नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

February 13, 2009

भारतीये संस्कृति के पतन मे आप का कितना हाथ हैं शास्त्री जी और सुरेश जी एक नज़र अपने अपने ब्लॉग पर डाले आप को ख़ुद समझ आयेगा ।

नारी के अंग वस्त्र का प्रदर्शन , यानी भारतीये संस्कृति ख़तम । यानी भारतीये संस्कृति टिकी हैं नारी के अन्ग्वास्त्रो के सहारे । नारी ने अपनी अंगवस्त्र उतारे नहीं की लोगो की द्रष्टि मे वो एक अनेतिक कार्य हो गया ।
सुजाता ने पोस्ट लिखी , नीलिमा ने पोस्ट लिखी अपना अपना मत रखा , स्वपनदर्शी भी बिना बोले नहीं रही । अब मुद्दा ही ऐसा हैं की बोलना जरुरी ही हैं । लेकिन इन तीनो पोस्ट मे कहीं भी अंगवस्त्र के चित्रों का कोई प्रदर्शन नहीं किया गया हैं ।
अब चलते हैं महाजाल पर जहाँ से ब्लॉग पर इस विषय मे इतनी बात आयी पोस्ट का
स्नैप शोट ये हैं ।

स्नैप शोट अब हटा दिया हैं इस ब्लॉग से पर उनके ब्लॉग पर चित्र अभी भी हैं


उसके आगे चलिये सारथी ब्लॉग पर जिरह वहां भी जारी हैं पर स्नैप शोट ये हैं ।

स्नैप शोट अब हटा दिया हैं इस ब्लॉग से पर उनके ब्लॉग पर चित्र अभी भी हैं

मुझे समझ नहीं आ रहा की अगर विरोध इस बात का हैं की अंग वस्त्र का प्रदर्शन किया जा रहा हैं तो ये दो ब्लॉग भी उसमे ही सहायक हैं क्युकी इन दोनों ब्लॉग पर नारी के अंगवस्त्र खुले रूप से दिखाये जा रहे हैं । और उन अंग वस्त्र का इन पुरुषों के ब्लॉग पर क्या काम हैं ??

नारी शरीर मे ऐसा क्या हैं जिसको ले कर इतना हंगामा हैं की क्यूँ अंग वस्त्र दिखाए जा रहे हैं । क्यूँ नहीं नारी शरीर को भी आम पाँच तत्व से बना शरीर समझा जाता हैं ।
बार बार क्यूँ याद दिलाया जाता हैं की ढँक कर रखो , अरे उसे ढँक कर तब रखा जा सकता हैं जब कोई रहने दे । आप तो एक पोस्ट भी लिखते हैं तो चित्र भी डालते हैं । बार बार बताते हैं की ये हैं नारी का अंग वस्त्र । पहले अपने लालच को रोकिये नारी के शरीर के प्रदर्शन से फिर लम्बी बहसे कीजिये ।

श्री राम सेना के विरोध मे जो हुआ उसका मकसद था उसका असर भी हुआ । पर आप किस मकसद से कर रहे हैं । भारतीये संस्कृति के पतन मे आप का कितना हाथ हैं शास्त्री जी और सुरेश जी एक नज़र अपने अपने ब्लॉग पर डाले आप को ख़ुद समझ आयेगा ।
सदियों से सडको पर ना जाने कितने भद्र जन बिना चड्ढी के दिख जाते हैं , तब संस्कृति कहीं नहीं जाती । तब आप नारियों को सीखते हैं की आँख बंद कर लो , मुह पर कपड़ा रख कर निकल जाओ । अगर आप को कुछ ना पसंद हैं तो आप सब भी क्यूँ नहीं आँख बंद कर के निकल जाते ।

नारी की आँख और मूंह अब खुल गया हैं , वक्त बदल गया हैं पर नारी का शील अभी बना हैं ये सुजाता , नीलिमा और स्वपनदर्शी की पोस्ट बताती हैं । लेकिन माहाजल और सारथी ख़ुद नारी के शील को ख़तम करना चाहते हैं अन्यथा चित्र तो ना डालते जैसे सुजाता , नीलिमा और स्वपनदर्शी ने नहीं डाला ।

समस्या हैं निदान खोजने से पहले समस्या की जड़ तक तो जाए । पहले बराबरी की बात करे और बराबरी तभी सम्भव हैं जब आप नारी शरीर और पुरूष शरीर को एक ही तरह देखे । नारी शरीर की प्रदर्शनी आप ख़ुद करते हैं और फिर नारी को ही दोष देते ।

38 comments:

  1. अपनी अपनी सोच है... इस से ज़्यादा कुछ नही कहा जा सकता... मुझे लगता है यहा गला फाड़ फाड़ कर चीखा भी जाए तो भी कुछ नही होने वाला...

    रोज़ सुर्ख़ियो में रहने वाले ब्लॉगर्स पता नही कहा चले गये है.. ना कोई कमेंट में नज़र आ रहा है ना कोई पोस्ट में.. जो आ रहे है.. वो कविताए ला रहे है.. क़िस्से ला रहे है..

    अनुराग जी ने ठीक कहा था लोगो को अपने निजी सरोकारो से बाहर निकलना चाहिए...पर ऐसा कोई करता नही है..

    सुजाता जी की पोस्ट के आँकड़े देखिए.. कल के दिन में 121 बार पढ़ी गयी पोस्ट पर सिर्फ़ 15 टिप्पणिया...

    हैरत की बात है.. वो क्या है जो आपको रोक रहा है.. अगर आपने मन मुताबिक भी नही तो कम से कम असहमति दर्ज कर दीजिए... हाँ या ना कुछ जवाब तो दीजिए.. क्या मोरल रेस्पॉन्सिब्लिटी नाम की कोई चीज़ भी नही..

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  2. आपकी पोस्ट से पूर्ण सहमति है। शास्त्रीजी के चिट्ठे पर दो प्रविष्टियों में मेरी टिप्पणी इस प्रकार थी, आप देख सकती हैं।

    शास्त्रीजी,
    आपकी पुरानी दो प्रविष्टियों का उदाहरण देकर अपनी बात समझाना चाहूँगा। आपने “सडकछाप कुत्ते की जनानी कौन” और “सुपरमार्केट की मेम” प्रविष्टियों में एक महिला से वार्तालाप में जिन वाक्यांशों का प्रयोग किया वो इस प्रकार थे:

    I know who you are. Only a B**** will enter among so many dogs. एवं

    सच है देवी, सच है. शायद इसी कारण बहुत सी अंग्रेजीदां कुतियें खरीददारी के लिये यहां पधारती हैं।

    मैने इन दोनों ही प्रविष्टियों पर टिप्पणी नहीं की क्योंकि मेरी समझ में किसी भी स्थिति में ऐसी भाषा का प्रयोग उचित नहीं है। अगर मूल किस्से से अलग करके आपके वाक्यों को देखें तो ये नितान्त अनुचित हैं लेकिन आपने जिस सन्दर्भ में इनका प्रयोग किया उसके चलते लगभग सभी टिप्पणीकर्ताओं ने इस पर सहमति जतायी न कि आपको कटघरे में खडा किया।

    आपने ये इस सन्दर्भ में कहा जब उन दोनों महिलाओं ने आपसे कोई व्यक्तिगत बात नहीं कि और न ही आपको किसी सन्दर्भ में गाली सुनायी। लेकिन चूँकि इन महिलाओं का व्यवहार अन्य लोगों के प्रति अशोभनीय था, इसके चलते आपने वो शब्द बोले।

    अब राम सेना वालों का व्यवहार केवल अशोभनीय ही नहीं, अनैतिक, अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक भी था। इसके चलते मेरी समझ में लाल चड्ढी भेजना किसी महिला को B**** कहने से बडा अपराध नहीं हो जाता।

    फ़ल की चिन्ता न करें, आपके उन दोनो संवादों से अगर आपको लगता है कि कुछ फ़ल निकलेगा और उस महिला का हृदय परिवर्तन होगा तो आपकी सोच गलत है। परन्तु आपने भी अपने स्तर से विरोध किया। फ़िर लाल चड्ढी के मामले में Holier than thou का इसरार क्यों?

    मैं व्यवहार और चिन्तन में हमेशा Abstract विचार को Fairplay जैसी भावना से अधिक महत्व देता हूँ। इस मुद्दे लाल चड्ढी के निर्माताओं को होने वाले फ़ायदे का तर्क देना बहस को मूल मुद्दे से भटकाना जैसा है। अगर वो खादी की लाल चड्ढियाँ भेजें तो क्या आप वैचारिक रूप से उनके साथ खडे हो जायेगें? असली मुद्दा सोच का है।

    और,

    शास्त्री जी,
    आपकी इस पोस्ट पर बहुत अफ़सोस हुआ है। आप इस मुद्दे पर बहस के चलते भटक से रहे हैं। Figuratively और Literally में कुछ फ़र्क होता है लेकिन आपको उसका अर्थ Consortium of Pubgoing, Loose and Forward Women ही मिला। Facebook पर पाँच हजार से अधिक लोगों ने इसी नाम के ग्रुप को समर्थन दिया है लेकिन इस ब्लाग के टाईटल का अर्थ उसके शब्दों में नहीं है।

    अब इस मुद्दे पर बहस छिन्नावेषण तक आ चुकी है, आगे कहाँ जायेगी कोई पता नहीं।

    ----------------------
    हद है भाई, कि कोई विरोध भी करे तो उनकी मर्जी से...

    शहर के हाकिम का ये ऐलान है,
    कैद में कहलायेंगे आजाद सब ।

    तल्खियाँ कैसे न हों अशार में,
    उनपे जो गुजरी उन्हे है याद सब।
    ---जावेद अख्तर

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  3. सुरेश चिपलूनकर के ब्लाग पर लगा चित्र निशा सूसन के "Consortium of Pub-going, Loose and Forward Women" का मस्कट है। निशा सूसन के लिये ये चित्र पब में जा रही महिलाओं के समर्थन का प्रतीक है। सुरेश ने तो इस चित्र का विरोध करने के लिये इसे अपने ब्लाग पर लगाया है। तहलका के अन्य पत्रकार अतुल चौरसिया ने अपने ब्लाग "चौराहा" ने पिंक चड्डी अभियान के पक्ष में कई पोस्ट लिखीं है और उन्होंने भी इस लोगो का सदुपयोग किया है। निम्न लिंक देखिये।

    http://chauraha.wordpress.com/2009/02/12/पिंक-चड्ढी-और-महिल/

    जिस तरह आपको यह लोगो बुरा लगा मुझे भी बुरा लगा। सुरेश ने लगाया अवश्य है लेकिन उन्हें भी अपने ब्लाग पर लगाते हुये बुरा लगा होगा।

    शाश्त्री और सुरेश की तुलना करना ठीक नहीं है. सुरेश फायरब्रांड होते हुये भी संयत और सीमा में रहते हुये अपने विचार निर्भीकता से प्रकट करते है।

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  4. @neeraj u have always been vehemntly supporing woman causes thanks
    @kush although you are about the age of my son or even less , i hv neverfelt any genration gap with you thanks
    @Anonymous i am not comparing anyone just showing the cause of the problem . thnnks for commenting

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  5. रटना जी आपके विचारों से पूर्ण सहमति है।
    मनीषा

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  6. गलती के लिये माफी रचना जी,

    पिछली टिप्पणी में नाम गलत टाईप हो गया, कृपया रचना पढ़ें।

    मनीषा

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  7. aapki baat se hum bhi sehma hai rachana ji ur kush ji ki bhi,hamekehna baht kuch hota hai magar alfaz shayad saath nahi dete,hame pehle apne aap se koshish karni hogi.

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  8. @Anonymous
    आपसे सहमत हू.. शाश्त्री जी और सुरेश जी की तुलना करना ठीक नहीं है. सुरेश जी फायरब्रांड होते हुये भी संयत और सीमा में रहते हुये अपने विचार निर्भीकता से प्रकट करते है... हालाँकि रचना जी से भी सहमत हू की उन्होने किसी प्रकार की तुलना नही की... सुरेश जी के ब्लॉग से मुझे कोई आपत्ति नही क्योंकि उस चित्र और उनके लेख का कम से कम आपस में संबंध तो है.. मगर शाश्त्री जी के ब्लॉग और तस्वीर का कोई ताल मेल ही नही.. पता नही क्या सोचकर उन्होने अपने ब्लॉग पर वो फोटो लगाई है..

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  9. इन विरोधों में वही प्रतीक इस्तेमाल हो रहे हैं जो स्त्रियों के ख़िलाफ़ रहे हैं. एक सीमा रेखा की तरह थोप दिया गया कि ये शर्म की दहलीज है इसे पार नही करना है. अब उसी सीमारेखा उसी दहलीज को अगर महिलायें बतौर हथियार इस्तेमाल कर रही हैं तो पुरुषों या समाज को बुरा लग रहा है
    गुहार मचाई जा रही है कि ये तब कहाँ थी जब...
    जिन्हें इन विरोधों से आपत्ति है उन्हें ख़ुद में झांकना होगा

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  10. नारी या महिला का जरा भी प्रतिशोध लोगों से बरदाश्त नही होता है ।

    बाकी पोस्ट तो हमने अभी पढ़ी नही है कुछ एक कल देखी थी और मन खिन्न हो गया था ।

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  11. मेरी खैर है कि नीरज जी ने मुझे बख्श दिया… और मैं चड्डी का फ़ोटो लगाने का विरोध करने वालों को मैं चैलेंज देता हूँ कि मेरी पिछली सारी पोस्टें और टिप्पणियाँ उठाकर देख लीजिये कि कब मैंने महिलाओं के प्रति असम्मान या अभद्रता दर्शाते हुए लिखा है? अब, फ़ोन नम्बर क्यों दिया, चड्डी का फ़ोटो क्यों लगाया ऐसे बकवास सवाल पूछे जा रहे हैं (निशा से पूछना चाहिये उससे पूछो भाईयों और "बहनों")। मैंने आज तक महिलाओं के लिये अश्लील शब्दों का प्रयोग नहीं किया है… महिलाओं से बहस करने से मैं वैसे भी बचता रहा हूँ। मूल मुद्दा यानी कि "श्लील और अश्लील क्या है?" तथा "अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की सीमा क्या हो?" इन प्रश्नों पर अभी तक कोई टिप्पणी या सलाह पढ़ने को नहीं मिली… अंग्रेजी पत्रकारों के "प्रचार की भूख" के जाल में फ़ँसकर सभी लोग टिप्पणियाँ दिये जा रहे हैं बगैर सोचे समझे…। इस बार कोई चौरसिया जी तहलका और चड्डी के समर्थन में उतरे हैं उनका "खास" खयाल रखूँगा… और इसीलिये यह टिप्पणी महिलाओं को पढ़ने के लिये यहाँ लिख रहा हूँ…

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  12. @suresh
    "श्लील और अश्लील क्या है?" तथा "अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की सीमा क्या हो?"
    इसका फैसला कौन करेगा , कौन ये सीमा तय करेगा . और क्या सीमा तय करने का अधिकार पुरूष का हैं अगर हाँ तो हमारे अंगवस्त्र की प्रदर्शनी का अधिकार . उसका इस्तमाल क्या हमारे अधिकार की सीमा मे नहीं आता .
    आप का ये कहना

    महिलाओं से बहस करने से मैं वैसे भी बचता रहा हूँ।

    अपने आप मे बहुत कुछ कहता हैं , क्या महिला से बहस करनी नहीं चाहिये या महिला से बहस की नहीं जा सकती ??

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  13. हम जानते हैं कि किसी और ब्लॉग की चर्चा पर टिप्पणी यहाँ ग़लत है पर हमें मौजूं लगा इसलिए यहाँ लिख दे रहे हैं रचना जी उचित समझे तो हटा दें
    सुरेश चिपलूनकर जी पर लगे फोटो से हमें भी आपत्ति नही है पर उनके ब्लॉग पर जो प्रश्न हैं उनका टोन कुल मिलकर ये बनता है
    ये विरोध अनुचित है क्योंकि इसमे तहलका का साथ है और तहलका मोदी के ख़िलाफ़ अच्छा खासा लिख चुका है इसलिए वह अपने आप निंदनीय है
    जो पेज थ्री में आने वाले लोग हैं वो सर्वथा अज्ञानी होते हैं (भारतीयता के बारे में जानकारी सिर्फ़ उनके जैसे लोगों को है )
    जिन्हें उनके पूछे गए प्रश्न पता हैं विरोध वही कर सकते हैं
    कोई विरोध कैसे करेगा इसे सुरेश चिपलूनकर या उन जैसे लोगों से पूछना होगा (अगर वो राम सेने या ऐसे किसी संगठन से नही है ) विशेषकर महिलाओं को
    अंत में जो लेख शुरू से राम सेने के समर्थन में लिखा गया है उसमे ये भी लिख दिया जाता है कि ये उनके समर्थन में नही है
    और ऊपर रचना जी का प्रत्युत्तर सच जाहिर कर देता है

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  14. वो कहते हैं ना कि लोगों को मिर्च मसाला लगाकर नाम कमाने की आदत होती है .... विरोध प्रदर्शन या पक्ष साफ़ सुथरे तरीके से भी तो लिया जा सकता है ...पर नही मानसिकता तो वही रहेगी ना .....कौन समझाये ऐसे लोगो को जो ऐसे तरीके इस्तमाल करते हैं

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  15. @suresh
    और मैं चड्डी का फ़ोटो लगाने का विरोध करने वालों को मैं चैलेंज देता हूँ


    aap kisi bhi virodh ka virodh kartey haee nazar aatey haen

    yahaan aap ke chitr lagaane kaa virodh nahin ho rhaa haen , rachna ji kewal keh rahee haen ki agar sanskriti chaddhi bhejnae see khatam ho rahee thee to aap ke blog par bhi chaddhi tangii haen , to sanskriti aap bhi kahatm kar rahey haen

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  16. @दूसरो के चित्र लगाने पर आप विरोध कर रही हैं लेकिन अपने ब्लोग पर दोनो का सनैप लगा दिया।आप चित्र लगाने के जगह यह भी तो लिख सकती थी कि उन के ब्लोग के चित्र देखिए।@

    आप मे और उन में फर्क क्या है????
    आप भी वही कर रही हैं जो वह कर रहे हैं।

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  17. मानता हूँ की विरोध के लिए इस्तेमाल किए गये विम्ब से असहमति हो सकती है पर हैरानी से ज्यादा दुःख है की मूल मुद्दे से भटक-कर हम अजीब किस्म की अनर्गल गैर जरूरी बहसों में उलझकर रह गये है .कई जगह बहस का स्तर निहायत ही व्यक्तिगत ओर निजी हो गया है ...क्या वास्तव में हम लोग पढ़े लिखे समाज का प्रतिनिधित्व करते है ?
    यदि विरोध के लिए चड्डी की जगह जूते या फूल जैसे विम्ब का इस्तेमाल होता तो ? बहुत सारे लोगो ने इस अभियान को पब कल्चर ओर वेलेंटाइन डे सीधा जोड़ दिया ..क्यों जोड़ा समझ नही आया .शायद शीघ्र प्रतिक्रिया देने की हड़बड़ी में .
    यहाँ सवाल किसी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का हनन था .....केवल स्त्रियों के पब में जाने से संस्क्रति खतरे में क्यों है ?इस देश में कितने पब है ?ओर कितने शहरों में है ?
    ओर शराब के ठेके ?किस राज्य में अपराध ,बलात्कार सबसे ज्यादा है ?किस राज्य में स्त्री-पुरूष संख्या का अनुपात दर सबसे कम है ?किस राज्य में दहेज़ हत्या सबसे ज्यादा है ?इस देश के कितने गाँवों में लड़कियों के १२ तक स्कूल है .ओर उनमे से कितने लोग अपनी लड़कियों को १२ तक पढाते है ?क्या कारण है की हमने किसी पुरूष को अपनी पत्नी की मौत के बाद सती होते नही सुना ........इतने वर्षो में भी....आज भी देश में ऐसे कितने मन्दिर है जहाँ स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है ,दलितों का प्रवेश वर्जित है ?कितने घरो में स्त्री को आर्थिक ओर दूसरे सामाजिक विषयों में निर्णय लेने की भागीदारी है ?बावजूद नौकरी करते हुए ?तो क्या सब जगह पब है ?पब आये तो शायद ३ साल हुए होगे या ४ साल ...तो संस्क्रति कहाँ बैठी थी अब तक ?मुआफ कीजिये हम सब दोगले है .....
    आख़िर में एक बात सुरेश जी के लिए मन में आदर है क्यूंकि उन्होंने कई राष्टवादी मुद्दे उठाये है ...ओर बेबाकी से उठाये है .यहाँ असहमत हूँ...पर जानता हूँ असहमति व्यक्त करना भी अभिव्यक्ति ही है.....ओर वे कभी कमेन्ट मोदेरेशन भी नही करते ......
    पर इस ब्लॉग जगत में कभी कभी कुछ लोगो की खामोशी भी खलती है.....

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  18. @Anonymous
    मुद्दा चित्र लगाने या ना लगाने का नहीं हैं . मुद्दा हैं की विरोध करने वाले क्या और कैसे विरोध करे . मुझे क्या करना हैं या क्या नहीं इसका फैसला मे ख़ुद करती हूँ और कोई क्या करता हैं उस से अपनी संस्कृति के पतन को नहीं जोड़ती हूँ .

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  19. बड़े खेद की बात है कि गुलाबी चड्डी के विरोध को मुतालिक का समर्थन मान लिया गया है…

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  20. @suresh
    "श्लील और अश्लील क्या है?" तथा "अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की सीमा क्या हो?"
    इसका फैसला कौन करेगा , कौन ये सीमा तय करेगा…" ये बातें तो हमें-आपको-सभी को मिलकर तय करना है… बहस से तय करना है… इसमें पुरुष-स्त्री वाली बात कहाँ से आ गई?

    @ "महिलाओं से बहस करने से मैं वैसे भी बचता रहा हूँ…" अपने आप मे बहुत कुछ कहता हैं , क्या महिला से बहस करनी नहीं चाहिये या महिला से बहस की नहीं जा सकती ??…"
    - खेद की बात है कि आपने इसे भी गलत ढंग से ले लिया… महिलाओं से (सामान्य परिस्थितियों में) बहस न करना एक शिष्टाचार ही है, क्योंकि बहस करते वक्त भाषा का कंट्रोल खोने का खतरा होता है, और मैंने इसी भावना से यह लिखा था… आप इसे अलग रंग देने की कोशिश न करें प्लीज…

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  21. सुरेश जी जिस प्रकार से आप को लगता हैं की आप की बात को ग़लत समझा गया हो सकता हैं आप ने भी निशा की बात को गलत समझा . आप को मे भी पढ़ती हूँ , आप से निवेदन हैं चित्र हटा दे और अपनी गरिमा को बरकरार रखते हूँ पोस्ट लिखे . आप चित्र हटा दे मे तुंरत याहन से आप का नाम हटा दूंगी . मेरा मकसद केवल और केवल ये बताना हैं की हम सबको ज़रूरत हैं अपने अंदर झाकने की . हर एक्शन का रेअच्शन होता हैं मुथालिक का निशा रेअच्शन हैं . आप इसको संस्कृति से क्यूँ जोड़ते हैं . क्या विरोध कैसे करना होगा ये भी उसको बताया जाएगा जो निरंतर शोषित रहा हैं इस समाज मे . आप जानते हैं मे किसी भी मीडिया या अखबार से नहीं जुडी हूँ बस नारी आधारित विषयों पर हिन्दी ब्लोगिंग मे जो सोच हैं उसको उभरती हूँ . मेरा विश्वास हैं की हम जहाँ हो उतना हिसा साफ़ कर ले बाकी ख़ुद साफ़ हो जाएगा मेरे इस प्रयास मे हाथ बताये सुरेश जी , कम से कम हम हिन्दी ब्लोगिंग को तो इन चित्रों से मुक्त रख सकते हैं

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  22. किसी को कोई ना समझाये, क्‍यों समझाये, भई? कौन जाने समझायेवाला ज्यादा चिरकुट, फिर?

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  23. रचना इसे प्रतिशोध नही प्रतिरोध पढ़ा जाए ।

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  24. आप तो एक पोस्ट भी लिखते हैं तो चित्र भी डालते हैं । बार बार बताते हैं की ये हैं नारी का अंग वस्त्र । पहले अपने लालच को रोकिये नारी के शरीर के प्रदर्शन से फिर लम्बी बहसे कीजिये ।

    श्री राम सेना के विरोध मे जो हुआ उसका मकसद था उसका असर भी हुआ । पर आप किस मकसद से कर रहे हैं । भारतीये संस्कृति के पतन मे आप का कितना हाथ हैं शास्त्री जी और सुरेश जी एक नज़र अपने अपने ब्लॉग पर डाले आप को ख़ुद समझ आयेगा ।
    सदियों से सडको पर ना जाने कितने भद्र जन बिना चड्ढी के दिख जाते हैं , तब संस्कृति कहीं नहीं जाती । तब आप नारियों को सीखते हैं की आँख बंद कर लो , मुह पर कपड़ा रख कर निकल जाओ । अगर आप को कुछ ना पसंद हैं तो आप सब भी क्यूँ नहीं आँख बंद कर के निकल जाते ।

    VERY GOOD, Bahut hi satik likha aapne.

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  25. अगर स्त्री खुद अपने लाज के विषय को यूँ सरे आम बेनक़ाब कर रही है तो समझ लो समाज की दोहरी मानसिकता से वो कब से और कितनी हद्द तक आहत होगी-

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  26. @ पारुल
    जिन्हें नही समझना है वो नही ही समझेंगे ऊपर की टिप्पणियों और जिन ब्लोगों का यहाँ जिक्र हैं उनकी टिप्पणियों और जवाबो से साफ़ जाहिर है

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  27. कुश जी व डॉ अनुराग जी, चुप्पी का कारण अति क्रोध भी हो सकता है। कभी कभी प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है उस समय तक, जब तक संयत होकर ना लिखा जा सके।
    यदि आपको ध्यान हो तो उस प्रकरण के कारण पर ही मैंने एक लम्बी पोस्ट http://ghughutibasuti.blogspot.com/2009/01/blog-post_26.html लिखी थी, बिना किसी दल या सेना का नाम लिए। यह उस समय अपने क्षोभ पर अंकुश लगाकर लिखने का यत्न था। क्षोभ इतना है कि कभी कभी क्या प्रायः यही सोचती हूँ कि क्या हम भारतीयों को पुत्रियों को जन्म देना भी चाहिए या नहीं, भय यह कि आने वाला समय न जाने कैसा होगा। संस्कृति का बोझ ढोने की अधिकारिणी होने की कीमत स्त्री न जाने क्या क्या और कब तक देती रहेगी। स्त्री के क्षोभ की आप शायद कल्पना भी नहीं कर सकते।
    लिखने को तो एक पोस्ट क्या उससे अधिक लिख चुकी हूँ परन्तु बात वही है थोड़ा सा शान्ति व धैर्य से लिखने से आहत कम करूँगी।
    घुघूती बासूती

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  28. एक ही बात को हर जगह बार बार कहने से बेहतर लगा कि पोस्ट में रूप में अपने विचार रखे जायें लेकिन ये अलग बात है कि वहाँ इतने लोग झांकने नही आये शायद कुछ ज्यादा ही संयत होकर अपनी बात कर थे।

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  29. चिपलूनकर जी की विचारधारा का खोखलापन और नंगापन सामने लाने के लिए आपको बधाई।

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  30. इस पोस्ट की मूल बात से पूर्ण सहमति।

    यदि हम निशा सूसन के विरोध करने के तरीके को ठीक नहीं मानते तो इसका जिक्र भी सभ्य और संयत तरीके से ही करना चाहिए, न कि उसी चित्र की कॉपी-पेस्ट करके जिनसे हमें असहमति है।

    इसके साथ ही जिस मुद्दे पर पत्रकार निशा ने विरोध का यह तथाकथित अमर्यादित तरीका अपनाया है, उस मुद्दे का मर्यादित और प्रभावशाली विरोध कैसे किया जाना चाहिए, इसका नमूना/उदाहरण भी विद्वान चिठ्ठाकारों को प्रस्तुत करना चाहिए था। या यही बताना चाहिए था कि इस मुद्दे का विरोध होना चाहिए अथवा नहीं? हम इस मूल मुद्दे से भटकते से दिख रहे हैं।

    घुघूती जी की यह बात भी अक्षरशः सही है कि “चुप्पी का कारण अति क्रोध भी हो सकता है।” मैं तो इस मुद्दे पर हतप्रभ हूँ कि इस समाज में कैसे-कैसे विचित्र विचार सिर उठा रहे हैं। छोटी-छोटी बातों में भी जितनी आक्रामकता दिखायी जा रही है, किसी मुद्दे को जिस तरह देखते ही देखते सड़क पर लाकर उछाला जा रहा है, समाज के जैसे स्वयंभू ठेकेदार हथियार लेकर मारकाट मचाने पर उतारू हो लिए हैं वैसे माहौल में शान्तिपूर्वक विचार विमर्श करने वालों के लिए तो कोई ‘स्पेस’ ही नहीं दिख रहा है। कब किस मुँहफट का दिमागी कीड़ा हमला कर दे यह अनुमान करना कठिन है। अब तो सवाल गरलपान के लिए तैयार होने का है।

    डॉ. अनुराग ने जिन मुद्दों का जिक्र किया है वे सभी इस टुच्चई की बात से कई गुना गम्भीर और ज्वलन्त हैं। लेकिन उनपर बात करने की किसी के पास फुर्सत नहीं दिखती। इस ब्लॉगरी में भी टी.आर.पी. घुसती दिख रही है।

    तो फिर ऐसे मुद्दों पर जहाँ केवल हमलावर दस्ता ही अट्टहास करने को उद्यत है वहाँ तूफान थमने तक चुप रहना ही श्रेयस्कर है।

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  31. रचना जी का इतिहास रहा है, टिप्पणीयाँ और चित्र हटवाने की सौदेबाजी का।
    इसके अलावा महिला जजों की नियुक्ति वाले समाचार पर टिप्पणी करते हुये किसी ने लिखा था- महिलायें फैसला तो दे देंगीं, लेकिन क्या न्याय दे पायेंगी?

    आजकाल सब फैसला ही कर रहीं हैं

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  32. मुद्दा हैं की विरोध करने वाले क्या और कैसे विरोध करे .

    अगर यही मुद्दा है तो आप भी कौन होती हैं यह तय करने वाली की विरोध करने वाले क्या और कैसे विरोध करे?

    मुझे क्या करना हैं या क्या नहीं इसका फैसला मे ख़ुद करती हूँ


    और अगर अपने विरोध के सारे फैसले आप ख़ुद ही लेती हैं तो क्यों चाहती हैं दूसरे आपके मानदंडों पर चलें? उनका अपना तरीका है विरोध का.

    और कोई क्या करता हैं उस से अपनी संस्कृति के पतन को नहीं जोड़ती हूँ .


    कोई क्या करता हैं आप उस से अपनी संस्कृति के पतन को नहीं जोड़ती हैं, तो दूसरो के लिखने को आप महिलाओं के खिलाफ क्यों मान लेती हैं? उनके अपने विचार हैं, ज़रूरी नहीं की वे आप जिन्हें सही मानती हों वे भी उसे सही मानते हों.

    और जहाँ तक बात है की, नारी शरीर मे ऐसा क्या हैं जिसको ले कर इतना हंगामा हैं.......

    पुरूष हमेशा से स्त्री के शरीर की तरफ़ आकर्षित हुआ है, और स्त्री हमेशा से पुरूष के रूप से ज़्यादा उसके स्टेटस, मानसिक, शारीरिक और सामाजिक शक्ति एवं संसाधनों की ओर ध्यान देती आई है. लाखों वर्षों के जैविक विकासक्रम ने हमारा मस्तिष्क ऐसे ही ढाला है. शायद तभी महिलाएं भी पुरुषों की तरफ़ आकर्षित होने के बावजूद 'पुरूष पोर्नोग्राफी' की शौकीन नहीं होती. पर पुरूष हमेशा से ही शरीर की तरफ़ रुझान रखता आया है. दुनिया का हर मर्द नारी शरीर की तरफ़ आसक्त होता है, जो यह कहता है की वह नारी शरीर में रूचि नहीं रखता वह या तो झूठ बोल रहा है या नपुंसक है, यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है, जिसे जैविक, न्यूरल और मष्तिष्क संरचना के द्वारा साबित किया जा चुका है. (आप चाहें तो वैज्ञानिक एवं मैडीकल सन्दर्भ मुझसे ले सकती हैं).

    स्त्री हमेशा से पुरूष के संसाधन और बल को रूप से अधिक प्राथमिकता देती ई है, और यह तब तक ऐसा ही चलेगा जब तक हमारी न्यूरल प्रोग्रामिंग को जैविक परिवर्तनों द्वारा नहीं बदल दिया जाता.

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  33. @gyan

    आप मेरे इतिहास से परिचित हैं ये जान कर मुझे ना रंज हैं न खुशी .

    @ab inconvenienti

    मेने ये पोस्ट किसी के विरोध मे नहीं लिखी हैं . मेरा माना हैं की जोग लोग नारी के हर कार्य को संस्कृति के उत्थान पतन से जोड़ते हैं कम से वो सुधि जन तो संस्कृति को बिगाड़ने मे ना सहायक हो . बाकी आप से साईंस पढ़ने का जब मन होगा अवश्य आप को सूचित करुगी बार बार याद दिलाने से क्या होगा ?? !!!

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  34. @सुरेश जी,
    आपने कहा है कि 'बड़े खेद की बात है कि गुलाबी चड्डी के विरोध को मुतालिक का समर्थन मान लिया गया।'आप चाहते हैं कि जब भीष्म पितामह के सारे तीर पाण्डवों के ऊपर छूट रहे हों तब भी उन्हे कौरवों और नारी को नग्न करने का प्रयास करने वाले दुःशासन का समर्थक न कहा जाय?

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  35. पुरा लेख पडा मेरे पल्ले कुछ नहीं पडा।

    मेरा तो एक ही सवाल है लेख लिखने वाले ओर टिपण्णीयां देने वालो से ही, इसमें गलती किसकी है?

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  36. @ रचना

    मैंने आपके इतिहास की बात नहीं की थी और न ही आप के इतिहास में मेरी कोई दिलचस्पी है।

    ब्लॉग पोस्ट या ब्लॉग पर की गयी क्रियायों/ प्रतिक्रियायों को आप स्वयं, अपने भूत/ भविष्य/ वर्तमान से जोड़कर अपने पर ओढ़ लेती हैं ओर दूसरों को दोष देती हैं कि व्यक्तिगत प्रहार न करें!

    और यदि आपको इस बात से ना रंज हैं न खुशी, तो प्रतिक्रिया की भी क्यों?

    ताली दोनों हाथों से बजती है, आदरणीया!

    मैं एक बार फिर दोहराना चाहता हूँ कि मैंने आपके इतिहास की बात नहीं की थी और न ही आप के इतिहास में मेरी कोई दिलचस्पी है।

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  37. ताली दोनों हाथों से बजती है, आदरणीया!
    @gyaan
    this is the truth and good u came out with it

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  38. यदि शरीर को दिखाना ही आजादी है तो आप लोगों को ही मुबारक हो, आप लोग प्रारम्भ करें. यहां तो पुरुषों को भी खुले में जाते देखा है और महिलाओं को भी, शौक से नहीं जाते, मजबूरी होती है. और तो और हमारे यहां तो बुजुर्गों ने कच्छे-बनियान में बाहर निकलने से मना किया है. और अगर इसी को आजादी माना जाये तो टुकड़ों में क्यों, पूरी आजादी एक ही बार में हासिल की जानी चाहिये. अधिक कहूंगा तो फिर आक्षेप लगेगा महिला विरोधी और राम सेना समर्थक मानसिकता का.

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