नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

February 25, 2013

एक असुंतलन की स्थिति की और हम बढ़ रहे हैं

 PART THREE
1. RUMBLINGS OF THE STORM

This was my first voyage with my wife and children. I have often observed in the course of this
narrative that on account of child marriages amongst middle class Hindus, the husband will be
literate whilst the wife remains practically unlettered. A wide gulf thus separates them, and the
husband has to become his wife's teacher. So I had to think out the details of the dress to be
adopted by my wife and children, the food they were to eat, and the manners which would be
suited to their new surroundings. Some of the recollections of those days are amusing to look
back upon.
A Hindu wife regards implicit obedience to her husband as the highest religion. A Hindu
husband regards himself as lord and master of his wife, who must ever dance attendance upon
him.

Mahatma Gandhi - Autobiography
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आप इस को महज संयोग ही कह सकते हैं की आज मैने गाँधी जी की आत्मकथा में ये पढ़ा .
पिछ्ले कुछ दिन से चल रही ब्लॉग - बहस जो नारी ब्लॉग की पोस्ट से शुरू हो कर रश्मि रविजा के ब्लॉग से होती हुई अंशुमाला के ब्लॉग तक पहुंची पूरी मेरी नज़र में दुबारा घूम गयी .

जिस अंश को ऊपर मैने दिया हैं वो आज सुबह किताब में पढ़ा था , फिर नेट पर खोज कर यहाँ पेस्ट किया . ये किताब 19 2 7 में पहली बार पब्लिश हुई थी और जिस समय का ये विवरण हैं वो साल था 18 9 7 , यानी आज से तक़रीबन 1 1 5 साल पहले .

गाँधी जी कहते हैं भारत में
बाल विवाह के कारण ,
पति पढ़ा लिखा ,
पत्नी बिलकुल निरक्षर ,
होने के कारण
उनके बीच गहरी खाई
जिसकी वजह से
पति को पत्नी का "टीचर " बनना पड़ता था


कितनी अजीब बात हैं आज ११ ५ साल बाद भी समाज की    यही सोच हैं की पति को अपनी पत्नी को अपने हिसाब से सक्षम बना लेना चाहिये

एक तरफ हम नारी सशक्तीकरण की बात करते हैं , स्त्री पुरुष लिंग विबेध से ऊपर उठ कर समानता की बात करते हैं और दूसरी तरफ हम पुरुषो से ये भी उम्मीद करते हैं की वो अपनी पत्नी के टीचर बने .

क्या ये कुछ ज्यादा उम्मीद करना नहीं हुआ ?
आज के युग में जब समानता की बात हो रही हैं तो हम कैसे  ये सोच सकते हैं की वो लड़के जो आज 2 ५ -30 वर्ष के हैं वो अपनी पत्नी को " सक्षम " बनाने के लिये उनके "टीचर " बन जाए . इन लड़को ने अपने बचपन से लेकर विवाह तक यही सुना हैं की लड़किया लड़को के बराबर हैं . बेटे और बेटी के अधिकार बराबर हैं . कानून और संविधान में स्त्री और पुरुष के अधिकार बराबर हैं फिर वो कैसे और क्यूँ अपनी पत्नी को "कुछ सिखाने " में अपना समय दे . क्यूँ उनको ये उम्मीद नहीं होनी चाहिये की उनकी पत्नी उनके समान ही सब कुछ करने में सक्षम होंगी .

और अगर वो "टीचर" बनता भी हैं तो फिर क्या गाँधी जी के कथन अनुसार एक हिन्दू पत्नी के लिये उसका सबसे बड़ा धर्म अपने पति की बात मानना होता हैं आज भी मान्य नहीं होना चाहिये .


हम कुछ ज्यादा की उम्मीद कर रहे हैं उस आधी आबादी से जिसके बराबर हम मानते हैं की हम हैं .

अपने जीवन साथी को उसके गुण दोष के साथ कोई तब ही अपना सकता हैं जब दोनों साथी बराबर हो .
 लेकिन
 आज भी ये उम्मीद तो यही हैं की एक साथी यानी पति अपने हिसाब से अपने जीवन साथी को "सीखा पढ़ा कर " अपने और अपने परिवार के लिये "ढाल" ले
और
दूसरा साथी यानी पत्नी "सहनशीलता"  से अपने साथी से "सीख पढ़ कर " उस के परिवार के योग्य अपने को बनाले .


समानता और बराबरी के युग में , ये दोनों साथी गुरु और शिष्य , पूज्य और पूजक बने रहे तो फिर साथी कैसे रह पायेगे क्युकी दोनों आज भी दो अलग अलग सीढ़ियों पर ही खड़े हैं बस फरक इतना हैं की दोनों को एक बात समझ आ चुकी हैं की वो बराबर हैं .

इस बराबरी की बात से लडके उम्मीद करने लगे हैं की उनकी पत्नी हर प्रकार से सक्षम हो कर उनकी जीवन साथी बन रही हैं लेकिन वास्तविक स्थिति बिलकुल भिन्न हैं .

कारण बहुत से हैं , जिनकी चर्चा पिछली बहस में हो चुकी हैं
मुझे तो गाँधी जी का कथन पढ़ कर बस इतना लगा की ११ ५ साल में भी हमारे समाज की सोच में बदलाव बहुत कम हुआ हैं . जो हुआ भी हैं उसकी वजह से एक असुंतलन की स्थिति की और हम बढ़ रहे हैं

17 comments:

  1. सच कहा अपने रचना जी ये सोच ही तो सामाजिक बुराई बन गई बुरे क्या ये बीमारी बन गई है कहते सब हैं लिखते सब है पर अपने आप पर इस बात को बता नहीं क्यूँ लागु नहीं कर पते हैं महाभारत में कर्ण एक सारथि के घर पला पड़ा हुवा था पर वो था राजपूत पर उस को भी समाज ने सूत पुत्र का नाम दिया आज इस समाज में ये बीमारी जो फ़ैल गई है ये 1115 साल में क्या बता नहीं और कितने -कितने साल लग जायेंगे

    मेरी नई रचना

    मेरे अपने

    खुशबू
    प्रेमविरह

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  2. गांधी जी ने जो भी कहा था वो सही था लेकिन उस परिवेश के लिए सही था।
    मेरे ख़याल से न तो सीखने की कोई उम्र होती है न ही जिससे सीखा जाता है उसकी उम्र देखी जाती है। मैं तो अपने बच्चों से अपने दोस्तों से हर दिन सीख रही हूँ, इसका अर्थ क्या हुआ, वो सब मेरे गुरु हो गए ?ज़ाहिर सी बात है दुनिया में कोई भी दो घर एक जैसे नहीं होंगे, दो इंसानों की पसंद एक जैसी नहीं होगी, लडकियां एडाप्ट करने में ज्यादा लचीली होतीं हैं, और पूरे घर के को माहौल बदलने से बेहतर होता है एक इंसान का बदल जाना इसलिए लड़कियों से ही बदल जाने की उम्मीद की जाती रही है, और लडकियां खुद को बदल भी लेतीं हैं।

    आदर्श स्थिति तो ये होगी की स्त्री-पुरुष जैसे हैं, वैसे ही एक दुसरे को स्वीकार करें, लेकिन ऐसा संभव नहीं है। लड़की अपने माता-पिता का घर छोड़ कर आती है और हर घर का अपना परिवेश अपने आचरण होते हैं। लड़की को नए घर के हिसाब से खुद को बदलना पड़ता है. ...
    शायद ही कोई लड़की हो जिसे ससुराल में न सुनना पड़ा हो, तुम्हारे घर में ये होता होगा लेकिन यहाँ ऐसा नहीं होता इसलिए तुम ऐसा ही करो, अपने घर में जो आज तक करती आई हो वो वहीँ छोड़ कर आओ...अगर ये सब सीखने में पति मदद करता है, और इस कारण उसे 'गुरु' माना जा रहा है तो यही सही, हर्ज़ क्या है इसमें ?

    आपने जिस पोस्ट का ज़िक्र किया है, उस लड़के ने शराब पीने जैसी बात का ज़िक्र किया है, तो वो तो मुझे भी सीखना पड़ेगा उससे और इसके लिए मैं भी उसको गुरु मानने को तैयार हूँ, बाकी बात सिर्फ इतनी है, नए माहौल में ढलने के लिए लड़की को उसके छोटे देवर, छोटी ननद से भी सीखना पड़ता है ....

    मैंने शादी के बाद पढाई की, और यह बहुत बड़ा कारण है कि आज मैं सफल हूँ ...

    हर दिन दुनिया बदल रही है, आज आई टी की डिमांड है तो कल इवेंट मनेजमेंट की, इम्प्लोयबिलिटी के ऑप्शन बदलते रहते हैं, अगर आज की डिमांड के हिसाब से पत्नी को दूसरी ट्रेनिंग करने की ज़रुरत हो रही है और ऐसा करने से दोनों को लगता है उनका भविष्य उज्जवल होगा तो पति क्यों नहीं ये जिम्मेदारी ले ? आखिर ये उनके ही भविष्य का प्रश्न है ...

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    1. एक बात और कहना चाहूँगी, इम्प्लोयबिलिटी के ऑप्शन जगह के हिसाब से भी बदल जाते हैं, शादी के बाद लड़की जहाँ भी जा रही है, ज़रूरी नहीं की उनसे जिस विषय में पढाई की है, उसकी उस जगह में डिमांड हो ही, या फिर वो उस शहर, महानगर के डिमांड के हिसाब से हो ही। छोटे शहर में पढ़ी हुई हर लड़की, बड़े शहर में फिट हो जाए ये भी नहीं हो सकता। लड़की ही क्यों लड़कों के साथ भी ऐसा हो सकता है। और कभी-कभी उल्टा भी होता है, मुझे याद है संतोष जी की डिग्री पूना इंस्टिट्यूट से थी, लेकिन राँची जैसे छोटे शहर में उस डिग्री का कोई लाभ नहीं था। उनकी इसी डिग्री के कारण हमें दिल्ली जाना पड़ा, और जब हम दिल्ली गए तो वहां के हिसाब से और रोज़गार का रुख देखते हुए, मैंने पढाई की और इसमें मुझे संतोष जी का सहयोग मिला ...उनकी भी उम्र भी 'गुरु' वाली नहीं थी :):)

      कोफ़्त तब होती है, जब आज का युवा बिना मतलब की छिछली माँग और अपेक्षाएँ कर बैठता है, और उनको इतना गंभीर बना देता है जितनी गंभीर वो हैं नहीं कि उनके लिए एक इंसान को डेमोर्लाईज़ किया जाए।

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  3. मुझे लगता है कि आज ये समस्या इस कारण है क्योंकि लोग लड़कों को तो बाहर पढ़ने को भेज रहे हैं और लड़कियों को नहीं. किसी को क्यों कुछ सीखना पड़े? अगर पहले से ही दिमागी स्तर और सोच एक जैसी हो तो, क्या अच्छा न होगा. क्या दो समान सोच वाले जीवनसाथी का मिलना इतना कठिन है. जी नहीं, है नहीं हमने बना दिया है. बाहर पढ़े लड़कों की एक्सपेक्टेशंस हाई हो जाती है, फिर हम सोचते हैं कि जैसी भी लड़की मिले, वह उसके साथ पटाये.
    और जैसा कि स्वप्नमंजूषा जी ने कहा है कि लड़का शराब पीने की बात कर रहा था. बात वो नहीं है. हम शब्दों पर क्यों जाते हैं? बात ये है कि लड़की में इतना आत्मविश्वास होना चाहिए कि वो शिष्टता से मना कर सके. न सभी लोग शराब पीते हैं और न ज़बरदस्ती पिला सकते हैं.
    बात बस इतनी सी है कि आज की परिथितियाँ बहुत बदल गयी हैं और हम उनसे मेल नहीं बिठा पा रहे हैं. ऐसा इसलिए है कि हम चाहे जितने आधुनिक होने दावा करें, शादी की बात पर दो सौ साल पीछे चले जाते हैं. पचास प्रतिशत से ज्यादा शादियाँ ऐसे ही होती हैं.
    मुझे ये समझ में नहीं आता कि माता-पिता को लड़के-लड़की से उनकी पसंद पूछने में या उनकी पसंद के अनुसार शादी करने में क्या आपत्ति है? क्यों वे ये अपेक्षा करते हैं कि शादी कर दो, बाकी अपने-आप ठीक हो जाएगा?
    मैंने पहली ही पोस्ट में ये बात रखी थी कि पुरातन सोच और आधुनिकता के बीच फंसे होने के कारण इस समय बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न हो गयी है. मेरी ज़्यादातर सहेलियों-दोस्तों ने प्रेम-विवाह किया और खुश हैं. कुछ ने अपनी जाति में की, तो कुछ को अंतरजातीय होने के कारण लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी. पर अब भी कुछ हैं, जो अपने अंतरजातीय साथी से शादी करने के लिए माता-पिता से लड़ाई लड़ रहे हैं और माता-पिता की वही रट है कि अपनी जाति में शादी करो, बाकी सब ठीक हो जाएगा. कम से कम चार-पाँच केसेज़ यहीं दिल्ली के हैं, जब लड़कों ने माता-पिता पर आँख मूँदकर भरोसा किया और उन्होंने ऐसी लड़की से शादी कर दी, जिससे लड़के की पटी नहीं.
    अब आप आराम से मान लीजिए कि ये सारे लड़के भटके हुए हैं. इन्हें अपनी दस घंटे की कॉल सेंटर की जॉब और तीन घंटे आने-जाने में लगने के बाद बचे समय से समय निकालकर अपनी पत्नी को घर के काम और पार्टी और टेबल एटीकेट्स और मैनरिज़्म सिखाना चाहिए. इनको तीस साल की उम्र में अपनी पत्नी को समय देना चाहिए कि चार-पाँच साल में महानगर में रहकर यहाँ के तौर-तरीके वो सीख ही जायेगी. लड़की मारे डर के घर से अकेले बाहर नहीं निकल सकती. वो गाँव या छोटे शहर के अपने घर से आकर यहाँ कमरे में बंद हो जाती है. नौकरी करने की तो दूर वो पचास कदम चलकर एक मुहल्ले की दूकान से एक सौदा तक नहीं खरीद सकती. एक साल एक बहू मेरी ही बिल्डिंग में रही, मैंने उसका चेहरा तक नहीं देखा.
    मुझे लगा कि मैं ये किस समय में रह रही हूँ और क्या होगा इनदोनों का. सोचिये आसान निष्कर्ष निकालना बहुत आसान है, लेकिन लड़के-लड़की दोनों की ज़िन्दगी तो दूभर हो गयी. हम कब लड़के-लड़की को बराबर शिक्षा देंगे और उनकी उन्हीं के स्तर के साथी से शादी करेंगे? कब हम ये मानना शुरू करेंगे कि पच्चीस से तीस साल की उम्र इतनी छोटी नहीं है कि बच्चे अपनी पसंद न बता पायें? कब ये मानेंगे कि शादी जुआ नहीं है कि किस्मत से अच्छा साथी मिला तो ठीक, नहीं तो भाई आपको मेहनत करनी पड़ेगी अपने साथी को पढ़ाने-लिखाने में?

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    1. मुझे नहीं लगता कि आज के कोई भी माता-पिता बिना अपने बेटों से पूछे हुए शादी कर रहे होंगे। और अगर ऐसा कर रहे हैं, तो ऐसा न हो इसे सिर्फ और सिर्फ लड़के/लड़की ही रोक सकते हैं और कोई नहीं। उनको अपनी बात साफ़-साफ़ माता-पिता के सामने रखनी होगी। दूसरा उपाय ये है कि माता -पिता भी बच्चों की पसंद के बारे में ज़रूर जाने।
      बेहतर तो ये होगा कि लड़के खुद ही लड़की पसंद करें, और लडकियाँ खुद ही अपने लिए लड़का पसंद करें। सच पूछा जाए तो ऐसा होने से माता-पिता का बोझ ही कम होता है, उनको भी लड़कों/लड़कियों को अपना जीवन साथी खुद ढूँढने के लिए प्रेरित करना चाहिए। मेरे बेटे ने अपने लिए एक अँगरेज़ लड़की पसंद कर ली है, मुझे कोई आपत्ति हुई ही नहीं, कारण, मेरा काम कम हुआ, और जब दोनों एक दुसरे के प्रति इतना समर्पित देखती हूँ तो इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है भला ...

      मुक्ति,
      तुम्हारे कहने का मतलब है कि हर घर की हर लड़की टेबल मैनर्स और एटिकेट सीखने के लिए महानगर आ जाए ??? और इस समस्या का समाधान हो जाएगा ??? ये सब चीज़ें सीखने में कितना वक्त लगता है भला. ...?? और क्या टेबल मैनर्स और एटिकेट सिर्फ महानगरों में ही है, छोटे शहरों में नहीं हैं ???
      हर घर से ये अपेक्षा करना कि वो अपनी लड़कियों को महानगर भेज दें पढने के लिए, सही नहीं है। अपने-अपने कारण होते हैं। लड़कियों को स्वावलंबी बनाने का अर्थ यह नहीं होता कि उसे असुरक्षित छोड़ दिया जाए, जब की आये दिन इतने हादसों का शिकार हो रही हैं लडकियाँ। मैं अपनी बेटी को आधुनिका बनाऊँगी लेकिन उसके साथ एक्सपेरिमेंट नहीं करुँगी। अनुशासन, शिष्टता, आत्मविश्वास जैसी बातें महानगर की धरोहर नहीं हैं, ये बातें तो घर से ही शुरू होनी चाहिए, वो भी बचपन से लड़कियों में इनको भरना माँ-बाप और शिक्षकों का पहला कर्तव्य है।
      जहाँ तक लड़के के बीजी होने का सवाल है, तो जब वो इतना ही बीजी है तो शादी की ही क्या ज़रुरत है, क्या वो सिर्फ इसलिए शादी कर रहा है की उसकी बीवी उसकी पार्टियां सजाती रहे ? जब बीवी के लिए वक्त नहीं है तो फिर उससे उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए। दूसरों को इम्प्रेस्ड करने के लिए शादी करना ही अजीब लग रहा है...पति-पत्नी एक दुसरे के लिए पहले समय निकालें, फिर अगर समय बचे तो दोस्त उसमें शामिल हों ...
      हमलोग रोज़ ही सीख रहे हैं, नयी-नयी बातें, पहले मोबाइल नहीं था, इंटरनेट नहीं था, एपल टेबलेट नहीं था, हम सबने आखिर सीख ही लिया।
      अब हम बच्चों की पसंद, उनकी पसंद के गेम्स, उनकी पसंद के फ़ूड, उनकी पसंद के कपड़े, उनकी पसंद के फैशन, इन सब से ताल मेल रखना सीख रहे हैं। सीखते रहना यह कोई अजीब प्रक्रिया नहीं है, हर इंसान सीख ही जाता है । फिर इतनी हड़बड़ी क्यों ???

      कितना भी कोई सीख पढ़ कर आ जाए, बदलते समय के साथ हर बात बदल जाती है, कुछ ही साल पहले तक लड़के/लड़कियों से अपेक्षाएं दूसरीं थी और हमारे देखते ही देखते अपेक्षाएं बदल गयीं, पहले मुझसे किसी को उम्मीद नहीं थी की मैं ड्राईव करूँ, बल्कि मैं कभी सामने की सीट पर ही नहीं बैठी थी, लेकिन आज मेरी परिस्थियां मुझे ड्राइविंग सीखने और करने के लिए प्रेरित कर गईं। मैं राँची जैसे छोटे शहर की लड़की, अपने आत्मविश्वास के भरोसे अकेली कनाडा आई और मैंने अपना जीवन शुरू किया ...इसलिए शिष्टाता और आत्मविश्वास महानगरों की मोहताज़ नहीं है।

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    2. स्वप्नमंजूषा जी,
      बहुत से लोग आज लड़कियों को बाहर भेज रहे हैं. और मेरे विचार से इसमें कोई बुराई नहीं है.
      मेरी बात का यह मतलब नहीं था कि लोग अपनी क्षमता से बाहर जाकर बच्चों को महानगर ही भेज दें. मेरा मतलब यह था कि लड़के-लड़कियों का अलग-अलग ढंग से पालन-पोषण होगा, तो ऐसी समस्या आती रहेगी. बात टेबल मैनर की नहीं, बात इस बात की है कि जब माँ-बाप ये देखे बगैर शादी करेंगे कि दोनों की सोच मिलती-जुलती है या नहीं, तब ऐसी प्रोब्लेम्स होंगी.
      अगर हम लड़का-लड़की दोनों को ही समान शिक्षा दें और बराबर आत्मविश्वासी बनाएँ तो ऐसी समस्याएँ नहीं आयेंगी. और मुझे ये बात तो बिल्कुल ही समझ में नहीं आती कि हम अपने बच्चों के भाग्य-नियंता क्यों बनना चाहते हैं. उन्हें पढाएं-लिखायें और अपनी मर्ज़ी से जीवनसाथी चुनने दें, जो बच्चे माँ-बाप की ही मर्ज़ी से शादी करना चाहते हैं, उनसे उनकी पसंद पूछकर करें.
      और आप कह रही हैं कि बिना बच्चों से पूछे शादी नहीं होती, तो ये गलत है. अब भी बच्चों की शादी तय कर दी जाती है और उन्हें बताया तक नहीं जाता. अभी भी गाँवों में ऐसी शादियाँ हो रही हैं.

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    3. मुक्ति जी

      सबसे पहले अदा जी की टिप्पणी से सहमत ।



      ये कहना कुछ ज्यादा ही हो गया की अपने बच्चो को आधुनिक बनाने के लिए पढ़ने के लिए शहरों में भेजना जरुरी है , क्या मै अपने मापा पिता को कहूँ की आप ने मुझे बनारस में रख कर जो पढाया लिखाया वो सब बेकार है, जिस लिखाई पढाई से मेरी ये समझ विकसित हुई वो बेकार है उसका कोई मतलब नहीं है क्योकि आप ने मुझे किसी महानगर में भेज कर नहीं पढाया , कल को मेरी बेटी का विवाह किसी अमेरिकी युरिपिय से हो गया तो हमसे कहेंगी की आप सब गावर है मुझे विदेश भेज कर क्यों नहीं पढाया उतना आधुनिक क्यों नहीं बनाया वहा का समाज तो यहाँ से कितना आधुनिक है कितनी ही चीजे मैन भारत में नहीं देखी है मुझे चलाने नहीं आता है आप लोगो ने मुझे भारत में रखा कर मेरे जीवन बर्बाद कर दिया । भारत में आज भी कितने ही माता पिता बेटी क्या बेटो को भी अपने से दूर नहीं भेजते है ,पढ़ने के लिए तो और भी नहीं या उनकी आर्थिक स्थिति एक लायक नहीं है , या उनके बच्चो को एडमिशन मिलाना ही मुश्किल है , या उनके अपने शहर में ही अच्छे स्कुल कालेज है और अनेको करना है । ये सोचना भी अपने आप में गलत है यदि सभी माता पिता अपने अपने छोटे शहरो गांवो के बजाये बड़े शहरो में बच्चो को भेजने लगे तो यहाँ की संस्थाओ का क्या हाल होगा , यहाँ के बच्चो का एडमिशन ही मुश्किल है बाहर से बच्चे भी यहाँ आने लगे तो और कितनी मुसीबत हो जाएगी । बस आधुनिक बनाने के लिए बच्चो को पढ़ने के लिए महानगरो में भेजने का उपाय न तो व्यवहारिक है और न ही सैधांतिक रूप से भी सही है , क्योकि आधुनिकता का कोई पैमाना नहीं होता है । ये बिलकुल वैसा ही जैसा मुंबई में अपने शहर को छोड़ कर बाकि जगहों को गांव कहा जाता है और यु पी बिहार वालो को गवार समझा जाता है

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    4. सबसे पहले अंशुमाला जी,
      आपका धन्यवाद !
      आपसे भी मैं पूरी तरह सहमत हूँ ...
      इस विमर्श को आगे बढाते हुए कुछ और कहना चाहती हूँ , जो शायद इस समस्या के मूल पर कुछ प्रकाश डाले ..

      और अब मुक्ति, तुम्हारे लिए ...

      'हम अपने बच्चों के भाग्य-नियंता क्यों बनना चाहते हैं. उन्हें पढाएं-लिखायें और अपनी मर्ज़ी से जीवनसाथी चुनने दें'

      एक बात हम भूल जाते हैं, जो माँ-बाप अपने बच्चों को जन्म देते हैं, उन्हें पढ़ाते-लिखाते हैं, अपनी हैसियत से बाहर जाकर उनकी देख-भाल में कोई कमी नहीं रखते हैं, उनको महानगरों में भेज कर पढ़ाते हैं, अपनी संपत्ति में उन्हें हक देते हैं, जब तक नौकरी नहीं मिलती उसको खर्च चलाते हैं, बच्चे की शादी में खर्च करते हैं, उसी बच्चे की शादी जैसे अहम् फैसले पर उनका कोई इख्तियार नहीं होना चाहिए ??? क्या नहीं लगता यह माँ-बाप के साथ ये ज्यादती है ?? ऐसा नहीं लगता कि बच्चे माँ-बाप को सिर्फ यूज कर रहे हैं ?? ये सही है कि लड़के-लड़की, जिनको अपना जीवन एक साथ गुजारना है, उनकी पसंद-नापसंद बहुत मायने रखती है, उसको कंसीडर करना ही चाहिए, लेकिन भारत में शादी सिर्फ दो व्यक्तियों के बीच नहीं होती, दो परिवारों के बीच होती है, रिश्तों को निभाया जाता है और रिश्तों के रस बचाए जाते हैं।

      आज भारत के युवा पश्चिम के युवाओं का अनुसरण करना चाहते हैं। मुझे इस बात से कोई शिकायत नहीं है, लेकिन अगर उनका अनुसरण ही करना है तो पूरी तरह करें, उसे तोड़-मरोड़ कर सिर्फ अपनी सुविधानुसार ना करें। पश्चिम में युवा अपने जीवन का हर फैसला खुद करते हैं। कारण १८ वर्ष की आयु होते ही वो घर छोड़ कर निकल जाते हैं, अपनी पढ़ाई-लिखाई, अपने रोज मर्रे के खर्चों का बंदोबस्त वो खुद करते हैं, अपनी शादी का खर्च भी खुद ही करते हैं, माँ-बाप का कोई लेना-देना नहीं होता। माँ-बाप, बच्चे की १८ वर्ष की आयु के बाद, उसके किसी भी करचे का जिम्मेदार नहीं होते, उसमें उनका कोई योगदान नहीं होता। माँ-बाप अपनी संपत्ति का भी बँटवारा, अपने बच्चों के साथ तब करते हैं जब उनकी इच्छा होती है, और बच्चे भी उनसे कोई उम्मीद नहीं करते हैं। जब माँ-बाप अपने बच्चों के लिए कुछ नहीं करते तो उनको भी कोई उम्मीद नहीं रहती अपने बच्चों से। ऐसा करने से पश्चिम के माँ-बाप एक काम करते हैं, वो अपना बुढापा सुरक्षित रखते हैं, वो पैसे जो वो अपने बच्चों पर लुटाते, उनके बुढापे में काम आता है। ये सुनने में बहुत रुखा सा लगता है, लेकिन सच्चाई यही है।

      अगर भारत का युवा अपने जीवन की बागडोर पश्चिमी युवाओं की तरह ही खुद सम्हाल ले, माँ-बाप पर निर्भर ना रहे, उसे अपने माता-पिता की संपत्ति का आसरा न हो, तो मुझे नहीं लगता, भारतीय माता-पिता को कोई भी परेशानी होगी, कि वो किससे शादी करता है, या नहीं करता है। इससे भारतीय माता-पिता को भी बुढापे में एक संबल मिलेगा, कम से कम वो पैसे जो वो अपने बच्चों की पढ़ी-लिखाई, साज-सिंगार, हेत-तेन में खर्च करते हैं, वो तो बचा रहेगा उनके पास, उनके बुढापे के लिये। वो सब लुटा भी देते हैं अपने बच्चों पर इस आसरे से कि बच्चा बुढापे में मेरी देख भाल करेगा। अगर सब कुछ अपनी ही मर्ज़ी से करना है तो पूरी तरह करना चाहिए, आधा-अधूरा नहीं, ये तो नहीं होगा ना कि you want to eat the cake and have it too !!

      लेकिन आज की जो स्थिति है, भारत में ऐसी नहीं है, माँ-बाप बच्चों के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, अपनी खुशियों को दरकिनार करते हुए, बच्चों का भविष्य संवारने में अपना सर्वस्व निछावर कर देते हैं, और अगर इसके लिए वो बच्चों के फैसलों में अपनी इच्छा, अधिकार और अपने अनुभवों को साझा करते हैं तो गलत नहीं है। वो सिर्फ बच्चे की नहीं सोचते, उन्हें अपनी भी फ़िक्र रहती है, आखिर अपने पूरे जीवन की पूँजी वो अपने बच्चों पर ही तो लगा देते हैं, और उनका ही आसरा रहता है उनको। युवाओं की सोच तक वो सोच भी कैसे सकते हैं, जब वो दुनिया उन्होंने देखी ही नहीं है। ऐसा वो जानते-बूझते नहीं करते, ख़ास करके जो माँ-बाप गाँव तक ही सीमित हैं। लेकिन फिर भी, सामंजस्य होना ही चाहिए। माँ-बाप को भी बच्चों की इच्छाओं के बारे में मालूम होना चाहिए, और बच्चों को भी अपने माँ-बाप की स्थिति को समझना चाहिए। यह स्थिति सहज नहीं है लेकिन, स्थिति यही है।

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  4. १- रचना जी मैंने आप से पहले ही कहा था की यदि आप किसी सामजिक समस्या पर बात करना चाहती है तो सीधे उस पर बात करनी चाहिए न की कोई उदाहण रख कर , क्योकि यदि आप उदहारण रख कर उस पर बात करेंगी तो सभी केवल उन परिस्थितियों को सामने रख कर ही बात करेंगे न की समग्र समस्या को रख कर । यही पर यदि लड़का विवाह के पहले कहता की बताइये की मै ऐसी लड़की से विवाह करू या विद्रोह करू ., सभी एक सुर में उसे सीधे विवाह से इंकार करने को कह देते । कोई भी उससे ये नहीं कहने वाला था की माता पिता जहा विवाह कर रहे है वहा करो और लड़की को सिखाते रहो ।

    २- एक ही बात को आप हर जगह हर परिस्थिति में लागु नहीं कर सकती है , परिस्थिति , माहौल व्यक्ति के बदलते है चीजे भी बदल जाती है ।

    ३- मैंने अपनो पोस्ट पर मुक्ति जो को लिखा है कि लड़कियों को पढाना चाहिए क्योकि लड़कियो को भी उसकी जरुरत है न की इसलिए क्योकि कल को उनकी अच्छी जगह विवाह हो , अच्चा वर नहीं मिलेगा इसलिए उन्हें पढाओ इन बातो के खिलाफ हूँ मै ।

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  5. ४- अफसोस है कि न तो आप हमारी पोस्ट को समझी और न ही लडके को दी गई सलाह को ।

    ५- पति पत्नी को सिखाने के मामले में अदा जी ने काफी कुछ कह दिया है फिर भी अपनी तरफ से कुछ जोड़ देती हूँ । मै बनारस से हूँ और पति मुंबई से तो हमारा विवाह तो होना ही नहीं चाहिए था , क्योकि मुंबई में न जाने कितनी ही चीजे है जिसके बारे में मुझे नहीं पता था , उसके बारे में तो मुझे यहाँ आ कर ही पता चला , अब मुझे हाल में ही स्कूटर मेरे पति ने सिखाया तो उन्हें नहीं सिखाना चाहिए था कहना चाहिए था की बाप के घर से सिख कर क्यों नहीं आई मै क्यों सिखाऊ तुम्हारे बाप का नौकर हूँ , कार भी तो यही चलाना सिखा, मुझे तो ढंग का चाइनीज खाना भी उन्होंने ही सिखाया और मैंने उन्हें क्या सिखाया इसकी लिस्ट तो इतनी लम्बी है की बता नहीं सकती ( बिन माँ के पले बच्चे को क्या क्या सिखाना पड सकता है आप अंदाजा भी नहीं लगा सकती है ) हम दोनों को उसी समय एक दुसरे को तलाक दे देना चाहिए था भाई हम एक दुसरे को कुछ भी क्यों सिखाये ये करने में रीड ही हड्डी की अकड कम न हो जाएगी , या हम एक दुसरे के लायक नहीं है , या मुझे अपने माता पिता पर नाराजगी जाहिर करना चाहिए था की मुझे पढाया लिखाया वो सब बेकार है क्योकि मुझे मुबई में क्यों नहीं पढ़ने को भेजा , ये आप लोगो ने गलत किया क्योकि मेरे सिखाने की आयु गुजर गई है अब मै जीवन में कुछ भी नहीं सिख सकती हूँ , और मेरा सिखना भी गलत होगा ।

    ६-मैने अपनी पोस्ट पर ही कहा था की एक जैसी सोच जैसा कुछ भी नहीं होता है हम कुछ मुद्दों पर एक जैसा सोच सकते है हर मुद्दों पर नहीं और जीवन हो या विवाह यहाँ परिस्थतिया और मुद्दे हमारे सामने अचानक से आते है और हमें निर्णय करना होता है पहले से हम किन किन बातो पर बात कर एक दुसरे की राय जाने , एक समय बात एक दुसरे की बात समझनी पड़ती है उसे मानना पड़ता है और ये हर रिश्ते में होता है ।

    ७-इस बात से सभी सहमत है की विवाह तो लडके लड़की की पसंद और प्रकृति को देख कर ही करना चाहिए , किन्तु कुछ मुलाकातों में हम कितना किसी को जान पाएंगे , विवाह के बाद कुछ बाते तो अलग होंगी ही और जीवन साथी में कुछ चीजे हमारी उम्मीद के अनुसार नहीं होंगी ,तो दो उपाय है या तो उसे वैसे ही स्वीकार कर लिया जाये या फिर उसकी मर्जी से उसमे बदलाव लाया जाये यदि किसी को दोनों मंजूर नहीं है । फिर तो एक ही उपाय है की हर लडके लड़की को लिव इन रिलेशन में रहना चाहिए कुछ साल साथ रहे फिर उन्हें जोड़ी जमे तो ठीक नहीं तो किसी और के साथ रह कर आजमाए और तब तक आजमाते रहे जब तक की हर मुद्दे पर उनकी सोच एक जैसी न हो जाये, ये व्यवस्था किसी को पसंद है तो ठीक, मुझे तो नहीं है ।

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  6. अंशुमाला जी
    मुद्दे कई होगये हैं हमारी आपकी मुक्ति और अदा की बातो मे , मै केवल अपनी बात अपनी समझ से कह सकती हूँ की
    १ हर व्यक्ति का आ ई क्यू समान नहीं हो सकता , यानी जो बात आप और अदा जी दो दिन में सीख सकते हैं हो सकता हैं मुझे २ वर्ष लग जाये तो क्या इसके लिये जरुरी हैं की मेरे जीवन साथी के पास इतनी सहनशक्ति हो की वो दो साल इंतज़ार कर सके ??
    २ व्यक्तिगत रूप से मुझे लगता हैं की अब तक इतना बदलाव आ जाना चाहिये था की लडकियां और लडके समान रूप से एक ही धरातल पर खड़े हो जाते नहीं हैं इस लिये लडकियां आज भी उम्मीद रखती हैं { क्युकी वो कंडीशन की शिकार होती हैं } की उनको अपने पति के घर जा कर उनसे सीखना चाहिये . अब इस में पति की मर्ज़ी हैं या नहीं इस बात को कहीं भी मद्देनज़र नहीं रखा जाता
    ३ मानसिक कम्पेतिबिल्टी की बात जरुरी हैं लेकिन बहुत से परिवार में नहीं होती , क्यूँ क्युकी विवाह के समय इस की जरुरत ही नहीं समझी जाती .
    अब श्री आ बा सा मानसिक रूप से ज्यादा आगे हैं , जबकि उनकी पत्नी शायद उतनी नहीं होंगी किसी को आ बा सा अपरिपक्व लग सकते हैं तो किसी को उनकी पत्नी

    आप और अदा और मै और मुक्ति सब तक़रीबन एक ही परिवेश से निकले हैं लेकिन सब के अपने अपने परिवेश बिलकुल भिन्न हैं वही हम सब से जुड़े लोग यानी आप की बहिन अदा की बहिन मुक्ति की बहिन या मेरी बहिन इत्यादि भी हम सब से फरक हो सकती हैं कम से कम मेरी तो सब बहिने मुझ से बिलकुल अलग हैं जबकि हम सब को एक ही परिवेश , एक ही प्रकार की पढाई इत्यादि मिली हैं हाँ जब भी कोई पारिवारिक उत्सव होता हैं वो सब देखने में मुझ से कहीं ज्यादा मॉडर्न और खुबसूरत दिखती हैं और मै सबसे दकियानुस और देहाती लगती हूँ और तंज भी सुनती हूँ "लगता ही नहीं हैं दीदी तुम विदेश की यात्रा भी कर आई हो क्यूँ , क्युकी मुझे जमीन पर बैठ कर हाथ से चावल खाना पसंद हैं

    बात गाँव और देहात और शहर की हैं ही नहीं बात हैं की आज तो समय चल रहा हैं उस व्यवस्था में लडके , लड़कियों को अगर बराबर मान रहे हैं तो क्यूँ उनको कुछ सिखाना चाहेगे { मेरा मूल प्रश्न उस समस्या से ये बन गया , आप का कुछ और हो सकता हैं अदा का कुछ और }

    ब्लॉग लेखन का अब कुछ ज्यादा मज़ा होगया हैं क्युकी व्यक्तिगत बातो को बाँट कर भी हम सब कोई भी व्यक्तिगत तंज नहीं कस रहा हैं

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    1. मैं तो विदेश में रहकर भी, ज़मीन पर बैठ कर, हाथ से भात खा लेती हूँ :):)
      देहाती हो सकती हूँ, लेकिन गँवार नहीं :)

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  7. अब ये तो बडी अजीब बात हो रही है कुछ दिनों से।अब हर मामले में ही आप दोनों पक्षों द्वारा उस लड़के का उदाहरण।मुक्ति जी और रचना जी,आप जिसे समस्या बता रहे हैं वो वास्तव में है लेकिन कोई इतनी गंभीर भी नहीं है जिसे आप इतना बढ़ा चढ़ाकर बता रहे हैं।और हर युवा लडका लडकी इतनी बड़ी अपेक्षाएँ नहीं रखते हैं और फिर भी समस्या है ही तो अलग अलग परिवेश से होना ही इसका कारण नहीं।क्या दो ग्रामीण या दो शहरी परिवेश के लडके लडकी की शादी में दिक्कतें नहीं आती है?वो तो अब साथी पसंद नहीं आ रहा इसलिए खुद को पीड़ित दिखा सहानुभूति बटोरने हेतु बहाने बना लिए जाते है।और स्वपन जी और अंशुमाला जी यदि किसी लड़के ने अपनी तरफ से 'आधुनिक स्त्री' की व्याख्या बताई तो क्या वह सर्वमान्य हो गई?जो आप ऐसे दिखा रहे हैं जैसे मानो हर कोई यही सोचकर पत्नी से पीछा छुडाना चाहता हैँ?जो निभा रहे हैं वो किसीसे शिकायत नहीं करेंगे।मैं मानता हूँ बात समस्या पर होनी चाहिए पर हौव्वा बनाकर या उसका सामान्यीकरण करके नहीं कि बस युवा इतने दोगले हैं या उन्हें समझ ही नहीं क्या करना है क्या नहीं।कई घरों में देखा है नादान माने जाने वाले युवा दंपति बडों से ज्यादा समझदार होते है।

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  8. वैसे ये कोई आज की पीढी की ही बात नहीं और केवल युवावस्था से ही इसका मतलब नहीं न समझदार या नासमझ होने से और न युवाओं की पसंद और नापसंद के बारे में भ्रमित होने से।बहुत से दंपत्ति आपको मिलेंगें जो जब युवा होते है बात बात में लड़ते झगडते,एक दूसरे का और उनके घरवालों का मजाक उडाते रहते हैं,एक दूसरे में कमियाँ निकालते रहते है लेकिन धीरे धीरे समय बीतता है तो दोनों के बीच तकरार कम होने लगती है और सुना है चालीस पैंतालीस के आसपास तो दोनों में आपस में प्यार व्यार सा भी होने लगता है जो समय के साथ बढता जाता है(क्या क्या बोलना पडता है ब्लॉग पर)।वहीं कुछ दंपत्ति शादी के बाद पहले बडे प्रेम से रहते है लेकिन शादी के दो दशक बाद एक दूसरे की शक्ल ही बुरी लगने लगती है और सोचते हैं कि गलत ही फंस गये।ये सब किसीके साथ भी हो सकता है चाहे वो अलग अलग परिवेश से आए या समान से।लेकिन मेरा मानना है कि हर एक को हालात को सुधारने की कोशिश करनी चाहिए न कि ये सोचकर दुखी होना चाहिए कि काश वैसा होता तो कितना अच्छा होता।दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति पैदा ही नहीं हुआ जो हर हाल में संतुष्ट ही हो।

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