गाजियाबाद से दिल्ली आये लगभग 8 महीने हो चले हैं . यूँ तो लखनऊ से माँ - पिता के साथ दिल्ली 1965 में ही आगयी थी पर 1977 से गाजियाबाद में ही रहना बसना था .
दिल्ली में जसोला { अपोलो अस्पताल के पास } जब से शिफ्ट किया हैं यहाँ एक अनुभव हुआ हैं . दिल्ली मे लोग खाना खुद नहीं बनाते हैं . यहाँ जिस डी डी ऐ फ्लैट काम्प्लेक्स में फ्लैट हैं वहाँ तकरीबन 400 फ्लैट हैं . इन 400 फ्लैट में कम से 300 फ्लैट में खाना घर का कोई सदस्य नहीं बनाता हैं .
कौन बनाता हैं फिर खाना ??
लीजिये उस व्यक्ति की जीवनचर्या से परिचित कराती हूँ
उम्र 12 साल से 17 साल के बीच
जेंडर स्त्रीलिंग
सुबह 6.30 बजे इनकी माँ इनको उठा देती हैं और भूखे पेट ,तक़रीबन 30 मिनट पैदल चल कर ये उस पहली जगह पहुचती हैं जहां इनको नाश्ता बनाना हैं . सर्दी , गर्मी , बरसात इनके नियम में परिवर्तन नहीं हैं . नाश्ता यानी सब्जी पराठा और चाय . वही ये नाश्ता बना कर , खिला कर { कम से कम 5 सदस्य } खुद भी चाय पीती हैं और अगर तय हैं तो नाश्ता करती हैं पर ज्यादा बार केवल चाय ही मिलती हैं . इसके लिये 800 रुपये
अब समय हैं 8.30 बजे और ये दूसरी जगह पहुच कर बर्तन धोने का काम और झाड़ू पोछे का काम करती हैं . एक घंटे ये काम होता हैं और इसके लिये 1000 रुपया मिलता हैं लेकिन बर्तन धोने के लिये शाम को भी आना होता हैं
अब समय हैं 10.30 और ये तीसरी जगह जाती हैं जहां इनको 5 लोगो का खाना बनाना होता हैं . समय होता हैं 12.30 दोपहर .
अब ये अपने घर वापस आती हैं और नाशता या खाना जो भी हो खाती हैं / बनाती हैं . इसके बाद अपने घर के काम निपटाती हैं क्युकी माँ किसी के यहाँ कपड़े धो रही होती हैं या यही काम कर रही होती हैं
इसके बाद 3 बजे से इनकी यही दिन चर्या दुबारा शुरू होती हैं यानी सुबह के बर्तन धोना , फिर शाम के लिये खाना बनाना और शाम को 6.30 बजे तक घर जाना .
इनके परिवारों में कम से 5-6 लडकियां जरुर हैं जो काम करती हैं और 6 साल की उम्र से कर रही हैं . यानी 6 साल की बच्ची बर्तन धोना , सब्जी इत्यादि काटना , कपड़े धोना करती हैं , आता गूंथना इत्यादि करती हैं और 8 साल तक की उम्र पर ये खाना बनाने का काम करना शुरू कर देती हैं .
उस पर भी इनके अभिभावक इनके लिये ज्यादा से ज्यादा काम खोजते रहते हैं . कयी जगह ये सुबह 8 बजे से शाम को 6 बजे तक रहती हैं 4000 रूपए पाती हैं पर उस से भी संतुष्टि नहीं हैं , सुबह 6.30 बजे इनको पहले किसी जगह नाश्ता बनाना होता हैं फिर वही रात को 6.30 बजे से 8.30 के बीच में खाना पकाना .
सब मिला कर एक लड़की 6000 रूपए प्रति माह अवश्य पाती हैं लेकिन
इस पैसे पर उसका अधिकार नहीं होता . एक रुपया भी उसको नहीं दिया जाता हैं . माँ कहती हैं तेरे लिये ही जोड़ रही हूँ कम से 2 लाख तेरी शादी में खर्च होगा ही .
इनके हर घर में माँ बेटी में तनाव पानी चरम सीमा पर होता हैं . इन मे से कोई भी लड़की अपनी मर्जी से काम करने नहीं आती हैं . सबको भेज जाता हैं . बेमन से पूरा दिन इनसे "बेगार " करवाई जाती हैं .
इन घरो में लडको का हाल भी कुछ बेहतर नहीं हैं . 6-12 वर्ष के लडके दुकानों पर लगे होते हैं और साइकल से "फ्री होम डिलीवरी " का काम करते हैं और इनको तकरीबन 2000 रूपए मिलते हैं .
कभी कभी लगता हैं ये जो हम सब के घरो में इस प्रकार से काम लेने की , खाना बनवाने की प्रक्रिया हम किसी दुसरे से करवाते हैं उसका क्या प्रभाव हम सब पर पड़ता होगा ? क्या इनका बनाया खाना जो बेमन से होता हैं हम सब वो पोषण देता होगा जो भोजन का काम हैं
पता नहीं शोषण हैं ये सब या नहीं , क्यूँ पैदा किया जाता हैं इन सब को ?? क्यूँ हम सब अपना काम खुद करने की और अग्रसर नहीं होते हैं .
विदेशो में तो सब काम खुद किया जाता हैं फिर यहाँ क्यूँ नहीं
अजीब आत्म मंथन हैं आज यहाँ इन शब्दों में .
दिल्ली में जसोला { अपोलो अस्पताल के पास } जब से शिफ्ट किया हैं यहाँ एक अनुभव हुआ हैं . दिल्ली मे लोग खाना खुद नहीं बनाते हैं . यहाँ जिस डी डी ऐ फ्लैट काम्प्लेक्स में फ्लैट हैं वहाँ तकरीबन 400 फ्लैट हैं . इन 400 फ्लैट में कम से 300 फ्लैट में खाना घर का कोई सदस्य नहीं बनाता हैं .
कौन बनाता हैं फिर खाना ??
लीजिये उस व्यक्ति की जीवनचर्या से परिचित कराती हूँ
उम्र 12 साल से 17 साल के बीच
जेंडर स्त्रीलिंग
सुबह 6.30 बजे इनकी माँ इनको उठा देती हैं और भूखे पेट ,तक़रीबन 30 मिनट पैदल चल कर ये उस पहली जगह पहुचती हैं जहां इनको नाश्ता बनाना हैं . सर्दी , गर्मी , बरसात इनके नियम में परिवर्तन नहीं हैं . नाश्ता यानी सब्जी पराठा और चाय . वही ये नाश्ता बना कर , खिला कर { कम से कम 5 सदस्य } खुद भी चाय पीती हैं और अगर तय हैं तो नाश्ता करती हैं पर ज्यादा बार केवल चाय ही मिलती हैं . इसके लिये 800 रुपये
अब समय हैं 8.30 बजे और ये दूसरी जगह पहुच कर बर्तन धोने का काम और झाड़ू पोछे का काम करती हैं . एक घंटे ये काम होता हैं और इसके लिये 1000 रुपया मिलता हैं लेकिन बर्तन धोने के लिये शाम को भी आना होता हैं
अब समय हैं 10.30 और ये तीसरी जगह जाती हैं जहां इनको 5 लोगो का खाना बनाना होता हैं . समय होता हैं 12.30 दोपहर .
अब ये अपने घर वापस आती हैं और नाशता या खाना जो भी हो खाती हैं / बनाती हैं . इसके बाद अपने घर के काम निपटाती हैं क्युकी माँ किसी के यहाँ कपड़े धो रही होती हैं या यही काम कर रही होती हैं
इसके बाद 3 बजे से इनकी यही दिन चर्या दुबारा शुरू होती हैं यानी सुबह के बर्तन धोना , फिर शाम के लिये खाना बनाना और शाम को 6.30 बजे तक घर जाना .
इनके परिवारों में कम से 5-6 लडकियां जरुर हैं जो काम करती हैं और 6 साल की उम्र से कर रही हैं . यानी 6 साल की बच्ची बर्तन धोना , सब्जी इत्यादि काटना , कपड़े धोना करती हैं , आता गूंथना इत्यादि करती हैं और 8 साल तक की उम्र पर ये खाना बनाने का काम करना शुरू कर देती हैं .
उस पर भी इनके अभिभावक इनके लिये ज्यादा से ज्यादा काम खोजते रहते हैं . कयी जगह ये सुबह 8 बजे से शाम को 6 बजे तक रहती हैं 4000 रूपए पाती हैं पर उस से भी संतुष्टि नहीं हैं , सुबह 6.30 बजे इनको पहले किसी जगह नाश्ता बनाना होता हैं फिर वही रात को 6.30 बजे से 8.30 के बीच में खाना पकाना .
सब मिला कर एक लड़की 6000 रूपए प्रति माह अवश्य पाती हैं लेकिन
इस पैसे पर उसका अधिकार नहीं होता . एक रुपया भी उसको नहीं दिया जाता हैं . माँ कहती हैं तेरे लिये ही जोड़ रही हूँ कम से 2 लाख तेरी शादी में खर्च होगा ही .
इनके हर घर में माँ बेटी में तनाव पानी चरम सीमा पर होता हैं . इन मे से कोई भी लड़की अपनी मर्जी से काम करने नहीं आती हैं . सबको भेज जाता हैं . बेमन से पूरा दिन इनसे "बेगार " करवाई जाती हैं .
इन घरो में लडको का हाल भी कुछ बेहतर नहीं हैं . 6-12 वर्ष के लडके दुकानों पर लगे होते हैं और साइकल से "फ्री होम डिलीवरी " का काम करते हैं और इनको तकरीबन 2000 रूपए मिलते हैं .
कभी कभी लगता हैं ये जो हम सब के घरो में इस प्रकार से काम लेने की , खाना बनवाने की प्रक्रिया हम किसी दुसरे से करवाते हैं उसका क्या प्रभाव हम सब पर पड़ता होगा ? क्या इनका बनाया खाना जो बेमन से होता हैं हम सब वो पोषण देता होगा जो भोजन का काम हैं
पता नहीं शोषण हैं ये सब या नहीं , क्यूँ पैदा किया जाता हैं इन सब को ?? क्यूँ हम सब अपना काम खुद करने की और अग्रसर नहीं होते हैं .
विदेशो में तो सब काम खुद किया जाता हैं फिर यहाँ क्यूँ नहीं
अजीब आत्म मंथन हैं आज यहाँ इन शब्दों में .
बेमन से पकाया गया भोजन कभी भी स्वास्थ्यप्रद नहीं हो सकता..अपना काम जहां तक हो सके खुद ही करना चाहिए..तन व मन दोनों की खुशी के लिए..
ReplyDeleteबहुत दुख हुआ पढ़कर !
ReplyDeleteअनिता जी बात से पूरी तरह सहमत हूँ...
~सादर!!!
ऐसे ही कितने प्रश्न मेरे मन में भी लगातार उठते रहते है ,मंथ न होता रहता है ।पहले के जमाने में कुछ मुट्ठी भर लोग दुसरो का शोषण करते थे आज शोषण करने वालो की संख्या बढ़ गई है और वे इसे अपनी शान समझते है ।विडम्बना ये है की शोषण करने वाले समाज सेवा के झंडे हाथ में लिए घूमते है ।
ReplyDeleteहम आपसे सहमत है।
ReplyDeleteपैसा घर की लक्ष्मियों पर भारी...
ReplyDeleteउच्च वर्ग की विलासिता की ओर बढ़ता मध्यम वर्ग...
अपने हक़ के लिए शोर मचाते और दूसरों के हक़ को दबाते हम लोग...
जय हिंद...
गृहणी के कार्य को कमतर आंकना बेवकूफी है.
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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रचना जी,
१- खाना बनाना = ऐसा श्रम जिसमें कुशलता (skill) की जरूरत है... दिल्ली जैसे महानगर में यह तकरीबन ३६० रू० प्रतिदिन, अथवा ६० रूपये घंटे की दर पर उपलब्ध है... (एक दिन में छह घंटे काम व दो घंटे आराम/आने जाने के)... ठीक इसी तरह बर्तन सफाई/घर की सफाई (अकुशल श्रम) आदि २४०/प्रति दिन या ४० रूपये प्रति घंटा... इस हिसाब से यदि एक घंटा खाना बनाने का कोई १८०० रू० प्रति माह व एक घंटा रोजाना साफ सफाई का कोई १२०० प्रति माह दे रहा है तो कोई शोषण नहीं हो रहा/किया जा रहा... पर होता यह है कि एक लोकेलिटी की सभी गृहिणियाँ मिलीभगत का एक गठजोड़ सा बना पारिश्रमिक की दरों को लगभग आधा रखती हैं, कोई यदि बढ़ाना भी चाहता है तो उसे 'रेट/दिमाग खराब न करने' को कहा जाता है... यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है... :)
२- @ 'क्या इनका बनाया खाना जो बेमन से होता हैं हम सब वो पोषण देता होगा जो भोजन का काम हैं'
खाना उतना पोषण अवश्य देगा जितना पोषण उसमें मौजूद है... खाना जड़ वस्तु है, मनोभावों के आधार पर अपना प्रभाव/स्वभाव नहीं बदलता... रही बात मन/बेमन की, आपको क्या लगता है कि तपती गर्मी में होटल के तंदूर पर बैठी/बैठा शख्स मनोयोग से वह काम करता है... वह भी अपने बच्चों का पेट पालने के लिये ही इस काम को करते हैं...
३- वैसे मन/बेमन की आपने छेड़ी ही है तो पूरे मन से बिना किसी बाध्यता व शोषण के की गयी मेरी टिप्पणियाँ भी बहुतों को बेस्वाद लगती हैं... ऐसा क्यों आखिर... :))
...
प्रवीण जी
Deleteइस पोस्ट में काम देने वालो से ज्यादा उनके विषय में बात हैं जिनके ये बच्चे हैं .
और जैसे आप हाउस वाइफ़ के संगठन की बात कर रहे हैं , जहां मै इस समय हूँ वहाँ काम करने वालो का संगठन हैं जो बाकायदा हर साल पैसा बढाता हैं और जो नहीं देते हैं उनके यहाँ काम नहीं होता
काम देने वालो को धमकाया जाता हैं की अगर कभी पुलिस में कम्प्लेंट की तो "आप की बड़ी बदनामी होगी और आप के यहाँ कोई काम नहीं करेगा "
आप की टिप्पणी का मुझे तो इंतज़ार रहता हैं अब आप के अन्य देव / दानवो / देवियों / रांडो / छिनालो को हैं या नहीं कह नहीं सकती , हर शब्द बकोल आप के डिक्शनरी में हैं मेरा बनाया नहीं हैं :)
This comment has been removed by the author.
Delete@पूरे मन से बिना किसी बाध्यता व शोषण के की गयी मेरी टिप्पणियाँ भी बहुतों को बेस्वाद लगती हैं... ऐसा क्यों आखिर... :))
Delete--उन बहुतों में से इस एक ना-चीज द्वारा बे-स्वाद की विवेचना और क्यों की स्पष्टता……
आदरणीय प्रवीण शाह जी,
@"खाना उतना पोषण अवश्य देगा जितना पोषण उसमें मौजूद है..."
--खाने में मौजूद पोषक तत्व पूर्ण रूप से पोषण नहीं देते अगर उनके सहयोगी और समर्थक एंजाईम व रसायन हमारे अपने शरीर में स्रावित न हो। यह एंजाईम व रसायन हमारे मन की भावनाओं से सक्रिय होते है। इसलिए पोषण को आवश्यक उर्जा में परिवर्तित करने के लिए मन प्रमुख भूमिका निभाता है।
भोजन भले जड़ वस्तु हो, लेकिन सजे धजे सुन्दर दिखते भोजन के प्रति सुरूचि उत्पन्न होती ही है। हम अक्सर भोजन का जड़ साजो सामान स्वच्छ रखते है, डिस-थाली सजाते है, टेबल सजाते है इसतरह जड़ भोज्य वस्तुओं को देख कर मन में खाने की रूचि और इच्छा बलवती बनती ही है, यह जड़ वस्तुओं के मन पर पडने वाले प्रभाव का ऊपरी साधारण सा उदाहरण है। उसी तरह कोई बे-मन से बनाए या उपेक्षा भाव से परोसे तो हमारी मनस्थित्ति में अद्भुत परिवर्तन आता है उसी के अनुरूप भावनाएं पैदा होती है और शरीर में ऐसे ही एंजाईम के स्राव होते है जो पोषण को प्रभावित करते ही करते है।
शादी ब्याह आदि अवसरों, त्यौहारों आदि के बचे खुचे किन्तु गरिष्ठ भर पेट भोजन लेने वाले भिखारी भी अमुमन कमजोर कुपोषण के शिकार देखे जा सकते है।
@आपको क्या लगता है कि तपती गर्मी में होटल के तंदूर पर बैठी/बैठा शख्स मनोयोग से वह काम करता है... वह भी अपने बच्चों का पेट पालने के लिये ही इस काम को करते हैं...
भोजन-कर्मी सम्भवतया अपने कौशल-निष्ठा से काम करता है। निश्चित ही यह अपने बच्चों का पेट पालने के लिये ही 'मनोयोग' है। यह अपनी रोजी की प्रतिबद्धता है, न कि खाने वालो के लिए ममत्व भरा मनोयोग।
फिर भी प्रस्तुत पोस्ट में कमाई के प्रति मनोयोग उन भोजन-कर्मियों के अभिभावको का दर्शा कर यह कहने का प्रयास किया गया है कि वे भोजन-कर्मी - बच्चे-किशोर-युवा, अभिभावको की मर्जी से किन्तु बेमन से खटते है। और इस तरह बेमन से बने भोजन के प्रति सुरूचि, पुष्टि और तृप्ति नहीं होती।
"जड़ वस्तु और मन-प्रभाव" उस डॉक्टर से पूछो जो जीने की इच्छा त्याग चुके, मनोबल हीन मरीज को सटीक व सही दवाएं देता है किन्तु मरीज पर कुछ भी असर नहीं करती। उन जड़ दावाओं में जो तत्व है, जो जीवनदायी पदार्थ है, किंचित क्रियाशील ही नहीं बनते………!!!
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