एक मां ने अपनी बेटी की हत्या कर दी। सुनकर मन एक बारगी तो सुन्न पड़ गया। ऐसा कैसे हो सकता है एक उम्र के बाद मां बेटी का रिश्ता दो सहेलियों का सा हो जाता है, जो अपने सुख-दुख एक दूसरे के साथ शेयर करती है। माँ सिर्फ मां न रहकर बेटी की पथ-प्रदर्शक बन जाती है। बेटी की पेशानी में पड़ा एक हल्का सा बल भी मां को विचलित कर देता है और वह जानने को व्याकुल हो उठती है कि बेटी क्यों परेशान है? बेटी की हत्या का विचार मां के मन में कैसे आ सकता है? नौ माह गर्भ में रखने के बाद, तीव्र प्रसव पीड़ा सहने के बाद मां बच्चे को जन्म देती है। उसकी तोतली बोली, उसके बाल हठ, नन्हें पैरों से पूरे घर में दौड़ते-भागते अपने होने का अहसास कराना। बच्चे का यही नटखटपन उसको मां के करीब लाता है। बच्चे को सीने से लगा कर माँ की सारी परेशानिया, थकावट पल भर में छूँ-मंतर हो जाती हैं।
निरुपमा को मारते समय क्या माँ का हाथ एक बार भी नहीं काँपा होगा। बेटी को मारते समय मां सुधा पाठक के मन में किस प्रकार के विचार आ रहे होंगे? क्षणिक आवेश में भर कर उसने यह निर्णय लिया होगा या एक सोची समझी रणनीति के तहत निरुपमा को मारने का निर्णय लिया गया होगा? पढ़ा-लिखा परिवार है निरुपमा का। परिवार ने ही बेटी को आगे पढ़ने और अपना भविष्य बनाने के लिए दिल्ली भेजा था, ताकि उनकी बेटी अपना भविष्य संवार सके। पत्रकार निरुपमा की गलती सिर्फ यही थी कि अपने घर वालों की इच्छा के विरुद्ध जाकर उसने अपने लिए एक ऐसा जीवन साथी चुना जो उसकी जाति-बिरादरी से बाहर था। परिवार को यह बात पसंद नहीं थी, उनके लिए अपनी बेटी की खुशियों से ज्यादा अहम जाति-बिरादरी हो गई। इसलिए बीमारी का झूठा तार भेजकर निरुपमा को घर बुलाया गया। घर में षडयंत्र रचा जा चुका था कि या तो उनके पसंद के लड़के से विवाह करने की हामी भरो या जीवन की अंतिम साँसे लेने को तैयार हो जाओ। पर विजातीय लड़के से बेटी का विवाह किसी हालत में भी कुबूल नहीं था। ये कैसी सामाजिक परम्पराएं हैं जो बेटियों को पढ़ने लिखने और अपना व्यवसाय चुनने की तो छूट देती हैं, पर मनपसंद जीवन साथी चुनने का अधिकार नहीं देती। और जहां धर्म, परम्परा और सामाजिक रीति-रिवाजों के सामने व्यक्ति के संवैधानिक अधिकार गौण हो जाते हैं।
इस तरह के मामलों को यदि व्यवहारिक दृष्टिकोण से देखा जाए, बच्चो को बाहर पढ़ने भेजने के पीछे मुख्यतः दो कारण होते हैं-पहला अच्छे स्थानीय स्कूलों का अभाव, दूसरा पढ़ी-लिखी लड़कियों के लिए वर ढूढ़ना आसान हो जाता है। तो जब बच्चे आगे पढ़ने या नौकरी के लिए अपना घर छोड़ कर बाहर जाते हैं, तो उनकी निगाहें सर्वप्रथम उन लोगों को खोजती हैं जो उन्हीं के परिवेश से शहर में आए हों। ऐसे लोगों के साथ वो खुद को ज्यादा सहज महसूस करते हैं। यह सहजता कब मित्रता में बदल जाती है इसका उन्हें अहसास तक नहीं होता। अहसास तब होता है जब मां-बाप अपने कुल-गोत्र में उनके लिए रिश्ते तलाशने लगते है। जो उनकी वर्तमान आधुनिक जीवन पद्धति से मेल नहीं खाते। और इसी मुकाम पर उनके ऊपर पारिवारिक और सामाजिक दबाव पड़ना शुरू हो जाता है। इस मानसिक दबाव से उबरने के लिए या तो वो समाज और परिवार के विरुद्ध जाकर अपनी पसंद के जीवन साथी से विवाह कर लेते हैं या तो परिवार की इज्जत के नाम पर निरुपमा जैसी घटनाएं घट जाती है।
हमारा समाज एक संक्रमण काल से गुजर रहा है। हम खुद को आधुनिक तो दिखाना चाहते हैं, पर जाति बंधन से खुद को मुक्त नहीं कर पाते। इस मामले में राजनीतिक दल भी कम दोषी नहीं हैं जिन्होंने अपने वोट बैंक को सुदृढ़ करने के लिए समाज को जातियों में बाँट कर रख दिया है। इस तरह घटनाओं के लिए परिवार जितना दोषी है, उससे कहीं ज्यादा दोषी समाज है जो अपने कुल-गोत्र के बाहर अपने बच्चों को शादी की सहमति देने वालों को चैन से नहीं बैठने देता। और यह दबाव परिवार की इज्जत के लिए बेटी की हत्या के रूप में हमारे सामने आता है।
-प्रतिभा वाजपेयी.
बेहद दर्दनाक और अमानवीय...
ReplyDeleteऐसी घटनाओ के लिए असल में हम सब ही जिम्मेदार है आज भी हम सब किसी अन्य की बेटी की अंतर्जातीय विवाह या प्रेम विवाह को चटकारे ले कर एक दुसरे को सुनाते है और उस परिवार पर कटाक्ष करने से नहीं बचते है यही वजह है की बेटी के किसी ऐसे कदम उठाने की संभावना से ही माँ बाप सिहर उठते है और ऐसी भनायक कदम उठाने से भी नहीं चुकते है | इसका अंत तभी होगा जब पढ़े लिखे समझदार परिवार अपने बच्चो का विवाह खुद ही जात पात के बन्धनों से ऊपर उठ कर एक योग्य साथी से करे|
ReplyDeleteक्यूँ नहीं एक नारी दूसरी नारी का साथ देती है ... सदियों से ये अभिशाप क्यूँ नारी के साथ जुड़ा है ... जहाँ अन्य रिश्ते तो बदनाम है ही वहीँ माँ बेटी का आत्मिक रिश्ता ... ?.....अब इस पर भी सवाल लग गया है .... क्या अब बच्चियां अपने मन की बात अपनी ,माँ से कहने में भी डरेंगी....?
ReplyDeleteसमाज के ठेकेदारों का डर हमें अपना सर्वस्व ख़त्म करने पर मजबूर कर रहा है ...आखिर क्यूँ ?
आपने सही कहा है |महिला ही महिला की दुश्मन होती है |
ReplyDeleteआशा
स्त्री अपने जीवन में एक संतान को पाकर धन्य होती है ,परिपूर्ण होती है ,उसकी बाल-लीलाओं में अपनी छवि देखकर अपने सारे गम भुला देने में ही प्रफुल्लित होती है. .कितना मुश्किल होता है एक बच्चे को बड़ा करना ----------और उसी ने यहाँ ये क्या किया---------? हार्दिक दुःख है-------. क्लेश है ऐसी मानसिकता पर.
ReplyDeleteनिरुपमा बिटिया की घटना सुनकर सहज विश्वास नहीं होता की कोई भी किन्ही भी परिस्थितियों ऐसा घातक कदम उठा सकता है.
ओह ! शब्दों से परे है. अविश्वसनीय-अकल्पनीय.
क्या किसी की जाति या आत्म-सम्मान अपनी बच्ची से इतना बड़ा हो सकता है कि उसकी बच्ची ही न रहे.
उनका जीवन क्या अब सुखी हो जायेगा या मान सम्मान से भर जायेगा.
अलका मधुसूदन पटेल ,लेखिका+साहित्यकार
महिला ही महिला की दुश्मन होती है
ReplyDeleteye to satya hai.............