विवाह को हम चाहे जरूरत समझें या फिर संस्कार मानव जीवन में इतकी महत्वपूर्ण भूमिका है. इसके साथ ही व्यक्ति के साथ बहुत से दायित्व और कर्त्तव्य भी जुड़ जाते हैं. दो व्यक्तियों को एक दूसरे के प्रति अपने उत्तरदायित्व भी निभाने पड़ते हैं. इसके बाद कुछ नए लोगों से नए रिश्तों का निर्माण होता है और व्यक्ति का सामाजिक दायरा भी बढ़ जाता है. विवाह मात्र एक नए व्यक्ति का अपने घर में शामिल होना ही नहीं है बल्कि उसके परिवार को भी अपने से जोड़ने कि प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है.
प्रथम विवाह तो एक सुखद घटना के रूप में ही ली जाती है लेकिन दूसरा विवाह एक दुखद घटना के घटित होने के बाद ही संभव होता है. वह दुखद घटना जीवनसाथी का निधन या फिर तलाक कुछ भी हो सकता है. प्रथम से दूसरे विवाह की राह बहुत कठिन होती है . वह चाहे पत्नी हो या फिर पति - दोनों को ही सामान्य विवाह से अधिक अपेक्षाएं और दायित्व मिलते हैं और इसके लिए दोनों को ही पहले शारीरिक रूप से कम लेकिन मानसिक रूप से ज्यादा तैयार होने पर ही दूसरे विवाह का निर्णय लेना चाहिए. पत्नी के लिए पति के पूर्व पत्नी से जुडी यादों का सामना भी करना पड़ सकता है. इसके लिए मानसिक परिपक्वता बहुत ही आवश्यक है क्योंकि दोनों ही शेष जीवन सुख पूर्वक जीने के लिए विवाह करने जा रहे होते हैं और अगर इस विवाह से उनको वही न मिल सके तो फिर उनका शेष जीवन नरक भी बन सकता है. अपेक्षाएं कभी अकेली नहीं होती बल्कि उसके साथ दायित्वों और कर्तव्यों का साथ भी होता है. इस बात को कभी भूलना नहीं चाहिए.
दूसरा विवाह अभी पुरुष के लिए अधिक आसान है, यद्यपि अब स्त्री के लिए भी सोच लचीली हो रही है किन्तु फिर भी पुरुष को निर्बाध रूप से करने का अधिकार समाज ने दे रखा है. जब की स्त्री अगर विधवा या परित्यक्ता है तो उसके लिए पुरुष निश्चित रूप से विधुर या तलाकशुदा ही शादी करने के लिए तैयार होगा. कोई भी माँ बाप अपनी बेटी की शादी अपनी परिस्थिति के अनुसार विधुर या तलाकशुदा के साथ कर सकते हैं किन्तु बेटे के माता पिता अपने अविवाहित पुत्र के लिए विधवा या परित्यक्ता से विवाह के लिए कभी भी तैयार नहीं होंगे. वैसे ये नियमावली सिर्फ मध्यम वर्गीय परिवारों के लिए ही बनी है. उच्च स्तरीय परिवारों में ऐसे कोई बंधन नहीं है चाहे स्त्री हो या फिर पुरुष उनके लिए एक, दो तीन या फिर चार विवाह भी कोई बड़ी बात नहीं है. कभी कभी तो विवाह और तलाक के बीच सिर्फ महीनों का अंतर होता है.
दूसरे विवाह में भी दोनों ही पक्ष एक संशय की स्थिति से गुजरते रहते हैं क्योंकि अगर पूर्व पत्नी की मृत्यु हुई है तो लड़की के स्वयं या फिर उसके घर वालों के मन में एक संशय रहता है कि उसकी मृत्यु स्वाभाविक थी या फिर किसी और कारण से हुई. यही स्थिति तलाकशुदा होने पर भी होती है. ये आवश्यक नहीं कि तलाक लेने के लिए हमेशा पुरुष ही दोषी हो, कभी कभी स्त्री भी घर और पति के साथ सामंजस्य न बिठा पाने या फिर अपने ऊँचे ऊँचे सपनों के टूटने से तलाक ले लेती हैं. लेकिन संशय दोनों को ही रहता है कि तलाक पत्नी के कारण हुआ है या फिर पति या उसके घर वालों के कारण से. लड़का पक्ष अगर निर्दोष है तो उसको ये संशय रहता है कि कहीं ये लड़की भी पहली की तरह से न हो. कई बार तो दूसरी पत्नी इस बात का फायदा भी उठती है कि वह घर वालों को ब्लैकमेल करने लगती है और वे उसकी हर मांग अपनी इज्जत बनाये रखने के लिए स्वीकार कर लेते हैं. पत्नी के मृत्यु के सम्बन्ध में मुझे एक वाकया याद है मेरे बचपन में एक परिचित परिवार में बड़े बेटे के तीन पत्नियों को जला कर मार दिया और लोग चौथी बार भी आकर शादी कर गए. ये सोचने की जरूरत नहीं समझी कि पहली पत्नियाँ कैसे और क्यों जलीं? ये संशय लड़की के मन में बहुत रहता है वह बात और है कि वह उस परिवार से पहले से परिचित हो.
ये घटना मेरे घर की ही है. मेरी चाची जी अपनी दूसरी संतान के जन्म के समय चल बसी. छोटी बेटी बहुत छोटी थी. उसको रखने की समस्या थी. कुछ समय तो घर में रख ली गयी लेकिन फिर चाचा जी से कहा गया कि वे दूसरी शादी कर लें बच्चियों को देखने के लिए माँ की ही जरूरत होती है. चाचा जी बेमन से इसके लिए तैयार हुए. वे एक विशेष क्षेत्र में वैज्ञानिक थे और फिर चाची के मरते ही रिश्ते आने शुरू हो गए. पहली चाची बहुत खूबसूरत थी लेकिन दूसरी वाली उतनी सुंदर न थी. चाचा का व्यवहार उनके प्रति न्यायपूर्ण न रहा. वे हर बात में पहली पत्नी से तुलना करने लगते . चाची ने आकर बेटियों को भी संभाल लिया. उनकी पोस्टिंग नैनीताल में थी. कभी चाची कहती कि चलिए यहाँ घूमने चलें तो चाचा का उत्तर होता - 'मैं मधु के साथ सब घूम चुका हूँ, तुम लड़कियों के साथ चली जाओ.' उनका यह उत्तर न्यायसंगत न था. क्योंकि उनकी दूसरी शादी हो सकती है लेकिन उस लड़की की तो पहली ही शादी है और अपने अरमानों को पूरा करने के लिए वह आपसे ही अपेक्षा करेगी. वह इसके लिए किसी और का सहारा नहीं लेगी. ये मेरे घर की घटना थी तो बहुत दिन सोचने के बाद ही लिख पायी हूँ लेकिन मुझे मेरे चाचा हमेशा ही गलत लगे. पूर्ण न्याय तो वे नहीं कर पाए बल्कि अपनी बेटियों को भी कभी माँ की तरह से इज्जत देने की बात नहीं कर पाए. अगर आप मानसिक तौर पर तैयार न हों तो किसी भी लड़की के जीवन को बर्बाद करने का आपको कोई भी अधिकार नहीं . वो कोई आया नहीं है कि जब आपके बच्चों को परवरिश की जरूरत थी तो आपने शादी कर ली और फिर उसको वो हक़ नहीं दे पाए जो पहली पत्नी को दिया था. किसी भी व्यक्ति के लिए ये अनुरोध है कि अगर आप नहीं तैयार हैं तो किसी को व्यथित करने के लिए विवाह बंधन में बात बंधिये . घर वालों के दबाव में भी नहीं.
ऐसा सिर्फ स्त्री के साथ होता हो ऐसा नहीं है दूसरा पक्ष भी उत्पीड़न का शिकार हो सकता है उसका स्वरूप अलग होता है. आप दूसरा विवाह अपने बच्चों को माँ के साए में रखने के लिए करते हैं और फिर खुद उनके दायित्वों से मुक्त होना चाहते हैं. लेकिन दूसरी पत्नी को आपके बच्चे फूटी आँखों नहीं सुहाते है. आपकी अनुपस्थिति में वह गलत व्यवहार कर सकती है और आते ही आपको उनके खिलाफ भड़का भी सकती है. इस स्थिति में माँ दूसरी तो बाप तीसरा होने वाली कहावत सिद्ध हो जाती है. बच्चे कहीं के भी नहीं रहते हैं. ऐसी स्थिति में पुरुषों से अनुरोध है कि आप विवेक से काम लें और दोनों के साथ सामंजस्य बैठा कर काम करें. दोनों को बराबर महत्व लें. सिर्फ एक पक्ष की बात न सुने. दोनों को बराबर सुने और बच्चों को अपनी बात एकांत में कहने दें. न्याय आपको ही करना है नहीं तो घर से उपेक्षित बच्चे भटक जायेंगे और कभी कभी तो वे अपराध की दिशा में भी उन्मुख हो सकते हैं. फिर उनके पतन के लिए आप ही सम्पूर्ण रूप से जिम्मेदार होंगे.
अगर आप स्त्री हैं तो दूसरे विवाह के बारे में सब कुछ जानकर ही निर्णय लें क्योंकि उस व्यक्ति के पास पहले से बच्चे होंगे और उन बच्चों की माँ का घर भी होगा. जिन लोगों ने अपनी बेटी खोयी है उसके बच्चों में उनका अंश शेष है और वे उनके प्रति चिंतित होंगे स्वाभाविक है. आपको अपने सारे दायित्वों के बारे में सोच कर ही इसके लिए सहमत होना चाहिए कि आप क्या दो परिवारों के साथ न्याय कर पाएंगी. इस स्थिति में आप के दो मायके होंगे और दोनों के रिश्ते भी दोहरे हो जाते हैं. उनको निभाना आपका नैतिक दायित्व बनता है. क्या बच्चों को आप माँ का प्यार दे पाएंगी . अगर आपकी आत्मा इसके लिए सहमत है तो फिर कोई बात नहीं है अगर सहमत नहीं है तो आप बिल्कुल इनकार कर सकती हैं. किसी के जीवन को नरक बनाने से अच्छा है कि उसको अकेले ही रहने दिया जाय. अगर आप दूसरे की खोई हुई बेटी का प्यार वापस दे सकती हैं तो फिर आप दोहरा प्यार पाएंगी भी. जीवन हमेशा एक दूसरे से जुड़ कर बनता है और दोनों की ख़ुशी और गम अपना कर एक सुखी संसार बना सकती हैं.
यहाँ मैं अपनी एक सहकर्मी का उदाहरण देना चाहूंगी. उनकी शादी जिस समय हुई वे है स्कूल में पढ़ रही थी और ३ माह के बेटे की माँ बन कर आयीं थी. बच्चे के साथ उन्होंने एम ए तक की शिक्षा पूर्ण की और हमारे साथ कई वर्षों तक काम करने के बाद भी हमें यह मालूम नहीं था की बड़ा बेटा उनका अपना बेटा नहीं है.उसके बाद उनके अपने दो बेटे और एक बेटी भी थे. बहुत साल बाद उनकी एक पड़ोसन ने ये बात हमें बतलाई. वे अपने दोनों मायकों को बराबर से मान देती , एक बार पहले मायके जाकर रक्षाबंधन मानती तो दूसरी बार अपने यहाँ. अपने बड़े बेटे की शादी में उन्होंने अपनी दोनों माँओं से हमारा परिचय कराया. मुझे फख्र है की ऐसी महिला भी हैं जिनका उदाहरण दिया जा सकता है.
इस विषय को उठाने का मेरा मंतव्य सिर्फ ये है कि दूसरा विवाह एक बहुत बड़ा निर्णय है , इसका निर्णय लेना तो आसान है लेकिन उससे जुड़े दायित्वों और अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए अपने को हमेशा मानसिक रूप से तैयार रखना होगा. तभी ये एक सुखद परिणति हो सकती है. स्वयं भी एक अच्छा जीवन जियें और दूसरे को भी जीने का अवसर दें.
GOOD POST......DHANYABAD..REKHA JI.आप-बीती-०६ माँ की ममता और दुलारा सर्प.
ReplyDeletebahut hi marmik post dhanyawad
ReplyDeleteकई बार एसी स्तिथि में अन्य लोगो की भूमिका ज्यादा होती है जैसे ही कोई लड़की किसी की दूसरी पत्नी और सोतेली माँ बन कर आती है सबकी निगाहे बच्चे के साथ उसके व्यवहार पर केन्द्रित हो जाती है परिवार के ही नहीं आस-पड़ोस के सभी लोग उसकी आलोचना को तैयार रहते है. जेसे ही उसने बच्चे के साथ कुछ बुरा व्यवहार किया कि सब बुरा-भला कहने लगते है. बच्चो से भी बार बार पूछते है कि सौतेली माँ कैसा बर्ताव कर रही है. यही नहीं माँ के विरुध्द भड़काने से बाज नहीं आते.
ReplyDeleteशोभा जी,
ReplyDeleteआप एकदम सही हैं लेकिन अगर हम अपने कर्त्तव्य के साथ न्याय कर रहे हैं तो ऐसे लोगों का आज नहीं तो कल मुँह बंद हो ही जाता है.
शोभा जी,
ReplyDeleteआप एकदम सही हैं लेकिन अगर हम अपने कर्त्तव्य के साथ न्याय कर रहे हैं तो ऐसे लोगों का आज नहीं तो कल मुँह बंद हो ही जाता है.
अब सभी ब्लागों का लेखा जोखा BLOG WORLD.COM पर आरम्भ हो
ReplyDeleteचुका है । यदि आपका ब्लाग अभी तक नही जुङा । तो कृपया ब्लाग एड्रेस
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रेखाजी,
ReplyDeleteपहली बार आपका लेख पढ रहा हूँ।
अच्छा लगा।
इस सन्दर्भ में मुझे एक किस्सा याद आ रहा है।
करीब तीस साल पहले की बात है।
मेरे पडोस में एक महिला के दो बेटे थे।
दोनों अच्छे, होनहार और पढे लिखे।
आयु में दो साल का अन्तर था
दोनों की शादी भी हुई। संयुक्त परिवार था।
दुर्भाग्यवश, एक बेटे की और कुछ महीने बाद दूसरी बहू की अचानक मृत्यु हो गई। एक दम्पति का बच्चा भी था।
दो साल के बाद इस महिला ने एक बहुत ही साहसी कदम उठाया।
उसे अपने विदुर बेटे और विधवा बहु और अनाथ पोते का हाल देखा नहीं गया।
उसने समाजकी, रिश्तेदारों की, पडोसियों की परवाह न करके, केवल अपने दूसरे बेटे और पहली बहू को पूछकर, समझा बुझाकर, उन दोनों को आपस में शादी करने के लिए राजी करा लिया।
आज तीस साल हो गए हैं। वह साहसी महिला अब नहीं रही।
दम्पति किसी और जगह रह रहे हैं।
केवल पुराने रिश्तेदार और मित्र जानते हैं इस शादी के बारे में।
नये स्थान में लोगों को इस विवाह का इतिहास के बारे में पता भी नहीं। जहाँ तक मैं जानता हूँ , दोनों खुश हैं।
आपका लेख पढकर यह कहानी याद आ गई
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ