टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले अधिकतर धारावाहिकों में मुख्य किरदार महिलाओं के ही होते हैं। छोटे पर्दे दिखाये जाने वाले ज्यादातर धारावाहिकों में महिलाएं नई-नई कूटनीतिक चालें चलकर बड़े-बड़े घरानों को बर्बाद या आबाद कर सकती हैं। उच्च वर्ग का रहन सहन इन सीरियल्स पर इतना हावी है कि आम महिलाओं के जीवन से जुडी समस्याओं के लिए इनमें कोई जगह नजर नहीं आती। इतना ही नहीं इन धारावाहिकों में कुछ बातें तो हकीकत से बिल्कुल उलट ही नजर आती है।
इन सीरियल्स के ज्यादातर महिला किरदार कामकाजी न होकर गृहणी के रूपे में गढे जाते हैं । इन धारावाहिकों में घरों में होने वाली उठा-पटक काफी तड़क-भड़क के साथ परोसी जाती है। जिनमें महिला किरदार अहम भूमिका निभाते नजर आते है।
इन धरावाहिकों में परंपरा के नाम पर कुछ भी परोसा जा रहा है | आधारहीन कल्पनाशीलता के नाम पर इनमें कई गैर जिम्मेदाराना बातें दिखाई जाती है। हद से ज्यादा खुलापन और और सामाजिक रिश्तों की मर्यादा से खिलवाड़ को तकरीबन हर सीरियल की कहानी का हिस्सा बनाया जाता है। हैरानी की बात तो यह है कि यह सब कुछ भारतीय सभ्यता और संस्कृति के नाम पर पेश किया जा रहा है। जिसका विचारों और संस्कारों पर गहरा असर पड रहा है। बहुत से धारावाहिकों में विवाहेत्तर संबंधों को प्रमुखता से दिखाया जाता है।
अधिकतर भारतीय भाषा और साज सज्जा में दिखाये जाने वाले महिला पात्रों को व्यवहारिक स्तर पर ऐसे कुटिल, कपटी और षडयंत्रकारी रूप में टेलीविजन के पर्दे पर उतारा जा रहा है जो हकीकत के सांचे में फिट नहीं बैठते। विवाह संस्कार हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है, जबकि इन धारावाहिकों में शादी जैसे गंभीर विषय को भी मनमाने ढंग से दिखाया जाता है।
भारतीय सभ्यता ,संस्कृति और पारिवारिक मूल्यों के नाम पर दिखाई जा रही ये कहानियां परंपरागत मान्यताओं अवमूल्यन और सामाजिक सांस्कृतिक विकृति को जन्म दे रही हैं.है। दिनभर में कई बार प्रसारित होने वाले इन धारावाहिकों के दर्शक लगभग हर उम्र के लोग है। आमतौर पर सपरिवार देखे जाने वाले इन टीवी सीरियलों से परिवार का हर सदस्य चाहे छोटा हो बडा, जैसा चाहे वैसा संदेश ले रहा है।
आलीशान रहन सहन और हर वक्त सजी धजी रहने वाली महिला किरदारों की जीवन शैली एक आम औरत को हीनभावना और उग्रता जैसी सौगातें दे रही है। टीवी चैनलों पर हर वक्त छाये रहने वाले इन धारावाहिकों में संस्कारों की बातें तो बहुत की जाती है पर पात्रों की जीवन शैली और दिखाई जाने वाली घटनाओं का देखकर महसूस होता है कि इनके जरिए कुछ नई धारणाएं , नए मूल्य गढ़े जा रहे हैं।
ऐसे कार्यक्रमों के बीच में दिखाये जाने वाले विज्ञापन भी खासतौर महिलाओं को संबोधित होते हैं। कई टीवी सीरियलों के तो कथानक ही विज्ञापित प्रॉडक्ट का सर्मथन करने वाले होते हैं। बात चाहे पार्वती और तुलसी जैसे किरदारों द्धारा पहनी मंहगी साड़ियों की हो या रमोला सिकंद स्टाइल बिंदी की । इन सास बहू मार्का सीरियलों में दिखाये जाने वाले उत्पाद आसानी से बाजार में अपनी जगह बना लेते हैं। इन सीरियलों में महिला किरदारों का प्रेजेंटेशन और साज सज्जा का इतना व्यापक असर होता है कि बाजार में इन चीजों की मांग लगातार बनी रहती है।
ये महिला किरदार या तो पूरी तरह आदर्श होते हैं या नैतिकता से कोसों दूर। जिसका सीधा सा अर्थ यह है कि टीवी सीरियल्स में दिखाये जा रहे महिला चरित्र वास्तविकता से परे हैं। क्या एक आम महिला दिन भर सज-धज कर सिर्फ कुटिलता करने की योजना बनाती रहती है ..? ज़्यादातर गृहणियां ऐसा करते दिखाई जाती हैं ...जबकि हकीकत यह है घर पर रहने वाली महिलाओं को इतना काम होता है की स्वयं के लिए भी समय नहीं मिलता | कामकाजी महिलाओं की व्यस्तता तो और भी ज्यादा है ... | सच में मुझे तो ये किरदार घर-परिवार और समाज में मौजूद आम महिलाओं की छवि बिगाड़ने वाले ही लगते हैं...!
ek achchhi post haen monika
ReplyDeleteaur sahii haen aap kaa view point
har baat sae sehmat hotey huae bas ek baat aur jodna chahugi
baalika badhu jaese retrgrade serial sae ek aam jan jaagran jarur huaa haen
maere saamnae jo aadmi kapade press karta haen unsane ek din kehaa wo apni betiyon ki shaadi 21 saal ki honae kae baad karega kyuki baalika badhu wo daekhtaa hae
मैं रचना जी से सहमत नहीं हूँ ...मुझे तो बालिका वधू बाल -विवाह या बेमेल विवाह को प्रोत्साहित करता ही प्रतीत हुआ!
ReplyDeleteमेरे कमेन्ट में retrograde शब्द मिस कर गयी क्या ????
ReplyDeleteham jisae galet maantey haen wo bhi maantey haen
mae khud is serial kae virodh mae isii blog par kam sae kam 3 baar post dae chuki hun
lekin apnae press wale ki baat sun kar mujhe lagaa ki retrgradae serial sae bhi kahin haa kahin chetna aaii haen
बिल्कुल सहमत हूं | पूरे धारावाहिकों में महिला किरदार ही हावी रहती है उन्हें या तो पूरी तरह से देवी के रूप में रखा जाता है जो हर बात में त्याग की प्रतिमूर्ति बनी होती है या फिर बिल्कुल ही काले रंग में रंग किरदार जो हर समय दूसरे का बुरा ही चाहता है | कोफ़्त तो तब होती है जब लोग इन किरदारों को सच मन आम जीवन में भी उनकी तुलना करने लगते है | ऐसे दिमाग वालो के लिए ही इस तरह के धारावाहिक बनाते है |
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया पोस्ट |
ReplyDeleteबिलकुल मीठे ,धीमे जहर की तरह सबके घरो में प्रवेश कर चुके है ये कीटाणु ,और बाजार भी इन्ही की गिरफ्त में है |
हर धारावाहिक के साथ यह लिखा जाता है की हम ऐसी गलत परम्पराओ का विरोध करते है और उन्ही गलत परम्पराओ को बढ़ा चढ़ा कर दिखाते हुए उन्हें अनुसरणीय जामा पहना देते है |
आपने बिल्कुल सही तस्वीर उतार दी आपने टीवी धारावाहिको की...बहुत कम लोग ही सही सबक ले पाते हैं नही तो बुरा आचरण करने में एक पल नहीं लगता...
ReplyDeleteसार्थक पोस्ट पूरी तरह से सहमत
ReplyDeleteआपने मेरे मन की बातों को सटीक अभिव्यक्ति दी है मोनिका जी ! टी वी धारावाहिकों के स्त्री पात्र अतिरंजना के शिकार होते हैं ! इन सीरियल्स में आदर्श स्त्री पात्रों को इतना दुःख झेलते हुए दिखाते हैं कि वास्तविक जगत की नासमझ लड़कियाँ अच्छा बनने से तौबा ही करना चाहती हैं ! धारावाहिकों की अनावश्यक लम्बाई, नायिका को अच्छे मूल्यों की प्रतिस्थापना की जद्दोजहद में मिलने वाली लगातार हार और अपमान और उससे उपजा अंतहीन दुःख, हताशा और कुंठा युवा पीढ़ी को भ्रमित कर रहा है ! "दुष्ट स्त्रियाँ अपनी गलत सोच के साथ भी जीवन के सारे मज़े ले रही हैं तो अच्छा बनने से क्या फ़ायदा !" यही संदेश समाज में जा रहा है ! विचारणीय पोस्ट के लिये बहुत बहुत बधाई !
ReplyDeleteसराहनीय प्रयास |
ReplyDeleteमातृशक्ति को प्रणाम ||
Bahut sahi bat kahi apne. Is or sabhi ko gambhirta se sochne ki jarurat hai.
ReplyDeleteशब्दशः सहमती है आपसे...
ReplyDeleteबड़ी ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थति है...
कुछेक धारावाहिकों को छोड़कर अधिकांश जो दिखाते हैं,क्या सोचकर दिखाते हैं,समझ नहीं आता...
नैतिकता की सोचने वाला तो कोई निर्माता रहा नहीं अफ़सोस यह है की सेंसर नाम की भी कोई चीज यहाँ नहीं है...
इन धीमे जहर द्वारा संस्कृति का ह्रास तो हो ही रहा है,लोगों की संवेदनशीलता भी कुंद पड़ती जा रही है...