अगर भारतीये संस्कृति और परम्पराओं कि बात करे तो हमेशा दिखता हैं कि जो कुछ भी पुरुष के लिये सही हैं वही स्त्री के लिये वर्जित हैं । ये नियम भारतीये संस्कृति मे किसने बनाए ?? क्या अगर कुछ कहीं गलत हुआ हैं तो उसको सुधारना भी हमारा कर्तव्य नहीं बनता हैं । शायद शिक्षा इसीलिये दी जाती हैं कि हम सही और गलत का फैसला करने मे सक्षम हो जाए । फिर गलत जिसके साथ होता हैं आवाज भी वही उठायेगा ना सो अगर नारी अपने साथ हुए / हो रहे गलत के प्रति आवाज उठाती हैं तो इसमे क्या परेशानी हैं ।
कल संसद मे आरक्षण को लेकर बड़ा हल्ला रहा । १४ साल से एक बिल पास होने के लिये बार बार पेश किया जा रहा हैं लेकिन ३३% आरक्षण महिला को क्यूँ मिले इस के लिये महिला को समझाया गया कि " आरक्षण के अन्दर आरक्षण " होना चाहिये ।
आज कल २ लोग मिलकर एक पोलिटिकल पार्टी बना लेते हैं अब २ लोगो कि पार्टी मे ३३% कैसे रहेगा यानी हर पार्टी मे किसी ना किसी पुरुष कि सीट कम हो ही जायेगी { पता नहीं कैसे होगा फिर !!! } । ताकत का बटवारा करना किस को अच्छा लगता हैं ।
मै कभी भी आरक्षण कि हिमायती नहीं रही और व्यक्तिगत तौर पर जो कुछ लिया हैं वो अपनी काबलियत और मेहनत से लेकिन हर जगह समानता नहीं हैं ये बात सच हैं । आज भी बेटे और बेटी मे भेद भाव बना हुआ हैं । अपने कैरियर मे वही लडकियां आगे आपाती हैं जो जुझारू हैं । घर और बाहर दोनों कि जिम्मेदारी संभालना इतना आसान नहीं हैं । कितना टेलेंट केवल घर के काम मे नष्ट होता था इस लिए तो अब बड़ी कम्पनिया महिला को फ्लेक्सी टाइम का काम देने लगी हैं ये भी पाश्चात्य सभ्यता की ही देन हैं लेकिन इसमे किसी को आपत्ति नहीं होती क्युकी घर का काम और बाहर का काम { जिसमे पैसा भी मिलता हैं } दोनों नारी कर रही हैं जबकि विदेशो मे ये बात नारी और पुरुष दोनों पर लागू होती हैं । किसी सभ्यता / संस्कृति कि बुरी करने से पहले उसको जानना जरुरी होता हैं । विदेशो मे केवल होटलों मे औरते वेटर नहीं होती हैं और ना वहाँ नगनता का प्रचार हैं । ये बाते सब भ्रान्तिया हैं उसी प्रकार से जैसे विदेशो मे हमारे देश के लिये कहा जाता हैं "सांप और सपेरो और जाहिल गवारो " का देश ।
जहां बेटे कि नौकरी माता पिता के लिये एक तमगा होती हैं वही बेटी कि नौकरी समय पास करने का साधन होती हैं जब तक विवाह ना हो जाए । ऐसे मे अगर कोई महिला पोलिटिक्स मे अपना मुकाम बनाना चाहती हैं तो ये आरक्षण उसके लिये कुछ आसानी जरुर ले आयेगा ।
आप कहेगे किरण बेदी को देखिये लेकिन क्या आप किरण बेदी के साथ हुए हर पक्षपात को भूल गये । कितने लोग जानते हैं कि किरण बेदी को एक बार रातो रात अपनी बेटी के साथ एक जगह से भागना पडा था । आप कहेगे ये किसी पुरुष के साथ भी हो सकता था , लेकिन जो दर किरण बेदी के मन मे अपनी बेटी को लेकर हुआ था क्या वो डर अगर उनके बेटा होता तो उनको होता ।
लीजिये आप कहेगे यही तो हम भी कहते आ रहे हैं लड़कियों को "डर " कर " ढँक " कर ही रहना चाहिये पर क्या ये समानता हैं अगर आप समानता नहीं देगे तो आप को "आरक्षण " देना पड़ेगा । जितनी जल्दी समाज मे आप "समानता " ले आयेगे जहां हर वर्ग का लोग , हर जाति के लोगो को संविधान और न्याय मे दी हुई समानता मिल सके उतनी ही जल्दी हम इस आरक्षण जैसी चीजों से छुटकारा पा सकते हैं ।
right to equality को लाये और reservation से मुक्ति दिलवाये .
रचना,
ReplyDeleteये बात तो बहुत पते की निकली की आप समानता का हक दीजिये हमें आरक्षण नहीं चाहिए. अगर हर क्षेत्र में समानता दी जाए तो आरक्षण जैसा चुनावी मुद्दा ख़त्म ही हो जाएगा . किसी को आरक्षण नहीं स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी आरक्षण की जरूरत है . क्यों? हम इस आरक्षण के नाम पर सिर्फ राजनीति कर रहे हैं. जो गरीब हैं वह आज भी वहीं हैं. महिलायें भी अपनी काबिलियत के बदौलत हर क्षेत्र में आगे हैं
बहुत सटीक आलेख !!
ReplyDeleteये बात तो शत-प्रतिशत सही है कि जब तक समाज के हर क्षेत्र में समानता नहीं आ जाती है, तब तक आरक्षण की ज़रूरत पड़ेगी ही. आरक्षण के पक्ष में मैं भी कभी नहीं रहती, पर बात तो यही है कि अगर औरतों को कदम-कदम पर भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता तो इसकी ज़रूरत ही क्यों होती?
ReplyDeleteअगर महिलाओं को सामान अवसर मिलते तो आज महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण की ज़रूरत ही न पड़ती...सियासत में महिला आरक्षण का स्वागत है, लेकिन कहीं इसका हाल भी पंचायतों जैसा न हो जाए...यह देखना है...
ReplyDeleteसभी सियासी लोग अपनी बहु-बेटियों को सियासत में ले आएंगे...परिवारवाद को और बढ़ावा मिलेगा...
रचना जी
ReplyDeleteसादर वन्दे!
मै आपके विचार से पूरी तरह सहमत हूँ ऐसा इसलिए कि आपने इस विषय को सम्पूर्णता से सोचा और लिखा,
लेकिन एक शिकायत जरुर है कि हम ना जाने क्यों किसी भी विषय में अपनी संस्कृति व सभ्यता को दोषी ठहरा देते हैं, जबकि हम अपनी सभ्यता को कितना जानते है इस प्रश्न पर हम लगभग खामोश हो जाते हैं, और किसी विचारक कि लिखी हुयी बातों का हवाला दे देते है.
हम हमेसा सेकेंडरी सोर्शों के आधार पर करते हैं, जबकि हमें किसी भी टिप्पड़ी (खास कर जाब भारतीय सभ्यता के बारे में हो) को देने से पहले उस विषय खुद का विषध अध्ययन होना आवश्यक होता है,
अतः मै आपसे नम्र निवेदन करना चाहता हूँ की विना वजह अपनी सनातन और एकमात्र श्रेष्ठ जीवन पद्धति, भारतीय संस्कृति को ना घसीटें.
किसी भी अभद्रता के लिए क्षमा प्रार्थी.
रत्नेश त्रिपाठी
लोगों की सोच बदलने के लिए सबसे जरूरी है सबका शिक्षित होना. जब तक सब लोग एक धरातल पर नहीं होंगे हर व्यवस्था का दुरुपयोग होगा. इस बिल का सबसे ज्यादा विरोध कहाँ से हुआ , जहाँ महिलाएँ सबसे पिछड़ी है और तो और इन क्षेत्र की महिला नेत्रियों ने भी इसका विरोध किया. सारा विरोध केवल अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए है .
ReplyDeleteजहाँ तक बात भारतीय संस्कृति की है तो आज जो अवस्था है उसे तो किसी भी तरह से संस्कृति नहीं कहा जा सकता.
part 1
ReplyDeleteजहाँ तक आरक्षण की बात है, मैं भी ये मानता हूँ कि औरत को किसी आरक्षण की जरूरत नहीं है, न ही आरक्षण से किसी औरत की दशा सुधारी जा सकती है। बहरहाल मै तो ये मानता हूँ कि औरतों को लेकर हमारे समाज में औरतों का नजरिया कुछ नकारात्मक ही रहा है। जबकि तस्वीर इतनी बुरी भी नहीं है।
आज लगभग हर घर की बेटियां स्कूल जा रही है और अच्छा पढ़ रही है।
बहुत सी औरतें नौकरी कर रही है, (दूर-दराज के गाँव में भी )।
हिंदुस्तान ही एक ऐसा देश है जहाँ औरतों की इज्जत हमेशा से की जाती रही है और जहाँ औरतों की देवी-प्रतीक में पूजा भी होती है।
वैदिक युग में भी मैत्रेयि, गार्गी जैसी औरतें हुई है जिनका नाम आज भी प्रसिद्ध है ।
हिंदुस्तान ही एक ऐसा देश है जहाँ किसी अनजान औरत से 'बहनजी' कहकर बात की जाती है ।(क्या आपने किसी अंग्रेज को किसी औरत से सिस्टर कहकर बात करते सुना या देखा है?)
हिंदुस्तान ही एक ऐसा देश है जहाँ पुरुष अपनी बस या ट्रेन की सीट किसी औरत के लिए छोड़ देता है।
हिंदुस्तान ही एक ऐसा देश है जहाँ किसी लाइन में महिला को आगे आने के लिए कह दिया जाता है।
क्या नारी - समानता के प्रतीक अमेरिका जैसे देश में औरतों को ये इज्जत हासिल है?
part 2
ReplyDeleteअब बात करते है कुछ सामाजिक बुराइयों की:
जब देश में मुसलमानों का राज आया, तब हिन्दुओं में प्रदा-प्रथा शुरू हुई क्यूंकि तब राजा प्रजा-पालक नहीं रह गए थे। सभी भोग-विलास में डूबे हुए थे । औरतों की इज्जत सुरक्षित नहीं थी । उनकी बुरी नजर से बचने का यही एक चारा था। जो बाद में धीरे-धीरे ये एक मजबूरी की बजाय परम्परा बन गया ।
दूसरी बात समानता के हक की है। मैं मानता हूँ कि समाज में औरतों को समानता का हक उपलब्ध नहीं है , जितना होना चाहिए उतना नहीं है . पूरी तरह से पुरुषों के बराबर समानता का हक तो कभी भी, कहीं भी नहीं मिल सकता। न ही हिंदुस्तान में, न ही अमेरिका में । इसका कारण पुरुष नहीं, प्रकृति है। प्रकृति ने नारी को पुरुष से अलग बनाया है, सरंचना से लेकर व्यक्तित्व तक। फिर इनकी बराबरी कैसे हो सकती है?
और फिर पुरुष से बराबरी का ही प्रश्न क्यूँ? पुरुष तो कोई आदर्श पैमाना नहीं है किसी महिला की योग्यता का निर्धारण करने का ।
क्या किसी सरोजिनी नायडू या झाँसी की रानी की तुलना किसी जयचंद से की जा सकती है ?
कभी नहीं ।
जरूरत पुरुष से समानता के अधिकार की नहीं है, जरूरत समाज में इज्जत से रहने के अधिकार की है। सर उठाकर चलने के अधिकार की है । अपनी योग्यता को मनवाने के अधिकार की है। जरूरत परिवार के हक में, अपने हक में सही फैसला लेने के अधिकार की है।
आज हर कोई अपनी बेटी की शादी किसी बड़े घर में करना चाहता है, हरेक माँ-बाप चाहता है कि उसकी बेटी को शादी ऐसे घर में हो जहाँ उसे कोई काम न करना पड़े, यहाँ तक कि खुद का खाना भी न बनाना पड़े । अपने घर में रानी बनकर रहे । लेकिन बहु सभी ऐसी चाहते है जो उनके घर का सारा काम करें । उनके घर में नौकरानी बनकर रहे।
औरतों की सामाजिक हालत के लिए पुरुष से ज्यादा औरतें जिम्मेदार है। अधिकता मामलों में औरत ही औरत की दुश्मन साबित हुई है।
दहेज़-हत्या के हालाँकि 90% मामले झूठे होते है, फिर भी जो सच होते है उनमे औरतों का ही पूरा समर्थन होता है।
क्या ये संभव है कि किसी औरत की सहमति के बिना घर की बहु को जला दिया जाए?
या उसे बुरी तरह से मारा-पीटा जायें?
कभी नहीं।
अगर ससुर या पति कह भी दे कि बहु से पर्दा नहीं करवाना तो सास नहीं मानती, उसका जवाब होता है "हमने भी तो इतने साल पर्दा किया है, हम कौनसा मर गयी? और अगर करना ही है तो मेरे मरने बाद अपने मन की कर लेना, जीते जी तो करने नहीं दूंगी"
जब तक बहु और बेटी में फर्क करना बंद नहीं होगा, समाज कैसे बदल सकता है ?
जब तक सास और मां में फर्क करना बंद नहीं होगा, समाज कैसे बदल सकता है ?
part 3
ReplyDeleteऔर फिर जिस तरह से औरत के बिना पुरुष अधुरा है, उसी तरह से पुरुष के बिना औरत भी अधूरी है। इस बात से तो कोई औरत भी इनकार नहीं कर सकती ।
औरतें पहले से राजनीति में है, वो क्या स्वतंत्र फैसले ले रही है? यहाँ तक की राष्ट्रपति महिला है लेकिन सिर्फ नाम की राष्ट्रपति है ।
एक गाँव की सरपंच भी यदि महिला है तो उसके नाम पर सारा काम उसका पति करता है।
जरूरत तो इस फर्क को मिटाने की है।
इसलिए मेरे ख्याल से औरतों को आरक्षण देने की बजाय ये कोशिश करनी चाहिए कि सभी औरतों को समाज में शिक्षा का अधिकार मिले , स्वास्थ्य की बेहतर सुविधाएं मिले। बाल-विवाह बंद हो, पर्दा-प्रथा बंद हो।
विधवा-विवाह को सामाजिक सहमति मिले।
और ये कोशिश सरकार और समाज के साथ औरतों को खुद भी करनी पड़ेगी। तभी उन्हें इज्जत के साथ-साथ समानता मिल सकेगी ।
और डाक्टर महेश जी,
संस्कृति में परिवर्तन जरूर आता -जाता रहता है लेकिन संस्कृति कभी ख़तम नहीं होती । न ही इसे ख़तम किया जा सकता है।
फिर हिंदुस्तान की संस्कृति तो दुनिया की एकमात्र ऐसी संस्कृति है जिसने जाने कितनी संस्कृतियों को अपने अन्दर समेत लिया लेकिन खुद ख़तम नहीं हुई। कितनी विदेशी जातिया यहाँ पर सदियों तक रही और यही की होकर रह गयी ।
हम भारतीय इसीलिए पिछड़े हुए है कि हम अपने देश की हर बात में कमियां निकालते है।
इसी बात पर एक कहानी सुनाता हूँ:
स्वामी रामतीर्थ जब विदेश में कहीं (शायद जापान ) गए हुए थे तो किसी स्टेशन पर उन्होंने खाने के लिए फल ढूंढें
तो उन्हें अच्छे किस्म के फल नहीं मिले । इस पर उन्होंने कहा:
" शायद यहाँ पर अच्छे फल नहीं मिलते"
इस बात को वहां के एक युवक ने सुन लिया जो ट्रेन में किसी को चढाने आया था।
उसने उनको कहीं से अच्छे फल लाकर दिए। जब स्वामी जी उसको पैसे देने लगे तो उसने मना कर दिया और बोला:
"पैसे कि जरूरत नहीं, बस आप अपने देश में जाकर ये मत कहना कि जापान में अच्छे फल नहीं मिलते"
ये होता है देश-प्रेम और देश के लिए मन में सम्मान ।
आप होते तो शायद पहले ही कह देते कि "जाओ भाई, यहाँ पर अच्छे फल नहीं मिलेंगे। इस देश में कुछ भी अच्छा नहीं है। "
सकारात्मकता बनाये रखें । बस में तो यही कहूँगा।
@Admin
ReplyDeleteमैंने भारतीय संस्कृति को कम करके नहीं आँका है . मेरा सन्दर्भ आज की अवस्था पर है . इस देश में इतनी संस्कृतियाँ समाहित हो गयी हैं कि किसी एक को ही भारतीय संस्कृति कहना उचित नहीं है . उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम में इस देश में अन्तर है . रही बात कम करके आंकने की या अपनी कमियों को स्वीकार करने की तो मैं इसे कमजोरी नहीं बल्कि एक शक्ति मानता हूँ जो इस देश की संस्कृति का ही पक्ष है .सत्य इस धरा का आधार रहा है और रहेगा .
आपने जब इतनी विस्तृत व्याख्या की है और जब आप सकारात्मकता की बात करते हैं तो मेरा मानना है कि ऐसे व्यक्ति को सामने आकर अपनी बात कहनी चाहिए न कि एक क्षद्म नाम का सहारा लेना चाहिए .
वाह री दुनिया जब अपनी बात चली तो समानता समानता चिल्लाई और जब दलित पिछडो की बात पर आरक्षण की बात चलेगी तो ये ही महिला सबसे आगे खडी होगी आरक्षण और समानता के विरुद्ध ..कभी सोचा आपने जिस पीड़ा से आप गुजर रही हो दलित और पिछड़े भी इससे बहुत ज्यादा से गुजरे है ..आज भी और कल भी ...आज आप समानता के पक्षधर हो तो गुजरे समय में को नहीं थे...आज की मांग है यदी समानता नहीं तो आरक्षण होना बहुत जरुरी है ...बिलकुल सही कहा आपने...जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी ..इस सिंद्धांत से देश तरक्की करेगा ..जहा समानता है वहा सम्रद्धी है चाहे वो अमेरिका हो या इंगलैंड जापान हो या चीन ..अगर मौक़ा दोगे तो सभी योग्य है ...योग्यता योग्यता चिल्लाने वाले भूल जाते है अगर उन्हें भी मौक़ा ना मिलता तो वे भी आज अयोग्य होते...
ReplyDelete