ हैं
इन सब परिस्थितयों से लड़कर जिस स्त्री ने भी अपना मुकाम अलग बनाया , समाज से अपने अस्तित्व कि पुकार कि कही उसे नारीवादी कहा गया तो कही फेमिनिस्ट और कहीं प्रगतिशील का तमगा दिया गया .
प्रगतिशील शब्द का का सीधा अर्थ हैं
- १. अग्रगामी, उन्नतिशील, अधोगामी का विलोम २. लगातार बेहतर होने वाला ३। विकास एवम बदलाव की राजनीति का पक्षधर, जनस्वातन्त्र्य का प्रवक्ता.
- उन्नतिशील, अग्रसर,उत्थानशील,उदयशील,उभरता/उभरती, सदाशिव,सुधरता/सुधरती।
प्रगतिशील नारी कि परिभाषा प्रगतिशील शब्द से फरक हो जाती हैं ऐसा क्यूँ । ये भेद भाव कब तक जारी रहेगा जहाँ हम नारी कि प्रगति को एक तंच के रूप मे देखते रहेगे ।
आज एक ब्लॉग पर एक बहुत अच्छी पोस्ट देखी वहाँ जो लिखा था अनुजा अपने ब्लॉग पर लिखती हैं । लेखक ने मुद्दा अपने ब्लॉग पर सही उठाया हैं लेकिन जब यही बात कोई स्त्री कहती हैं तो उसको प्रगतिशील का फतवा दे दिया जाता हैं और उसको भारतीये संस्कृति नष्ट करने के अपराध का दोषी माना जाता हैं ।
आज एक ब्लॉग पर एक बहुत अच्छी पोस्ट देखी वहाँ जो लिखा था अनुजा अपने ब्लॉग पर लिखती हैं । लेखक ने मुद्दा अपने ब्लॉग पर सही उठाया हैं लेकिन जब यही बात कोई स्त्री कहती हैं तो उसको प्रगतिशील का फतवा दे दिया जाता हैं और उसको भारतीये संस्कृति नष्ट करने के अपराध का दोषी माना जाता हैं ।
धर्म और उसकी दासता क्या ये केवल स्त्रियाँ ही करती हैं , भारतीये पुरूष नहीं करते । क्या धर्म से जुडी बातो को केवल और केवल महिलाए ही मानती हैं ?? धार्मिक दासता का शिकार तो पूरा भारत हैं और अज्ञान- जितनी जल्दी दूर हो उतना अच्छा ।
प्रगतिशील नारियां एक ऐसा शब्द बना दिया गया हैं जो आप एक गाली कि तरह इस्तमाल करते हैं ।
प्रगतिशील नारियां एक ऐसा शब्द बना दिया गया हैं जो आप एक गाली कि तरह इस्तमाल करते हैं ।
- प्रगतिशील होने मे क्या बुराई हैं ??
- प्रगति के रास्ते पर चलना क्यों ग़लत हैं ।
- प्रश्न हैं प्रगति क्या हैं ??
- क्यारुढिवादी सोच से हट कर सोचना प्रगति हैं ??
- रुढिवादी सोच क्या हैं क्या आप परंपरागत सोच को रुढिवादी मानते हैं
- या ये दोनों अलग अलग बाते हैं ?
जो लोग प्रश्न करते हैं कि ब्लॉग लिखने से हम हर तबके कि स्त्रियों का भला नहीं कर सकते , सही लिखते हैं । लेकिन क्या केवल महिला ब्लॉगर के ब्लॉग पढे लिखे तक ही जाते हैं , क्या पुरूष ब्लॉगर के ब्लॉग सड़क पर काम करती मजदुर औरते या घर मे काम करती मैड और चौका बर्तन मांजने वाली औरते पढ़ती हैं ??
ब्लॉग केवल और केवल पढे लिखे लोगो तक ही पहुंचता हैं । नारी सशक्तिकरण कि जरुरत पढ़ी लिखी नौकरी पेशा औरतो को ज्यादा हैं । आज भी बहुत सी महिलाए नौकरी करती हैं पर अपने पैसे पर उनका अधिकार नहीं हैं और ये बात मैने इस सर्वे मे पढ़ी हैं woman earn and man decide how to spend
ऐसी महिलाए जो सशक्त तो हैं पर अधिकारों के प्रति सचेत नहीं हैं , ब्लॉग लेखन उनके लिये भी हो सकता हैं । सशक्तिकरण के साथ साथ अधिकारों के प्रति सजगता ही प्रगति का दरवाजा खोल सकती हैं ।
पोस्ट ख़तम करते करते याद आया जहां मेरी माता श्री रेकी सेण्टर चलाती हैं उस मार्केट मे जिस दिन सुबह महिला सफाई कर्मचारी नहीं आती हैं तो हर पुरूष दूकानदार दुसरे से पूछता हैं " क्या हुआ मायावती , आज फिर नहीं आयी ? " और बाकी सब फिस्स करके बतीसी फाड़ देते हैं । अब ना तो उस महिला सफाई कर्मचारी का नाम मायावती हैं और ना इस प्रश्न मे हंसने लायक कोई बात हैं फिर वो सब इतना क्यूँ हंसते हैं बूझो तो जाने । कुछ पहेलियाँ वाकई समझ नहीं आती ।
एक और भी पहेली हैं कि क्या हिन्दी मे ब्लॉग लिखने के लिये अपनी बात को लोगो तक पहुचाने के लिये हिन्दी पत्रपत्रिकाए पढ़ना , हिन्दी मे सक्षम होना { यानी डिग्री डिप्लोमा होना } जरुरी हैं
पोस्ट ख़तम करते करते याद आया जहां मेरी माता श्री रेकी सेण्टर चलाती हैं उस मार्केट मे जिस दिन सुबह महिला सफाई कर्मचारी नहीं आती हैं तो हर पुरूष दूकानदार दुसरे से पूछता हैं " क्या हुआ मायावती , आज फिर नहीं आयी ? " और बाकी सब फिस्स करके बतीसी फाड़ देते हैं । अब ना तो उस महिला सफाई कर्मचारी का नाम मायावती हैं और ना इस प्रश्न मे हंसने लायक कोई बात हैं फिर वो सब इतना क्यूँ हंसते हैं बूझो तो जाने । कुछ पहेलियाँ वाकई समझ नहीं आती ।
एक और भी पहेली हैं कि क्या हिन्दी मे ब्लॉग लिखने के लिये अपनी बात को लोगो तक पहुचाने के लिये हिन्दी पत्रपत्रिकाए पढ़ना , हिन्दी मे सक्षम होना { यानी डिग्री डिप्लोमा होना } जरुरी हैं
रचनाजी, आपने इस पोस्ट को मेरे लेख के जवाब में लिखा। यानी मुझे उत्तर दिया। इस हाजिर जवाबी के लिए शुक्रिया। दिल से।
ReplyDeleteदरअसल, धर्म के प्रति जितनी बेचारगी महिलाओं में है, उतनी ही पुरुषों में भी। दोनों ही एक बिंदु पर खड़े हैं। धार्मिक आसक्ती दोनों के ही रास्तों को भटका रही है।
और जो पुरुष स्त्रियों और उनके काम पर हंसते हैं, मेरी नजर में वे सब नापुंसक हैं। मैं उनका विरोध करता हूं। जहां जो गलत है, उसका प्रतिकार करने के लिए हर एकको आगे आना चाहिए।
बहरहाल, आपने बंधनों को तोड़ने की बात कही। यह प्रयास बेहतर है। पर इसमें भी बहुत-सी बातें और चीजें हैं जो वैचारिक और सामाजिक बदलाव चाहती हैं।
"नारी सशक्तिकरण कि जरुरत पढ़ी लिखी नौकरी पेशा औरतो को ज्यादा हैं ।"
ReplyDeleteआपकी सभी बातों से सहमत हूँ, पर यह बात कुछ हजम नहीं हुई.
ज़रा इसको स्पष्ट करें. हमारे जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में कई लडकियां हैं जो एम्.फिल और पीएच.डी कर रही हैं, उनमें से कई जानी मानी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम भी करती हैं. अगर उनकी जीवनशैली को देखें तो लगता है की पुरुष भी उनसे कम स्वछन्द हैं. दिनभर में ३-४ पैकेट सिगरेट पीना (कभी-कभी ड्रग्स भी) और रात के दो बजे तक लड़कों के साथ मिनी स्कर्ट में घूमना. उन्हें और कितने अधिकारों और "सशक्तीकरण" की आवश्यकता है ये समझ में नहीं आता. और अगर इन्हें और ज्यादा अधिकार (मुझे नहीं पता कौन से) मिल भी जाते हैं तो दुनिया में महिला जाति का कितना कल्याण हो पायेगा? क्योंकि ऐसी महिलाओं की संख्या का प्रतिशत दशमलव में ही आयेगा.
आपने जिस सर्वे का जिक्र किया है वह भी ऐसी ही एलिट क्लास की महिलाओं के बीच किया गया है. घर के किसी भी सदस्य (चाहे वो पुरुष हों या स्त्री) द्वारा कमाए गए पैसों को कैसे खर्च या निवेश किया जाए यह निर्णय सामान्यतः सर्वसम्मति से या फिर घर के सबसे अनुभवी और जिम्मेदार व्यक्ति द्वारा लिया जाता है. गावों में देखें तो आज भी पुरुष अपनी पूरी तनख्वाह घर की सबसे वरिष्ठ और जिम्मेदार महिला के हाथों में देते हैं चाहे वो दादी हों, माँ अथवा पत्नी और इसे कैसे खर्च करना है इसका निर्णय भी सामान्यतया वही करती हैं.
रही बात महिला सफाई कर्मचारी को "मायावती" संबोधित करने वाली तो यह "महिला अधिकारों" का नहीं "दलित अधिकारों" का मुद्दा है. क्योंकि ऐसी टिप्पणियां पुरुष सफाई कर्मचारियों पर भी की जाती हैं. और टिपण्णीकारों का उद्देश्य लिंग विशेष को नहीं बल्कि जाति/वर्ग विशेष को नीचा दिखाना होता है.
अंशुमाली जी आप नारी ब्लॉग पर चल रही प्रगतिशीलता के आलेखों को { जो केवल एक लाइन के थे } और जिन पर आप ने कमेन्ट भी किया हैं को नज़रअंदाज कर रहे हैं । आपकी पोस्ट का जिक्र इस पोस्ट मे हैं पर किसी जवाबी कार्यवाही के तहत् नहीं हैं ब्लॉग लेखन आत्म मंथन हैं
ReplyDeleteआप एलिट किसे कहते हैं निर्भर इस पर करता हैं । बदलते परिवेश मे middle क्लास भी एलिट हो गया हैं . मैने कई बार पहले भी कहा हैं की हर वो चीज़ जिसको आप { यानी समाज } ग़लत समझता हैं उसको अगर बंद करवाना हैं तो स्त्री पुरूष दोनों के लिये बंद करवाये । आप एक बार आत्म मंथन करके बताये आप को आपत्ति किस बात पर हैं की रात को २ बजे लडकियां मिनी स्कर्ट मे घुमती हैं या इस बात पर की रातो २ बजे वेस्टर्न outfit मे घुमती नयी पीढी { यानी लड़के और लड़की दोनों }
ReplyDeleteरचना जी , आपकी बात सच हो सकती है पर आप जिस नारी तबके की बात कर रही है वहां ऐसी कितनी महिलाएं हैं जिनकी मासिक आय पुरूष लेते हैं । स्वतंत्र और स्वछंद दोनों शब्दों के अलग अलग पर्याय हैं । हमें अभी जरूरत है नारी की स्वतत्रा की । अधुनिक होना बिल्कुल गलत नहीं पर आधुनिकता के साथ गलत कार्यों में संलग्न होना गलत है । बराबर का अधिकार समाज में नारी को अभी तक नहीं मिला है यह बात बिल्कुल सही हैं । पितृसत्तामक समाज होने यह बात पुरूष वर्ग स्वीकार नहीं करता । यह बदलाव धीरे- धीरे ही हो रहा है और हो सकता है । प्रगतिशील के मायने आपने खुद ही गिनाये हैं पर इनसे दो हाथ आगें बढ़कर जब नारी कुछ करती है तो बात गले नहीं उतरती ।
ReplyDeleteआपकी ये बात सही है कि जो महिला ब्लागर लिखती हैं उसको पढ़ने वाला कौन है ? वो महिलाओं का बड़ा वर्ग गांवों बसता है उसके लिए क्या मायने पर यहां मैं यही कहूँगा कि अब महिलाएं हर क्षेत्र में सामने तो आ रही है । आपके भी चिचार बहुत हद तक सकारात्मक है । बधाई इस पोस्ट के लिए ।
आपकी बात से सहमत हूँ ....
ReplyDeleteउस मार्केट मे जिस दिन सुबह महिला सफाई कर्मचारी नहीं आती हैं तो हर पुरूष दूकानदार दुसरे से पूछता हैं " क्या हुआ मायावती , आज फिर नहीं आयी ? " और बाकी सब फिस्स करके बतीसी फाड़ देते हैं । अब ना तो उस महिला सफाई कर्मचारी का नाम मायावती हैं और ना इस प्रश्न मे हंसने लायक कोई बात हैं फिर वो सब इतना क्यूँ हंसते हैं बूझो तो जाने । कुछ पहेलियाँ वाकई समझ नहीं आती ।
ReplyDeleteYeh hamare samaaj ke paakhandi charitra par tippni hai jo kahta to hai sabko ek hi () ne banaya hai, par vastav meN manta kya hai vahi is 'HISS' meN chhupa hai. Kabhi-kabhi lagta hai ki yeh kisi zahrile sanp ki 'HISS' se kai guna khatarnak aur ghinauni hai.
मुझे आपति किसी बात से नहीं है. मैं महिलाओं के अधिकारों और उनकी स्वछंदता का सामान करता हूं. मुझे बस आपकी "नारी सशक्तिकरण कि जरुरत पढ़ी लिखी नौकरी पेशा औरतो को ज्यादा हैं ।" वाली बात से इत्तिफाक था जो मैंने दर्ज करा दिया. मेरे हिसाब से तो नारी सशक्तिकरण कि जरुरत निम्न और निम्न-मध्यम वर्ग की महिलाओं को ज्यादा है; जिन्हें "अधिकार" और "नारी सशक्तिकरण" का मतलब भी पता नहीं है.
ReplyDeleteकृपया ऊपर की टिप्पणी में "सामान" को "सम्मान पढें.
ReplyDeleteरचना जी , आपकी बात सच हो सकती है पर आप जिस नारी तबके की बात कर रही है वहां ऐसी कितनी महिलाएं हैं जिनकी मासिक आय पुरूष लेते हैं
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