छोटे परिवार की संस्कृति ने हमारे जीवन को बहुत बदला है। पहले हमारे बच्चों पर मां-बाप के अलावा दादा-दादी का भी साया हुआ करता था जो मां-बाप की अनुपस्थिति में उनका पूरा ध्यान रखते थे। बच्चे क्या कर रहे है? उनके दोस्त कौन हैं? वे कहां उठते बैठते हैं, बच्चों की हर गतिविधि पर उनकी पैनी निगाह होती थी। वे बच्चों को डाँटते थे तो प्यार भी खूब करते थे।
पर अब ऐसा नहीं है। संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और उनकी जगह छोटे परिवारों ने जन्म ले लिया है। जहां मां-बाप दोनों नौकरी करते हैं। बच्चों की जिम्मेदारी या तो नौकरों पर होती है या फिर वे अकेले रहते हैं। मां-बाप उनके हाथ में मोबाइल थमाकर और घर में इंटरनेट लगाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। अब बच्चा अकेला नहीं हैं। वे जब चाहे उससे बात कर सकते हैं, और बस यहीं गड़बड़ हो जाता है। बच्चा अब सिर्फ उनके संपर्क में नहीं होता, उन हजारों लोगों के संपर्क में होता है जो इंटरनेट की दुनिया में बांहें पसारे उसके स्वागत में खड़े होते हैं।
इंटरनेट पर नेटवर्किंग का जमाना है। फेसबुक, आरकुट, ट्विटर ऐसी कई जगहें हैं जहां आप दोस्त बना सकते है। इसके अलावा याहू, ज़ी मेल, हॉट मेल। मतलब ये की आप कहीं भी क्लिक करिएं, कोई न कोई आपको बात करने के लिए मिल ही जाएगा। यहां पर मैं आपको अपनी एक मित्र की बेटी से मिलवाना चाहूँगी। उसके पास भी वे सभी सुविधाएं हैं जिनका मैंने ऊपर ज़िक्र किया है। अभी थोड़े समय पूर्व ही उसने फेसबुक की सदस्यता ली। अचानक बहुत सारे लोगों के दोस्ती के प्रस्ताव उसके सामने आएं। उनमें से कुछ को उसने चुना भी। यहां मैं यह बताना जरूरी समझती हूँ कि इन मित्रों से संपर्क में आने से पहले वह पढ़ने में बहुत तेज थी। अस्सी-पचासी प्रतिशत नंबर सामान्य रूप से उसके आते थे। फेसबुक का चस्का कुछ ऐसा लगा कि किताबों का साथ छूटने लगा। स्कूल से शिकायतें आने लगी कि क्या हो गया है इसे। ये पढ़ाई में ध्यान क्यों नहीं देती? कहीं बीमार तो नहीं है? इतनी गुमसुम क्यों रहती है? क्या डिप्रेशन हो गया है? घर वालों को भी समझ नहीं आ रहा था कि बात क्या है? अभी तक तो सब कुछ ठीक था, अब अचानक क्या हो गया है। उन्होंने उसकी गतिविधियों पर निगाह रखनी शुरू की, तो उन्हें यह जानकर बहुत धक्का लगा की जब वो यह समझते थे कि उनकी बेटी कमरा बंद करके पढ़ाई कर रही है, उस समय वह वास्तव में फेसबुक में अपने दोस्त के साथ चैटिंग में व्यस्त होती थी। (जिसने पहली ही मुलाकात में अपना मोबाइल नंबर भी उसे थमा दिया था।) और उसके बाद अपने दोस्तों को यह बताने में व्यस्त होती थी कि आज उसने अपने उस विशिष्ट मित्र से क्या बातें की। गुस्से मं आकर मेरी मित्र न सिर्फ अपनी बेटी की पिटाई की बल्कि इंटरनेट का कनेक्शन भी कटवा दिया। उसने सोचा अब सब ठीक हो जाएगा। लेकिन बात नहीं बनी। दोनों बच्चे मित्रता की इस डोर में काफी नज़दीक आ चुके थे। इसलिए फेसबुक की जगह मोबाइल ने ले ली। वह उस लड़के के इतने नज़दीक आ चुकी थी कि उससे बात किए बिना रहना उसके लिए बहुत मुश्किल था। बातें भी काफी व्यक्तितगत स्तर की होती थी। जाहिर है ऐसी रसभरी बातें कोई पहली बार उससे कर रहा था और वह इन बातों को लेकर काफी उत्तेजित थी। एक दिन रात के समय जब वह अपने दोस्त से बात कर रही थी, मेरी मित्र अचानक कमरे में आ गई और उसने जो कुछ अपनी बेटी के मुँह से सुना, उसे सुनकर उसके पैरों तले की जमीन ही खिसक गई। उसने आगे बढ़कर अपनी बेटी के हाथ से उसका मोबाइल छीन लिया और फोन पर ही उस लड़के को चेतावनी दी कि आइंदा उसने फिर कभी फोन किया तो उसके लिए अच्छा नहीं होगा।
अपनी बेटी के व्यवहार से मेरी मित्र काफी आहत है। और उसे समझ में नहीं आ रहा कि वो क्या करे कि उसकी हँसती खेलती बेटी उसे वापस मिल जाएं!!!
-प्रतिभा वाजपेयी
यथार्थ लेखन।
ReplyDeleteबेटी को डाँटकर नहीं दोस्त बनाकर प्यार से समझाएं कि क्या सही और क्या गलत है. अस्सी-पचासी प्रतिशत नंबर पाने वाली बच्ची है जब भला बुरा उसकी समझ में आ जायेगा तो वह निश्चित रूप से सही मार्ग ही अपनाएगी.
ReplyDeleteप्रकृति ने संसर्ग प्रारंभ करने के लिए जो समय निर्धारित किया है, अमूमन विवाह उसके दस से पंद्रह साल बाद होते हैं. अब प्रकृति इतने समय तक तो रुक नहीं सकती. प्रकृति के जोर के आगे तो सभी लाचार हो जाते हैं. हम प्रकृति से बगावत करते हैं, और चाहते हैं की वह हमारे अनुसार चले. कभी हम प्रकृति के करीब थे, लय में थे..... अब नहीं है. यौन परिपक्वता पहले चौदह से सोलह के बीच आती थी, और शादी की उम्र भी यही थी. आज प्युबरटी की आयु नौ से तेरह रह गई है, पर शादी पच्चीस से पैंतीस के बीच होती है. मीनोपाज़ की उम्र में बच्चे.... सब उल्टा पुल्टा हो गया है. रही बात लड़की को समझाने और लड़के को धमकाने की तो प्राकृतिक वेगों को रोकना मुश्किल है, दस बारह साल तो बहुत लम्बा अरसा होता है. लड़का अगर डर भी गया तो उससे लड़की की इच्छाएं कम नहीं होंगी, खुला समय है कोई और मिल जायेगा/जाएगी.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteआप की रचना हमेशा अच्छी होती हैं
हम समझ रहे हैं कि हम प्रगति कर रहे हैं लेकिन इस प्रगति की गति और रुख दोनों पर ही अगर अंकुश न रखा गया तो हम बहुत कुछ खोते भी जा रहे हैं. बच्चों की उम्र के हिसाब से उनपर नजर भी रखनी जरूरी है. एक यही क्यों , पता नहीं कितनीमाँएं ऐसे ही झेल रही हैं न नौकरी छोड़ सकती हैं और न उन्हें कोई रास्ता नजर आता है. बच्चे नेट और मोबाइल को जब परिपक्वता से पहले पा लेते हैं तो दिशाहीन हो जाते हैं. उन्हें सुविधाएँ दीजिये लेकिन उनपर पूरी नजर रखने की जरूरत है. संयुक्त परिवार की परिभाषा ही खत्म हो चुकी है. उसके ही खामियाजा हम भुगत रहे हैं.
ReplyDeleteगलती बच्चो की कम अभिभावकों की ज्यादा हैं । आप हिन्दी ब्लॉग जगत के छोटे से दायरे को देखिये तो आप जानेगे की सब के प्रोफाइल हर नेट वोर्किंग साईट पर मोजूद हैं । अगर हम संस्कृति की बात करते हैं तो हम को सबसे पहले हर नियम अपने पर लागू करना चाहिये फिर अपने बच्चो पर ।
ReplyDeleteati sundder
ReplyDeleteaajkal baccho k saath dost ban kar paish aaya jaye to behtar hai.aur dost ban kar unhe is tareh ki nazdikiyo ki advantages aur disadvantages samjhayi jaye. baki bacche waise to khud bahut samajhdaar hote hai. samajh bhi jate hai.behtar hoga un se har topic khul kar discuss kiya jaye.hA.N LEKin nazer rakhni bhi jaruri hai.
ReplyDeleteबहुत ही गम्भीर पोस्ट है और हालात कमोवेश सब जगह यही है. कोशिश करे कि बच्चो के साथ निश्चित रूप से कुछ समय बिताये और उनकी सोच और अपने ग्यान के फ़ासले को कम करे.
ReplyDelete