आज टिपण्णी नहीं साथ चाहिये ।
पोस्ट लिखी थी और बहुत से ब्लॉग पर मौन विरोध हुआ था केवल एक चित्र लगा कर । उस समय दिनेशराय द्विवेदी ने कहा था यह शोक का वक्त नहीं, हम युद्ध की ड्यूटी पर हैंकल से पंगेबाज की पोस्ट पर निरंतर कमेन्ट पढ़ रही हूँ आज जब नहीं रहा गया तो एक कमेन्ट पोस्ट किया जो नीचे हैं
मै सिर्फ़ ये जानना चाहती हूँ कि दिनेशराय द्विवेदी इस लिंक यह शोक का वक्त नहीं, हम युद्ध की ड्यूटी पर हैं पर जो लिखा हैं उसको सही माना जाये या जो उन्होने आप को समझाया उसको सही माना जाए । हमारी सोच क्या केवल और केवल उस समय ही बदलती हैं जब हम पर कोई हमला कर देता हैं बाकी समय हम एक दुसरे को केवल औरकेवल भीरु बना सिखाते हैं । यही भीरूपन हमको ले डूबता हैं ।
isii ko kahte hain APNI-APNI DHAPLI, APNA-APNA RAAG.
ReplyDeleteआखिर हम यूँ ही हजार साल तक गुलाम नहीं रहे. सह कर भूल जाना और फिर से सहने के लिए तैयार रहना हम विभक्तों की नियती रही है.
ReplyDeleteपंगेबाज ने अपनी पोस्ट मे अधिवक्ताओ की जिस मानसिकता की और ध्यान आकर्षित किया था.दिनेश राय द्विवेदी ने पंगेबाज को मेल भेजकर उसी मानसिकता का परिचय देते हुये पंगेबाज के कहे पर प्रमाणिकता की मोहर लगाई है.
ReplyDeleteगाजियाबाद लखनऊ मे हाल ही मे छोटे छोटे मामलो पर हुये वकीलो की हडताल मे उनका संगठित गुंडो जैसा व्यवहार इसी मानसिकता को दर्शाता है.तो दिनेश जी से इस से अलग व्यवहार की क्यो उम्मीद की जानी चाहिये ?
समय सारे घावों को भुला देता है, उस समय की बात को अब याद कराने से क्या फायदा? अब तो हम युद्ध की ड्यूटी खत्म करके अपने अपने खेमों में लौट चुके हैं। उस कविता का जो पोस्टर चौराहे, नुक्कड़ खंबो, दीवारों पर लगे हुये थे अब उनके ऊपर पान मसालों और चड्डियों के पोस्टर लगे हुये है।
ReplyDeleteअब हम कम्युनिष्ट है, सेक्युलर हैं, राष्ट्रवादी है, वकील है, व्यवसायी है, हिन्दू हैं, मुसलमान है, स्त्री हैं, पुरुष है, अलां है, फलां है, अब शान्ति काल है, भ्रान्तिकाल है, हमें अपने पेशेगीरी को भी तो ध्यान रखना है।
आप तो कबीरदास का एक भजन सुनिये
साधो, जनम के जनम के भीरु
गरदन रख मट्टी में दुबके, कर म्होंडो गंभीरू
कौन लड़े करिया भुजंग से, बैठे तज तदबीरू
धरती देखूं, देखूं अम्बर, सात समन्दर चीरुं
लिये इरेज़र इक दूजे की छोटी करें लकीरू
राजा डरपे, परजा डरपे, डरपे रंक अमीरू
मरे मुसटिया ना एकऊ ते, बस बातन के वीरू
कहत कबीर सुनो भई साधो जो मारे सो मीरू
सहनशीलता के सम्बन्ध में अक्सर संस्कृति की दुहाई दे दी जाती है, जबकि प्रत्येक हिन्दू भगवान के हाथ में शस्त्रास्त्र हैं दुष्टों के संहार के लिये…। एक गाल के बदले दूसरा गाल आगे करने की नीति फ़ेल हो चुकी है यह कोई समझने को तैयार नहीं है। सावरकर ने भी यही कहा था कि एक गाल के बदले दूसरा गाल आगे करोगे तो अगली बार सामने वाला गर्दन काट लेगा। इसलिये अब "आँख के बदले आँख" का सिद्धान्त ही सही है, भले ही कहने वाले कहते रहें कि "इससे तो सारी दुनिया अंधी हो जायेगी", लेकिन वे एक बात भूल रहे हैं कि अन्त में कम से कम एक व्यक्ति ऐसा बचेगा जो काना होगा। "भीरुपन" को "वीरू-पन" में बदलना ही होगा…।
ReplyDeleteरचना जी आप से बिल्कुल सहमत हूँ । हमारी आदत है जब कुछ होता है तो दो दिन तक हम बहुत गरजते बरसते हैं पर फिर अचानक हमें याद दिलाया जाता है की हम तो अहिंसावादी गाँधी जी की संताने हैं ( राष्ट्रपिता हैं न ) । झूठ कहने पर कोई डरने को कहे या नहीं पर सच बोलने पर हमारे सामने "डर" विभिन् रूपों में ला खड़ा कर दिया जाता है और उम्मीद यह किहम युद्घ लड़ें।
ReplyDeleteयुद्ध, आक्रांतों की स्वार्थ सिद्धि का परिणाम होता है। जिसमें स्वयं को बचाने के लिए समान क्रिया का सहारा लेना पड़ता है।
ReplyDeleteभावनायों के ज्वर को युद्ध समझना, भावनायों में बह जाना है और बह जाने पर मानव जमीन की तलाश करता है। बल्कि यह तो मशहूर है डूबते को तिनके का सहारा।
इस मुद्दे पर भी यही हुया है।