नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

September 24, 2012

विधवा विलाप इसे कहते हैं, संतोष त्रिवेदी जी , प्रवीण शाह जी और अरविन्द मिश्र जी

विधुर शायद ही कभी विलाप करते हो , वो उनके परिजन उनके विधुर होते ही उनके लिये नयी जीवन संगिनी खोजते हैं ताकि उनका जीवन फिर किसी नारी के सहारे सुखमय कट सके . समाज की नज़र में सधवा का मरना उस सधवा के लिये एक भाग्यशाली होने की निशानी हैं क्युकी पति के रहते वो स्वर्ग सिधार गयी . यानी स्त्री का भाग्य उसके पति की कुशलता से जुडा होता हैं और पति का भाग्य . सौभाग्य कभी भी स्त्री / पत्नी के जीवन से नहीं जुडा होता हैं .
इसीलिये विधवा विलाप एक बहुत ही करुण स्थिति मानी गयी हैं जहां एक स्त्री अपने पति के मरते ही अपनी सुध बुध  खो देती हैं और चीख चीख कर अनगर्ल प्रलाप करती हैं क्युकी आने वाले जीवन में समाज उस से बहुत कुछ छीनने वाला हैं .
आज से सालो पहले जब बाल विवाह होते थे , गौना होता था , तब ना जाने कितनी बच्चिया गौने से पहले ही विधवा हो जाती थी और मेरी अपनी दादी { जो मेरी दादी की ममेरी बहिन थी } खुद ९ वर्ष की उम्र में विधवा हो गयी थी . फिर भी ससुराल गयी और ९० वर्ष की उम्र में उनका निधन हमारे पास १९७० ही हुआ था . ९ वर्ष से ९० वर्ष का सफ़र अपनी ममेरी बहिन की ससुराल में उन्होने काटा क्युकी १३ वर्ष की आयु में ही उनकी ससुराल में या मायके में क़ोई भी नहीं बचा था . उनको क़ोई अपने साथ भी नहीं रखना चाहता था क्युकी विधवा का विलाप क़ोई नहीं सुनना चाहता था . हमारी दादी उनको अपने साथ ले आई थी लेकिन क्या स्थिति थी उनकी इस घर में केवल और केवल एक ऐसी स्त्री की जिसको क़ोई अपने साथ ही नहीं रखना चाहता . उनके खाना पकाने के बरतन तक अलग होते थे . तीज त्यौहार पर उनके लिये खाना सब के खाना खाने के बाद ही परोसा जाता था , उनको ये अधिकार नहीं था की वो एक ही चूल्हे पर अपने लिये "कडाई चढ़ा सके { यानि कुछ तल सके जैसे पूरी } . जब घर के पुरुष और सधवा खा लेगी तब उन्हे तीज त्यौहार पर "पक्का खाना" दिया जाता था .
२ रूपए की पेंशन उनके पति की आती थी , उस पति की जिसे ना कभी उन्होने देखा या जाना था , बहिन के चार बेटों और १ बेटी को बड़ा करने में ही उन्होने अपन जीवन लगा दिया फिर भी उस घर की नहीं कहलाई . बस रही एक विधवा दूसरे घर  की जिसको सहारा दिया हमारी दादी ने . दादी की पहली बहू , दूसरी बहू तो उनको एक नौकरानी से ज्यादा नहीं समझती थी क्युकी दोनों तकरीबन निरक्षर थी और "संस्कारवान " थी . वो संस्कार जो समाज ने उनको दिये थे की विधवा बस एक विधवा होती हैं . एक ऐसी स्त्री जिससे दूर रहो .

माँ हमारी दादी की तीसरी बहू थी , जब शादी हुई १९५9  तो लखनऊ विश्विद्यालय में प्रवक्ता थी और उम्र थी महज २२ साल . शादी के बाद माँ ने दादी की ममेरी विधवा बहिन यानी मेरी दादी को बहुत मानसिक संबल दिया क्युकी माँ शिक्षित थी . माँ ने कभी उन्हे विधवा नहीं कहा . जब तक माँ ससुराल में रही दादी के लिये जितना सम्मान अर्जित करवा सकती थी उन्होने किया . १९६५ में माँ सपरिवार दिल्ली आगयी और मेरी दादी को साथ लाई . ५ साल दादी हमारे साथ दिल्ली रही और कहती रही ये उनकी जिंदगी के सबसे बेहतर साल रहे . हमारे घर में उन्हे बिना खिलाये खाना नहीं खाया जा सकता था , जो कुछ भी मिठाई इत्यादि अगर कभी कहीं से आत्ती थी तो सीधे दादी के हाथ में दे दी जाती थी ताकि वो अपने लिये पहले निकाल ले और झूठा ना हो जाए , उनके निकलेने के बाद ही हम उसमे से खा सकते थे .

हमारी माँ के बीमार पडते ही हमारी दादी अपने को ही कोसती { विधवा विलाप इसे कहते हैं संतोष त्रिवेदी , प्रवीण शाह और अरविन्द मिश्र } की वो अपशकुनी हैं जिसके पास रहती हैं वो मर जाता हैं . उस समय वो एक एक उस व्यक्ति को याद करती जो मर गया था और उन्हे अपशकुनी , विधवा बना गया था . माँ उनको कितना भी समझाती पर वो यही कहती दुल्हिन हम अपशकुनी हैं तुमको भी खा जायेगे .


हमे तो दादी के देहांत तक कभी ये पता ही नहीं था की वो हमारी दादी की ममेरी बहिन हैं , विधवा , बेसहारा , अपशकुनी .
जिस दिन दादी नहीं रही तो संस्कार करने की बात हुई , अडोस पड़ोस के लोगो ने पापा से और माँ से कहा की आप इनके बड़े बेटे को बुला कर संस्कार करा दे , या सबसे छोटे को , क्युकी मझला बेटा संस्कार नहीं करता . तब माँ - पिता ने कहा की ये हमारी माँ नहीं मौसी हैं . फिर मेरी माँ ने पूरे सनातन धर्म के रीती रिवाजो से उनका संस्कार पापा से करवाया . पापा क्युकी इन सब में विश्वास नहीं रखते थे इस लिये मैने कहा माँ ने करवाया . १३ दिन हम सब जमीन पर सोये वही खाया जो बाहर से पडोसी दे गए .

क्या होता हैं विधवा होना , ये क़ोई उस परिवार से पूछे जहां ऐसी विधवा होती हैं . क्या संतोष त्रिवेदी जानते हैं या प्रवीण शाह जानते हैं या अरविन्द मिश्र जानते हैं की विधवा को पखाना जाने के समय बिना कपड़ो के जाना होता था . विधवा को कोरा कपड़ा पहनाना माना होता था ,
हमने देखा हैं अपनी दादी को बिना कपड़ो के पखाना जाते . दिल्ली आने पर भी वो जाती थी , हज़ार बार पापा ने उनको माना किया पर नहीं उनके विधवा होने के संस्कार उनको अपने को बदल कर रहने की परमिशन नहीं देते थे . कम से कम वो अपना अगला जीवन अपशकुनी हो कर नहीं गुजारना चाहती थी ,

कितनी आसानी से संतोष त्रिवेदी , प्रवीण शाह और अरविन्द मिश्र ने नारीवादियों के लेखन को ""रंडापा टॉइप स्यापा " " कह दिया , और फिर मुझे समझा दिया की रंडवा का मतलब विधवा विलाप होता हैं . बड़ी आसानी से समझा दिया की विधवा विलाप तो स्त्री पुरुष दोनों के लिये आता हैं . क्या जानते हैं वो विधवा विलाप के बारे में ??

क्यूँ हैं आज समाज में नारी वादियाँ क्युकी उन्हे सुनाई देता हैं विधवा विलाप . देखा हैं मैने अपने घर में और भी बहुत से घरो में क्या होता हैं क्या हैं हमारे समाज में विधवा की स्थिति और क्या होता हैं विधवा विलाप . और आप तो उस विधवा का भी अपमान करते हैं क्युकी आप को तो "रंडापा टॉइप स्यापा " लगता हें विधवा का विलाप .

दादी कहती थी माँ से दुल्हिन वो तो तुम्हारी सास ले आयी सो कम से कम एक छत मिल गयी वरना विधवा को रांड बनाने को सब तैयार रहते हैं .

अगली पोस्ट में लिखूँगी उस विधवा के बारे में जो १९८६ में २५ की उम्र में विधवा हुई , क्या विलाप था उसका और क्या बीती उस पर . शायद संतोष त्रिवेदी , प्रवीण शाह और अरविन्द मिश्र की संवेदन शीलता उनको एहसास कराये की नारीवादी लेखन को "रंडापा टॉइप स्यापा " कहना और फिर उसकी तुलना विधवा विलाप से करना गलत हैं .







मुझे से आप नाराज़ हैं , जील से आप नाराज हैं , अंशुमाला से आप नाराज हैं , मुक्ति से आप नाराज हैं , कोई बात नहीं जितने शब्द , अपशब्द कहने हैं  हमारा नाम लेकर कहे , लेकिन हमारी वजह से नारीवादियों को विधवा ना कहे , उनके लेखन को विधवा और "रंडापा टॉइप स्यापा " " कह कर उनका अपमान ना करे


हमे कहे और फिर हमारी प्रतिक्रया के लिये तैयार रहे पर जब भी विधवा शब्द "रंडापा टॉइप स्यापा " " और छिनाल इत्यादि का प्रयोग करने " आम " के लिये नहीं नाम लेकर करे . इतनी हिम्मत रखें . 








नारीवादी कह कर उपहास करदेना कितना आसान हैं , गाव के रीती रिवाज की जानकारी देना मुझे , गाँव के मुहावरे समझना मुझे बहुत आसन हैं पर उन सब को ही बदलने और उन सब के खिलाफ आवाज उठाने के लिये ही तो मैने ये नारी ब्लॉग बनाया हैं
शब्दकोष और बोलचाल में नारी के अपमान को , नारी के दोयम के दर्जे को ही तो बदलना हैं .
और जितनी तीव्रता से मुझे समझाया जाता हैं उस से दस गुना ज्यादा तीव्रता से मै बदलाव की बयार को लाने की मुहीम चलाने के लिये प्रेरित होती हूँ


प्रवीण शाह की पोस्ट 
संतोष त्रिवेदी का कमेन्ट
अरविन्द मिश्र की पोस्ट
संतोष त्रिवेदी का कमेन्ट 
प्रवीण शाह का कमेन्ट 
जील की पोस्ट  

मेरी दादी 


41 comments:

  1. समय के साथ बहुत से शब्द का प्रयोग अवांछनीय माना जा रहा है और नए शब्द प्रयोग में आने लगें हैं ताकि किसी की भावना आहत न हो।

    मैंने उन पोस्टों को देखा था, और वहां विद्वजनों द्वारा दी जा रही दलीलें भी।

    समय के साथ हमें खुद की सोच भी बदलनी चाहिए।

    कुछ दिनों पहले देश के एक नामचीन साहित्यकार ने नया ज्ञानोदय को दिए एक साक्षात्कार में ‘छिनाल’ शब्द का प्रयोग कर दिया था। उसको लेकर काफ़ी विवाद हुआ और जो बात सामने आई उसका तात्पर्य यही था कि यह स्त्रीवर्ग को अपमानित करने वाला शब्द है।

    ऐसे आज यौन कर्मी शब्द या फिर दलित शब्द या फिर ‘फीजिकली चैलेन्ज्ड पर्सन’ शब्द का प्रयोग किया जाता है।

    अब ये तो विद्वजनों के विवेक पर निर्भर करता है कि वे कैसे शब्दों का प्रयोग करें।

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  2. समय के साथ बहुत से शब्द का प्रयोग अवांछनीय माना जा रहा है और नए शब्द प्रयोग में आने लगें हैं ताकि किसी की भावना आहत न हो।

    मैंने उन पोस्टों को देखा था, और वहां विद्वजनों द्वारा दी जा रही दलीलें भी।

    समय के साथ हमें खुद की सोच भी बदलनी चाहिए।

    कुछ दिनों पहले देश के एक नामचीन साहित्यकार ने नया ज्ञानोदय को दिए एक साक्षात्कार में ‘छिनाल’ शब्द का प्रयोग कर दिया था। उसको लेकर काफ़ी विवाद हुआ और जो बात सामने आई उसका तात्पर्य यही था कि यह स्त्रीवर्ग को अपमानित करने वाला शब्द है।

    ऐसे आज यौन कर्मी शब्द या फिर दलित शब्द या फिर ‘फीजिकली चैलेन्ज्ड पर्सन’ शब्द का प्रयोग किया जाता है।

    अब ये तो विद्वजनों के विवेक पर निर्भर करता है कि वे कैसे शब्दों का प्रयोग करें।

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  3. यदि मैंने नासमझी में ... 'नारी' या 'नारीवाद' पर इतना गंदा कहा होता तो आपके इस संवेदना को झकझोर देने वाले संस्मरण के बाद अपनी नज़रों में ही गिरा हुआ महसूस करता.

    'नारी' के साथ समाज ने जितनी निष्ठुरता दिखायी है उसे हमने उस स्तर पर महसूस नहीं किया है जिस स्तर पर बड़े संयुक्त परिवारों में रहने वाले सदस्यों ने किया हो.... फिर भी मैं इसे कुछ हद तक 'पत्नी' पक्ष के संयुक्त परिवार से महसूस कर सकता हूँ. पूरा जीवन कोई पुरुष जिहालत झेलते हुए नहीं जी सकता... कैसे भी नहीं... असंभव है. और यदि किसी स्त्री को जबरन ऐसा जीवन जीने पर बाध्य होना पड़ता है.... तो लानत है ऐसे पुरुषवादी समाज पर जो सभ्यता का पुरोधा बना हुआ है. विधवा/सधवा महिला का बिना वस्त्रों के रसोई-गृह में जाकर भोजन बनाना तो सुना था... लेकिन 'शौचकर्म' के लिए नहीं सुना था.' इसके पीछे क्या धारणा रही है.... शायद कोई चिन्तक बता सके... मुझे तो नहीं मालुम. जो भी हो .... प्रथम दृष्टया ये सब अनुचित लगता है.

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  4. @ 'विधवा विलाप' का अर्थ 'निरर्थक विलाप' से मेल नहीं खाता... 'विधवा विलाप' का सही अर्थ समझें.... 'संवेदना को झकझोर देने वाला विलाप' .. इतना मार्मिक कि कठोर ह्रदय भी पिघल जाए.
    प्रवीण जी की ही पोस्ट पर प्रतुल जी ने इस टिप्पणी मेंविधवा विलाप का सही अर्थ बताया था किन्तु लोगों की समझ का क्या किया जाये , बाकियों की बातो पर ना तो मै ध्यान देती हूं और ना ही कोई महत्व क्योकि जो उन लोगों ने अब कहा है कई बार वो उससे ज्यादा कुछ कह चुके है स्त्रियों के लिए और खुद के स्तर के बारे में लोगों को बता चुके है, हम उनके स्तर का मुकाबला नहीं कर सकते है हमरा चिंतन इतना गहरा (गिरा हुआ ) नहीं है | अफसोस प्रवीण जी के उनकी हा में हां मिलाने पर हो रहा है और क्यों ऐसा किया जा रहा था उस कारण को तो हम सभी जानते है मात्र एक व्यक्ति के विरोध में ,ये देख कर मुझे उन्ही की लिखी कविता याद आ गई जिसमे उन्होंने कुछ ऐसा लिखा है की मेरे सर की जगह एक मुठ्ठी निकल आई है विरोध करती :( | "रंडापा टाईप स्यापा" जैसा शब्द अपने आप में कितना ख़राब है ये इसी से पता चलता है की खुद उससे सही बताने वाले प्रवीण जी भी वो शब्द नहीं लिख कर उसे थोडा सभ्य भाषा में विधवा विलाप लिख रहे थे |
    उसी टिप्पणी में प्रतुल जी आगे लिखते है
    "यदि वेदों के ज्ञाताओं को सभी स्त्रियों का आलाप भी 'विधवा विलाप' प्रतीत होता है तो समझ में यही आता है कि वे 'संवेदनाओं के स्तर' पर प्रगतिशील हो चले हैं."
    और इसके आगे क्या कहूँ जितना कहूँगी वो लोग उतना ही अपने स्तर से गिरेंगे उन्हें अपने घरो में गलिया देने सुनने की आदत है पर हम जैसो को नहीं है |

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  5. कुछ दिनों से ब्लॉग- जगत से दूर थी...पर अभी सरसरी निगाह से सम्बंधित लिंक देखे..
    किसी भी हाल में इन शब्दों के प्रयोग को उचित नहीं ठहराया जा सकता
    और उस पर भी जिस तरह कटाक्ष के रूप में या हिकारत से इसका प्रयोग किया गया, वह तो निंदनीय ही है.
    शब्दकोष में तो बहुत सारे शब्द हैं...पर कई शब्द अब त्याज्य हो गए हैं,यह सबको पता है.

    जानबूझकर तंज कसने के लिए इसका प्रयोग किया गया है ,यह भी सब समझ रहे हैं...फिर भी किस मजबूरी के तहत इसके प्रयोग को उचित ठहरा रहे हैं, यह समझ से परे है.

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  6. ऐसे शब्दों का प्रयोग दुखद है,यह कैसा आवेश कि शब्द अनियंत्रित हो जाएँ

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  7. रचना ऐसा नहीं है, नारीवादी तो कभी सामंतवादी लोगों को सुहाई ही नहीं है चाहे वे पुरुष हों या स्त्री. तभी तो उसको अलग अलग शब्दों से नवाजा गया है. शायद संवेदनाएं भी स्त्री और पुरुष की अलग होती हें या फिर अपनी अपनी सोच का दोष है. ऐसा नहीं है कि जो शब्द विद्वजन ने प्रयोग किया है उसको कभी अपने जीवन में उन्होंने देखा ही नहीं होगा, घर में नहीं पड़ोस में, पड़ोस में न सही गाँव में और उस शब्द को उन्होंने सामूहिक रूप से प्रयोग कर दिया. क्यों इतना उतावले हो गये? वैसे कुछ नारीविरोधी लोग अवसर की तलाश में रहते हें कि उनको कब ख़ूबसूरत विशेषणों से नवाजने का मौका मिले. लेकिन गलत सदैव गलत होता है और किसी का अपमान करने का अधिकार किसी ने किसी को नहीं दिया है. आप सम्मान नहीं करिए लेकिन तटस्थ तो रहेये कटाक्ष भी मत कीजिये. इसी में आपके बुद्धिजीवी होने का सम्मान है.

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  8. .
    .
    .
    रचना जी व अंशुमाला जी,

    मुझे से आप नाराज़ हैं , जील से आप नाराज हैं , अंशुमाला से आप नाराज हैं , मुक्ति से आप नाराज हैं.

    सबसे पहले तो यह साफ कर दूँ कि मैं किसी से नाराज नहीं... ब्लॉगिंग में नाराज होकर कोई करेगा भी क्या... यह जरूर हो सकता है कि किसी के कुछ लिखे से मैं सहमत न होऊँ और अपनी असहमति जाहिर करूँ उस पर... यह अधिकार है मेरा, और इसे तजने को मैं तैयार नहीं... लेकिन इस असहमति को व्यक्तिगत पसंदगी या नापसंदगी या नाराजगी से जोड़कर देखना कम से कम मेरा स्टाइल नहीं है...

    अब आते हैं मुद्दे की बात पर...

    अरविन्द मिश्र जी ने बहुत अच्छा समझाया है यहाँ...

    "शाब्दिक और अलंकारिक अर्थों में फर्क होता है .कई बार उद्धरण सीधे शाब्दिक या अभिधामूलक न होकर लक्षणा या व्यंजना का भाव लिए रहते हैं. शाब्दिक अर्थ में तो पति के दिवंगत होने के बाद नारी का क्रंदन ही विधवा विलाप होता है .मगर अपने लाक्षणिक और व्यंजनात्मक अर्थों में यह एकदम अलग भाव संप्रेषित करता है -वहां कोई जरुरी नहीं है कि नारी का ही विधवा विलाप हो -कोई पुरुष ,कोई राजनीतिक पार्टी भी किसी मुद्दे को लेकर ध्यानाकर्षण के मकसद से विधवा विलाप कर सकती है . यहाँ विधवा विलाप का मतलब ध्यानाकर्षण के लिए अत्यधिक और बहुधा निरर्थक प्रयास से है -जैसे लोग घडियाली आंसू बहाते हैं -उसी तरह विधवा विलाप भी कर सकते हैं!"

    आज तक के अपने जीवन में मैंने भी विधवा विलाप का यही अर्थ समझा व माना है...

    अब आते हैं संतोष त्रिवेदी जी की टीप पर...

    ...कुछ लोग नारीवादी लेखन के नाम पर महज रंडापा टॉइप स्यापा करते हैं.अपन तो ऐसों से बहुत दूर हैं ।

    यहाँ पर मैंने 'रंडापा टॉइप स्यापा' का अर्थ विधवा विलाप लगाया, वह भी बाकायदा शब्दकोष देखकर, और यही अर्थ बनता भी है... एक और तथ्य जिसकी अनदेखी की जा रही है वह है शब्द 'कुछ'... यह ध्यान रहे कि सभी के नारीवादी लेखन को 'विधवा विलाप' नहीं कह रहा टिप्पणीकार... तो फिर वह जो ऐसा करता ही नहीं, क्यों आहत हो टीप से ?... कई बार कई जगह लिखा होता है कि 'कुछ मर्द पहले दर्जे के लंपट होते हैं'... अब क्या इसको लेकर सारे पुरूष विरोध दर्शाते फिरें ?

    कुल मिलाकर मैं तो यही कहूँगा कि 'Let us agree to disagree on this matter !'... परंतु फिर वह भी कहूँगा जो हमेशा से कहता आया हूँ कि ' हर कोई अपनी अपनी समझ व सुविधा से नतीजों तक पहुंचने के लिये आजाद है और होना चाहिये भी, मैं इस आजादी का सम्मान करता हूँ'...

    साभार!



    ...




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    1. बात वही है कि शब्द चाहे लाक्षणिक हो या व्यंग्य, यदि समाज के किसी एक हिस्से के लिए वह अपमानजनक है, तो उसका प्रयोग बंद होना चाहिए और कम से कम आप जैसे जागरूक व्यक्ति स तो ऐसी उम्मीद नहीं थी कि आप उसका समर्थन करेंगे.

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    2. शब्दकोष के शब्द कहां से आते हैं , कौन हैं इन शब्दों का निर्माता .
      क्या शब्दकोष पहले आये थे या शब्द थे इसलिये शब्द कोष में उनको परिभाषित कर दिया गया
      आज जब बारबर यानी नाई शब्द तक आपत्ति जनक हो गया हैं और फिल्म में को सेंसर तब पास करता हैं जब ये शब्द हट जाए अआप शब्द कोष की दुहाई दे रहे हैं
      एक तरफ आप लोग समझाते हैं ये आम बोल चाल की भाषा यानी चलन हैं दूसरी तरफ आप उसको जस्टिफाई करने के लिये शब्द कोष का सहारा लेते हैं रांड शब्द एक अश्लील गाली हैं , आप की पोस्ट पर मैने कहा भी था एक बार अपनी पत्नी से भी पूछे वो महज इसलिये की शायद आप जिस भावना से अनभिज्ञ हैं आप को वो बात उनसे बात करके बेहतर समझ आये .
      विधवा विलाप भगवान् ना करे किसी को सुनना पडे और" कुछ " नारीवादियाँ ही सही क्या उनके लिये भी विधवा कहना उचित हैं . बात सहमत या असहमत की नहीं हैं , अगर इस पोस्ट के बाद क़ोई एक भी ये सोच लेगा की उसको ये शब्द आगे से नहीं इस्तमाल करने हैं तो बदलाव आयेगा और आप तीन के अपने विचार ना भी बदलने से , बदलाव नहीं रुकेगा , हम ब्लॉग पर अपनी लड़ाई जारी रखेगे और जब भी ऐसा वाहियात और अश्लील लिखा जाएगा और उसका समर्थन होगा हम विरोध करेगे और इन्टरनेट के सहारे दुनिया को दिखायेगे देखो भारत का पढ़ा लिखा तबका , नारी के लिये क्या शब्द इस्तमाल करता हैं

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    3. प्रवीण जी
      नीजि रूप से मै ऐसा नहीं सोचती की आप मुझसे नाराज है बल्कि मै तो आप का रवैया देख कर आश्चर्य में हूँ दूसरी बात की

      @ यहाँ पर मैंने 'रंडापा टॉइप स्यापा' का अर्थ विधवा विलाप लगाया, वह भी बाकायदा शब्दकोष देखकर,
      यहाँ किसी ने आप से इन शब्दों का अर्थ नहीं पूछा था सभी को उसका अर्थ मालूम है , विधवा शब्द को यदि रांड में बदल दिया जाये तो वो गाली बन जाती है और यहाँ कहा जा रहा था की किसी को भी गाली दी जा रही थी और आप उसका समर्थन कर रहे है ,ये बिल्कुल वैसा ही है की कल को आप को मेरी कोई बात पसंद नहीं आई और आप ने उस पर पोस्ट लगा दी और आप के मित्रगन आ कर मुझे माँ बहन से लेकर कुत्ते बिल्ली की गाली देंगे ( आप के मित्रो का स्तर और पुराना रिकार्ड देखे तो उससे भी कही ज्यादा आ कर कह जायेंगे, वो गंदे शब्द दिमाग में आ तो रहे है किन्तु लिखने की हिम्मत नहीं हो पा रही है ) तो आप उनको मना करने की जगह मुझे कुत्ते बिल्ली और माँ बहन और स्त्रियों को कहे जाने वाले तमाम गंदे शब्दों , गलियों का अर्थ बताएँगे शब्दकोष देख कर और कहेंगे की अंशु जी ऐसी गालिया तो समाज में सभी देते है इसमे बुरा क्या है आप को देने सुनने की आदत नहीं है तो क्या ये गलत हो जायेगा जाइये पहले पूरे समाज से इसे हटाइये फिर मुझसे कहियेगा , और सभी को असहमति रखने का अधिकार है और मै इसे गलत नहीं मानता हूँ |
      नारी से जुड़े मुद्दों का जबानी समर्थन करना और उसे अपने पर लागु करने में बड़ा फर्क होता है समझ आ रहा है | ध्यान रखे की मै यहाँ ये नहीं कह रही हूँ की आप को दिव्या जी की पोस्ट का विरोध नहीं करना चाहिए था |

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    4. अंशु
      प्रवीण शाह की पोस्ट पर जा कर क़ोई भी देख सकता हैं की जो कमेन्ट संतोष त्रिवेदी की कमेन्ट से पहले आये हैं , मेरा भी , कहीं भी किसी ने भी प्रवीण शाह की पोस्ट से सहमति या असहमति नहीं दर्ज की हैं , सबने केवल और केवल पोस्ट पर अपना नज़रिया दिया हैं . फिर संतोष त्रिवेदी के कमेन्ट में रंडापा - टाइप स्यापा पढ़ा तो मैने आपत्ति दर्ज की और वहाँ से इसको विधवा विलाप की परिभाषा दी गयी हैं
      वही मैने दो और लिंक भी छोड़े हैं जिनमे इसी प्रकार की शब्दावली का प्रयोग हुआ हैं
      उसके बाद प्रवीण शाह ने अपनी पोस्ट को एक दस्तावेज मान लिया और कमेन्ट के साथ खड़े दिखे
      बात सहमति और असहमति की नहीं हैं

      मै फिर कह रही हूँ की अगर संतोष त्रिवेदी , प्रवीण शाह , अरविन्द मिश्र को किसी ब्लॉग लेखन करती महिला को रांड , विधवा , छिनाल इत्यादि कहना हैं तो इतने आवरण की क्या जरुरत हैं सीधा सीधा कहे जैसा मैने पोस्ट में कहा हैं

      हमे कहे और फिर हमारी प्रतिक्रया के लिये तैयार रहे पर जब भी विधवा शब्द "रंडापा टॉइप स्यापा " " और छिनाल इत्यादि का प्रयोग करने " आम " के लिये नहीं नाम लेकर करे . इतनी हिम्मत रखें . , उस पंक्ति को अगर आप क्लिक करेगे को आप को एक कमेन्ट दिखेगा

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    5. रचना जी ,
      आपका निम्नांकित विचार दुर्भावनापूर्ण ,कुत्सित मानसिकता का परिचायक और भड़काऊ है -मैंने या प्रवीण शाह या संतोष जी ने कभी भी किसी के लिए व्यक्तिगत रूप से यह/ऐसा संबोधन नहीं किया है और न ही ऐसा विचार रखते हैं -हम उस संस्कार और संस्कृति में पले बढे हैं जो लोगों को सौ वर्ष स्वस्थ रहकर जीने की कामना रखती है -आप ब्लॉग जगत में लोगों को भड़का रही हैं और दुर्भावना फैला रही है -आपके इस गर्हित आचरण की मैं पुरजोर शब्दों में भर्त्सना करता हूँ और स्वयं के सहित अन्य दोनों महानुभावों के लिए इसे अपमानजनक पाता हूँ-बलपूर्वक शब्दों में अनुरोध है कि इसे हटा लें अन्यथा परिणाम के लिए तैयार रहे !
      आपका वाक्यांश :
      "मै फिर कह रही हूँ की अगर संतोष त्रिवेदी , प्रवीण शाह , अरविन्द मिश्र को किसी ब्लॉग लेखन करती महिला को रांड , विधवा , छिनाल इत्यादि कहना हैं तो इतने आवरण की क्या जरुरत हैं सीधा सीधा कहे जैसा मैने पोस्ट में कहा हैं "

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    6. जो कहा हैं उसके नीचे एक लिंक भी हैं

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    7. विवाहित पुरुष के क़ोई "लक्षण" नहीं होते जो उनको विवाहित सिद्ध कर दे
      विवाहित के स्त्री के "लक्षण " यानी सुहाग चिन्ह होते हैं
      इस लिये विधुर विलाप की क़ोई लाक्षणिक और व्यंजनात्मक अर्थों परिभाषा नहीं मिलती

      इसी लिये "विधवा विलाप" के लिये लोग लाक्षणिक और व्यंजनात्मक अर्थों परिभाषा दे पाते हैं

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  9. जिस पर बीतती है , वही जनता है इस दुःख को .
    हमारे ही समाज ने दिए हैं विधवाओं को ये दर्द .

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  10. रचना जी,
    नारीवादियों ने 'जेंडर बायस्ड' शब्दों को लेकर लंबी लड़ाई लड़ी है और आज भी लड़ रही हैं, अलग-अलग स्तरों पर और भिन्न-भिन्न स्थानों पर. आज ही सर से मेरी लंबी बहस हुयी, जब उन्होंने कहा कि अगर कहा जाता है कि 'पुत्र नरक से त्राण करता है, इसीलिये उसके जन्म की कामना की जाती है' इस वाक्य में एक सूत्र एक अनुसार पुत्री भी सम्मिलित है. इस पर मैंने यह प्रश्न किया कि 'तब इस स्थान पर जेंडर न्यूट्रल' 'सन्तान' शब्द क्यों नहीं प्रयुक्त किया गया. इसका सीधा सा अर्थ है कि पुत्र को अधिक महत्त्व दिया गया है.
    खींच-खांचकर ये लोग वैयाकरणिक या भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से चाहे शब्दों का मनचाहा अर्थ निकाल लें, लेकिन समाज में औरतों की दोयम स्थिति के अनुसार ही सारे शब्द बने हैं और हमें औरतों की स्थिति के साथ ही इन शब्दों को भी बदलना है. और, इसके लिए हम लड़ते रहेंगे.

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  11. सार्वजनिक रूप से असम्मानजनक शब्दों का प्रयोग निश्चित ही भर्त्सनीय है, जिसके लिए भी हो .
    मेरे ज्ञान चक्षु खुले ,आपके लेख से कई नई जानकारिया प्राप्त हुई ,. शायद मेरा अनियमित रहना अथवा ब्लॉगर्स से व्यक्तिगत संपर्क नहीं होना इसका कारण रहा हो !

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  12. आपसे पूर्ण सहमति

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  13. Mr. Trivedi, Sah and Mishr(ji),

    What should I call/name you for using such bad words for women. How would you feel if your daughter just lost a husband? Kya aap unke liye yahi word use karenge? To me, this sounds like punishment for the widow even though she did nothing wrong. Why is she suffering/listening if her husband died? Have some common sense. Many of the widows in India never find release from the bonds of cruel custom and false religion.

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  14. Aur haan, aap kitna jante hain village women ke baare mein? Agar pata na ho to pahle jaaniye, samjhaiye fir lekhni ke roop mein vyakt kijiye. Sirf bakar karne aur badi lambi chauri bhashanbaji karne se kuch nahi hone wala. Aaplogon ki basha to bilkul ashaniy hai...chhi chhi...kya sanskar denge aap apne bachchon ko?

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  15. मैं ब्लॉग जगत से दूर हूँ इनदिनों, कल मुझे रश्मि से पता चला कि आपने ये पोस्ट लिखी है...
    सबसे पहले तो आप बधाई की पात्र हैं, बिल्कुल सही चित्र खींचा है आपने...मेरी दादी, मेरी मेरी चचेरी दादी को देखा है मैंने ऐसे ही हाल में...मेरी माँ को काफ़ी वक्त लगा था उनको इस माहौल से निकालने में...

    अब बात उन अनर्गल प्रलापों की....ये शब्द इतने भारी और हताहत करने वाले हैं कि इनका प्रयोग कुछ ही तरह के लोग कर सकते हैं...जो असंवेदनशील हैं, जो मूढ़ हैं, या फिर जो आए दिन इनसे दो चार होते रहते हैं....वरना संवेदनशील और प्रज्ञं व्यक्ति ऐसी बात इतनी आसानी से लक्षणा-व्यंजना के नाम पर भी नहीं कह सकता...
    जितनी मेहनत इनकी गलतियों को जस्टिफाई करने के लिए कि गयी है...उससे कही बेहतर होता ग़लती को ग़लती मान लेना..
    ग़लती सबसे होती है, मुझसे भी हुई है...और उसे मान लेने में कोई बुराई नहीं है...

    वैसे रचना जी, समाज जिस तेज़ी से बदल रहा है, ईश्वर करे यह 'विधवा विलाप' सिर्फ़ शब्द-कोष में ही रह जाए...

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  16. अनुचित शब्दो का प्रयोग कभी तार्किक नही ठहराया जा सकता और तब तो बिल्कुल नही जब वर्जित हों ………कम से कम आज के पढे लिखे समाज को ये समझना चाहिये और सही शब्दो का उपयोग करना चाहिये क्योंकि शब्दबाण होते ही ऐसे हैं ना जाने कितना कुछ बेध जाते हैं।

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  17. ये क्या है? कैसी भाषा है ये? तथाकथित सभ्य/सुसंस्कृत लोगों की भाषा है ये? कदा विरोध करती हूँ मैं ऐसी भाषा, और उसे इस्तेमाल करने वालों का.

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  18. बहुत लंबी चौड़ी बहस हो गई इस पर।मुझे लगता है जिस तरह का हमारा समाज है (बल्कि ज्यादातर समाज ऐसे ही है)पुरुषों को बहुत सी ऐसी बातें जो महिलाओं और उनकी भावनाओं से जुड़ी होती है उनके मर्म का एहसास नहीं होता(हालाँकि मैं इसका कारण उनका पुरुष होना भर नहीं मानता जैसा कि बहुत से लोग मानते हैं).विधवा विलाप शब्द निश्चित रूप से महिलाओं को ही ज्यादा चुभेगा।मैंने ये शब्द कभी प्रयोग तो नहीं किया लेकिन जब दूसरों को करते देखा तो वो विचार भी कभी नहीं आए जो यहाँ पोस्ट और टिप्पणियों में बताए गए।जबकि मेरी खुद की छोटी मौसी (हमारी जाति में मासीसा कहते है) विधवा है।उनकी उम्र अभी मात्र छत्तीस वर्ष है और इस हादसे को तीन वर्ष हो चुके है।मुझे नहीं लगता कि विधवा विलाप शब्द बोलते हुए किसीके दिमाग में किसी विधवा का मजाक उड़ाने जैसी बात आती होगी।एक गलत शब्द चला आ रहा है लोग प्रयोग किए जा रहे है।पर आपकी पोस्ट पढ़ के लगा कि इस शब्द को किसी भी तर्क से सही नहीं ठहराया जा सकता।आज के बाद ध्यान रखेंगे और आगे भी भूल से भी इसका प्रयोग नहीं करेंगे।बाकी संतोष जी ने जो शब्द प्रयोग किया,उनके दिमाग में क्या रहा होगा दिख ही रहा है।

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  19. कम ही बार ऐसा लगता है, लेकिन इस बार ऐसा लगा है कि इस पोस्ट के बाद शायद हम लोग कुछ लिखते बोलते समय अपने अन्दर कुछ संवेदनशीलता महसूस करेंगे| शब्द कई बार बहुत गहरा घाव कर देते हैं और ये घाव जल्दी से भरते भी नहीं| स्वीकार करूं तो मैंने खुद अपनी एक पोस्ट में इस शब्द का एक बार प्रयोग किया था हालांकि सन्दर्भ दूसरा था, लेकिन लिखते लिखते खुद को भी अजीब लगा था, इसीलिये जब उसी पोस्ट में दुबारा इस शब्द को इस्तेमाल करना था तो कूट भाषा का इस्तेमाल करना पडा|
    पुनः कहता हूँ, आशा है इस पोस्ट के बाद ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होगी या कम होगी|

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  20. अब फिर शुरू हुआ नारीवादियों(पुरुष समाहित ) का विधवा विलाप -गलदश्रु संवेदना को दुलरा कर केवल भीड़ जुटाना ही इस पोस्ट का मकसद है -हमें उन लोगों की बौद्धिकता पर दाया आती है जो भाषा के शाब्दिक और अलंकारिक अर्थों का भेद नहीं कर पाते .....
    आपका अपना ब्लॉग है जो कहना चाहे कहें और सजरा वर्णन करें -यह सब किसे बता रही हैं और यह कौन सी अनजानी बात है, गलदश्रु भावुकता प्रधान इस पोस्ट को नमस्कार -दूर से ही ! एक मुहावरा -कारण करके रोना होता है जो इस पोस्ट में चरितार्थ होता दिख रहा है -हमारे गाँवों में यह भी यह आम घटना है !
    बहरहाल इतना तो कह सकता हूँ कि अगर हमारी सोच और पक्ष से आपको सचमुच दुःख पहुँचता है तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ -मगर अपने कथन से समझौता नहीं!
    और हाँ मैं तो नाराज अब रेखा श्रीवास्तव जी से भी हूँ (यद्यपि उनके प्रति मेरे सम्मान में अब भी कोई कमी नहीं है और यह वे जानती हैं ) क्योकि उनकी साँपों पर एक पोस्ट से उनकी धुर अज्ञानता प्रगट हुयी और उसे उन्होंने बताने पर भी मानने से इनकार किया जबकि भला उनका था ......मुक्ति से मैं न कभी नाराज़ था और न रहूँगा -हाँ सोच का फर्क और सैद्धांतिक असहमति तो है ! बाकी पर मुझे कोई स्पष्टीकरण नहीं देना है !
    आपके लिए भी अनुरोध है कि यह रोज रोज की चीख चिख छोड़ कुछ ठोस और सार्थक करें और लिव एंड लेट लिव !

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  21. रचना जी ,
    आपका निम्नांकित विचार दुर्भावनापूर्ण ,कुत्सित मानसिकता का परिचायक और भड़काऊ है -मैंने या प्रवीण शाह या संतोष जी ने कभी भी किसी के लिए व्यक्तिगत रूप से यह/ऐसा संबोधन नहीं किया है और न ही ऐसा विचार रखते हैं -हम उस संस्कार और संस्कृति में पले बढे हैं जो लोगों को सौ वर्ष स्वस्थ रहकर जीने की कामना रखती है -आप ब्लॉग जगत में लोगों को भड़का रही हैं और दुर्भावना फैला रही है -आपके इस गर्हित आचरण की मैं पुरजोर शब्दों में भर्त्सना करता हूँ और स्वयं के सहित अन्य दोनों महानुभावों के लिए इसे अपमानजनक पाता हूँ-बलपूर्वक शब्दों में अनुरोध है कि इसे हटा लें अन्यथा परिणाम के लिए तैयार रहे !
    आपका वाक्यांश :
    "मै फिर कह रही हूँ की अगर संतोष त्रिवेदी , प्रवीण शाह , अरविन्द मिश्र को किसी ब्लॉग लेखन करती महिला को रांड , विधवा , छिनाल इत्यादि कहना हैं तो इतने आवरण की क्या जरुरत हैं सीधा सीधा कहे जैसा मैने पोस्ट में कहा हैं "

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    1. जो कहा हैं उसके नीचे एक लिंक भी हैं

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    2. कहाँ है लिंक? हिन्दी की वर्तनी भी ठीक से नहीं लिख पाने वाले लोग भी यहाँ इस भाषा पर पांडित्य प्रदर्शन कर रहे हैं -

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    3. पोस्ट में हैं अरविन्द जी और जहां कमेन्ट में अंशु को मैने कहा हैं वहाँ भी लिख दिया हैं लिंक पोस्ट में हैं

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    4. गुरूजी,काहे को परेशान हो रहे हैं,यही तो वह स्यापा है जिसकी ओर हमने इंगित किया था और बुद्धिजीवी ब्लॉग-जगत त्रस्त है.जो लोग तंज और व्यंग्य नहीं समझते,उनको क्या कहा जाय.हमारे कहे शब्द सब पर लागू नहीं होते और यह भी कि वह एक दुष्प्रवृत्ति है जो यहाँ भी दिख रही है.
      आपका और प्रवीण शाह का मान ऐसे कम अक्ल लोगों से क्षरित होने वाला नहीं है.लोगों को टंकी पर चढ़कर या अपने रूदाली समुदाय को मेल कर कर के मजमा लगाने दें.
      मैंने इसी ब्लॉग-जगत में नारी और पुरुष की अश्लीलता पूर्ण टिप्पणियां इन्हीं कथित नारीवादी की पोस्ट और कमेन्ट में देखी हैं,दूसरों के बारे में नहीं कह सकता क्योंकि उस बारे में हमने उन्हें मेल नहीं किया है !
      ..ऐसे स्यापे की खास विशेषता होती है कि यह रुक-रूककर नई ऊर्जा से जारी रहता है.कइयों के अस्तित्त्व को खाद-पानी मिलती रहनी चाहिए.
      शुभकामनाएँ !

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    5. "-बलपूर्वक शब्दों में अनुरोध है कि इसे हटा लें अन्यथा परिणाम के लिए तैयार रहे ! "

      Ye anurodh hai ya gidar dhamki hai? Aap pahle apna wo post/comment delete kijiye jahan aise gande shabdon ka use kiya hai.

      rgds.

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    6. आपका और प्रवीण शाह का मान ऐसे कम अक्ल लोगों से क्षरित होने वाला नहीं है.लोगों को टंकी पर चढ़कर या अपने रूदाली समुदाय को मेल कर कर के मजमा लगाने दें.

      त्रिवेदी जी आप कहना क्या चाहते हैं? अपने शब्दों को देख लीजिये. पहले लिखे शब्द कम थे तो अब रुदाली पर आ गए. हम तो रुदाली बना दिए गए . आप भी आह्वान कीजिए और अपने साथ कुछ और लोगों को बुला लीजिये जो आपके शब्दों का समर्थन करने वाले हों. सब न सही फिर भी किसी भी वर्ग के लिए अपमानजनक शब्द का प्रयोग गलत है , हो सकता है कि बड़े राजनीतिक , सामाजिक और आर्थिक रुतबे वाले हों लेकिन किसी को अपशब्द कहने का अधिकार तो नहीं मिल जाता है. पहले रांड टाइप स्यापा परिभाषित किया और अब उसमें रुदाली और जोड़ दिया है तो फिर उसके भी पर्यायवाची बता दीजिये. ताकि इस पर भी कोई बवाल न हो. अब तो जितने भी कमेन्ट करने वाले है या साथ देने वाले हैं वो सभी रुदाली तो घोषित हो ही गए हैं.

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    7. रेखा जी
      प्रवीण शाह कहते है
      @ एक और तथ्य जिसकी अनदेखी की जा रही है वह है शब्द 'कुछ'... यह ध्यान रहे कि सभी के नारीवादी लेखन को 'विधवा विलाप' नहीं कह रहा टिप्पणीकार... तो फिर वह जो ऐसा करता ही नहीं, क्यों आहत हो टीप से ?...
      प्रवीण जी ने अपने मित्र की सफाई में ये बात कही है उनकी पोस्ट पर बाद में आई और इस पोस्ट पर आई त्रिवेदी जी की टिप्पणियों को देख कर कही से भी उनकी ये बात किसी को भी सच लग रही है , वो इस तरह की टिप्पणिया करके अपने बारे में लोगों को और जानकारी दे कर हमारी आपत्ति को तो सही साबित कर ही रहे है साथ में अपना समर्थन कर रहे प्रवीण जी को भी गलत साबित कर रहे है |

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  22. http://ahilyaa.blogspot.in/2012/04/blog-post_27.html। यह पोस्ट आपकी पोस्ट का काव्य रूप है, अवश्य पढ़ें।

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  23. aaj ke daur main yeh sab kuch nahi hai apnee apnee samajh ki soch hai sab log apne apne hisab se sabdo hi nai paribhasha bana lete hai...ek vidhwa videshi naari aap ke pure desh ko nacha rahi hai aur bade bade vidwaan uske aage nat mastak hai...

    jai baba banaras....

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    1. ये सही है कि आज ऐसा कम होता है लेकिन नहीं होता ऐसा भी नहीं है....
      जहाँ तक एक विधवा का प्रश्न है तो वो अपने आप में एक ही विधवा है वो भी विदेशी...और एक विदेशी विधवा पूरे हिन्दुस्तान की विधवाओं को नहीं दर्शाती....

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  24. गलत शब्द हमेशा गलत ही होता है .... समाज में कोई भी उसका प्रयोग करे तो वो सही नहीं बन सकता है ...... :(

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