आज विश्व नारी उत्पीड़न दिवस मनाया जा रहा है। बड़े-बड़े आयोजन होंगे, लंबे चौड़े भाषण दिए जायेंगे और दावे किए जायेंगे की हम इस नारी उत्पीड़न को शत प्रतिशत ख़त्म करने की कसम खाते हैं। इनमें महिला आयोग और मानवाधिकार आयोग के कार्यक्रम भी जरूर होंगे। फिर क्या होगा , यही न कि आज के बाद एक साल तक ये सारे वादे भूल जायेंगे और फिर अगले साल भाषण के पुराने मुद्दों को उठा कर बोलना शुरू कर दिया जायेगा।
मैं इन सब की गतिविधियों पर प्रश्न चिह्न नहीं लगा रही हूँ , बल्कि यह सोच रही हूँ कि जितना इलाज किया मर्ज उतना ही बढ़ता गया। अगर खबरें उठा कर देखें तो हमें यह मिलता है।
कानपूर में दो बहनों की साथ विवाह के लिए पिता ने आयोजन किया और सिर्फ एक बेटी की बारात आई और दूसरे परिवार ने कह दिया की लड़का गायब हो गया और दूसरे बेटे के लिए बारात लाने के लिए उन्हें २ लाख रुपये और चाहिए।
उस पिता की मनःस्थिति को कौन समझ सकता है। बराबर सजे दोन मंचों पर एक ही जोड़ा बैठा था और दूसरा खाली पड़ा था । उस लड़की की मनःस्थिति तो शायद ही कोई समझ सकता है।
पुलिस को इस बारे में रिपोर्ट करने को कहा गया तो उनका जवाब था की शादी करना या न करना लड़के वाले की मर्जी की बात है इसमें पुलिस क्या कर सकती है। दूसरे दिन लड़का वापस घर आ गया और पुलिस को सूचित करने पर उसे थाने बुला कर छोड़ दिया गया। जब ऊपर अधिकारीयों के दरवाजे पर गुहार लगायी तो पुलिस हरकत में आई।
मिस्टर शर्मा ने अपनी बेटी का रिश्ता किया और सारी शर्तें के पूरी होने पर उन्होंने सगाई की रस्म पूरी की, लेकिन यह क्या बारात लाने के एक दिन पहले ही उन्होंने चार पहिये के गाड़ी की मांग कर दी। क्या हर पिता इतना सक्षम होता है की वह पूरी तयारी के बाद ३-४ लाख रुपये की गाड़ी खरीद कर दे दे, नहीं फिर भी अगर बेटी की डोली उठानी है तो उन्होंने गले तक कर्ज में डूब कर किश्तों पर गाड़ी उठा कर दी, क्योंकि बारात न आने या फिर लौट जाने का सदमा वे सहने के लिए तैयार नहीं थे। इसके बाद वर्षों तक इस कर्ज की अदायगी करते रहेंगे और रिटायर होने के बाद भी इससे मुक्त नहीं हो पायेंगे.
क्या सिर्फ दहेज़ के लिए इस तरह से लड़कियाँ रुसवा होती ही रहेंगी , मानवता और नैतिकता के मायने बदल गए हैं। इसको कोई भी क़ानून नहीं लागू करवा सकता है, इसको बदलने के लिए संकल्प इस समाज का ही होना चाहिए। सम्पूर्ण समाज गिरा हुआ नहीं है और न ही सम्पूर्ण परिवार ख़राब है। क्या करना है इसके लिए इस अन्याय के लिए एकजुट होना है। आप प्रबुद्ध है और इस बात का निर्णय करने का आपको पूरा हक़ है की ग़लत क्या है और सही क्या है? फिर ऐसे निकृष्ट व्यक्तियों का सामजिक बहिष्कार करने की आवश्यकता है। हम पूरे समाज को नहीं बदल सकते हैं लेकिन एक प्रयास और वह भी समाज और नैतिकता के हित में कर ही सकते हैं। मत कीजिये ऐसे परिवार में अपने रिश्ते जो एक रिश्ते को छोड़ चुके हों- आप क्या समझते हैं की वे कल आपको ऐसी स्थिति में लाकर नहीं कर सकते हैं और फिर जो रिश्ता उन्होंने तोडा है वे भी आपकी तरह से एक बेटी के माता - पिता हैं।
आज इस नारी उत्पीड़न दिवस के अवसर पर इतना तो संकल्प ले सकते हैं की जिनसे हम मिलते हैं जिन्हें हम जानते हैं उनको अपनी दलीलों से इतना मानसिक रूप से तैयार करें की वे भी इस नारी उत्पीड़न के इस रूप को हटाने में अपना सहयोग दें और एक स्वस्थ मानसिकता वाले समाज के निर्माण में अपना सहयोग दें। यही सबसे सार्थक प्रयास होगा आज के दिन का और आज के संकल्प का कि हम इस अन्याय और उत्पीड़न में शामिल लोगों को सम्मान देना बंद कर देंगे। सामाजिक बहिष्कार एक मानसिक दंड है और कारगर भी, बस इसका प्रयोग करके देखें।
" जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की " "The Indian Woman Has Arrived " एक कोशिश नारी को "जगाने की " , एक आवाहन कि नारी और नर को समान अधिकार हैं और लिंगभेद / जेंडर के आधार पर किया हुआ अधिकारों का बंटवारा गलत हैं और अब गैर कानूनी और असंवैधानिक भी . बंटवारा केवल क्षमता आधारित सही होता है
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था
हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।
यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का ।
15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं
15th august 2012
१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं
15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं
15th august 2012
१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं
"नारी" ब्लॉग
"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।
" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "
हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था
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निश्चित ही काफी फर्क पड़ सकता है अगर हम संकल्प लेते हैं तो।
ReplyDeleteएक मानसिकता ही बन गई है की वधु पक्ष से होना यानि कमज़ोर होना और बेकार ही दबाव में आना. दहेज़ मँगाने वालों से शादी की बात भी पक्की कर लेना गुलाम मानसिकता मानी जायेगी. वरना दहेज़ न चाहने वालों की कमी नहीं है, और पता नहीं क्यों लोग बच्चों की शादी जैसा बड़ा निर्णय लेते समय दूसरे पक्ष की साख और चरित्र के बारे में पूरी पड़ताल नहीं करते?
ReplyDeleteदुनिया में ज्यादातर लोग बुरे नहीं हैं, पर फ़िर भी पहले ही पूरी सावधानी रखनी चाहिए, अच्छा हो की लालची लोगों से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध दरकिनार कर दिया जाए. यू पी का समाज मैंने जैसा देखासुना और महसूस किया, अपेक्षाकृत काफी जड़ मानस है. वरना दूसरे राज्य कुरीतियों के मामले में कुछ सुधार पर हैं.
नारी उत्पीड़न दिवस मनाये जाते रहेंगे, हो सकता है कुछ फर्क भी पड़े, पर इस से समस्या पूरी तरह हल होने वाली नहीं है. इस के लिए तो नारियों को लगातार संघर्ष करना होगा. समाज में नारी पर हिंसा होती है, उसके लिए इस पोस्ट में लिखा गया है. लेकिन नारी पर जो हिंसा सरकार और पुलिस द्वारा होती है उस पर भी लिखा जाना चाहिए. साध्वी प्रज्ञा का केस कौन उठाएगा. साध्वी ने अदालत में हलफनामा दे कर बताया है कि कैसे उस पर मानसिक और शारीरिक अत्त्याचार किए गए.
ReplyDeleteकौन संकल्प लेगा और क्या संकल्प लेगा? माता-पिता बच्चों की शादी में टाँग अड़ाते ही क्यों हैं? उन्हें स्वतन्त्र क्यों नहीं छोड़ देते कि अपनी इच्छानुसार अपना जीवन-साथी चुनें। अक्सर देखा गया है कि जो पिता बेटी की शादी के मौके पर निरीह बकरी जैसा मिमियाता है वही बेटे की शादी के समय नरभक्षी शेर की तरह दहाड़ने लगता है।बहुतेरे बेटा-बेटी भी बड़ी होशियारी से आज्ञाकारी बन जाते हैं (बिना मेहनत किये कुछ माल मिल रहा है तो बुराई क्या है)। समय बदल रहा है और इस दोहरी मानसिकता के दिन भी लद रहे हैं। थोड़ा समय तो लगेगा ही।
ReplyDeleteसामाजिक बहिष्कार कारगर दंड था। लेकिन समाज का विस्तार हो चुका है। वह इतना विशाल है कि सामाजिक बहिष्कार का निर्णय लेना कठिन है और उस से भी अधिक है उसे लागू करना। हर मामले में जितने बहिष्कार करने वाले मिलेंगे उतना ही बहिष्कृत का बचाव करने के लिए खड़े हो जाते हैं। मैं अक्सर देखता हूँ कि परिवादी के साथ जितने लोग होते हैं उस से अधिक अपराधी को बचाने वाले आ जाते हैं जिन में रसूख वाले सज्जन बहुत होते हैं।
ReplyDeleteआज विश्व नारी उत्पीड़न दिवस मनाया जा रहा है
ReplyDeleteis jaankari kae liyae aur itni umdaa post kae liyae thanks
ab incon...ji,
ReplyDeleteआपका कहना सही है कि क्यों हम दबाव में आते हैं, इस मानसिकता को हम बदलने का ही प्रयास कर रहे हैं. बेटे जरूर इस मामले में माता पिता के सपूत बन जाते हैं. संकल्प कौन करेगा हम ही न, सिर्फ लड़की के पिता के संकल्प करने से कुछ भी नहीं होता है. दहेज़ न लेने वालों कि संख्या गिनी चुनी ही होगी. अच्छे अगर अच्छे बने रहे तो लोग - 'जरूर उनमें कोई कमी होगी तभी तो कुछ नहीं मांग रहे हैं. '
ऐसे ताने से उनको नवाजते हैं. मैं तो सिर्फ यही चाहती हूँ कि आगे कुछ आयेंगे तो पीछे चलने वालों से कारवां बन सकता है.
अमर्ज्योतिजी ,
ReplyDeleteआपका कहना बहुत सही है कि माँ-बाप बच्चों की शादी में तंग अडाते ही क्यों हैं? क्योंकि हर बच्चा अपने आप शादी कर भी तो नहीं पाता है, हाँ यह जरूर है की अगर उनकी अपनी पसंद है तो हमें उन्हें सहर्ष अनुमति देनी चाहिए और जो हमारा दायित्व बनता है वह पूरा करना चाहिए. बच्चों में गंभीरता और परिपक्वता आ जाती है तब तो वे निर्णय सही लेते हैं , लेकिन यही निर्णय अगर भावुकता और क्षणिक आकर्षण में लिया गया तो जीवन उनका ही बर्बाद होता है. तब शायद सबसे अधिक कष्ट माँ-बाप को ही होता है. दहेज़ न लेने और देने का निर्णय भी हमारा ही होता है और हम इस समाज के ही एक अंश हैं.
द्विवेदी जी,
ReplyDeleteअपराध पल ही क्यों रहे हैं, क्योंकि उनको रसूख वालों की शरण मिली हुई है, उनमें हिम्मत होती ही उन लोगों की वजह से. सामाजिक बहिष्कार कौन करेगा? जरूरी नहीं की सारा समाज उनको छोड़ दे, पर कुछ प्रबुद्ध व्यक्ति ही ऐसा करने का प्रयास कर सकते हैं. अपने पास पड़ोस के ही चंद परिवार उनको बहिष्कृत कर दें, तो ऐसा नहीं की उनपर मानसिक दबाव नहीं बनता है. क्योंकि समाज से अलग रहा ही नहीं जा सकता है.
हमें किसी से कुछ कहने की जरूरत ही कहाँ है? अपने जैसे कुछ लोग ही मिल जायेगे तो फिर साथ देने वालों की कमी नहीं होती है.
मुंशी प्रेमचंद्र को एक पाठक ने पत्र लिख कर पूछा था कि किस प्रकार वह अपनी पुत्री के लिए बिना दहेज के योग्य वर ढ़ूढ़ा सकता है ?उपन्यासकार का उत्तर था माता पिता पुत्री को भी पुत्र की तरह उचित शिक्षा देकर आत्मनिर्भर बना दें और उसके विवाह की चिंता छोड़ दें। उनका विश्वास था कि पुत्री स्वंय परिवार की प्रतिष्टा के अनुरूप अपना भविष्य बना लेगी।आज भी यह जानना प्रासंगिक है कि कितने माता पिता बेटी के व्यक्तित्व के विकास को प्राथमिकता देते हैं? और कितने उसके लिए दहेज जुटाने को ?हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि दहेज लेना व देना दोनों ही अपराध है दहेज देने वालों को सजा नही मिलती। कारण पूरी व्यवस्था पितृसत्तात्मक है। यहां केवल नारी की दुर्दशा पर क्रंदन करके के अपने कर्तव्य की इतिश्री होजाती है। पुरुष की भांति आत्मविश्वास तथा आत्मसंमान से लैस नारी पितृसत्ता के लिए खतरा होती है। इसलिए हम दहेज के लोभियों की तो भर्तसना करते हैं पर उस व्यवस्था पर चोट नहीं करते जो पुत्री को बराबर का अधिकारी नही मानता वरन् दहेज के नाम कुछ टुकड़ों का पाता ही मानता है। कितने माता पिता अपनी बेटियों को अपनी संपत्ति में बराबर का हिस्सा देने तैयार हैं यह सवाल भी पूछा जाना चाहिये।यदि बेटी संपत्ति में बराबर की हकदार होजाय तो दहेज का सवाल ही पैदा नही होता।कितने माता पिता बिटिया की खुशी को उसकी शादी से अधिक महत्व देते है?यह भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। कितनी बेटियों को परिवार की खुशी के लिए अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर शादी करनी पड़ती है। कारण इतना अच्छा लड़का बाद में नही मिलेगा।या ज्यादा पढ़ जाएगी तो फिर उसके लायक लड़का कहां से लाएंगे?कहने का मतलब है पहले माता पिता को अपनी बेटी को दोयम दर्जा देना छोड़ना चाहिये। उसको बेटे के समान पालना चाहिये।इलाज बीमारी का होना चाहिए बीमारी के लक्ष्णों का नही। गोपा जोशी
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