नारी सशक्तिकरण का मतलब नारी को सशक्त करना नहीं हैं ।
नारी सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट का मतलब फेमिनिस्म भी नहीं हैं ।
नारी सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट का मतलब पुरूष की नक़ल करना भी नहीं हैं , ये सब महज लोगो के दिमाग बसी भ्रान्तियाँ हैं ।
नारी सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट का बहुत सीधा अर्थ हैं की नारी और पुरूष इस दुनिया मे बराबर हैं और ये बराबरी उन्हे प्रकृति से मिली है। नारी सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट के तहत कोई भी नारी किसी भी पुरूष से कुछ नहीं चाहती और ना समाज से कुछ चाहती हैं क्योकि वह अस्वीकार करती हैं की पुरूष उसका "मालिक " हैं । ये कोई चुनौती नहीं हैं , और ये कोई सत्ता की उथल पुथल भी नहीं हैं ये "एक जाग्रति हैं " की नारी और पुरूष दोनो इंसान हैं और दोनों समान अधिकार रखते हैं समाज मे ।
बहुत से लोग "सशक्तिकरण" से ये समझते हैं की नारी को कमजोर से शक्तिशाली बनना हैं नहीं ये विचार धारा ही ग़लत हैं । "सशक्तिकरण " का अर्थ हैं की जो हमारा मूलभूत अधिकार हैं यानी सामाजिक व्यवस्था मे बराबरी की हिस्सेदारी वह हमे मिलना चाहिये ।
कोई भी नारी जो "नारी सशक्तिकरण " को मानती हैं वह पुरूष से सामजिक बराबरी का अभियान चला रही हैं । अभियान कि हम और आप {यानि पुरूष } दुनिया मे ५० % के भागीदार हैं सो लिंग भेद के आधार पर कामो / अधिकारों का , नियमो का बटवारा ना करे ।
नारी पुरूष एक दूसरे के पूरक हैं , इस सन्दर्भ मे उसका कोई औचित्य नहीं हैं क्योकि वह केवल नारी - पुरूष के वैवाहिक रिश्ते की परिभाषा हैं जबकि नारी -पुरूष और भी बहुत से रिश्तो मे बंधे होते हैं जहाँ लिंग भेद किया जाता हैं ।
"नारी सशक्तिकरण " पुरूष को उसके आसन से हिलाने की कोई पहल नहीं हैं अपितु "नारी सशक्तिकरण " सोच हैं की हम तो बराबर ही हैं सो हमे आप से कुछ इसलिये नहीं चाहिये की हम महिला हैं । नहीं चाहिये हमे कोई इसी "लाइन " जिस मे खडा करके आप हमारे किये हुए कामो की तारीफ करके कहे "कि बहुत सुंदर कम किया हैं और आप इस पुरूस्कार की हकदार हैं क्योकि हम नारी को आगे बढ़ाना चाहते हैं " । ये हमारे मूल भूत अधिकारों का हनन हैं ।
"नारी सशक्तिकरण " की समर्थक नारियाँ किसी की आँख की किरकिरी नहीं हैं क्योकि वह नारी और पुरूष को अलग अलग इकाई मानती हैं , वह पुरूष को मालिक ही नहीं मानती इसलिये वह अपने घर को कुरुक्षेत्र ना मान कर अपना कर्म युद्ध मानती हैं ।
"नारी सशक्तिकरण " की समर्थक महिला चाहती हैं की समाज से ये सोच हो की " जो पुरूष के लिये सही वही नारी के लिये सही हैं ।
"नारी सशक्तिकरण " के लिये जो भी अभियान चलाये जा रहे हैं वह ना तो पुरूष विरोधी हैं और नाही नारी समर्थक । वह सारे अभियान केवल मूलभूत अधिकारों को दुबारा से "बराबरी " से बांटने का प्रयास हैं ।
"नारी सशक्तिकरण " को मानने वाले ये जानते हैं की इस विचार धारा को मानने वाली नारियाँ फेमिनिस्म का मतलब ये मानती हैं की हम जो कर रहे हैं या जो भी करते रहे हैं हमे उसको छोड़ कर आगे नहीं बढ़ना हैं अपितु हमे अपनी ताकत को बरकरार रखते हुए अपने को और सक्षम बनाना हैं ताकि हम हर वह काम कर सके जो हम चाहे । हमे इस लिये ना रोका जाये क्युकी हम नारी हैं
और हाँ वो लोग जो बार बार मुझे नारीवादी कहते हैं उनकी सूचना हेतु बता दूँ मैने नारीवाद पर कोई किताब कभी नहीं पढी हैं और ना पढुगी । मै नारी पुरुष समानता जो वस्तुत नारी सशक्तिकरण हैं की पुरोधा हूँ सो बार बार मुझे नारीवादी कह कर अपने नारीवाद के ज्ञान का मखोलिकरण ना करे ।
गलत का प्रतिकार करना नारीवाद नहीं हैं अगर आप को ये नारीवाद लगता हैं तो ये महज आप का अल्प ज्ञान हैं । नारीवाद/फेमिनिस्जिम से समय बहुत आगे जा चुका हैं ।
रचना जी,
ReplyDeleteकिसी भी विचारधारा में वाद लगा देने का मतलब ही है उससे सम्बन्धित. इस तरह नारी से सम्बन्धित जो भी बात होगी वो नारीवादी होगी. जो लोग ये मानते हैं कि नारी की बात अलग से करने की ज़रूरत नहीं, जो जैसा है, उसे वैसा ही होना चाहिए, किसी परिवर्तन की कोई ज़रूरत नहीं, सिर्फ़ वही नारीवाद का विरोध करते हैं. नारी-सशक्तीकरण आज का सच है, ये बात सौ प्रतिशत सही है, पर इसके मूल में नारीवाद ही है. उसे कभी भी नकारा नहीं जा सकता. क्योंकि नारी-सशक्तीकरण यदि एक प्रक्रिया है, जो कि अनिवार्य है, तो इसके पीछे का सिद्धांत नारीवाद ही है. यदि हम जो नारी-सशक्तीकरण के समर्थक हैं वही नारीवाद को इस तरह नकारेंगे, तो ना हम औरतों की बात को सही ढंग से समझ पायेंगे और ना किसी के सामने रख पायेंगे.
आपने इस पोस्ट में जिस तरह से कहा है कि आपको नारीवादी ना समझा जाए, उससे लगता है कि आप नारीवाद को एक हेय विचारधारा मानती हैं, जबकि आप खुद ही कह रही हैं कि आपने इस विषय से सम्बन्धित कोई पुस्तक कभी नहीं पढ़ी.
'गलत का प्रतिकार करना नारीवाद नहीं है' ये बात ही सिरे से गलत है. क्योंकि 'नारी पुरुष के सामान है इसलिए उसके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करना गलत है', ये बात सबसे पहले नारीवादियों ने ही उठायी थी.
भारत में तथा सम्पूर्ण विश्व में नारी-सशक्तीकरण के लिए किये जा रहे प्रयास नारीवादी आंदोलन की ही देन हैं. जहाँ नारी-सशक्तीकरण महिलाओं के आत्मविकास और आत्मजागृति की बात करता है, वहीं नारीवाद यह बताता है कि ऐसा क्यों और किस प्रकार करना चाहिए. एक सिद्धांत है, दूसरा व्यवहार. मुझे समझ में नहीं आता कि आप इसे अलग करके क्यों देखना चाहती हैं? आप ये सिद्ध करना चाहती हैं कि फेमिनिज्म एक पुरानी और प्रतिगामी अवधारणा है, इसलिए आप फेमिनिस्ट नहीं हैं. जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है. फेमिनिज्म आज भी एक प्रासंगिक अवधारणा है. वूमेन स्टडीज़ की शुरुआत ही फेमिनिज़्म से होती है. हाँ, ये बात दूसरी है कि ये एक अकादमिक विषय है और जनसाधारण को इसके विषय में समझाना मुश्किल है.
मैं मुक्ति से सहमत हूँ।
ReplyDeleteयदि आप बराबरी का स्थान नारियों के लिए चाहती हैं तो पुरुषों को तो अपने स्थान से हिलाना ही पड़ेगा।
अपने लिए बराबर का अधिकार मांगने का अर्थ ही है जो लोग अनुचित अधिकारों का प्रयोग कर रहे हैं उन्हें अपने स्थान से च्युत कर देना।
यह मामूली संघर्ष नहीं है। यह दुनिया को बदल डालने का संघर्ष है। यह वही संघर्ष है जिस की बात भगतसिंह किया करते थे, दुनिया से हर प्रकार के शोषण की समाप्ति।
rachna ji bilkul sahi kah rahi hain aap,nari sashaktikaran ka purushon se kya matlab ye to keval nari ko nari ki bhooli bisri shakti yad dilane ka abhiyan hai...
ReplyDeletebilkul sahi likha hai aapne .purush ko chunauti dena nahi balki uski satta ko aswikar karna hi nari ka sashakt hona hai.
ReplyDeleteरचना जी
ReplyDeleteअपने देश में बराबरी की बात करना तो काफी दूर की बात है , बराबरी का मसला तो शहरों में रहनेवाली और पढ़ी लिखी कुछ प्रतिशत महिलाओ के लिए है | अभी तो ये हाल है की नारी को जन्म लेने का भी अधिकार जिस देश में ना हो वहा लोगो को पहले ये समझना होगा की नारी भी मनुष्य है लोग नारी के साथ मानव की तरह व्यवहार करना सिखा ले | पहले उसे मनुष्य तो मान ले बराबरी का दर्जा तो बहुर दूर की बात है |
रही बात शब्दों के लेकर उपहास उड़ने वालो की तो ऐसे लोगो की परवाह नहीं करनी चाहिए कुछ लोगो की सोच से अच्छा काम करने वालो को कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए |
प्रिय मुक्ति
ReplyDeleteपोस्ट को पूरा करने का शुक्रिया
आप नारीवाद को एक हेय विचारधारा मानती हैं,
मेरे लेखो मे किसी भी धरा जिक्र नहीं होता हैं और मैने किसी भी धरा को सही या गलत नहीं कहा हैं कहीं भी .
हां आप के लेख की ये पंक्तियाँ " ये एक अकादमिक विषय है " अपने लेख मे जोड़ना चाहुगी
जो लोग यहाँ लिखते हैं ख़ास कर वो महिला जिनको संसार को घर से बाहर निकल कर देखने का मौका नहीं मिला हैं उनके लिये नारी-सशक्तीकरण की आवाज ब्लॉग के जरिये पहुच रही हैं
साधारण शब्दों मे कहना उनके लिये जरुरी हैं ना की आक्दिमिकता के तकाजे से लिखना . और नारीवादी का सीधा अर्थ जो लोगो की समझ मे आता हैं वो हैं खाना ना बनाना , सिगरेट शराब पीना , गाली देना इत्यादि . मेरा मानना हैं नारी को हर चीज़ करना का अधिकार हैं इस लिये नहीं क्युकी पुरुष उसको करता हैं बल्कि इस लिये क्युकी वो अधिकार हैं समानता का .
रचना जी,
ReplyDeleteहर एक विचारधारा में कुछ ऐसी बातें होती हैं, जिन्हें सामाज सही नहीं मानता है. और जो विचारधारा समाज के ढाँचे में ही बदलाव की बात करती हो, उसमें तो लोग लाख मीन-मेख निकालेंगे ही क्योंकि इससे सबसे अधिक भय उनलोगों को लगता है, जो समाज की पदासोपानीय व्यवस्था में सबसे ऊपर बैठे हैं. उन्हें लगता है कि समाज की व्यवस्था में बदलाव होने पर सबसे पहले वही धरातल पर आ जायेंगे. इसीलिये बदलाव की बात करने वाली हर विचारधारा को वो जी भरकर कोसते हैं, भला-बुरा कहते हैं. वो हमेशा उस बात का समर्थन करते हैं, जो बिना उनकी स्थिति को हाने पहुँचाए वंचित वर्गों को थोड़ी-बहुत रियायत दे दे.
बात थोड़ी अकादमीय ज़रूर है, पर समझ में आने वाली है. पुरुषों की अपेक्षा नारी की स्थिति हमेशा से हर देश-काल में दोयम रही है, जो भी विचारधारा या व्यक्ति इस स्थिति को चुनौती देता है, उसे समाज के सबसे ऊंचे पायदान पर बैठा सुविधाभोगी वर्ग तरह-तरह की उपाधियाँ दे डालता है. ये इस बात का संकेत है कि वो डरते हैं. नहीं तो हम नारी ब्लॉग पर क्या कहते हैं? किस विषय पर बात करते हैं, इससे उन्हें क्या लेना-देना. पर वो इल्जाम लगाते हैं क्योंकि उन्हें इस विचार से ही डर लगता है कि कहीं उनकी स्थिति बदल ना जाए, उन्हें हमेशा वही लोग पसंद आते हैं, जो सामाजिक व्यवस्था के अनुसार 'एक आदर्श बहु, बेटी, माँ या पत्नी' बनी रहे. अगर कोई औरत इन सारे सबंधों से अलग अपना अस्तित्व सिद्ध करना चाहती है, तो वो बुरी औरत कहलाती है.
ये समझने वाली बात है कि पुरुष भी 'भाई, बेटा, बाप या पति' होता है, पर उसके संबंधों को महिमामंडित नहीं किया जाता, सिर्फ़ औरतों के ही इन रूपों को बार-बार सामने रखा जाता है.
सीधी सी बात पितृसत्ता को चुनौती देने वाली कोई औरत उन्हें पसंद नहीं आती, तो उसे 'नारीवादी' कहकर समाज में उसकी छवि एक बुरी औरत की बनाना चाहते हैं.
तो कहने दीजिए उन्हें. सबसे ज्यादा वही विरोध करेंगे जिन्हें डर लगता है.
.
ReplyDelete.
.
रचना जी,
सहमत हूँ आपसे...
सही मायने में नारीवाद बराबरी की सोच का ही होना चाहिये...
" न तो नारी होने के कारण मुझे कोई Concessions या विशेष अधिकार चाहिये समाज से... और न ही नारी होने के कारण मैं किसी भी चीज से वंचित रखी जाऊँ जो मेरी ही परिस्थिति में रह रहे पुरूष को सहजता से सुलभ है... मैं उतना ही Loudly या Softly अपने को अभिव्यक्त करूंगी जैसे हर कोई करता है... न कोई मुझे देवी माने और न कोई सेविका ही..."
मेरी निगाह में यही सही नारीवाद है।
...
praveen thanks
ReplyDeleteyou said what i always believe and say that we dont need any thing except equality .
नारीवाद कोई गाली नहीं है। नारी सशक्तिकरण भी सही है और नारीवाद भी। किसी भी उस वाद, जिससे यथास्थिति में बदलाव आए, को यथास्थिति में सुविधाभोगी कभी पसन्द नहीं करेगा। चाहे वह आर्यसमाज हो, साम्यवाद हो या नारीवाद।
ReplyDeleteमैं मूलरूप से कम्युनिज्म में विश्वास नहीं करती किन्तु यह समझ सकती हूँ कि वह क्यों है और उसे मानने वालों के लिए उसका क्या महत्व है। न जाने क्यों मुझे बचपन में सुना यह जुमला बार बार याद आता है, 'वह साला तो कम्युनिस्ट हो गया!'
जो भी अधिकारहीन अपना अधिकार माँगेगा वह अकेले अधिकारों का आनन्द लेने वाले को बुरा ही लगेगा व गाली का पात्र भी लगेगा।
नारीवाद का भी अर्थ मेरे लिए पुरुष विरोधी होना नहीं है, केवल अपने सहज अधिकारों को पाने व उनका जब चाहे, जहाँ चाहे, जितना मर्जी, सहज उपभोग करने का अधिकार पाना है।
किन्तु जब साधन जैसे भूमि, जल आदि सीमित होंगे तो मेरे / स्त्रियों के अपने अधिकार पाने का स्वाभाविक प्रभाव पुरुषों के वर्चस्व में कमी आने के साथ साथ उनके अधिकारों व उपभोग करने के सामान में कमी के रूप में सामने आएगा। स्वाभाविक है कि वह व अपनी कीमत पर भी केवल उसका भला चाहने वाली स्त्री जैसे उसकी माँ तिलमिलाएँगे ही। क्योंकि इस सशक्तिकरण का इस उम्र में उसे तो कम ही लाभ मिलेगा इसलिए भी वह इसका विरोध कर सकती है।
सो मुझे लगता है कि नारी सशक्तिकरण व नारीवाद दोनो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हम एक के बिना दूसरे में शायद ही सफल हो सकें।
'जो लोग यहाँ लिखते हैं ख़ास कर वो महिला जिनको संसार को घर से बाहर निकल कर देखने का मौका नहीं मिला हैं' ( यह बात मुझ पर लागू होती है। और ब्लॉग संसार में आकर अपने जैसा सोचने वालियों से मिलना या उन्हें पढ़ना बहुत सकून देता है।) उनके लिये नारी-सशक्तीकरण की आवाज ब्लॉग के जरिये पहुच रही हैं'
बढ़िया काम हो रहा है और होता रहे। बहस भी होनी चाहिए किन्तु केवल विरोध के लिए विरोध करने वालों का कुछ नहीं किया जा सकता।
घुघूती बासूती
नारीवाद कोई गाली नहीं है। नारी सशक्तिकरण भी सही है और नारीवाद भी। किसी भी उस वाद, जिससे यथास्थिति में बदलाव आए, को यथास्थिति में सुविधाभोगी कभी पसन्द नहीं करेगा। चाहे वह आर्यसमाज हो, साम्यवाद हो या नारीवाद।
ReplyDeleteमैं मूलरूप से कम्युनिज्म में विश्वास नहीं करती किन्तु यह समझ सकती हूँ कि वह क्यों है और उसे मानने वालों के लिए उसका क्या महत्व है। न जाने क्यों मुझे बचपन में सुना यह जुमला बार बार याद आता है, वह साला तो कम्युनिस्ट हो गया!
जो भी अधिकारहीन अपना अधिकार माँगेगा वह अकेले अधिकारों का आनन्द लेने वाले को बुरा ही लगेगा व गाली का पात्र भी लगेगा।
नारीवाद का भी अर्थ मेरे लिए पुरुष विरोधी होना नहीं है, केवल अपने सहज अधिकारों को पाने व उनका जब चाहे, जहाँ चाहे, जितना मर्जी सहज उपभोग करने का अधिकार पाना है।
किन्तु जब साधन जैसे भूमि, जल आदि सीमित होंगे तो मेरे / स्त्रियों के अपने अधिकार पाने का स्वाभाविक प्रभाव पुरुषों के वर्चस्व में कमी आने के साथ साथ उनके अधिकारों व उपभोग करने के सामान में कमी के रूप में सामने आएगा। स्वाभाविक है कि वह व अपनी कीमत पर भी केवल उसका भला चाहने वाली स्त्री जैसे उसकी माँ तिलमिलाएँगे ही। क्योंकि इस सशक्तिकरण का इस उम्र में उसे तो कम ही लाभ मिलेगा इसलिए भी वह इसका विरोध कर सकती है।
सो मुझे लगता है कि नारी सशक्तिकरण व नारीवाद दोनो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हम एक के बिना दूसरे में शायद ही सफल हो सकें।
'जो लोग यहाँ लिखते हैं ख़ास कर वो महिला जिनको संसार को घर से बाहर निकल कर देखने का मौका नहीं मिला हैं' ( यह बात मुझ पर लागू होती है। और ब्लॉग संसार में आकर अपने जैसा सोचने वालियों से मिलना या उन्हें पढ़ना बहुत सकून देता है।) उनके लिये नारी-सशक्तीकरण की आवाज ब्लॉग के जरिये पहुच रही हैं
बढ़िया काम हो रहा है और होता रहे। बहस भी होनी चाहिए किन्तु केवल विरोध के लिए विरोध करने वालों का कुछ नहीं किया जा सकता।
घुघूती बासूती
नारीवाद कोई गाली नहीं है। नारी सशक्तिकरण भी सही है और नारीवाद भी। किसी भी उस वाद, जिससे यथास्थिति में बदलाव आए, को यथास्थिति में सुविधाभोगी कभी पसन्द नहीं करेगा। चाहे वह आर्यसमाज हो, साम्यवाद हो या नारीवाद।
ReplyDeleteमैं मूलरूप से कम्युनिज्म में विश्वास नहीं करती किन्तु यह समझ सकती हूँ कि वह क्यों है और उसे मानने वालों के लिए उसका क्या महत्व है। न जाने क्यों मुझे बचपन में सुना यह जुमला बार बार याद आता है, 'वह साला तो कम्युनिस्ट हो गया!'
जो भी अधिकारहीन अपना अधिकार माँगेगा वह अकेले अधिकारों का आनन्द लेने वाले को बुरा ही लगेगा व गाली का पात्र भी लगेगा।
नारीवाद का भी अर्थ मेरे लिए पुरुष विरोधी होना नहीं है, केवल अपने सहज अधिकारों को पाने व उनका जब चाहे, जहाँ चाहे, जितना मर्जी सहज उपभोग करने का अधिकार पाना है।
घुघूती बासूती
किन्तु जब साधन जैसे भूमि, जल आदि सीमित होंगे तो मेरे / स्त्रियों के अपने अधिकार पाने का स्वाभाविक प्रभाव पुरुषों के वर्चस्व में कमी आने के साथ साथ उनके अधिकारों व उपभोग करने के सामान में कमी के रूप में सामने आएगा। स्वाभाविक है कि वह व अपनी कीमत पर भी केवल उसका भला चाहने वाली स्त्री जैसे उसकी माँ तिलमिलाएँगे ही। क्योंकि इस सशक्तिकरण का इस उम्र में उसे तो कम ही लाभ मिलेगा इसलिए भी वह इसका विरोध कर सकती है।
ReplyDeleteसो मुझे लगता है कि नारी सशक्तिकरण व नारीवाद दोनो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हम एक के बिना दूसरे में शायद ही सफल हो सकें।
'जो लोग यहाँ लिखते हैं ख़ास कर वो महिला जिनको संसार को घर से बाहर निकल कर देखने का मौका नहीं मिला हैं' ( यह बात मुझ पर लागू होती है। और ब्लॉग संसार में आकर अपने जैसा सोचने वालियों से मिलना या उन्हें पढ़ना बहुत सकून देता है।) उनके लिये नारी-सशक्तीकरण की आवाज ब्लॉग के जरिये पहुच रही हैं
बढ़िया काम हो रहा है और होता रहे। बहस भी होनी चाहिए किन्तु केवल विरोध के लिए विरोध करने वालों का कुछ नहीं किया जा सकता।
घुघूती बासूती
Rachana ji,
ReplyDeleteAapke aalekh ka shabd shabd naari ko purush ke baraabar hone ki baat karata hai! Jo naari ka adhikaar hai!
Aapse shamat hun!
-Gyanchand Marmagya
प्रिय रचनाजी ,
ReplyDelete*नारीवाद या नारी सशक्तिकरण*मतलब आज की नारीशक्ति चैतन्य-जागरूक -शिक्षिता होकर अपने को पहचान रही है.
सदियों से अनेक प्रकार से जिसे हाशिये में कर दिया जाता रहा ,उसकी आवाज को दबा दिया जाता रहा है, शोषित होती रही है.
वह समाज में ,परिवार में अपनी शक्ति पहचान रही है ,बोलने लगी है,उठ खड़ी हुई है.
तो इसको ही लोग अनेक प्रकार से अपने मंतव्य प्रगट करने लगे हैं.
आज की महिला शक्ति तो केवल अपना वो अधिकार लेना चाहती है-अपना हक़ प्राप्त करने में लग गई है जिसे दूसरे लोगों ने उससे छीन रखा है .
दूसरों से कोई तुलना नहीं न दूसरों के अधिकारों से उसको कुछ लेना है.वो दूसरों की इन सब बातों की परवाह क्यों करे.सहजता से निर्द्वंद होकर आगे बढ़ें,अपना लक्ष्य प्राप्त करें.
समाज में-कानून में स्त्री-पुरुष को समान अधिकार मिले हैं,इसकी जानकारी सबको है.
*नारी---सशक्तिकरण*
मैने जला लिया है एक नन्हा सा दीपक अपने ह्रदय में,
चारों ओर छाया अंधकार चुपके से जा छिपा किसी गुफा में ,
धो डाले मैने सारे अभिशाप अपशकुन अशिक्षा के ताने-बाने,
पीछे छोड़ी सारी बेचारी-लाचारी,कर्म-बल है जो अब साथ आया.
अलका मधुसूदन पटेल ,लेखिका-साहित्यकार
अपने ब्लॉग की एक टीप में लिंकित पोस्ट पढ़ने के लिए आया और यह पोस्ट देखकर यहीं रुका रह गया . पढ़ा . जो कहने का साहस जुटाता उसे मुक्ति जी कह चुकी हैं , घुघूती जी ने कहा है , सो अक्षरशः उनसे सहमत हूँ !
ReplyDeleteदूसरी बात कि जब भी मैंने आपको नारीवाद की ध्वजावाहिका ( साथ में नारी मुद्दों को रखने जैसी बात भी कहा हूँ , तथापि ....) जैसा कुछ कहा है , तो उसका आशय कहीं भी नकारात्मक नहीं था - वाद संबंधी बात को लेकर - , अब यही कह सकता हूँ कि आगे नहीं कहूंगा ! आभार !
नारी ब्लॉग का मैं नियमित पाठक हूँ हाँ अक्सर टिप्पणियां नहीं करता अगर जरूरी नहीं लगतीं की जो कहना है कहा जा चुका होता है .जहां तक मैंने पढ़ा है नारी ब्लॉग को और जो समझ बनी है मेरी किसी दृष्टि तक पहुँचने में तो यह कहूँगा की इस पोस्ट में इस ब्लॉग का निचोड़ आ गया है .और इस बारे में शायद यह अब तक की सब से गंभीर पोस्ट है .इस पोस्ट पर रचना जी सहित मुक्ति जी और घुघूती जी के साथ साथ दिनेश जी सहित सभी ने बहुत सार्थक बातें कहीं हैं . हो सकता है कहीं परस्पर कुछ विरोधी सुर हों पर हैं एक ही मुकाम के लिए .बराबरी का मुकाम ,परस्पर स्नेह प्रेम और संपूरकता का . समाज की समरसता की राह का सबसे बड़ा रोड़ा ' पितृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था ' है और निशाने पर भी वही हो .मेरे हिसाब से ये सब समस्याएं ,इतिहास और विश्व के हर कोने में हर वक्त एक ही कारण से हैं की वह है सभी धर्मों समाजों व्यवस्थाओं में 'पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था ' का अनिवार्य वर्चस्व . अगर संघर्ष का कोई प्रयाण बिंदु है तो वह पुरुष ( या कई स्त्रियाँ भी ) उसके पीछे की ताकत , ' पितृ सत्तात्मक ' व्यवस्था . और संघर्ष का ध्येय उसी की समाप्ति और तद्जनित सामाजिक समरसता और बराबरी का है रचनाजी . [Copy Selction] [Copy Selction] [Translate With Google]
ReplyDeleteक्या अमेरंद्र हर चीज़ क्यूँ अपने से ही जोड़ लेते हो . मै इतनीं बुरी नहीं हूँ . लोग कहते हैं मुझे हिंदी नहीं आती सो नहीं आती क्या करूँ कुछ शब्द तुम्हारे चुरा लिये इस लिये तुमको ऐसा लगा
ReplyDeleteपर ये मेरी पोस्ट एक पुरानी पोस्ट का रीठैल हैं
आम आदमी की नज़र मै नारीवादी मात्र एक गाली और अपशब्द हैं किसी भी महिला के लिये और हर ब्लॉग पर मेरे लिये , हर ब्लॉग मीट मै मेरे लिये इस को प्रयोग करके वो तुष्टि का अनुभव करते हैं . नारीवाद की पढाई नहीं समझ होनी जरुरी हैं .
पुरानी पोस्ट का लिंक हैं
"नारी सशक्तिकरण " की समर्थक नारियाँ किसी की आँख की किरकिरी नहीं बनना चाहती हैं .
राज सिंह जी
ReplyDeleteये मेरी पुरानी पोस्ट हैं जिसको मैने रेपुब्लिश किया हैं . पुरानी पोस्ट २००८ मे आई थी यानी मेरा मुद्दा तब भी साफ़ था और वही था जो आज हैं
"नारी सशक्तिकरण " की समर्थक नारियाँ किसी की आँख की किरकिरी नहीं बनना चाहती हैं .
नारीवाद और नारी-सशक्तिकरण पर अच्छी बहस हो रही है लेकिन लगता है की इसमें कुछ मतभिन्नता है... इसे स्पष्ट हो जाना चाहिए...
ReplyDeleteमेरे हिसाब से जब भी अधिकार और अधिकारों को वापस पाने की बात हो तो संघर्ष होना स्वाभाविक है... इसे नकारना सच को अनदेखा करना है... आखिर अपना स्थान पाने के लिए किसी को स्थान से हटाना तो पड़ेगा न... इसे प्रेम से तो पाया नहीं जा सकता क्यूंकि यह मानसिकता को बदलने की कोशिश करना है... छोटा सा उदहारण देता हूँ...दिल्ली में बसों में स्त्रियों के लिए सीटें आरक्षित हैं... अच्छी बात है... लेकिन बुरा लगता है जब दो पुरुषों को हटाकर एक स्त्री खुद और अपने साथ अपने पुरुष-मित्र को उन सीटों पे बैठा लेती हैं... और कई बार तो अकेली स्त्री एक अनारक्षित सिट पर बैठ जाती है और पुरुष बेचारे खरे रहते हैं क्योंकि खाली आरक्षित सीट पर बैठने में संकोच होता है... क्या करें बेचारे... कई बार तो औरतें अनारक्षित सीटों पर बैठे पुरुषों को सीट देने के लिए कहती हैं, नहीं देने पर जाने क्या-क्या सुना जाती हैं... आखिर आरक्षण चाहिए क्यों... इसपर आप सशक्त विचारों वाली महिलाओं के विचार जानना चाहूँगा...
knkayastha
ReplyDeleteplease see the following links for your question
http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2010/10/blog-post_6276.html
http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2010/03/blog-post_10.html
आपने त्वरित जवाब दिया... आभार...
ReplyDeleteपरन्तु मैंने जो शंका जाहिर की उसका जवाब नहीं है यह... मैंने पहले ही पढ़ लिया है... मुझे कोई दिक्कत नहीं है नारी-सशक्तिकरण से या आरक्षण से..http://kavita-knkayastha.blogspot.com/2010/03/blog-post_22.html. लेकिन यह कहना कि आप लड़ना नहीं चाहती, यह गलत सोच है... यह एक लड़ाई ही है और इस लड़ाई में पुरुषों के द्वारा प्रतिरोध होगा ही और उनके साथ बहुत सी स्त्रियाँ भी होंगी.http://kavita-knkayastha.blogspot.com/2010/03/blog-post_19.html.. क्यूंकि अभी तक सशक्त महिलाऐं हैं कहाँ... और जो हैं वो बस अपने लिए ही जी रही हैं...
क्या अमेरंद्र हर चीज़ क्यूँ अपने से ही जोड़ लेते हो
ReplyDeleteआम आदमी की नज़र मै नारीवादी मात्र एक गाली और अपशब्द हैं किसी भी महिला के लिये और हर ब्लॉग पर मेरे लिये , हर ब्लॉग मीट मै मेरे लिये इस को प्रयोग करके वो तुष्टि का अनुभव करते हैं . नारीवाद की पढाई नहीं समझ होनी जरुरी हैं .
tathyon ke alok me apki baat sat-pratisat sahi lagti hai......lekin
samoohik prayas ko safal karne hetu
ye garal apko pine honge ... bakiya
mam apse sahmat hote hue ... mukti
di evam ghaghuti di se kyon nahi sahmat hua ja sakta?
pranam.