कारण नोर्वे का कानून कहता हैं की
- आप बच्चो को अपने पास नहीं सुला सकते हैं और लडके का पिता लडके को अपने पास सुलाता था
- आप बच्चो को फ़ोर्स फीड नहीं कर सकते हैं और लड़की की माँ चम्मच से लड़की को दूध पिलाती थी
नोर्वे में चाइल्ड आबुज़ के खिलाफ जंग छिड़ी हैं । वहाँ के कानून ना केवल सख्त हैं वरन उनका पालन भी सख्ती से होता हैं ।
कल टी वी पर इस विषय पर हर चेंनेल पर बहस चल रही थी । बहस में पता चला की अब भारत की सरकार नोर्वे की सरकार से इस विषय में बात कर रही है और बहुत संभव हैं बच्चो की कस्टडी उनके नाना , नानी को मिल जाए और बच्चे भारत वापिस आ जाये । मार्च तक अगर ऐसा नहीं हुआ तो उनके माँ - पिता का वीसा ख़तम हो जायेगा और फिर उनको तो वापस आना ही पड़ेगा ।
मन में कुछ सवाल हैं
ये शिकायत किसने की होगी की इस दम्पत्ति के खिलाफ की वो बच्चो का शोषण कर रहे हैं ? बच्चे तो बहुत छोटे हैं ।
बच्चो की कस्टडी अगर उनके नाना नानी को मिलती हैं तो क़ानूनी रूप से वो बच्चे अपने माँ पिता के संरक्षण में नहीं रहेगे फिर भारत में आकर अगर इनके माँ पिता दुबारा भहर जाते हैं तो क्या होगा बच्चो का
Indian Copyright Rules
बहुत संभव है की फोर्स फीड करने पर बच्चे के रोने पर किसी पडोसी ने पुलिस या social care service को खबर दी हो |
ReplyDeleteक्योंकि यदि ये कानून है , तो लोग कानून व्यवस्था बनाये रखने की लिए proactive होंगे ऐसा मेरा सोचना है |
इतनी छोटे बच्चे स्कूल तो नहीं ही जाते होंगे तो वहां से तो social care service को पता लगने का सवाल नहीं उठता |
लेकिन इस के बहाने यह देखिये कि नियम और क़ानून की परवाह विदेशों में कितनी अधिक की जाती है और हमारे यहाँ ?
ReplyDeleteबडे अजीब कानून हैं.
ReplyDeleteकानूनों का अपना महत्तव हैं चाहें वे किसी भी देश के हों लेकिन किसी बात को केवल इसलिए सही या गलत मानना कि कानून या संविधान ऐसा कहता हैं,मैं इस बात से सहमत नहीं.अगर सभी ऐसा सोचते तो कई गलत कानून और फैसले बदले नहीं जाते.हमारे देश में वर्ष 2005 से पहले पति द्वारा पत्नी को एक दो थप्पड आदि मार देना कानून की नजरों में घरेलू हिंसा कि श्रेणी में नहीं आता था.अदालतों ने ऐसे केसेज में पतियों के पक्ष में फैसले भी दिए थे.लेकिन फिर भी समाज का एक वर्ग इसे गलत मानता था तभी तो कानून में बदलाव हुआ और अब तो पत्नी के प्रति अपशब्दो को भी भावनात्मत हिंसा माना जाता हैं.ये सिर्फ एक उदाहरण हैं.
ye kesa kanun hai ....kya kisi ma-pita se bachche chhin kar unhe alag aur dukhi rakhana unhe jayaj lagta hai...bharat sarkar ko is disha me sakht kadam uthane chahiye...
ReplyDeleteमेरे ख्याल से कानून बच्चों के साथ जबरदस्ती करने को लेकर है |
ReplyDeleteहम लोग भारत में बच्चों को खाना खिलने को लेकर ज्यादा ही सतर्क रहते हैं |
कई बार बच्चा न लेना चाहता हो और रोने लगे तब भी चम्मच से उसके मुह में घुसेड़ ही देते है |
नोर्वे के कानून में लगता है इस बात को बच्चों के साथ जबरदस्ती माना जाता है |
हो सकता हैं की वे मानते हो की जब बच्चा नहीं चाहता तो उसके साथ जबरदस्ती न की जाये
और जब उसे भूख लगे तब तक इंतज़ार किया जाये |
ये उस देश का मानना है | हर देश में child abuse (बाल शोषण) की अलग अलग सीमाएं तय है |
लगता है नोर्वे उसमे सबसे ऊपर है |
हम भारत में एक ही कमरे में सोते हैं, कई बार जगह कम होने की वजह से तो कई अन्य कारणों से |
छोटे बच्चे तो माँ पिता या दादी नानी के साथ सोते है | पर विदेशों में इसके लिए कई नियम है |
उनके हिसाब से बच्चे का अपना कमरा होना ही चाहिए ,
इसलिए कई बार घर लेते हुए प्रोपर्टी डीलर बता देता है, की आपके दो बच्चे हैं तो आपको इतने कमरे से कम का घर नहीं
लेना चाहिए और वो ऑफर भी नहीं करते |
तरूण जी,
ReplyDeleteवैसे तो इन दोनों उदाहरणों में बच्चों को परेशान करने जैसी कोई बात नहीं हैं लेकिन चलिए एक बार मान लेते हैं कि इन तरीकों से बच्चों को कष्ट होता हैं.तब भी क्या इसके लिए वहाँ के कानून के हिसाब से जो सजा दी गई हैं उसे सही कहा जा सकता है?
और ये सजा माँ बाप को दी जा रही हैं या बच्चों को?
इतने छोटे छोटे बच्चों को माँ बाप से अलग कर देना वो भी पूरे 18 सालों तक क्या उन पर अत्याचार नहीं हैँ?
ऐसे कानूनों से तो कानून का न होना ही अच्छा हैं.और वैसे भी कौन माँ बाप अपने बच्चों पर जानबूझकर अत्याचार करेंगे?
मैं इन कानूनों का पक्ष नैन ले रहा हूँ |
ReplyDeleteबस ये कह रहा हूँ की उन लोगों ने वाही किया जो वहां के कानून सम्मत है |
यदि कोई वहां का नागरिक भी ऐसा करता तो उसे भी यही सजा होती |
और ये नियम माँ बाप या बच्चे के परिपेक्ष में नहीं शायद बच्चे और वयस्क के परिपेक्ष में ज्यादा हैं |
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वैसे भी कौन माँ बाप अपने बच्चों पर जानबूझकर अत्याचार करेंगे?
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जब हम अपने बच्चों पर ९९ और १०० अंक लाने का दबाव डालते हैं तो क्या वो अत्याचार नहीं होता ?
उन्हें सब मेहमानों के सामने पोएम सुनने को कहकर और ठीक से न सुनाने पर डांटने को अत्याचार नहीं कहते |
बच्चों से घरों में काम करते हैं, वो अत्याचार नहीं ?(ये माँ बाप पर लागू नहीं होता)
और अंत में आरुशी को मार डालना बच्चों पर अत्याचार नहीं ?
तरुण जी,
ReplyDeleteतो मैं भी इस कानून को केवल इसलिए खराब नहीं बता रहा हूँ कि इसका इस्तेमाल भारतीय दंपत्ति के खिलाफ किया गया हैं.यदि नार्वे के अभिभावकों के साथ ऐसा होता हैं तो भी ये गलत हैं.वैसे मैं ये नहीं कह रहा कि आप इस कानून का समर्थन कर रहे है.
माँ बाप और बच्चों का संबंध बेहद भावनात्मक और खास होता हैं इसे केवल वयस्क और बच्चों के परिप्रेक्ष्य में देखना सही नहीं.
और हाँ आपने बच्चों पर अत्याचार के सही उदाहरण दिए.लेकिन शायद आपने ध्यान नहीं दिया पर मैंने 'जानबूझकर' शब्द का प्रयोग भी किया हैं.जागरुकता की कमी भी एक कारण हो सकता हैं.कई बार माँ बाप बच्चों से जबरदस्ती करते हैं लेकिन उनका उद्देश्य बच्चों को दुखी करना नहीं होता.
अच्छे नंबर लाने का दबाव इसलिए डाला जाता हैं कि कहीं बच्चा आज के कंपीटिशन युग में पिछड न जाए हालाँकि एक हद तक माँ बाप अब इस बात को समझने लगे हैं.
मोटे तौर पर ये नहीं देखा जाता कि ठीक से पोएम न सुनाने पर ही बच्चों को डाँटा जाता हो लेकिन मेहमानों के सामने कोई गलत हरकत या बात करने पर जरूर डांटा जाता हैं ताकि कहीं उसे इसकी आदत न पड जाएँ जो कि सही भी हैं ऐसे ही लंबे समय तक बिना खाएँ पीएं खेलते रहने पर फोर्स फीडिंग भी गलत नहीं और अगर ये ही अत्याचार हैं तो बच्चों को जबरदस्ती स्कूल भेजना या बीमार पडने पर कडवी दवा पिलाना या इंजेक्शन लगवाना भी अत्याचार हैं?
आरुषि जैसे मामलों के बारे में मुझे भी पता हैं बल्कि ऐसे भी उदाहरण मिल जाएँगे जब एक पिता ने अपनी अबोध बच्ची के साथ...
कहते हुए भी अच्छा नहीं लगता.
लेकिन इसका ऐसा सामान्यीकरण करना सही
नहीं कहा जा सकता.अपवाद कहाँ नहीं होते?कल को हो सकता हैं इसकी बिना पर ये कानून बन जाए जैसे की पिता द्वारा अपनी बच्ची को गोद में लेना या ललाट पर चुंबन देना यौन दुर्वयव्हार हैं?
हो सकता है जो हमरे यहाँ अपवाद हों, वो नोर्वे में अधिक हो गया हो, इसलिए इस तरह के कानून की अव्यश्य्कता पड़ी हो|
ReplyDeleteया कोई भी कारण रहा हो, हर देश अपने समाज, काल और परिस्थिति के अनुसार कानून बनता है, और उनका पालन होना चाहिए|
ये अलग बात है की हमारे देश में ही इसके अपवाद सबसे ज्यादा हैं, हम लोग ही अपने देश के सामान्य यातायात के नियमों का पालन तक नहीं करते
और नेताओं और सरकारी अफसरों का तो कहना ही क्या?
क्या अरब देशों में विदेशों से गयी महिलाएं वहां के नियम नहीं मानती?
मेरे विचार से पुलिस को अपना पक्ष समझाते हुए भारतीय दम्पति को भाषा की समस्या भी रही होगी जिससे वो अपनी बात ठीक से समझा नहीं सके
और पुलिस ने वाही किया जो कानून कहता है |
भारत सरकार वह कर ही रही है जो उसे करना चाहिए , पर मेरे विचार से यदि कोई भारतीय विदेश जा रहा है ख़ास तौर से ऐसे देश जहाँ अंग्रेजी नहीं ब्लोई जाती तो उसे भविष्य में ऐसे नियमों
को पहले से ही जान लेना चाहिए और यदि कोई कंपनी उसे भेज रही है तो ये दायित्व उस कंपनी का होना चाहिए |
बात केवल कानून की ही नहीं हैं बात ये सोचने की हैं की अगर वहाँ के सोशल डिपार्टमेंट ने इन माँ पिता के खिलाफ शिकायत की हैं { जैसा की कल खबर मे था } और वहाँ की अदालत का फैसला हैं की क्युकी पाया गया हैं की बच्चो के पास ना तो उचित कपड़े थे और ना ही खिलोने और उनके लालन पोषण में उनके माँ पिता सक्षम नहीं थे इस लिये अदालत किसी भी वजह से उनके माँ पिता को ये बच्चे नहीं देगी और बच्चो के एक अंकल { शायद मामा } अब विएश जा कर इनकी कस्टडी लेगे .
ReplyDeleteतरुण और राजन जो बात मेने पोस्ट में नहीं लिखी हैं आप दोनों सोच कर देखे बिना किसी इमोशन को बीच में लाकर कहीं ऐसा तो नहीं हैं की बच्चो के माँ पिता ने आर्थिक कारणों से ये सब होने दिया और पिछले ७ महीने से वो बच्चो के प्रति किसी भी खर्चे से मुक्त हैं और अब क्युकी उनकू भारत आना हैं तो वो बच्चो की लड़ाई में भारत सरकार की सहायता ले रहे हैं . अगर पूरा घटना कर्म कोई देखे तो केवल माँ के माता पिता का ही टी वी में उल्लेख हैं कही भी दादा दादी की कोई बात नहीं हो रही हैं
हमारे देश में कानून व्यवस्था के चलते बच्चो की सुरक्षा का कोई कानून ही नहीं हैं पर विदेशो में हैं और नोर्वे में सब से मजबूत हैं
@तरुण जी,
ReplyDeleteये बात सही हैं कि कानूनों का पालन किया जाना चाहिए ताकि व्यवस्था बनी रहे.लेकिन कौनसा कानून इसमें सक्षम हैं या नहीं इस पर तो लोगों के अलग अलग मत हो सकते हैं.तभी विभिन्न कानूनों को लेकर लगभग हर देश में बहस होती हैं जैसे कि हमारे देश में भी कई कानूनों में बदलाव पर जोर दिया जाता रहा हैं और कईयों को बदला भी गया हैं.और ऐसा नहीं हैं कि नार्वे में सभी ऐसे कानूनों का समर्थन ही कर रहे हैं.वहाँ भी इसका विरोध किया जाता रहा हैं और इसकी वजह से वहाँ बहुत से अभिभावक व्यर्थ परेशान रहते हैं.
अरब की सरकार के पास भी महिलाओं को बुर्के में रखने या अकेले ड्राइविंग न करने देने (शायद अब इसमें कुछ छूट हैं)संबंधी कानूनों को सही ठहराने के लिए अपने तर्क होंगे लेकिन ये कितने सही हैं,सब जानते हैं.इनकी वज़ह से वहाँ पर महिलाओं को होने वाली तकलीफों का सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता हैं.वैसे वहाँ भी इन कानूनों का समय समय पर विरोध होता रहा हैं.
यदि किसी कानून की वजह से नागरिकों को बेवजह परेशानी हो रही हैं तो उसको बदला जाना चाहिए.
इस बात से सहमत हूँ कि विदेश जाने से पहले वहाँ के नियम कानूनों की जानकारी अच्छी तरह ले लेनी चाहिए ताकि कोई असुविधा न हो.
रचना जी,
ReplyDeleteये आप कैसे कह सकती हैं कि वो लोग अभी तक चुप रहे हैं.
जहाँ तक मेरी जानकारी हैं बच्चों के अभिभावकों ने पहले अपने स्तर पर बच्चों को वापस पाने के प्रयास किये थे.वहाँ के अधिकारियों के सामने मिन्नतें भी की और उन्हें समझाने का प्रयास भी किया लेकिन जब बात नहीं बनी तो भारत सरकार की मदद ली गई.और भारत तो वो तब तक नहीं लौटना चाहते थे जब तक कि उन्हें बच्चे न मिल जाए.
और रचना जी दो छोटे छोटे बच्चों का ऐसा कौनसा लंबा चौडा खर्चा होता होगा कि माँ बाप उन्हें महिनों तक अलग करने के लिए ही खुद तैयार हो जाए?क्या नार्वे में रहने वाले एक भूवैज्ञानिक की माली हालत इतनी बुरी है?चलिए एक बार पिता के बारे में मान भी लेते हैं लेकिन क्या माँ ऐसा कर सकेगी?
ReplyDeleteराजन बच्चे फोस्टर केयर मे रखने का कारण ही ये था की बच्चो को पूर्ण सुविधा नहीं मिल रही थी
ReplyDeleteउनके पास सही ढंग के कपड़े नहीं थे और मैने केवल अपनी सोच को विस्तार दिया हैं आप से और तरुण से बात करके .
भारतियों में मुलभुत सुविधा और बचत का बहुत बड़ा कारण हैं की भारतीये विदेशो मे पसंद ही नहीं किये जाते हैं . लोग मानते हैं की हम पेट काट कर प्रोपर्टी खरीदने वालो में हैं . हम कम सहूलियतो में रह कर पैसा बचाते हैं और अपने बच्चो पर उतना खर्च नहीं करते हैं जो सही हैं [ बस सही और गलत की परिभाषा क्या हैं ये कौन तय करेगा ?? पता नहीं }