इस देश के सिर्फ एक कानपुर शहर में पिछले एक हफ्ते पहले, प्रतिदिन का एक समाचार इस का होता था कि एक नवजात बच्ची मृत मिली। कभी कूड़े
के ढेर पर , कभी नाले के किनारे और कभी सड़क के किनारे। यह ख़बर रोज निकलती रही और हम उसको एक ख़बर समझ कर पढ़ते रहे। दो चार अपशब्द उसके घर वालों के लिए बोल कर अपने कर्तव्य की इति श्री समझ ली ।
इस दुनिया में आने के बाद भी उनसे उनके जीने का हक़ छीन लिया गया। किसने छिना यह अधिकार? शायद हमने ही - हाँ हम ही तो हैं इसके जिम्मेदार। उन ८ बच्चियों में कुछ के सिर पर चोट करके मारा गया था , किसी को भरी बारिश के बीच सड़क के किनारे डाल दिया गया था. कुछ को जीवित ही फ़ेंक दिया और बाद में मौत मिली और किसी को घर वालों ने मौत बख्श दी फिर फ़ेंक दिया।
इनमें ही एक माँ ने साहस किया या फिर घर वालों से मिन्नतें करके बच्ची के जीवन तो मांग लिया लेकिन अपनी गोद से वंचित करने की शर्त पर । कम से कम उसको जीवन तो मिला जाएगा। कल एक बच्ची एक मन्दिर में पड़ी पाई गई , २० दिन की बच्ची जिसके गले पर रस्सी से कसने के निशान हैं। पर उस बच्ची के लिए कई सूनी गोद फैल गयीं। आज नहीं तो कल उसको एक गोद मिल जायेगी और उसके जीवन को एक सफर।
ये सजा सिर्फ उन मासूमों को ही नहीं मिली जिनको आँखें खोलते ही मौत दे दी गई बल्कि उन माँओं को
भी मिली जिन्होंने घर वालों के तमाम ताने सहते हुए उसे प्रसव तक अपने गर्भ में पाला, प्रसव पीड़ा सही और फिर मिली उनको खाली गोद और उन मासूमों के लिए उनके स्तनों से बहता हुआ दूध। कितनी मौत मरती है वह माँ. सिर्फ एक लडके की चाह ने उस मासूम को जीने नहीं दिया।
इन मारने वालों ने कभी सूनी गोद वालों की पीड़ा को नहीं सहा है और उसका अहसास भी नहीं कर सकते हैं। जो अपने ही अंशों को गला घोंट कर मार देते हैं, वे पीड़ा से परे होते हैं. घर के आँगन में एक किलकारी गूंजने की चाह में कितने दंपत्ति मन्दिर, मस्जिद और गुरुद्वारों पर माथा टेकते हैं। तब भी उनको कोई एक माँ और पापा कहने वाला नहीं मिल पता है और हम अपने आँगन में आए उस सुख को ख़त्म कर देते हैं।
मेरी तो सबसे यही प्रार्थना है की इन बच्चियों को मत मारो, उनके जीने का हक़ दो। अगर आप नहीं पाल सकते तो उन्हें जिन्दा किसी आश्रम , मन्दिर या फिर पालना घर जैसी स्वयंसेवी संस्थाओं में छोड़ दो। उनको कोई घर मिल जाएगा और किसी घर को उनकी किलकारियों का सुख। तुम्हें तो उनसे ममता नहीं है और न प्यार, बस उन्हें इस दुनियां में जीने का हक़ दो। उन्हें लेने के लिए सैकड़ों खाली आंचल फैल जायेंगे। वह एक जीवन जो तुमने सृजित किया है, उसको नष्ट मत करो। मारने वाला कोई भी हो, मेरे ख्याल से माँ तो नहीं हो सकती और अगर माँ भी है तो अपने ही रक्त मज्जा से सृजित शरीर को कुत्तों और कौवों का आहार बनाने से बेहतर है कि किसी की गोद को भरने के लिए छोड़ दो।
वे बच्चियां जिन्होंने तुम्हारे घर में जन्म लिया है, उनकी हत्या करना बंद करो। एक सवाल उन्हीं से क्या कभी नवजात शिशु जो पुल्लिंग होता उसके इस तरह से मारा गया है। नहीं - ऐसा कभी नहीं होता है, अगर वह बीमार भी पैदा होता है तो अस्पतालों के चक्कर लगाते और मन्नतें मान रहे होते। क्या बेटे पैदा होते ही आपको कमाई खिलाने लगाते हैं या फिर उनका दहेज़ आपको पहले से नजर आने लगता है। हम आज भी किस भ्रम में जी रहे हैं। बेटियाँ आज आसमान छू रही हैं, वंश के नाम के चलने के प्रश्न पर भी मैं पूछती हूँ, कि कितनी पीढ़ियों तक आप का नाम जीवित रहेगा। इंसान का नाम अपने कर्मों से जीवित रहता है, बेटे और पोते से नहीं. बेटियाँ भी उतनी ही सक्षम होती हैं, जितने कि आपके बेटे। उन्हें जीवन दीजिये मृत्यु नहीं। अगर नहीं चाहिए तो उन्हें जीवन ही मत दीजिये। इन हत्याओं का आपको कोई दंड नहीं देगा क्योंकि ये अनदेखा अपराध किसने देखा है ? लेकिन इसका अपराध बोध आपका पीछा सारे जीवन नहीं छोडेगा।
इसलिए फिर वही प्रार्थना कि बेटियों को जीने दीजिये , अपनी गोद नहीं देनी है तो दूसरों कि सूनी गोद में जीने दीजिये। ये आपका उपकार होगा मानवजाति पर, स्त्री जाति पर और उन सूने आंगनों पर जिनमें ये किलकारियों कल गूजेंगी जिन्हें आप खामोश कर देना चाहते हैं.