कल पता चला की घर से कुछ दूर रहने वाली वृद्ध नानी नहीं रही । १५ दिन पहले ही उनका स्वर्गवास होगया । और आस पड़ोस मे किसी को पता नहीं चला ।
वृद्ध नानी को मै १९८० से उनके बेटी दमाद के साथ रहते देखती आयी थी । उनके साथ उनकी अविवाहित पुत्री भी रहती थी जो उस समय ३० वर्ष की होगी ।
वृद्ध नानी के बेटा और बहु भी हमारी कोलोनी मै ही रहते हैं पर उन्होने कभी भी अपनी माँ या अविवाहित बहिन को अपने साथ नहीं रखा और उनके घर के आपसी सम्बन्ध भी केवल और केवल बोलचाल तक रह गये थे ।
दामाद ऊँची पोस्ट पर इंजिनियर थे और आज कल रिटायर हो कर रह रहे थे ।
वृद्ध नानी को पैदल घुमती देखा , फिर धीरे धीरे शिथिल होते और विहल चेयर पर देखा और पीच्लाए कुछ वर्षो से वो बिस्तर पर ही थी ।
कल माँ को किसी नए बताया की जिस समय उनकी मृत्यु की सुचना उनके बेटे को दी गयी वो तुंरत कार से आये और मृत माँ को विहल चेयर पर बिठाया और उस वील चेयर को अपनी कर मै रख कर अपने घर ले गए । और वहाँ से सुबह उनको दाह संस्कार के लिये ले जाया गया ।
दामाद और बेटी के घर से उनको संस्कार के लिये नहीं भेजा क्युकी समाजिक प्रतिष्ठा याद आगई और रिश्ते के लोगो ने भी उनका ही साथ दिया और बेटी दामाद को कहा की ये तो बेटे का "हक़" हैं ।
उनके इस रवाये से हम जैसे लोग जो वृद्ध नानी को अन्तिम समय मै विदाई दे सकते थे वो भी नहीं दे सके । और उस घर मै जहाँ उन्होने अपनी जिंदगी अपने बेटी दामाद के साथ बिताई वहां एक शान्ति पाठ भी नहीं किया जा सकता ।
समाज मे सारे हक़ बेटो को ही क्यूँ दिये जाते हैं ? बेटी दामाद जो कर्तव्य निभाते हैं उनके सामाजिक हको का क्या ?? कब तक हम ये दोहरी सामजिक रीतियों मे अपनी जिंदगी गुज़रते रहेगे ।
वृद्ध नानी इश्वर आपकी आत्मा को शान्ति दे और मै कामना करती हूँ की आप अगले जन्म मे अगर बेटी बन कर आए तो किसी बेटे को जन्म ना दे ।
सामाजिक (कु)रीतियां अगर हम बदलना भी चाहें तो समाज अपने ओछेपन को धर्म का चोला पहनकर आड़े आ जाता है। क्यों कोई बेटी अपने पिता को अग्नि नहीं देती? क्या वो उसका अंश नहीं है? ऐसे कई सवाल हैं जिनके जवाब देने में समाज को अपने मुहँ में कुनैन सरीखे लगते हैं।
ReplyDeleteसमाज को बदलना होगा लेकिन पहले अपनी सोच को बदलना है।
कमलेश मदान
कोई बदलाव नहीं चाहता... और पहल नहीं करना चाहता... और दुसरी और समाज बदलाव को स्वीकारने में हिचकिचाहट दिखाता है... कहीं तो शुरुआत करनी होगी..
ReplyDeleteबदलाव तो हो रहे हैं लेकिन बहुत छोटे स्तर और धीमी गति से… महाराष्ट्र में महिलाओं ने (फ़िलहाल इकलौती बेटियों ने) मुखाग्नि देना शुरु कर दिया है, तथा पुजारियों के पारम्परिक धार्मिक अनुष्ठान आदि करवाना भी प्रारम्भ कर दिया है, लेकिन इसे और भी बढ़ाने की आवश्यकता है, यह जनजागरण से ही सम्भव होगा… कोई भी सकारात्मक बदलाव धीरे-धीरे आता है, जबकि नकारात्मक बदलाव तेजी से आता है…
ReplyDeleteमेरा मानना है की इसमें हमें सामाज की ओर से किसी ओपचारिक घोषणा का इंतज़ार नहीं करना चाहिए ...मैंने बहुत सारे घरो में इस बदलाव को देखा है ओर देख रहा हूँ....यहाँ निजी व्यक्तिगत सोच को बदलने की जरुरत है ....ओर जिन परिवारों ने बदली है वहां यही है....शायद अगले कुछ सालो में ओर बदलाव देखने को मिले....
ReplyDeleteरचना जी, आपने बेटी-दामाद के हक की बात की तो हमें वह बात याद आ गई जब हमारे ससुरजी का निधन हुआ था। हमें सूचना पहले मिली तो हम गांव पहले पहुंच गए। वहां जाकर मालूम हुआ कि उनका बेटा यानी हारी साला तो पहुंचा ही नहीं है। ऐसे में गांव वालों ने यह तय किया कि अगर बेटा सुबह तक नहीं आता है तो हमें मुखाग्नि देनी होगी। गांव वालों का ऐसा कहना था कि दामाद भी बेटा होता है। हमें गांव वालों की उस सोच पर गर्व हुआ। लेकिन अफसोस कि हमें अपने ससुर को मुखाग्नि देने का मौका नहीं मिला क्योंकि हमारे साले साहब सुबह तक आ गए थे। जब एक गांव में कुछ साल पहले गांव वालों की सोच इतनी अच्छी हो सकती है तो समाज में बदलाव क्यों नहीं आ सकता है। बस जरूरत है एक अलख जगाने की।
ReplyDeleteपुरुष प्रधानता को नष्ट करना होगा।
ReplyDeletesamaj me bdlav ana jruri hai jb vrdha nani apne beti damad ke pas rhi to ve hi unke antim sanskar ke adhikari hai samj sarta hai ase kam me koun pahl kre beti damad agr drdhta se apni bat par rhte to koi unhe rok nhi sakta tha aur dheere dheere ye prmpra bn jati .ham kyo dusro ka intjar krte hai?phal to hme hi krni hogi .samaj bhi hmse hi bana hai .
ReplyDeleteआपने जितनी शिद्दत से यह महसूस किया अगर उनकी बेटी और दामाद ने भी किया होत तो नानी जहाँ अपने अंतिम दिन गुजार रही थी वहीं से अंतिम विदाई लेती!
ReplyDeleteबेटे ने तो इल्लत काटी समाज में मुँह धो लिया। पर बेटी ने प्रतिकार क्यों नहीं किया कि ज़िंदा तो बेटी के घर थी मरते ही बेटे के घर क्यों? उसे अपने घर से ही विदा करना था, अड़ जाना था। अपनी ज़िम्मेदारी मानना था।
हमारी बहिन के श्वसुर की मृत्यु पर उनके तीनों बेटों के साथ दामाद ने भी उतना ही फ़र्ज़ निभाया जितना बेटों ने-’मैं उनका चौथा बेटा था।’ जबकि बेटे बहुत लायक और सेवा करने वाले थे। चारों की ज़बरदस्त अंडरस्टेंडिंग है।
यहाँ बेटी और दामाद को पहल करके नानी का संस्कार करना था।
प्रेमलताजी से पूरी तरह से सहमत...बेटी को अड़ जाना था..समाज को जवाबदेही के लिए कटघरे मे खड़ा कर देती कि वह सेवा कर सकती है तो अंतिम दाह सँस्कार क्यों नही... ! मेरी छोटी बहन को शमशानघाट जाने से रोका गया था लेकिन अपनी ज़िद के कारण वह भी डैडी को अंतिम विदाई देने गई.
ReplyDeleteस्त्री के किसी भी रूप मे आगे आकर समाज की मानसिकता को बदलने के लिए पहल भी हमे ही करनी होगी... ....
मेरा भी मानना है की हमें व्यक्तिगत तौर पर ही आगे आना होगा... बजाय इसके की हम किसी आन्दोलन या जाग्रति का इंतज़ार करें. नानी जी की बेटी को ही अड़ जाना था.
ReplyDeleteजरूरी है कि ये बात समझी जाए। ये बेटा-बेटी अलग नजर से देखना खुद से ही खत्म करना होगा
ReplyDeleteपरिवर्तन आ रहा है ...थोडा और इंतज़ार करना होगा ...
ReplyDeleteरचना जी, आपने बेटी-दामाद के हक की बात की तो हमें वह बात याद आ गई जब हमारे ससुरजी का निधन हुआ था। हमें सूचना पहले मिली तो हम गांव पहले पहुंच गए। वहां जाकर मालूम हुआ कि उनका बेटा यानी हारी साला तो पहुंचा ही नहीं है। ऐसे में गांव वालों ने यह तय किया कि अगर बेटा सुबह तक नहीं आता है तो हमें मुखाग्नि देनी होगी। गांव वालों का ऐसा कहना था कि दामाद भी बेटा होता है। हमें गांव वालों की उस सोच पर गर्व हुआ।
ReplyDelete