आज कल घर मे काम करने वाली बाइयों के ऊपर हो रहे बलात्कार , क्या साबित करते हैं ? हर दिन कम से कम एक ख़बर जरुर पढ़ने को मिल जाती हैं । दो तीन दिन पहले गाजियाबाद मे एक काम वाली बाई का बलात्कार कर के उसको छत से नीचे फेक दिया । तहकीकात चल रही हैं पर घर के मालिक जो एक प्राइवेट बैंक मे मैनेजर हैं उनको पुलिस हिरासत मे लिया गया हैं ।
ये सब क्यों और कब तक ???
यह पुरुष नामक जीव अपनी पत्नी को ही कामवाली समझता है फिर काम वाली को क्या समझता होगा? यह मानसिकता बदलने के ज़रूरत है
ReplyDeleteअभी हाल ही में मैंने भी इस बात पर चिंता जताई थी और दूसरा ये बात सच है कि पुरुषों को दोगला पन छोड़ कर अपनी सोच बदलनी ही होगी वर्ना काम वाली क्या सड़क, घर पर कोई औरत महफूज नहीं होगी।
ReplyDeleteमेरे विचार में स्थितियां और बिगड़ेगीं क्योंकि अधिकारों व भौतिकवाद की होड़ में घर अब सिर्फ़ मकान बनकर रह गये हैं. अतृप्ति, कुंठा व अशान्ति बढ़ रही है घर भी प्रेम के भंडार नहीं रह गये हैं. ऐसी स्थितियों में यही होगा.
ReplyDelete"ऐसी स्थितियों में यही होगा."
ReplyDeleteऔरत पर अत्याचार जिस्मानी तो केवल उसको
अपने सम्पति समझने का प्रतीक हैं , एक चीज़
जिसकी पुरुष की नज़र मे एक ही कीमत हैं अपनी
काम वासना की तुष्टि .
कभी दासी बन कर , कभी काम वाली बाई बनकर
इस से समाज के बदलने का क्या लेना देना है
बस फरक इतना हैं की अब ये सब मीडिया की
मेहरबानी से खुल कर सामने आ जाता हैं .
पढने में बड़ी ही दिक्कत है .आप ब्लॉग का कलेवर बदलें .
ReplyDeleteक्यों कोई
ReplyDeleteकभी नहीं देखता कि
नारी के और भी
बहुत सारे रूप हैं ?
क्यों एक पुरूष
सदैव ही उसे
भोग लेना चाहता है
भले ही उसकी
सहमति हो या न ?
क्यों हमेशा एक ही
नज़र से देखता है
वह नारी के अन्य
रूपों को भूलकर
क्यों नही दे पाता
उसे स्त्रियोचित
सम्मान जिसकी
हक़दार है वह ?
क्यों जाग जाता है
पुरूष का पुरुषत्व
अबला नारी के सामने
जो समर्पित है उसको ?
क्यों पुरूष
कभी नहीं देखता नारी
की पूर्णता, त्याग ,धैर्य
उसका मान सम्मान
अरे मनुज कभी तो सोचो उस
नारी के दर्द को
जो हर दर्द में भी रखती है
केवल और सदैव ही
तुम्हारी खुशी की थोड़ी सी चाह ?
bas main apni yah kavita yahan par de rah hoon aur kuchh nahin kahna chahta...
कभी दासी बन कर , कभी काम वाली बाई बनकर
ReplyDeleteइस से समाज के बदलने का क्या लेना देना है
बस फरक इतना हैं की अब ये सब मीडिया की
मेहरबानी से खुल कर सामने आ जाता हैं .
समाज के चिन्तन व विचार से ही समाज के स्तर का निर्धारण होता है. मानसिक विकृति निःस्न्देह अपराधों को जन्म देती है. मानसिक अशान्ति व अधिकारों का संघर्ष किसी को भी शान्ति से जीने नहीं देगा. संयम व आत्म-नियंत्रण के बिना अपराध बढ़ेगें. कानून और दण्ड न रोक पायेंगे और न कम कर पायेंगे. अपराधी कानून की कठोरता और दण्ड पर विचार करके अपराध नहीं करता. समलैंगिकता की मांग करने वाले युग में यह कोई अधिक गंभीर बात नहीं. जब वैयक्तिक स्वतंत्रता की बात की जाती है तो .......असीमित स्वतंत्रता अपराधों को बढ़ायेगी. इस का नियन्त्राण केवल सामाजिक सर्वोच्चता से ही संभव है. जिसको कोई मानने को तैयार नहीं दिखता.
समाज में दिनोदिन मानसिक विकृति बढ़ रही है जिसके कारण ऐसे अपराध दिनोदिन बढ़ रहे है .
ReplyDeleteजी हाँ मुझे औरतें अच्छी लगतीं हैं
ReplyDeleteफायद तुम झूठे
और
कुंठित
प्रतीत होते हो मुझे
मैं तुम्हारे वक्तव्य से असहमत हूँ क्योंकि
मुझे औरतें अच्छी लगतीं हैं
जी हाँ मुझे औरतें अच्छी लगतीं हैं
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एक रात
रेल लाइन के पास
उस पागल औरत के सुबुकने फिर जोर जोर से
गालियाँ देते सुना था ...... वो पगली जो
अक्सर बीमार पति की सेवा में रत दिन में मजूरी
करती थी फिर पागल हो गई एक दिन
पति के मर जाने पर
माँ उसे भोजन देती वो बदले में मेरे चिरजीवी होने का आशीष
वो पागल औरत एक दिन बीना शटल से कट मरी
उस रात माँ भी रोई
मैं भी रोया
सोचता हूँ
बदहवास पागल से
मेरा क्या नाता था ?
उसमें क्या मुझे भाता था..?
आज भी
वो पागल औरत
सपनों में आती है
तब साथ होती मेरी सव्यसाची माँ
कभी उसे कम्बल देती
कभी संबल देती
मुझे स्वप्न में भी भाती है
क्योंकि मुझे औरतें अच्छी लगतीं हैं
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मुझे बेहद भावुक कर
देती है...
साड़ी के नाम पर
चीथडों में
लिपटी माँ !
काले-अधनंगे बच्चे को
जब
अमियपान करा रही होती है !!
लगता है साक्षात पौराणिक स्वर्ग की देवी
धरा पर आई है
यह औरत मेरे मानस में समाई है
क्या...? मुझे यह क्यों भाई ...?
क्योंकि मुझे औरतें अच्छी लगतीं हैं
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यह उस रोग की वीभत्स अभिव्यक्ति है जिससे आजकल कुछ तथाकथित पुरूष ग्रस्त हैं। रोग में मरीज की सहमति की दरकार नहीं होती है।
ReplyDeleteबलात्कार करने वाले होते हैं कुन्ठित। शारीरिक बनावट ही वैसी है बेचारों की। घर पर बीबी घास नहीं डालती (अगर घर पर रहे तो!) कुंवारों को नशीली दवाईयों ने बुद्धि भ्रष्ट कर दिया है। सहज सुलभ नीले साहित्य और टीवी-फिल्मों के सॉफ्ट पॉर्न के चश्मे में सब एक जैसे दिखने लगे हैं। बंधन से मुक्त रहने के नारों ने ज़रूरत से ज़्यादा आजादी दे रखी है। पर्दामुक्त समाज ने सब चेहरे एक जैसे कर दिये हैं क्या बहू, क्या बेटी, क्या चाची, क्या नौकरानी
ReplyDeleteचिंता मत कीजिये। इनसे निपटने के लिये कुछ और चीजों के साथ पर्दा, बाल विवाह, बहु-विवाह जैसी प्रथायें आती ही होंगीं
आखिर इतिहास अपने को दोहराता है और वो क्या कहते हैं ना Old is Gold
:-)
बलात्कार क्यूँ ? काम वाली बाई के कपड़ो मे क्या दोष था ??
ReplyDeleteबलात्कार कपड़ो के साथ नहीं होता,कपड़े तो उसमें कुछ हद तक बाधा उत्पन्न करते हैं, हां, कम कपड़े पहनकर महिलायें बलात्कार को सुगम बनाकर प्रोत्साहित कर सकतीं हैं.
बलात्कार पुरुष की बर्बर, विकृत, कुंठित मानसिकता की अभिव्यक्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं है. आवश्यकता दमन और शमन दोनों ही उपायों से उस मानसिकता को निर्मूल करने की है.
ReplyDeleteकपड़ों में कोई दोष नहीं होता इस लिए कपड़े पहनने से परहेज़ नहीं होना चाहिए !
ReplyDeleteसज़ा कठोर से कठोरतम हो जाये तो स्थिति कुछ सुधरने की उम्मीद की जा सकती है मगर अभी तो तत्काल जमानत और समाज मे वापस उसी मान सम्मान के साथ जीने का मौका मिल जाता है तो कौन डरेगा इस अपराध की सज़ा से।वैसे मै आपकी बात से सहमत हूं दोष कभी भी कपड़ो का नही होता।सवाल मानसिकता का ही है।
ReplyDeleteविवेक
ReplyDeleteआप ब्लोगिंग केवल और केवल समय बिताने के
लिये करते हैं और हंसी माज़क के लिये करते हैं {
ये आप ने खुद मुझे एक बार चैट पर कहा था }
आप के लिये ब्लोगिंग करना टाइम पास हैं
पर सब के लिये नहीं हैं , नारी ब्लॉग पर तो
बिलकुल नहीं . आप से निवेदन हैं जब तक कुछ
बात सार्थक ना कहनी हो ब्लॉग पोस्ट
से जुडी कृपा करके इस ब्लॉग पर कमेन्ट ना
किया करे .
बलात्कारी एक मानसिक रोगी होता है..उसे ये मतलब नही होता की सामने वाला कौन है और उसकी उम्र क्या है? उस्के लिये तो वो उसकी हवस बुझाने का ज़रिया है और कुछ नही।
ReplyDeleteऐसे लोगो को एक सुनवाई मे सज़ा दे देनी चाहिये क्यौंकी इस तरह के केस मे कोई गवाह नही होता तो जो पीडित कहे उसे सच मानो और सज़ा दो.....
दोष कामवाली बाई के कपडों मैं नहीं, दोष तो बलात्कारी की नजरों मैं होता है!!
ReplyDeleteबलात्कार से निपटने के सारे तरीके पुराने और बेअसर साबित हो रहे है.. बलात्कारीयों की मानसिकता में परिवर्तन दुष्कर है.. देर से सही सभ्य समाज और कानुन को इस पर नये सिरे से गौर करना चाहिये.. कैसे रुके ये.. विशेषकर जब ये सुनते है कि पिता भी नाबालिग के ब्लात्कार का आरोपी है..
ReplyDeleteरचना जी,
ReplyDeleteहमारे सामाजिक मूल्यों के पतन का असर और पुरातन सामंतवादी सोच जो नारी को केवल भोग्या मानती है आज भी दबे पांव हावी है।
केवल एक काम करने वाली बाई का बलात्कार ही मुद्दा नही है, बल्कि रोज होने वाले बलात्कारों के सिरीज में से बाहर निकला हुआ एक अंश मात्र है।
क्षोभनीय कृत्य की कड़ी भर्त्सना की जानी चाहिये ( रचना जी यह ना सोचें कि भर्त्सना केवल मरहम या लीपा-पोती है )
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
jab tak koi ladki ya aorat kisi ko uksaye nahi koi uska balatkar kaise karega pahle to fari aorato ko apne kapdo aor chal chaln me dhayn dena chahiye phir kisi par dos se to jyada behtar hoga
ReplyDeleteअल्लेलाए पपू जी ६ महिना की बच्ची का पहिने
ReplyDeleteकौन से ब्रांड का डाईपर लगाए नहीं बताए हो , फिर
कहोगे गए ऊक्सायाए रही थी सो बलात्कार किये
का पडी वासी डाइपर समझते हो नहीं , नहीं
तुम्हारी भाषा मे लंगोट और तुम पर्दा मे हो सो हम
भी पर्दा मे हैं अब बलात्कार नाहीं होगा ना हमारा
ना तुम्हारा क्युकी भय्या समलैंगिक का भी
अब हो सके हैं ना .
डा ई पर का नाम जरुर बत्यियों , रचना जी इन्हां
देदेगी सो बच्चियां के माँ बापा ख़रीदा लेगे
vayaki jab habshi ho jata to use kuch samagh me nahi aata ki wo kya karne ja raha hai
ReplyDeleteआचरज है ! स्त्रियों के ऊपर अत्याचार से सम्बन्धित इस सीरियस मुद्दे पर सारे कम्मेन्ट्स पुरुषों के ही हैं |
ReplyDelete"ऐसी स्थितियों में यही होगा."
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