एक महिला डॉक्टर ने आत्महत्या कर ली अपने सुसाइड नोट में उसने कारण दिया की उसका पति "गे" हैं और इस वजह से उसका वैवाहिक जीवन कभी सही नहीं रहा। ५ साल के वैवाहिक जीवन के बाद भी वो सहवास सुख से वंचित हैं। उसका ये भी कहना हैं की जब उसने अपने पति से पूछा तो उसको प्रताड़ित किया गया और उस से और उसके परिवार से दहेज़ माँगा जाने लगा। उस ने अपना पूरा पत्र फेसबुक पर भी पोस्ट किया।
कल का पूरा दिन सारा सोशल मीडिया इसी बात से गर्म गर्म बहस में उलझा रहा। बहस ये होती रही की " गे " पति की वजह से एक स्त्री का जीवन नष्ट हो गया।या बहस ये होती रही की " गे " होने को अपराध क्यों मानते हैं लोग और क्यों नहीं "गे " लोग अपनी बात अपने परिवार से कह देते हैं और क्यों किसी स्त्री का जीवन नष्ट करते हैं। और बहस का तीसरा मुद्दा ये भी रहा की समाज इतना असहिष्णु क्यों हैं और क्यों नहीं लोगो को अपनी पसंद से जीवन जीने देता हैं।
सवाल जिस पर बहस नहीं हुई
क्या किसी पति ने कभी आत्महत्या की हैं अपनी पत्नी के "लिस्बन " होने के कारण ?
क्या स्त्रियां "लिस्बन " होती ही नहीं हैं ?
एक नौकरी करती प्रोफेशनल क्वालिफाइड डॉक्टर महिला सुसाइड कर सकती हैं अपने पति के " गे " होने के कारण पर ये जानने के बाद भी की उसका पति "गे " हैं वो उससे अलग नहीं होना चाहती हैं क्युकी उसको प्यार करती हैं। क्या ये प्यार हैं ? अगर प्यार हैं तो समझ कर और "गे " होने को बीमारी ना मान कर उसका इलाज ना करके अपने पति से अलग क्यों नहीं हुई ?
अगर महिला आर्थिक रूप से सक्षम थी तो इतना भय किस बात का डाइवोर्स की मांग करने से।
स्त्री पुरुष के प्रति समाज का रव्या हमेशा से दोहरा रहा हैं और इस बात पर चर्चा ही नहीं होती हैं।
आज से नहीं सदियों से अगर स्त्री प्रजनन में अक्षम है तो पति तुरंत दूसरा विवाह कर लेता हैं लेकिन अगर पुरुष प्रजनन में अक्षम हैं तो स्त्री को निभाना होता हैं
इसी प्रकार से अगर पुरुष सहवास के सुख से वंचित हैं विवाह में तो कई बार पत्नी की बिना मर्जी के भी उस से सम्बन्ध बनाता हैं { आज कल ये बलात्कार की क्षेणी में आता हैं } लेकिन स्त्री के लिये ऐसा कुछ भी नहीं हैं।
इसी विभेद के चलते स्त्रियां कभी मानसिक रूप से सशक्त नहीं हो पाती हैं उनके लिये शादी आज भी एक "सामाजिक सुरक्षा कवच " हैं जिसको वो पहन कर खुश होती हैं।
कभी उन कारण पर भी बात होनी चाहिये जहां एक लड़का "गे " हो सकता हैं पर एक लड़की " लिस्बन " नहीं होती हैं।
प्रकृति ने दोनों को एक सा बनाया हैं पर समाज ने दोनों को बड़े होने के एक से अवसर प्रदान नहीं किये हैं।
कल का पूरा दिन सारा सोशल मीडिया इसी बात से गर्म गर्म बहस में उलझा रहा। बहस ये होती रही की " गे " पति की वजह से एक स्त्री का जीवन नष्ट हो गया।या बहस ये होती रही की " गे " होने को अपराध क्यों मानते हैं लोग और क्यों नहीं "गे " लोग अपनी बात अपने परिवार से कह देते हैं और क्यों किसी स्त्री का जीवन नष्ट करते हैं। और बहस का तीसरा मुद्दा ये भी रहा की समाज इतना असहिष्णु क्यों हैं और क्यों नहीं लोगो को अपनी पसंद से जीवन जीने देता हैं।
सवाल जिस पर बहस नहीं हुई
क्या किसी पति ने कभी आत्महत्या की हैं अपनी पत्नी के "लिस्बन " होने के कारण ?
क्या स्त्रियां "लिस्बन " होती ही नहीं हैं ?
एक नौकरी करती प्रोफेशनल क्वालिफाइड डॉक्टर महिला सुसाइड कर सकती हैं अपने पति के " गे " होने के कारण पर ये जानने के बाद भी की उसका पति "गे " हैं वो उससे अलग नहीं होना चाहती हैं क्युकी उसको प्यार करती हैं। क्या ये प्यार हैं ? अगर प्यार हैं तो समझ कर और "गे " होने को बीमारी ना मान कर उसका इलाज ना करके अपने पति से अलग क्यों नहीं हुई ?
अगर महिला आर्थिक रूप से सक्षम थी तो इतना भय किस बात का डाइवोर्स की मांग करने से।
स्त्री पुरुष के प्रति समाज का रव्या हमेशा से दोहरा रहा हैं और इस बात पर चर्चा ही नहीं होती हैं।
आज से नहीं सदियों से अगर स्त्री प्रजनन में अक्षम है तो पति तुरंत दूसरा विवाह कर लेता हैं लेकिन अगर पुरुष प्रजनन में अक्षम हैं तो स्त्री को निभाना होता हैं
इसी प्रकार से अगर पुरुष सहवास के सुख से वंचित हैं विवाह में तो कई बार पत्नी की बिना मर्जी के भी उस से सम्बन्ध बनाता हैं { आज कल ये बलात्कार की क्षेणी में आता हैं } लेकिन स्त्री के लिये ऐसा कुछ भी नहीं हैं।
इसी विभेद के चलते स्त्रियां कभी मानसिक रूप से सशक्त नहीं हो पाती हैं उनके लिये शादी आज भी एक "सामाजिक सुरक्षा कवच " हैं जिसको वो पहन कर खुश होती हैं।
कभी उन कारण पर भी बात होनी चाहिये जहां एक लड़का "गे " हो सकता हैं पर एक लड़की " लिस्बन " नहीं होती हैं।
प्रकृति ने दोनों को एक सा बनाया हैं पर समाज ने दोनों को बड़े होने के एक से अवसर प्रदान नहीं किये हैं।
बिलकुल आपसे सहमत हूँ। औरत को अपनी दशा और दिशा पर फिर से विचार करने की जरूरत है उसे सक्षम होना है न की पुरुष के हाथों की कठपुतली बनाना है। जब तक वो इस बात को गंभीरता से नहीं सोचेगी समाज नहीं बदलेगा।पुरुष उसे सिर्फ अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करता हैचाहे घर परिवसर या बाजार हो। हाँ अप वाद हो सकते हैं।
ReplyDeleteबिलकुल आपसे सहमत हूँ। औरत को अपनी दशा और दिशा पर फिर से विचार करने की जरूरत है उसे सक्षम होना है न की पुरुष के हाथों की कठपुतली बनाना है। जब तक वो इस बात को गंभीरता से नहीं सोचेगी समाज नहीं बदलेगा।पुरुष उसे सिर्फ अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करता हैचाहे घर परिवसर या बाजार हो। हाँ अप वाद हो सकते हैं।
ReplyDeleteहमें अपनी सोच को परिवर्तित करना होगा - जब आज हम क़ानून की दृष्टि से नए नए संबंधों को परिभाषित करके उनको कानूनी जामा भले ही पहनाया जाने लगा है लेकिन सामाजिक रूप से उसको स्वीकार करने का साहस कितने दिखा पाते हैं ? इसके लिए जरूरी है कि अपने को मानसिक रूप से दृढ बना कर निर्णय लें। अगर दूसरा साहस नहीं दिखा सकता है तो आप दिखलाइये। आत्महत्या इसका निदान नहीं है। इन सबसे पहले तो हमें अपनी सोच बदलनी होगी कि परिवार के विखंडन का कारन कुछ भी हो उसके लिए औरत को दोषी ठहरना बंद करें। उसकी भावनाओं का सम्मान करें।
ReplyDeleteसमग्र जीवन शैली और सामाजिक बोध से वंचित रहने की इतनी बड़ी कीमत चुका कर वे सफलता की दृष्टि से दुर्लभ प्रमाणपत्र हासिल करती/करते हैं. वे देश की उत्पादन प्रणाली को कायम रखने के लिए अपनी योग्यता और प्रतिभा समर्पित करते हैं, लेकिन अपनी जिंदगी की छोटी-छोटी समस्या का सामना होते ही वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं. कारण यह कि इन समस्याओं का सामना करने की शिक्षा उनको नहीं मिली होती.
ReplyDeleteसमग्र व्यक्तित्व का निर्माण करने का जो दायित्व किसी समय शिक्षा व्यवस्था का हुआ करता था, उसे नवउदारवादी दौर में मानव संसाधन तैयार करने तक सीमित कर दिया गया. इतिहास, समाज शास्त्र और साहित्य को त्याज्य विषय बना दिया गया. ऐसे में यह तथ्य किसी को चौंकाता नहीं कि जिस बंगलूरू के वैभव का बखान करते हुए थॉमस फ्रीडमैन ने दुनिया को समतल साबित करने के लिए उदाहरण की तरह इस्तेमाल किया था, उस शहर के लाखों की पैकेज वाले प्रोफेशनल नौजवान बड़ी संख्या में आत्महत्या करते हैं. बंगलूरू भारत की आत्महत्या सूची में सबसे ऊपर है.
हमारे यहाँ आर्थिक विकास और सांस्कृतिक पतनशीलता का जो द्वैत है, उसका ही परिणाम ऐसे प्रतिभाशाली लड़के-लड़कियों का जिंदगी से हार मान लेना. विकास की अंधी दौड़ के पैरोकार इन हत्याओं के गुनाहगार हैं.
Ab aisa lagne laga hai ki yaha sambhav hee naheen ki samaj me stree purush me samanta sthapit ho sake.eeahwar ne purush ko shreerik roop se aadhik saksham banaya or yahee antim karan bana samaaj ke purush pradhan hone ka.
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