बहराइच [उप्र] , जिले में सबसे अधिक करीब सोलह सौ जाबकार्ड जारी करने वाला गांव है जैतापुर। पांच स्कूल खुले हैं और दो अन्य की नींव पड़ चुकी है। गांव भर में पक्की सड़कें हैं और प्रसूति केंद्र खुलने जा रहा है। लेकिन गांव हमेशा से ऐसा नहीं था। चार बरस पहले तक यहां सिर्फ नाचने-गाने की महफिलें सजती थीं। बदलाव आया तो उस प्रधान की बदौलत, जो कभी खुद भी इन्हीं महफिलों का हिस्सा थीं।
कल्पना करें ऐसी जगह की, जहां लड़कियों ने आंखें खोलीं तो पहले घुंघरुओं के बोल सुने, बड़ी बहनों और मां को संगीत सभाओं में देखा, पढ़ने की उम्र हुई तो गाना सीखने को बैठा दिया गया। उनके लिए किताब या पढ़ने का कोई महत्व न था। यह सिलसिला हमेशा ही चलता रहता, अगर इन्हीं महिलाओं में एक माला देवी ने प्रधानी का चुनाव न लड़ा होता। प्रधानी का पद आरक्षित हुआ, तो बेड़िया जनजाति की माला को मौका मिला। वह चुनाव जीतीं और चूंकि इच्छा थी, तो पद का प्रयोग लोगों की बेहतरी में कर सकीं। इस अवसर का बखूबी इस्तेमाल उन्होंने गांव की तरक्की और लड़कियों को शिक्षा दिलाने में किया। वह कहती हैं कि 'गांव भर के बच्चे अब पढ़ रहे हैं, लड़कियों की अच्छे घरों में शादी करनी है। योजनाएं अगर गरीबों तक पहुंचें, तो महफिल सजाने की जरूरत न पड़े।'
फखरपुर ब्लाक के बारह हजार की आबादी वाले जैतापुर की पहचान ऐसे गांव की थी, जहां शाम ढलते ही तबले की थाप सुनाई देती। गांव में अक्सर दिन में भी यह नजारा रहता। माला देवी ने इसी परिवेश में आंखें खोली थीं और इसीलिए उनकी पहली मुहिम घुंघरुओं के खिलाफ थी। उन्होंने अपने बच्चों को महफिल की रौनक नहीं बनने दिया। लड़ाई आसान नहीं थी। महफिलों में आने वाला समाज तो उनके खिलाफ था ही, परिवार के साथ भी माला को जद्दोजहद करनी पड़ी। लेकिन आखिरकार उनकी लगन जीती। उनके एक बेटा और दो बेटियां हैं। एक बेटी पढ़ाने लगी है। वे बेटियां, जो घुंघरुओं को नियति मान चुकी थीं, किताबें लेकर पढ़ने निकलती हैं। माला अब मिसाल हैं। प्रधान बनने के बाद भी जो लोग उनके घर नहीं जाते थे, अब उनकी सोच बदल चुकी है। अपने काम से माला ने सबकी प्रशंसा जो जीती है।
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दैनिक जागरण १ फेब २००९ बहराइच [उप्र], [सतीश श्रीवास्तव]।
और इसे ही कहते है "the indian woman has arrived "
बहुत अच्छा लगा यह आलेख पढ़कर.
ReplyDeleteयह पढ़कर बहुत बहुत खुशी हुई।
ReplyDeleteघुघूती बासूती