नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

June 15, 2010

ऐसे में आप क्या कहेंगे ?

नारी सिर्फ बच्चा पैदा करने की मशीन है (माफ़ कीजिये मेरी भाषा थोड़ी असभ्य हो गई है )ये बात आज के ५० से ७० साल और शायद उससे पहले से ही समाज के मूल में रही है और आज भी उतनी ही गहरी पैठी है कुछ लोगो के मन में |फर्क इतना है की पहले १० से १२ बच्चे सामान्य बात थी फिर ६ से ७ बच्चो पार बात आई फिर तीन से चार और फिर हम दो हमारे दो |और अब तो एक ही है हमारा |लेकिन कुछ लोगो की मानसिकता है अभी भी वही है शादी हो गई बस एक बच्चा हो जाय वो भी लड़का तो परिवार का वंश नाम चलेगा |हमें तो हमारा पोता मिल गया .हमे हमारा भतीजा मिल गया , तुम तो बाहर की लडकी हो तुमसे क्या लेना देना ?तुमको जो जीवित रहने के लिए जरुरी है वो सब मिल ही रहा है न ?यहाँ ये मिथक भी टूटता जा रहा है की एक नारी को माँ बनने पर ही सम्मान मिलता है या पूर्णता आती है |(अगले जनम के लोहासिंग की पोता पाने की लालसा उसके सनकी पन की निशानी कही जाती हो )पर ये सोच अभी विद्यमान है |एक शिक्षित परिवार भी अपनी बहू के साथ ऐसा ही बर्ताव करता है |

43 comments:

  1. mahila ka shuru se hi mansik anukulan is tarah kiya jata hai ki wo maa banne ko koi rachnatmak ya mahaan kaam maan baithti hai.samasya yahi se shuru hoti hai.mahila ko pahle is bhraM ME RAKHA JAYEGA KI USME TYAAG KARNE KI ASEEM SHAKTI HAI.AUR PHIR WO BHI ISE HI SATYA MANNE LAGTI HAI.

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  2. समाज में स्त्री जब तक विवाह के बाद अपने पति के घर जाती रहेगी तब तक यह होगा ही।

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  3. kya moderation hata liya gaya hai?

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  4. समाज से इस तरह की बुराईयों को दूर करने के लिए सबसे पहले हम नारियों को ही बदलना होगा .,.. क्यूंकि पोते की डिमांड करने वाली सास भी नारी ही होती है ,.. अपना समय भूलकर न जाने क्यूँ हम बदलने की सोच रखते हुए भी अपने आप को बदल नहीं पाती है ,.. अगर ऐसा हो जाये तो पुरुष की कोई मजाल नहीं कि हमारी बेटियों को जन्म से पहले ही मारने का इरादा बना ले ...

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  5. और अब तो एक ही है हमारा |लेकिन कुछ लोगो की मानसिकता है अभी भी वही है शादी हो गई बस एक बच्चा हो जाय वो भी लड़का तो परिवार का वंश नाम चलेगा |हमें तो हमारा पोता मिल गया .हमे हमारा भतीजा मिल गया , तुम तो बाहर की लडकी हो तुमसे क्या लेना देना ?तुमको जो जीवित रहने के लिए जरुरी है वो सब मिल ही रहा है न
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    ये आपने लिखा है..........बहुत खरी-कहरी कहने के कारण कई बार आपके ब्लॉग की महिलाओं को और दूसरे कई महिला समर्थक दिखने वालों को हमारे विचार हज़म नहीं होते. आप बताएं यदि समाज की मानसिकता १२ बच्चों से आकर १ बच्चे पर ठहर गई है तो क्या अन्य दूसरी मानसिकताओं में अंतर आपको नहीं दीखता?
    जो आपने लिखा है वो अब १०० फ़ीसदी तो सही नहीं है (ऊपर दिया आपके अंश के सन्दर्भ में) और यदि इसके पीछे जाया जाए तो बच्चे की मांग घर की महिलायें ही ज्यादा करतीं हैं....अब यहाँ पर भी पुरुष पर कोई आरोप न जड़ दीजियेगा...
    समाज में यह विरोध (स्त्री पुरुष का) इसी तरह की मानसिकता के कारण फ़ैल रहा है....इसे रोकने का उपाय करें न कि बढ़ाने का........... ठीक वैसे ही जैसे हम अपने शरीर के किसी घाव को बढाते नहीं उसे पट्टी बाँध कर, छिपा कर धुल आदि से बछा कर ठीक करने का प्रयास करते हैं....
    आशा है आप जैसे समझदार (?) लोग समझेंगे.
    जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड

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  6. हम दोनों एक हमारा एक

    वैसे नारी ही इसको पुख्‍ता करने में योगदान दे रही है। पर दोष हम सबका ही है। आपने सही नब्‍ज पर ऊंगली रखी है बिटिया रानी।

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  7. मादाम ,बच्चे नहीं होंगे तो यह दुनिया ही खत्म नहीं हो जायेगी?क्या कुदरत ऐसा होने देगी ? उसने बनाया ही है हमें बच्चे जनने के लिए -चलिए दुधौ नहाओ पूतो फलो की बात पुरानी पड़ गयी मगर प्रजनन पर पूर्ण प्रतिबन्ध की वकालत? बात कुछ हजम नहीं हुयी !

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  8. शोभना जी अगर आप कि तरह कुछ लोग और इतनी अच्छी तरह अपने विचार दे तो बहस हो सकती हैं । नारी का शरीर केवल बच्चे पैदा करने कि मशीन ही नहीं हैं उस से भी ज्यादा हैं । प्रकृति को चलाने के लिये नारी को केवल शरीर माने वाले कब इस बात को समझेगे पता नहीं । अभी तो नहीं समझे हैं ये साफ़ दिख रहा हैं

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  9. ...'बच्चे की मांग घर की महिलायें ही ज्यादा करतीं हैं...' सबसे आसान है ये कह देना बिना समाज की पूरी संरचना को जाने हुए. जब लड़के को जन्म देने पर वाहवाही मिलती हो और लड़कियों को जन्म देने पर ताना तो कौन औरत लड़की जनना चाहेगी? और अगर घर की औरतें ही लडके की फरमाइश करती हैं, तो ये देखना चाहिए कि गृहस्वामी कौन है...औरतों से जुडी किसी भी बात को हलके में उड़ा देना बहुत आसान है. लोगों को पहले सामाजिक संरचना समझनी चाहिए और तब वक्तव्य देने चाहिए.
    ये मुद्दा सिर्फ इतना भर नहीं है कि औरतें बच्चे को जन्म देने से आज़ादी चाहती हैं... मुद्दा ये है कि अंतिम निर्णय औरत का होना चाहिए क्योंकि बच्चे के जन्म की पीड़ा वही झेलती है... कि वो बच्चे पैदा करे या नहीं, करे तो कब करे, कितने बच्चे पैदा करे, लिंग परीक्षण न करवाया जाए... आदि.
    जो ये कहते हैं कि स्थिति बदल गयी है उन्हें जवाब देना चाहिए कि उत्तर भारत के अनेक राज्यों में लिंगानुपात पुरुषों के पक्ष में क्यों है... अब भी गाँवों में पुत्र की चाह में औरतों के शरीर की दुर्दशा होती है... कम उम्र में माँ बनने को मजबूर किया जाता है... अभी बिल्कुल ताजा घटना मेरे सामने ऐसी ही हुयी, जहाँ शारीरिक रूप से कमज़ोर एक लड़की को माँ बनना पड़ रहा है... और इस समय डॉक्टर के चक्कर लग रहे हैं.
    अधिकतर औरतें माँ बनना चाहती हैं, पर जो औरत माँ नहीं बनना चाहती या नहीं बन सकती उसे हेय दृष्टि से न देखा जाए, जैसा कि समाज में होता है.
    एक या दो औरतों के बच्चा न पैदा करने पर सृष्टि नहीं नष्ट हो जायेगी, हाँ उस औरत की ज़िंदगी उसकी मर्जी से ज़रूर चलेगी.

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  10. बिल्कुल सत्य है, अभी भी माँ न बन पाने वाली महिलाओं को परिवार में ही नहीं समाज में भी कटाक्ष सुनने पड़ते हैं. हाँ बच्चे का निर्णय माँ की इच्छा के अनुसार होना चाहिए. इसके लिए सिर्फ पुरुष वर्ग को दोष कहीं भी नहीं दिया जा रहा है. परिवार में सभी शामिल हैं. इसमें कोई शक नहीं की मातृत्व से ही नारी की पूर्णता को आँका जाता है और ८० प्रतिशत महिलाएं भी इस बात को स्वयं स्वीकार करती हैं. लेकिन उसे इसके लिए औरों की मर्जी से नहीं चलने को मजबूर करना चाहिए. वह माँ के दायित्व को तभी कुशलता से निभा सकती है जब वह मानसिक और शारीरिक रूप से इसके लिए तैयार हो. सिर्फ किसी और की मर्जी से यह काम सिर्फ उसको प्रयोग करना ही कहा जा सकता है.

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  11. @अरविंदजी
    १० से १२ बच्चो से एक बच्चे तक आने में जो भी सामाजिक आर्थिक परिस्थियाँ रही हो |स्रष्टि के इस संतानोत्पति नियम को और इस अनमोल उपहार को बदलने का हमको कोई हक़ भी नहीं है और न ही मेरे इस आलेख का ये उद्देश्य है |मेरी बात की मुक्तिजी ने बहुत ही अच्छी तरह से व्याख्या कर दी है |

    @मुक्तिजी बहुत बहुत धन्यवाद जो आपने मुख्य बात को इतने विस्तृत रूप से रखा |
    @रचना जी सही है शारीर से इतर भी बहुत कुछ है नारी |
    अविनाशजी .दिनेशजी ,कैलाशजी ,पुखराजजी ,राजनजी आप सभी का धन्यवाद अपने विचार प्रकट करने के लिए |

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  12. औरत ही कहती है, औरत ही औरत को परेशान करती है़ औरत ही बहू से, इससे उससे, बच्चे की माँग करती है, यह करती है, वह करती है, यह सब कहने वाले न जाने किस संसार में रहते हैं? मैंने पुरुष को भी बहू को, भाई की पत्नी को , अपनी पत्नी को, माँ को परेशान करते देखा है। मैंने पुरुष को भी यह कहते सुना है कि अपनी बेटी से कहो कि बच्चा जन्मे, या बहू से कहते सुना है कि अब तो परिवार बढ़ाओ। सो यह सब एकतरफा नहीं है। पहले शायद पुरुष यह सब नहीं कहते होंगे क्योंकि वे बहुओं से बात नहीं कर पाते थे। अब करते हैं तो यह सब भी कहते हैं और उलाहने भी देते हैं।
    प्रश्न स्त्री या पुरुष का नहीं, प्रश्न शक्ति का है, जिसके पास होगी वह उसका दुरुपयोग तो करेगा ही विशेषकर तब जब आप सावधान नहीं होंगे। और बलप्रयोग किसपर किया जाता है? जो नया हो, अकेला हो, कमजोर हो, जिसका कोई गुट न बना हो। और परिवार में यह स्थिति किसकी होती है? बरसों से रह रहे पुरुषों या माँ या बेटियों की या नई आई बहू की?
    खैर कहते हैं तो कहें। स्त्री को सुनना ही नहीं चाहिए। पंखा चलता है तो उसकी आवाज होती है, बाहर हवा चलती है तो उसकी होती है सो घर के अंदर भी हो रही हो तो ध्यान नहीं देना चाहिए। जो भी हो कोई उपाय करना चाहिए न कि घुटने टेक देने चाहिए। शरीर उसका है, गर्भधारण कर गर्भ को बड़ा करने, जन्म देने, लालन पालन का कष्ट उसे उठाना है तो निर्णय भी उस ही का होगा। हाँ, जिसे संतान चाहिए ही न हो उसे यह बात विवाह से पहले ही साफ कर देनी चाहिए क्योंकि प्रायः यह सोचकर चला जाता है कि विवाह होगा तो बच्चे भी होंगे।
    घुघूती बासूती

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  13. @हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि अपना या केवल कुछ लोगों की समस्याओं को पूरे समाज पर न थोपा जाय !
    प्रजनन प्रकृति का एक अनिवार्य मकसद है -और यह व्यवस्था तो प्रकृति ही रखती है जिसमें उस अधिकार से कुछ को वंचित करती है ,.मुझे नहीं लगता कि प्रजनन कार्य को उससे अधिक बाधित करना चाहिए ..प्रजनन की पीड़ा एक नैसर्गिक पीड़ा है जो दरअसल पीड़ाहै भी नहीं -यह तो बहुतों के लिए एक अनिर्वचनीय आनन्द है -मुझे तो नहीं लगता एक भारतीय नारी 'जनन की पीड़ा 'को पीड़ा समझती है -ऐसे तर्कों को लाकर हम किस समाज की आधारशिला रख रहे हैं ! यह एक नैतिक आचार विचार और धर्मसंकट का मामला है -मुझे ऐसे समाज से व्यक्तिगत कोई वितृष्णा नहीं है मगर मैं जरूर मनुष्य की भावी दुनिया की पूर्व पीठिका तय करने वाले निर्देशक तत्वों से इन प्रश्नों को पूछना चाहूँगा?
    1-क्या नारी प्रजनन कार्य से मुक्त होना चाहती है ?
    २-क्या वह इस उत्तरदायित्व को बोझ मानती है जिसे उतार फेकना चाहती है ?
    ३-फिर यौनिक सम्बन्ध निर्थक नहीं हो जायेगें ?
    ४ -या यौनिक सम्बन्ध फिर भी रहेगें क्योंकि उनकी एक गैर प्रजनात्मक जरूरत भी रहती है नर नारी को ?
    ५-क्या ऐसे समाज में निहायत व्यक्तिपरकता हावी नहीं जायेगी?

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  14. 1-क्या नारी प्रजनन कार्य से मुक्त होना चाहती है ?
    She wants to be the one to be able to decide
    २-क्या वह इस उत्तरदायित्व को बोझ मानती है जिसे उतार फेकना चाहती है ?

    उत्तरदायित्व who is going to decide the उत्तरदायित्व part . YOU ??, let her decide

    ३-फिर यौनिक सम्बन्ध निर्थक नहीं हो जायेगें ?
    Just that most woman are silent on this issue does not mean that in present यौनिक सम्बन्ध निर्थक already or do you want to say that sexual relationships should be made only to give birth , then think again

    ५-क्या ऐसे समाज में निहायत व्यक्तिपरकता हावी नहीं जायेगी?
    As of now only woman has suffered and now she wants the society to wake up to her suffering

    Your views as always very gender bias

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  15. रचना जी जेंडर बायस्ड आप है और भयंकर हैं -मेरा नर नारी सम्बन्ध वाला पूरा प्रश्न ही आपने गोल कर दिया -
    मैं यही तो कहता आया हूँ की नर नारी के यौनिक सम्बन्ध प्रजनन से इतर भी बहुत कुछ है !
    मैं भविष्य के समाज के स्वरुप के बारे में बात करना चाहता था -मगर आपने ट्विस्ट और टिल्ट कर
    दिखाया जिस्म,एन आप सिद्धहस्त हैं :)
    कोई बात नहीं बहस तो हो रही है ! अच्छी हो रही है ! मैं चिल्ला चिल्ला कर कहता हूँ मैं जेंडर बायास्ड नहीं हूँ !

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  16. अरविन्द जी, यहाँ बात ये नहीं है कि स्त्री बच्चे पैदा करे या नहीं, बात यहाँ अधिकारों की हो रही है... नारी को बच्चे पैदा करने के विषय में कोई अधिकार नहीं है...बात को आप ट्विस्ट कर रहे हैं उसे यौनिक-सम्बन्ध की ओर ले जाकर... जबकि बात उसकी हो ही नहीं रही है. यहाँ प्रजनन की नहीं अधिकारों की बात हो रही है, तो स्त्री-पुरुष संबंधों की बात कहाँ से आ गयी????

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  17. @लो जी मैंने बात ट्विस्ट कर दी ! प्रजनन का अधिकार नारी मांग रही है तो भावी समाज का क्या रूप होगा इसलिए यौनिक सम्बन्धों की चर्चा हुयी है जो उससे अनिवार्यतः जुडा है !
    क्या करूँ मेरी समझ ही बहुत संकीर्ण है न !

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  18. घुघूती बासूती जी, आपने उनलोगों को अच्छा जवाब दिया है, जो ये कहते हैं कि 'औरत ही औरत की दुश्मन होती है'... बात ये नहीं है कि पीडक कौन है... बात शक्ति की है, जो जिसके हाथ में होगी वही उसका प्रदर्शन खुद को श्रेष्ठ साबित करने के लिए करेगा. और इसी अनुचित शक्ति-सम्बन्ध का विरोध हम करते हैं... यही बात मैं भी कह रही थी कि बिना समाज की संरचना को ठीक से समझे लोग आरोप औरतों पर मढ़ देते हैं.

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  19. पोस्ट में जो कुछ लिखा हुआ है उसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जिसकी वजह से पोस्ट से या पोस्ट लिखने वाले असहमत हुआ जा सके.
    हमें यह क्यों लगता है कि हर समस्य का समाधान बहस ही है? इतनी लम्बी-चौड़ी बहस हो गई.
    जय हो.

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  20. बेहद गम्भीर मुद्दा और सोच आज भी जड ही है………………जरूरत है आज मानसिकता को बदलने की ना की स्त्री या पुरुष पर तोहमत लगाने की ………………दोनो की ही सोच मे जंग लगा हुआ है पुराने संस्कारों का ……………उन ही संस्कारों को बदलने की जरूरत है और वो भी समाज के हर वर्ग की , हर स्त्री और पुरुष की ना की किसी एक को बदलने से कुछ बदलेगा।

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  21. Mukti has given the reply so there is no point in being repetitive and Dr Mishra most woman remain silent on these issues and dont go into discussions with you because they feel "its useless "

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  22. naari machine hai yaa nahi.....ise naari hi sahi/galat saavit kar sakati hai..........aapki baat vyavahaarik nahi lagati.........purushon ke baare me purvaagrah n paalen.

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  23. पीड़ा को पीड़ा भी न कहना किस मानसिकता को दर्शाता है? जिसने प्रसव पीड़ा को झेला नहीं वह उसे पीड़ा न कहकर आनन्द कहना चाहता है! मैं और चाहे जो भी होऊँ मोसोचिस्ट तो बिल्कुल नहीं हूँ जो पीड़ा को आनन्द कहे। ये मेडिकल विज्ञान वाले भी न..... इसे प्रसव पीड़ा, लेबर पेन न जाने क्यों कहते हैं? कम से कम भारत में तो इसे प्रसव आनन्द ही कहना चाहिए।
    यह भी मानती हूँ कि बहुत सी स्त्रियाँ इस पीड़ा को झेलना चाहती हैं। स्वाभाविक है। जो वर्षों से बच्चों की प्रतीक्षा में हों वे ऐसा चाहेंगी ही। किन्तु जिनके बच्चे हैं , जिन्हें उनके लिए तरसना नहीं पड़ा वे क्यों ऐसा सोचेंगी? विदेश में रहता हुआ कोई बनारसी बनारस के ट्रैफिक को भी स्नेह से नराई के साथ याद करता होगा। किन्तु इसका यह अर्थ तो नहीं कि बनारसी लोग कहें कि बनारस का ट्रैफिक सर्वश्रेष्ठ है, आदर्श है? (यहाँ बनारस की जगह भारत के किसी भी पुराने दूसरे या तीसरे टायर के शहर को लिया जा सकता है।) जब कोई बच्चा घर छोड़कर चला जाता है तो माता पिता विज्ञापन निकालते हैं कि घर आ जाओ जैसा तुम चाहोगे वैसा ही होगा। तुम्हे कोई कुछ नहीं कहेगा। किन्तु इसका यह अर्थ तो नहीं कि घर में बैठे बच्चों के माता पिता भी उनकी हर धृष्टता सहने लगें। सो जो नहीं है उसका मूल्य तो सदा अधिक होगा ही।
    और दुख से कहना पड़ता है कि मैं जनन की पीड़ा को पीड़ा ही मानती हूँ और मेरे पासपोर्ट में भारतीय नागरिक ही लिखा गया है। जिसे समस्या है यत्न करे सिद्ध करने का कि मैं भारतीय नहीं हूँ। क्या यह कहेगा कि देखो जी यह घूबा प्रसव आनन्द को प्रसव पीड़ा कहती है चलिए इसकी भारतीय नागरिकता कैन्सिल कीजिए। कुछ को जानकर दुख होगा किन्तु मैंने दूसरी सन्तान जन्म के बाद यह भी कहा था कि अब यदि साक्षात भगवान या भगवती भी कहे कि तेरी कोख से जन्म लेना है तो कहूँगी सॉरी, बहुत देर कर दी, अब नहीं। सो यह भी मेरे भारतीय नारित्व पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। लगाइए।
    वैसे बन्धु, कभी पथरी का कष्ट सहा है? कभी कुछ मि मी के पत्थर को मूत्र नली से निकालने का कष्ट झेला है? कभी देखा है कि पुरुष इस कष्ट के लिए कितने दर्द निवारक इन्जेक्शनों की माँग करता है?

    समाज में यह एक आदत सी बन गई है कि जिस तिस बात के लिए कह दिया जाए कि इसमें स्त्री को सुख मिलता है। जैसे बच्चे की विष्ठा साफ करने में, परिवार की सेवा करने में, पति के लिए भूखे बैठे रहने में, त्याग करने में, पति की आज्ञा मानने में, शायद कुछ तबके यह भी कहेंगे कि पति से पिटने में आदि आदि। विश्वास कीजिए इसमें आनन्द की कोई बात नहीं होती बस एक काम करना होता है जो और कोई नहीं करना चाहता। स्त्री बच्चों से लेकर माता पिता, सास ससुर की विष्ठा भी आवश्यकता पड़ने पर साफ करती है किसी आनन्द के लिए नहीं इसलिए कि उन्हें उसमें पड़ा नहीं रहने दिया जा सकता। और स्त्री को पल्ला झाड़कर तफ़री करने जाने का अभ्यास अभी नहीं हुआ है। वैसे क्या कह सकती हूँ हो सकता है कि कुछ मसोचिस्ट स्त्रियाँ सुख मिलता है कहते हुए हाँ में सिर हिला रही हों। ब्रिटिश साम्राज्य केवल गोरों के बलबूते पर तो चला नहीं था उनका साथ देने वाले भारतीयों को निकृष्ट मानने वाले भूरों की एक फौज उनके साथ थी वैसे ही...........
    हाँ और व्यक्तिपरकता की चिन्ता तब तो नहीं होती जब पुरुष अपनी पसन्द की पढ़ाई करता है और पिताजी की दुकान, खेत या ज्योतिषी या जजमानी का धन्धा देखने की जगह बड़ी बड़ी नौकरियों के लालच में घर से हजारों मील दूर चले जाता है। दादा दादी या माँ कहते ही रह जाते हैं कि लला, घर में खाने की क्या कमी है? यह व्यक्तिपरकता का लॉजिक स्त्री को प्रजनन के लिए इस न केवल बढ़ती अपितु सुरसा सा मुँह बाए जनसंख्या के जमाने में भी दिया जाना कुछ अति नहीं है क्या?
    कुछ अभारतीय सी(?)
    घुघूती बासूती

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  24. घुघूती जी से पूर्णतः सहमत. पीड़ा को वो परिभाषित कैसे कर सकता है? जिसने इस पीड़ा को कभी सहा ही न हो? हम मूल विषय से बहुत भटक रहे हैं.

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  25. इस 2010 में दो महीने पहले एक खबर पढ़ी...एक औरत ने बेटी को जन्म दिया और उसके पति ने यह शर्त रखी कि वह एक लाख रुपये अपने पिता के यहाँ से लेकर आए तभी उसे वापस घर में घुसने देगा...अब ऐसे हालातों में कौन स्त्री नहीं चाहेगी 'एक लड़के ' को जन्म देना?? और फिर स्त्री पर यह आरोप लगा दिया जाता है कि वो खुद 'एक बेटा' चाहती है.
    महिलायें संतान सुख से कभी भी वंचित नहीं रहना चाहतीं पर साथ में यह भी चाहती हैं कि उनका भी एक अस्तित्व हो...सिर्फ वंश चलाने वाली एक माध्यम के रूप में उन्हें नहीं समझा जाए.

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  26. सभ्य होने, संपत्ति का अहसास होने और उस पर हक जमाए रखना सीखने के बाद से मनुष्य, खास कर पुरुष का एकमात्र मकसद रहा है, इस संपत्ति को बचाए रखना, किसी से न बांटना...मरने के बाद भी 'अपने' लोगों के संरक्षण मे ही उस संपत्ति का रहना सुरक्षित करना। और इसका जरिया यही हो सकता है कि अपना वारिस हो, एक से काम नहीं चलने वाला, क्योंकि कोई ठीक नहीं कि कब उसके साथ कोई दुर्घटना हो जाए, शिकार मारते जानवर मार डाले या भयानक प्राकृतिक घटनाएं या क्रूर प्रकृति ही जान लेले, बीमारी पकड़ ले, जिसका इलाज भी उसके पास नहीं था। इस तरह बच्चे, खास तौर पर लड़के पैदा करने का आग्रह बढ़ता गया।

    आज के समय में उस मानसिकता की कतई जरूरत नहीं है। हम अब जानवर की स्थिति से विकसित होकर 'होमो सेपिएंस' से भी आगे, शहरी मानव तक आ पहुंचे। अब प्रजनन वाला फंडा हम पर लागू नहीं हो सकता। अब उससे आगे बड़ कर सोचें।

    अब जब यह मानव समाज सभ्य, विकसित हो चुका है तो फिर हम अपने दिमागों, विचारों को कब तक पिछड़ा रखेंगे? फ्रिज आ गया है तो हर दिन शिकार करके खाने का जुगाड़ करना कतई जरूरी नहीं। व्यवस्थिक समाज- देश में हरेक काम बंट गया है। ये सब विकास की मिशानियां हैं।

    उत्तराधिकारी पाने की अवधारणा को खत्म करने का समय आ गया है, बल्कि बहुत पहले आ चुका है। अगर हम मानव प्रजाति का विवेकशील होना स्वीकार करते हैं तो विवेक का इस्तेमाल भी तो करें।!

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  27. बच्चे को जन्म देने या नहीं देने का फैसला नारी का खुद का होना चाहिए ...क्यूंकि उससे जुडी सारी मानसिक और शारीरक तकलीफ या आनंद उन्हें ही झेलना पड़ता है ...(बच्चे को सीने से लगा कर वे सारी यंत्रनाएं भूल जाती है ये अलग बात है )
    बेटियों के जन्म को लेकर तनाकसी और यंत्रणा अभी समाज में कायम है मगर इसमें पिछली पीढ़ियों के मुकाबले कमी आई है ...मैं खुद दो बेटियों की मां हूँ और ऐसी कितनी ही माओं को जानती हूँ , से परिचित हूँ , संपर्क में हूँ जो वंश बढ़ाने के लिए बेटों का इन्तजार नहीं कर रही है ...
    एक बार हॉस्पिटल में महिलाओं की आपसी बातचीत में निष्कर्ष यह निकल कर आया कि यदि प्रजनन का दर्द पुरुषों को झेलना पड़े तो जनसँख्या नियंत्रण बिना किसी प्रयास के ही हो जायेगा ...

    @ महिलायें संतान सुख से कभी भी वंचित नहीं रहना चाहतीं पर साथ में यह भी चाहती हैं कि उनका भी एक अस्तित्व हो...सिर्फ वंश चलाने वाली एक माध्यम के रूप में उन्हें नहीं समझा जाए.

    ज्यादातर महिलाएं इससे सहमत होंगी बिना हिचकिचाहट ..

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  28. विषय पर वृहत परिचर्चा चली...
    पर मुझे लगता है ,समय प्रवाह में स्वतः ही बहुत कुछ बदलता जा रहा है...ऐसा कुछ भी नहीं जो धारा को अवरुद्ध कर सके...यह मुझे अधिक आशाजनक लगता है...प्रत्येक क्षेत्र में स्त्री की स्थति बदल रही है...समय दूर नहीं जब प्रजनन पूर्णतः स्त्री के नियंत्रण में होगा...वही मुख्य रूप से निर्णय करेगी की उसे क्या करना है क्या नहीं...और तब संभवतः यह मुहिम चले कि सामाजिक व्यवस्था छिन्न हो रही है...बात यही है कि जिस के हाथ में निर्णय क्षमता होगी,वह जिस प्रकार से उसका उपयोग करेगा ,तदनुरूप जो परिणाम सामने आयेंगे,उससे साबित होगा कि सही हो रहा है या गलत...

    व्यक्तिगत तौर पर यह कह सकती हूँ कि प्रसव पीड़ा पीड़ा होते हुए भी किसी बीमारी की तरह कष्टकारी नहीं बल्कि सुखद ही लगा है...और माता पिता संतान की विष्ठा साफ़ करना भी सुखकर लगता है...क्योंकि बात नजरिये की है कि इसे किस तरह हम देखते हैं...और जहाँ तक मेरा मानना है,किसी की सेवा करने में,किसी को सुख देने में व्यक्ति छोटा नहीं बल्कि बड़ा होता है....और नहीं मानती कि किसी की सेवा करने से, कर्तब्य निर्वहन से अधिकार बाधित होते हैं...

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  29. अरे बाप रे ,,बढ़ी लम्बी चोडी बहस छिड़ गयी ...आप लोग ये क्यों नही समझते की इन दोनों के बीच कोई प्यार नाम की भी कोई चीज होती है,जंहा प्यार है बहा कोई दुःख नही कोई पीड़ा नही,अधिकारों का तो प्रश्न ही नही है,और जंहा तक मैं जनता हूँ तो दुनिया की हर ओरत एक बार तो जरुर माँ बनना चाहती है, माँ ना बन पाने का दुःख क्या होता है,ये जरा उनसे पूछो जिनके कोई ओलाद नही,,और कृपया इसे पीड़ा तो कतई न कहो,,,एक ओरत को सच्चा सुख और नर नारी के प्यार का मीठा फल इसी प्रक्रिया से ही नसीब होगा,किसी एक के हक़ का तो प्रश्न ही नही है ,ज्यादा जानकारी के लिए पढ़िए मेरा ब्लोग्स[नारी एक रूप अनेक]by lovely [http://lovelykankarwal2.blogspot.com ]

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  30. रचना आप जेंडर बायस की जगह जेंडर insenstive कहा करे !!!

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  31. अच्छा है की भगवान ने माँ बनने की शक्ति नारी को दी है यदि पुरुष को दी होती तो समाज में सेरोगेट बाप बनने का व्यापर शुरू हो गया होता लोग पैसे दे कर अपने बच्चे दूसरो से पैदा करवा रहे होते और कुछ दुसरे पुरुष "पैसे" के लिए ये कर रहे होते क्योकि प्रषव पीड़ा दो दूर की बात प्रेगनेंसी के पहले तीन महीनो की परेशानियों को भी वो झेल नहीं पाते और बच्चे पैदा करने का काम भी रेडीमेड बना देते | लेकिन फिर भी जो लोग इस तथा कथित प्रषव आनन्द का आन्नद लेना चाहते है तो उनको उसके पहले के आन्नदो का भी आन्नद लेना चाहिए | सुरुआत कीजिए की हर रोज खाना खाने से पहले नमक पानी का घोल पी लिजिए जब वमन आने लगे तो खाना खाने की कोशिश कीजिए हर रोज मई फेयर लेडी झूले के बीस चक्कर लगाइए जब आप को सारी दुनिया घुमती सी दिखे तो इसी अवस्था में सारे दिन काम कीजिए पैरो में दो दो किलो का वजन और पेट में चार से पांच किलो का वजन बांध कर सारे दिन काम कीजिए और फिर रात में उसी अवस्था में सोने की कोशिश कीजिए नीद आना दूर की बात कभी अभी तो इस अवस्था में किसी भी तरीके से लेटा भी नहीं जाता और पूरी रात एक आराम दायक अवस्था पाने में ही निकाल जाता है | ये सब कुछ नौ महीनो तक करिए फिर बताईये की किस किस को कितना आन्नद आया | प्रषव आन्नद का आनन्द कैसे लिया जाये ये तो मुसकिल है मेरे लिए बताना लेकिन उसके बाद बच्चो की देखभाल बता सकती हु सबसे पहले तो रोज रात में हर दो घंटे बाद का अलार्म लगा ले जब वो बजे तो उठ कर उसे बंद करे और फिर से दो घंटे बाद का अलार्म लगा दे जब तक आप वापस नीद के झोके में जायेंगे तब तक अलार्म दुबारा बज जायेगा ये क्रिया एक साल तक हर रात करे और सुबह बिलकुल फ्रेस मुड में उठिए| सिर्फ इतना ही कीजिए और फिर बताइये की कितना आन्नद आया | बाकि सारी परेशानिया छोड़ दे हफ्ते दस दिन में हीजो सिर्फ इन परेशानियों को झेल लेगा वो समझ जायेगा की पीड़ा और आन्नद में क्या अंतर है प्रषव पीड़ा को सहना तो दूर की बात है |

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  32. यहाँ ये नहीं कहा जा रहा है की नारी माँ बनना ही नहीं चाहती कहा ये जा रहा है की वो कब माँ बनना चाहती है और कितने बच्चे चाह रही है ये अधिकार उसे दिया जाये क्योकि नौ महीने बच्चे को पेट में रखने से ले कर जीवन भर उसकी देखभाल का जिम्मा उसका है तो ये अधिकार भी उसे मिलना चाहिए की वो कब माँ बने वो बेहतर तरीके से जानती है की किस समय वो एक बेहतर माँ बन सकती है एक बच्चे को अच्छी परवरिश दे सकती है और कितने बच्चो की वो अच्छी तरह से देखभाल कर सकती है | सोचिये की यदि किसी पुरुष को उसका परिवार सिर्फ पैसे कमाने वाले के रूप में व्यवहार करे और कोई महत्व न दे तो उसे कैसा लगेगा उसी तरह नारी को भी सिर्फ बच्चे पैदा करने वाली मशीन के रूप में देख जाता है तो उस पर क्या गुजरती है उसके अस्तित्व को क्यों कोई और महत्व नहीं दिया जाता है | जहा तक सवाल नारी में बेटे की चाहत की बात है तो वो सामाजिक परिवेश के कारण है बेटा होने पर नारी को जो सम्मान और महत्व परिवार खास कर सयुक्त परिवारों में मिलाता है वो उसे पाने की लालच में बेटे की चाहत करती है |

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  33. अंशुमाला जी, आनन्दम् आनन्दम् कर दिया आपने! हाहाहाहा, सच में मन प्रसन्न हो गया!
    may ur tribe increase!
    घुघूती बासूती

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  34. नारी ही नारी को पीड़ा देती है ये कहना कुछ लोगो के लिए बड़ा आसान है जब भी कुछ मुद्दा होता है नारी से जुड़ा हुआ,नारी की बदलती परिस्थतियो को लेकर तो सबसे पहले यही कहा जाता है , लेकिन नारी ही नारी के दर्द को बखूबी समझती है इस चर्चा ने सिद्ध कर दिया है |
    "जिसने प्रसव पीड़ा को झेला नहीं वह उसे पीड़ा न कहकर आनन्द कहना चाहता है! मैं और चाहे जो भी होऊँ मोसोचिस्ट तो बिल्कुल नहीं हूँ जो पीड़ा को आनन्द कहे। ये मेडिकल विज्ञान वाले भी न..... इसे प्रसव पीड़ा, लेबर पेन न जाने क्यों कहते हैं? कम से कम भारत में तो इसे प्रसव आनन्द ही कहना चाहिए। "
    घुघूती जी आपने ये वाक्य कहकर मुद्दे से हटकर जाती हुई बात को अपनी जगह फिर से ला दिया |एक प्रसव पीड़ा झेलती हुई महिला को प्यार और अपनेपन की सख्त जरुरत होती है इसलिए पहली डिलीवरी मायके में करवाने की कई जगह प्रथा है |
    घुघूतीजी ,अनुराधाजी, रश्मिजी ,रंजनाजी वाणीजी ,वंदनाजी ,शिवजी आप सबका धन्यवाद |

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  35. blog sadsya ban jaayee plz

    aaj to aap ka kament padh kar dil garden garden ho gayaa

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  36. गम्भीर मुद्दा है...
    नारी ही नारी की भलाई कर सकती है

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  37. नारी बच्चे पैदा करने की मशीन नहीं है. यह जुमला बहुत पुराना पढ चुका है. नर और नारी दोनों की ही संयुक्त जिम्मेदारी है यह तो. हां, प्रजनन प्राकृतिक व्यवस्था है, मेरा विचार है, नारी इस जिम्मेदारी से भागने की बात नहीं कर रही, हां, महिलाओं का ब्लोग है तो महिलाए अपना एकल पक्ष ही रखेंगी. अत्तः मिश्राजी बुरा मानने की बात नहीं है. जहां तक भेद-भाव की बात है, मैं अभी ISBT कश्मीरी गेट पर जाना हुआ. मेरी बहिन मेरे साथ थी. वह सुलभ शोचालय की सेवा का उपयोग करने गयी तो वहां खड़े कर्मचारी वहां लिखी इबारत मूत्रालय का प्रयोग निःशुल्क है, को तो व्यर्थ और बकवास बता ही रहा था, साथ ही महिलाओं से पांच रुपये तथा पुरुषॊं से मात्र दो रुपये वसूल रहा था. यह सार्वजनिक स्थान व देश की राजधानी का जेन्डर बायस है, हमें व्यर्थ की बहस की अपेक्षा इस प्रकार के भेदभाव को निशाना बनाना चाहिये.

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  38. हमें व्यर्थ की बहस की अपेक्षा इस प्रकार के भेदभाव को निशाना बनाना चाहिये.
    डा.राष्ट्रप्रेमी
    bhedh bhaav har jagah haen ghar sae lae kar bahar tak aur usii ko samjhanae kaa prayaas hota haen is blog par

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  39. anshumala ji ka cmnt. padhkar to dimaag hi ghoom gaya hai.aur sahi bhi hai jara se sar dard me tilmila uthne wala purush prasav peeda ko anand kaipse maan p sakta hai?

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  40. This comment has been removed by the author.

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  41. तो अंततः क्या यह माना जाय कि-
    १-आधुनिक नारी पेनीट्रेशन से प्रसव तक की कथित पीड़ा से अब मुक्ति चाहती है ?
    २-क्या वह अब शिशु जनन के बजाय मात्र अंडज ही बनना चाहती है ?
    ३-फिर क्या जननं प्रक्रिया पूरी तरह कोख मुक्त हो जायेगी?
    ४-किराए की कोख(सरोगेसी ) का प्रचलन तो बढ़ ही रहा है ..
    ५-फिर मातृत्व का क्या होगा ?
    बहरहाल आपके विचार को अगर मानव भविष्य का कोई संकेत माना जाय तो गैर प्रजनीय यौनानुभूति में भी फिर पुरुष की कोई भूमिका क्यों रहे ,वैकल्पिक उपाय आज ही उपलब्ध है
    तो पुरुष की भूमिका बड़ी गौड़ होती नजर आ रही है -यह प्रजाति ही संकटापन्न होने वाली है !
    .
    सच है मुझे प्रसव पीड़ा कैसे पता होगा -मेरी स्थिति किसी बाँझ जैसी ही है ...
    मुझे खुद आश्चर्य है कि विगत सदी के आठवें दशक में ये पूर्वाभास मुझे व्कैसे हो गए थे जब मैंने अपनी चर्चित साईंस फिक्शन -कथा
    अन्तरिक्ष कोकिला लिखी थी --
    पुरुषो सावधान अब अगली सदी आप पर बीस नहीं बाईस पड़ने वाली है !

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