कोई भी नाम दे दो-सीता,गीता,नीता............क्या फर्क पड़ता है ! क्या फर्क पड़ता है इस बात से कि उसकी जाति क्या थी ! क्या फर्क पड़ता है, उसकी शिक्षा क्या थी ! क्या फर्क पड़ता है, उसका रंग-रूप कैसा था ! क्या फर्क पड़ता है , उसके संस्कार कैसे थे!.........
कभी सुन्दरता,कभी पैसा,कभी अच्छाई,कभी सहनशीलता-एक ही लिबास में 'बलि-वेदी'पर चढ़ाई गई है,'चरित्रहीनता'!
सुन्दरता - चरित्रहीनता!
कम दहेज़- चरित्रहीनता!
सुशील - चरित्रहीनता!....................
ऐसा नहीं कि कोई नारी "काल" नहीं होती, अपनी वाचाल प्रवृत्ति से किसी का जीना हराम नहीं करती, या आए दिन प्रेम नहीं करती...पर ऐसा कम होता है और ऐसी नारियों को बलि का बकरा बनाना मुश्किल है !
खैर , आऊं उस लड़की की बात पर , जिसे - चलिए एक नाम दे देती हूँ "सुधा"।
सुधा की शादी की तयारी चल रही थी, जाने कितने सपने उसे अनजाने में हौले से छूकर चले जाते। नया घर, नई पहचान, नए संबोधन... कल्पनाओं की उड़ान ख़त्म नहीं होती थी।
सुधा ब्याह कर ससुराल पहुँची-रूप की चर्चा,गहनों की चर्चा,समानो की चर्चा...कोई कमी नहीं थी, पर ससुराल वालों की निगाह में कम हो गई और नई ज़िंदगी की सौगात मार-पीट के रूप में मिली...
कोई सहनशीलता काम नहीं आई। सुधा जब-जब अपने परिवार वालों से अपना दर्द बताती, वे उसे समझाते "वही घर है।" एक दिन सुधा बदहवास अपने चाचा के पास उनके ऑफिस में भाग कर गई..."वे मुझे मार देंगे, मुझे वहाँ नहीं जाना...!" चाचा ने समझाया,"ऐसे नहीं घबराते...थिदी खट-पट हर घर में चलती है, जहाँ चार बर्तन होंगे ,आवाज़ होगी ही, उनका दिल जीतने की कोशिश करो बेटा ....
और अगली सुबह सुधा की मौत हो गई , दिलवालों ने उसे जला डाला... अखबार के मुखपृष्ठ पर ताजी ख़बर छपी "कौन है ज़िम्मेंदार?"
अब आप कहिये - क्या यह सज़ा सिर्फ़ ससुराल वालों को मिलनी चाहिए ? नहीं, मेरे विचार से सबसे पहले उनको,जो समाज का वास्ता दे कर अपनी बेटी को काल के आगे भेजते हैं.....मृत्यु के बाद न्याय की कैसी झूठी गुहार ? सब ढकोसला है-कहीं कभी कोई न्याय ना था, ना है, ना होगा- पर मेरी आत्मा का रिश्ता इनके साथ ही है, और...अब आप कहिये मैं सही हूँ या ग़लत?
नारी को कमजोर केवल और केवल उसके मां बाप बनाते हैं.. शिक्षा संबल देती है...अधिकारों के प्रति जागरुक करती है। शिक्षा १२ वीं तक फ़्री और अनिवार्य होनी चाहिए...
ReplyDeleteनारी के बल पर ही समाज चलता है..
ReplyDeleteभारतीय समाज अगर सदियों की गुलामी के बाद भी जिंदा रहा तो सिर्फ नारी के बल पर ही..
किसी प्रसिद्ध शायर ने कहा था...
बात है हममे कुछ कि हस्ती मिटती नही हमारी.
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा.....
लेकिन यह कहना भूल गया कि कि इस हस्ती के पीछे सिर्फ और सिर्फ भारतीय नारी का हाथ रहा है... और हमेशा रहेगा....कवि कुलवंत
यहां सिर्फ नारियां ही सदस्य क्यों हैं.. क्या नारी का पक्षधर कोई पुरुष नही हो सकता क्या...? यां वह नही लिख सकता..
ReplyDeleteरश्मि जी
ReplyDeleteआपने नारी की जिस व्यथा का वर्णन किया वह सच्चाई है। और इसका दोषी कोई एक व्यक्ति नहीं पूरा समाज है। समाज की व्यवस्था ही ऐसी है जिसमें नारी को कमजोर बनाया जाता है। बचपन से उसे सबकुछ सहने और चुप रहने की सीख दी जाती है। पुरूष भले ही राम ना बने पर नारी पर सीता का आदर्श लादा जाता है।
२ इस हालत के दोषी समाज के वे लोग भी हैं जो अपने आस-पास इस तरह की घठनाएँ देखकर चुप रहते हैं।
३ माता-पिता का दोष भी कुछ कम नहीं। बेटी के ब्याह के बाद ही वे उसकी जिम्मेदारी से मुक्त कैसे हो जाते हैं । उसके सुख-दुख की खबर रखना भी उनका काम है। यदि माता-पिता ही सहार नहीं देंगें तो बेचारी अबला कहाँ जाएगी?
४ मेरे विचार से पूरी व्यवस्था ही दोषी है। जो नारी को कमजोर बना रही है।
जब लड़की बड़ी होना शुरू करती है तो उसको यही बार बार कहा जाता है की अब जहाँ तुम्हारी शादी होगी वही घर होगा तुम्हारा और वहाँ कुछ समय तक जैसा वह कहे वैसा ही करना ..क्यूंकि नई तुम हो उस घर में सो तुम्हे ही एडजस्ट करना होगा और इसी एडजस्ट में कब कहाँ सब ख़त्म हो जाता है ज़िंदगी बदल जाती है ..दोषी हमारी वह रुढिवादी विचार धारा है जो हमे जन्म से घुट्टी में पिला दी जाती है ..परिवर्तन अभी नाम मात्र है ..और जागरूकता शिक्षा और अपने पैरों पर खडे होनी की जरुरत है !!
ReplyDelete@kavi kulwant
ReplyDeleteआप को इस ब्लोग का सद्स्य बना कर ब्लोग का मान ही उन्चा होता पर अभी कुच समय लगेगा
ज़िम्मेदार वह समाज है जो व्यक्ति को यह नहीं कहता कि तुम मानव हो, तुम्हारे मानव अधिकारों को कोई रिश्ता कुछ कुचलना चाहे तो कभी मत मानो उस रिश्ते को. यह समाज व्यक्ति को कहता है तुम स्त्री हो तुम्हारा यह धर्म है, तुम अछूत हो तुम्हारा यह धर्म है, तुम यह हो या वह. इस समाज में हम लड़के के माता पिता हो कर हम कुछ चाहते हैं और लड़की के माता पिता हो कर कुछ और.
ReplyDeleteमेरी बहन के विवाह {१९ ८८ } के बाद अगर कभी भी किसी ने ये कहा की अब तो ये घर उसका मयेका और वो उसकी ससुराल हैं तो मेने तुरंत सही किया की नहीं ये मायेका नहीं उसका घर हैं । लड़की का विवाह करना उसको बेघर करना नहीं होना चाहिये । ससुराल मे तो बहुत कम खुशनासिबो को घर मिलता हैं और अगर हम उनसे वो घर भी छीन लेगे जहाँ वो पैदा हुई हैं तो उनके पैर के नीचे की ज़मीन हम हटा रहे हैं और जाहाँ परो के नीचे से जमीन हट जायेगी इमारत तो कभी भी गिर सकती हैं ।
ReplyDeleteहम सब को हमेशा प्रयत्न शील रहना होगा कि हम उस समय बोले जब बोलना चाहीये । सही समय पर गलत बात को ना टोक कर सब लोग जो चुप लगाते हैं वह मौन स्वीकृति समझा जाता हैं । आज से भी अगर हम ये वादा करे कि बिना इस बात से डरे कि समाज क्या कह्गा हम सिर्फ़ सच और सही का साथ देगे तो यकीं मानिये समय बदलने मे देर नहीं लगेगी ।
कौन दोषी नहीं है............हम सब कहीं न कहीं दोषी हैं.........व्याख्या करने का सामर्थ्य तो नहीं रखता मैं पर इतना कह सकता हूँ की अपनी अपनी जगह हम सब दोषी हैं
ReplyDeleteavinash
आपने बहुत ही प्यारा लिखा उसके लिए मेरे विचार .......
ReplyDelete१४ साल की शादी को १५ साल की माँ को आजादी चाहिए
दहेज़ देकर बिकती नारी को आग मैं जलती साडी को आज़ादी चाहिए
तुम्हारा क्या स्वरूप है तुम्हारे कई रूप हैं
बस उनको देखने का नजरिया अलग अलग है....
तुम माँ,बहिन,बेटी,और पत्नी बनकर अटूट रिश्तो की अखंड ज्योत बन जाती हो
और उन रिश्तों को निभाने के लिए हर उस बलिदान को जो तुमने दिया है अपना फ़र्ज़ समझती हो
मगर तब भी पता नहीं तुम्हारे बलिदान को किस नज़र से देखा जाता है
एक सुहागन को काटों की सेज पर या सहन शक्ति की अन्भूजी चिता पर लेटा ही पाया जाता है और फिर देखते ही देखते ज़िन्दगी से नफरत मौत से प्यार हो जाता है मौत का प्यार उसे अपनी तरफ आकर्षित करता है ज़िन्दगी जीने की आस को हर पल मिटाता रहेता है और फिर प्यार इतना बढ़ जाता की उसे जितना प्यार मौत से मिला है उतना प्यार शायद किसी से न मिले वो मौत को अपना हमसफ़र और दर्द को अपनी ख़ुशी समझने लगती है और अगले ही दिन मौत की बाँहों मैं अपने दम तोड़ देती है
समझमें नहीं आता इस नारी को क्या कहैं जो अपनी मौत मैं भी प्यार dhundhti है
यह सब सामाजिक कुसंस्कार हैं. दूर होने चाहिए.
ReplyDeleteयह बहुत व्यापक विमर्श की बात है,और सच कहूँ तो दुर्भाग्य भी यही कि हम ये "विमर्श वाला काम' करना ही बेहतर समझते हैं,सच तो ये है कि, इंसानियत के प्रादुर्भाव के इतने काल बाद भी यदि नारी की दशा सोचनीय है तो इसकी जिम्मेदारी किसी और की नहीं वरन उस नारी की है जिसे हमारा तथाकथित सभ्य समाज अबला, वैदेही और जाने क्या क्या अलंकरण देता रहा है.जब भी कोई दहेज़ सम्बन्धी कांड हमारे सामने आता है तो उसमे पीदिता की सास और ननद का विशेष उल्लेख होता है,ऐसा क्यों?क्यों एक औरत इसबात का बदला दूसरी औरत से लेना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती है कि कभी उसने भी झेली हैं वो सारी यातनाएं.
ReplyDeleteदूसरी बात कि किसी भी परिवार कि नींव होती है जननी यानि कि वही आपकी हमारी अबला, जो अपने उस भविष्य के पुरूष होने वाले बच्चे को जनती है.सामाजिक तौर पर जिसे बच्चे की पहली अध्यापिका कहा जाता है,क्या एक अध्यापिका अपने अबोध छात्र को नैतिकता का इतना जरा सा पाठ भी नहीं पढ़ा सकती?मानता हूँ कि सदियों से नारी को दबाया गया है पर यह क्यों भूल जाते हैं आदि काल से ही नारी को सर्वोपरि का दर्जा भी हासिल होता रहा है.
यदि एक नारी(द्रौपदी) के कारण १८ अक्षावानी लोग हताहत किए जा सकते हैं तो क्या एक नारी अपने एक बच्चे को इतनी ताकत नहीं दे सकती कि वो पुरातन समाज द्वारा बनाये गए रीतियों से लड़ सके?
अगर नहीं दे सकती तो उसे ये घडियाली आंसू बहाने का कोई हक़ नहीं.
अरे अगर एक नारी "सुधा" है तो नारी गार्गी,चावला,किरण बेदी भी हैं.ख़ुद को मजबूत करिए और रोना बंद करिए क्योंकि जो अपनी सुरक्षा नहीं कर सकता कोई उसकी सुरक्षा नहीं कर सकता है.
अंत में सौ की एक बात- अगर एक नारी एक पुरुश्वादी,ताकतवर,जुल्मी समाज को जन्म दे सकती है तो नेस्तनाबूद भी कर सकती है.जरुरत है फकत ख़ुद को जानने की और अगर आज भी खामोश रहे तो-----
"आज अगर खामोश रहे तो कल सन्नाटा छायेगा,
हर बस्ती में आग लगेगी हर बस्ती जल जाएगा,
सन्नाटों के पीछे से टैब एक सदा ये आयेगी
कोई नहीं है,कोई नहीं है, कोई नहीं है,कोई नहीं "
आलोक सिंह "साहिल"
ये सब वही लोग हैं जो खुद अपनी आकांक्षायें पूरी नहीं कर सकते, वो अपने बेटे को किसी पौधे की तरह सींचते हैं ताकि बड़ा होने पर फ़ल (दहेज) दे सके.
ReplyDeleteकुछ दोष लड़की पक्ष का भी है वो क्यूं ऐसे घर में अपनी बेटी ब्याहते हैं जहाँ लेन-देन की बात चलती हो?
इस ब्लॉग पर इन्स्पिरिंग पोस्ट की बहुत जरुरत हैं जो ये दिखाए की मुसीबत मे नारी कितनी स्ट्रोंग हैं वरना घुटन तो सब जगह व्याप्त ही हैं
ReplyDeleteआंसू नारी की तकदीर तभी तक हैं जब तक वह उन्हे अपनी तकदीर मानती हैं
कुछ सच समय के साथ खत्म हो सकते बशर्ते हमे उन्हे दोहराए ना
मे आलोक सिंह "साहिल" से पूरी तरह सहमत हूँ । मरना , हताशा और आंसू सब सच हैं और उतना ही सच है की लड़ाई ख़ुद लडो । नहीं पसंद छोड़ो और आगे बडो । वह करो जो तुमेह सही लगता हैं वह नहीं जो समाज को सही लगता हें । समाज हम हैं और समाज कि बुराई भी हमी हैं । सो बुराई मिटे इसके लिये हर एक को व्यक्तिगत प्रयास करना होगा
और एक बात सभी कमेन्ट करनी वालो से कभी कभी हमारे आस पास कुछ ऐसा हो जाता हैं की हम हताश भी होते ही हैं , और फिर शब्द से उस हताशा को निकालते हैं । और अगर वह शब्द संवाद बन जाए तो हताशा जल्दी आशा बन जायेगी
बिलकुल सही है दीदी पर फिर भी तो लोग समझ नहीं पा रहे हैं...बेटियाँ तो सारी उम्र ये समझने मे ही काट देती हैं की आखिर कौन सा घर उनका है..बचपन से ही ये कहा जाता है की जो करना हो अपने घर जा कर करना और ससुराल मे कहा जाता है...." अपने घर से यही सीख कर आयी हो " बीच मे झूलती रह जाती हैं बेटियाँ..
ReplyDeleteRashmi ji
ReplyDeleteaapne jo tavseer batai hai uss se dil dehaal jata hai par ismein bahut sachai hai.
is mein jitne doshi sasural wale hain utne hi parents bhi hain.kyun vo apni hi beti ki awaaz nahi sunte, jab vo pahli baar aakar apna dard batati hai, kyun usse narak mein yeh kah kar baij dete hain ki aab vo hi tera ghar hai. kya maa baap ka ghar uska nahi hai.
samajh ke banaye rasmo mein ladki bali chad jati hai toh samajh bhi is utna hi doshi hai jitna sasural.
sab ko katgarah khade kar ke sazaa deni chahiye. sorry kuch agar jayada kah gayi hongi toh.
nira
मुझे तो लगता है ..एक लड़की चाहे मायाके को या चाहे ससुराल को अपना घर समझे..लेकिन हमेशा वही फैसला ले जो उसे सही लगे...अपने को झूलने वाली स्तिथि से ख़ुद ही निकलना पडेगा| और इसके लिए शिच्छा बहुत जरुरी है| शिच्छा से ही जागरूकता संभव है|
ReplyDeleteअपनी इस Article के माध्यम से समाज की एक ज्वलंत समस्या की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए धन्यवाद |
ReplyDeleteजहा तक मेरे व्यक्तिगत विचार का प्रश्न है, मैं इस तरह की सामाजिक बुराई के लिए, सामाजिक व्यवस्था, ससुराल पक्ष, मैएके पक्ष या स्वयम नव बधू किसी को भी सीधे तौर पर जिम्मेबार नहीं समझता, क्युकी जहा तक परंपरा का सवाल है तो ये परंपरा सदियों से निर्विरोध चली आ रही है की बेटी विवाह के बाद ससुराल चली जाती है और फिर ससुराल ही उसका घर हो जाता है | यदि इस सामाजिक व्यवस्था ने एक नव बधू को जलाया है तो हजारो नव बधुओ को खुशहाल जीवन भी दिया है | किसी भी सामाजिक कुरीतियों के लिए सीधे तौर पर सामाजिक व्यवस्था ही जिम्मेबार होती है येसा मैं नहीं मानता वालिक मेरे हिसाब से जिम्मेवार होती उसे व्यवस्था का दुरूपयोग कर रही मानसिकता |
"दहेज़" के नाम पर नव बधुओ के जीवन एवम भावनाओ के साथ जो खिलवाड़ किया जा रहा है, उसके लिए सीधे तौर पर जिम्मेवार है :
१) अशिक्षा, जो भावनाओ और रिश्तो का मोल नहीं समझती |
२) लालच, जो इन्सान को इतना नीचे गिराए जा रही है, की वो सामाजिक व्यवस्था की आड़ में
अपने घिनोने सपनो को साकार करने के लिए कुछ भी करने से नहीं चुकना चाहता |
३) समय के साथ दिन प्रतिदिन हो रहा संस्कारों का हराश, जिसने पूरी सभ्यता की जड़ ही खोखली कर दी है |
४) तालमेल एवम समझोता करने की भावना में हो रही गिराबट |
एक माता पिता का अपनी बच्ची को यह समझाना की "ससुराल ही तुम्हारा घर है, वहा के लोगो की भावनाओ का सम्मान करना, कुछ समझोता यदि करना पड़े तो करना" को भी मैं गलत तरीके से नहीं देखता, क्युकी सम्मान देने से ही सम्मान मिलता है और तालमेल बैठाने के लिए कुछ मुद्दों पर समझोता हर इन्सान को करना पड़ता है | हां यदि विवाह के बाद माता पिता को यह सूचना मिले की उनकी बच्ची के साथ उचित व्यव्हार नहीं किया जा रहा तो ये उनका दायित्व जरुर बनता है की वे इस मामले की तह तक जाये और समस्या को पूरी समझदारी के साथ सुलझाने का प्रयास करे |
ऐसा नहीं कि कोई नारी "काल" नहीं होती, अपनी वाचाल प्रवृत्ति से किसी का जीना हराम नहीं करती, या आए दिन प्रेम नहीं करती...पर ऐसा कम होता है और ऐसी नारियों को बलि का बकरा बनाना मुश्किल है !
ReplyDelete*********
रश्मि जी ,
बहुत सही कहा आपने !
Di! tumne ab kavita se apne ko kahani ki aur morr liya hai,...chalo badhiya hai, kutchh to samajh main aayega,
ReplyDeleteagar kahani ke roop main kahoon to ek aisee kahani hai jo logo ko udwelit karti hai...jo samaj ke charitra k saamne aaina dikhati hai, ki dekh lo tum kya ho, aur kya sochte ho, apnee beti tak ko tumne nahi bakhsa...
par .padhne ne aisa lagta hai, ki kya wastav main apnee beti ka bura maan baap karte hain.....ye to ek durghatna ki tarah hai, jo bas ghat gayee hai, iss kahani ko lekar hum maan-baap pe talwar nahi rakh sakte
.....itnee achchhi kahani likhne ke liye tum saadhuwad k layak ho...
mukesh
ये मुद्दा बिलकुल वैसा ही है जैसे कि हिन्दुस्तान में भ्रष्टाचार का. जिसका कि ख़त्म होना नामुमकिन हैं. मैं आज भी देखता हूँ अपने आसपास तो कई ऐसे लोगों को जानता हूँ जो समाज में ऊँचे तबके में हैं, पढे-लिखे हैं परन्तु मानसिकता वही है - भेदभाव की. मैं तो इतना जानता हूँ कि आप घोडे को खींच कर नदी तक तो ले जा सकते हो परन्तु उसे पानी पीने के लिए मजबूर नहीं कर सकते. मतलब ये कि आन्दोलन करने से भी घर घर में मानसिकता नहीं बदलती - भले ही वो आंदोलनकारी का ही घर क्यूँ न हो. कुछ बातों में पश्चिमी संस्कार अनुकरणीय हैं..लडकी का अपने आप में निर्णय लेने कि क्षमता. ये क्षमता आती है आत्मविश्वास से - और इस बात का आत्मविश्वास होना कि मैं कभी भी किसी भी परिस्थिति में आत्मनिर्भर रह सकती हूँ - आयेगी शिक्षा एवं परिवार के उस पर विश्वास से. परिवार उसे उचित शिक्षा दिलवाए, उसमे निर्णय लेने कि क्षमता को विकसित करे - उसके हर निर्णय को उसी के साथ बैठ कर आत्ममंथन करवाए - और निर्णय के परिणाम को वहन करने कि हिम्मत दे. Individuality and no dependability...यही मूल मंत्र बाकी संस्कार जो परिवार दे. शुरुवात तो हम जैसे लोग अपने अपने घरों से करें - बदलते बदलते मंजर बदल ही जायेगा.
ReplyDeleteऔर सीखने वाले दूसरो के नुकसान से ही सीख लेते हैं, खुद के घर नुकसान होने कि राह नहीं देखते..और यदि नुकसान फिर भी हो ही जाए तो क्या कीजियेगा..हिन्दुस्तान में तो आन्दोलन पिछले ४० बरसों से चल ही रहा है...और ये समस्या दक्षिण में कम परन्तु मध्य एवं उत्तर भारत में अधिक है..कारण - अशिक्षा और उस पर निर्भर दुसरे पहलू.
बहुत मशहूर शेर है...
"मैं तो अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल की ओर,
लोग जुड़ते गए और कारवां बनता गया..."
कारवां बनता जाए..इसी उम्मीद के साथ.
hamesha koi sudha hi kyon ghar walo ka dil jite
ReplyDeletekya ghar walo ka farz nahi banta ki woh apni bahu ka dil jite ,use ahsaas karaye ki woh unki apni hai.
हमने तो अपनी अभी तक की जीवन-यात्रा मे एक ही बात पाई है-- ज़िंदगी जब जंग बन जाए तो फ़िर कोई सगा नही ...आपको अपनी लड़ाई ख़ुद लड़नी है ..और उसे दुर्गा बन कर ही जीता जा सकता है ....
ReplyDeleteआपकी सुधा की प्रताड़ना करनेवालों मे लिंगभेद कहाँ है !!!!
ससुराल वाले ही नही बल्कि माता-पिता भी उतने ही दोषी होते है जो अपनी बेटी को समाज की दुहाई देकर मरने के लिए छोड़ते है।
ReplyDeleteजरुरत है तो समाज और लोगों (माता-पिता) को समझने और बदलने की।