विद्रोह करने वाले जब खुद को ही यह नहीं समझा पा रहे हैं कि यह सब क्यों? क्या सारी संस्कृति और मूल्यों कि अवमानना स्त्री जाति ही कर रही है? वे अपने गिरेबान में झांक कर क्यों नहीं देखते हैं कि इन मूल्यों कि अवमानना का साथी कौन है? क्या सिर्फ अकेले लड़कियाँ ही. क्यों हैं करते हैं यही सख्तियाँ लड़कों पर। सारे नैतिक मूल्यों को ओढ़ कर रखने का काम लड़कियों का ही है। अब वह जमाना नहीं रह गया है , जब कि बेटियाँ सिर्फ किसी कि वंश परम्परा को चलने के लिए ही पैदा की जाती थीं और कहीं कहीं तो पैदा होते ही मार दी जाती थीं।
वे सिर्फ नारी को संस्कृति के नाम पर फिर से पुरुष जाति कि अनुगामिनी बना देखना चाहते हैं और यह अब तो संभव नहीं है, फिर अपनी कुंठाओं के लिए वह सब कर रहे हैं, जिससे देश कि संस्कृति के सबसे बड़े रखवाले बनने का ढोंग कर रहे हैं. आप अपनी सोच की एक छवि तो प्रस्तुत कीजिये , कैसे नहीं उसका अनुगमन होता है. क्या है आपकी सोच, आप तो अच्छी तरह से नारी के हर स्वरूप को बयान भी नहीं कर सकते हैं. क्या आपकी बहन आपके साथ बहन होने का सर्टिफिकेट लेकर चलती है. उनकी सीमाएं और अधिकारों को परिभाषित करने वाले आप कौन है?
देश कि संस्कृति और मूल्यों का मान भी आने वाली पीढी में नारी ही माँ बनकर सिखाती है , शायद आप की माँ ने भी सिखाया होगा। पर उसके नाम पर किसी भी नारी का अपमान करने की सीख नहीं दी होगी। हिन्दू और हिंदुत्व की परिभाषा तो सीखिए फिर दिखाइए आइना दूसरों को. अगर नयी पीढ़ी भटक रही है तो इसके जिम्मेदार हम हैं और उसको सुधारने के लिए रास्ते भी बहुत से हैं. विद्रोह से सिर्फ विद्रोह ही पनपता है और अंकुश से जो विस्फोट होता है वह किसी भी हालत में दबाया नहीं जा सकता है. इसलिए पहले अपने विचारों की एक छवि प्रस्तुत कीजिये फिर उनपर चलने वालों को साथ लीजिये. सद्व्यवहार , सद्चरित्र और सदाशयता कभी भी बुरी नहीं होती लेकिन उसको समझाने का तरीका सही होना चाहिए. नारी भी पुरुष जितनी ही स्वतंत्रता की हकदार है , किन्तु अगर उत्श्रन्खलता उसके लिए वर्जित है तो यह सीमा पुरुष वर्ग के लिए भी जरूरी है. उठाकर पढिये ग्रंथों को , शायद इस कृत्य को करने वालों ने वे ग्रन्थ देखे भी नहीं होगे पढना तो बहुत दूर की बात है. गार्गी और अपाला के नाम सुने होंगे तो जानिए उस युग भी उन्हें नारी होने के कारण किसी बंदिश में नहीं बांधा गया था. उन्होंने अपने लक्ष्य को पाने के लिए रास्ते खुद ही चुने थे. वे आज भी पूज्यनीय हैं.
बुद्धि और विवेक सिर्फ पुरुषों या चंद समाज के तथाकथित ठेकेदारों के पास ही नहीं है, महिलाएं पुरुषों से अधिक विवेक और सहनशीलता रखती हैं और यही कारण है की पति - पत्नी के रिश्ते को सुख या दुःख में सामान रूप से साथ देकर निभाती है। जब पुरूष संकट में होता है और कुछ भी समझ नहीं आता है तो सबसे अधिक सहारा या सांत्वना उसको माँ , बहन या पत्नी से ही प्राप्त होती है। नारी और पुरूष इस समाज के भी दो आधारभूत स्तम्भ है और रहेंगे। धर्म, कर्म और नैतिकता को पोषित यही कर रहे हैं। स्वयं को पूरे समाज का ठेकेदार न समझें तो बेहतर होगा।
समाज में अपवाद पहले भी रहे हैं और हमेशा रहेंगे लेकिन वे सम्पूर्ण समाज का प्रतिनिधित्व तो नहीं करते हैं.
समाज को सुधारने के लिए बहुत से विषय हैं, पहल कीजिये हम आप का साथ देंगे। कभी दहेज़ को मिटने के लिए तो ये ठेकेदार आगे नहीं आए। किसी अनाथ के जीवन को सुधारने के लिए तो ये कहीं भी नहीं दिखाई दिए। सड़क के किनारे पत्तल और दोने चाट कर अपने पता को भरने वालों को एक रोटी मुहैय्या करते तो नहीं देखा हमने।
नारी और पुरूष इस समाज के भी दो आधारभूत स्तम्भ है और रहेंगे। धर्म, कर्म और नैतिकता को पोषित यही कर रहे हैं। स्वयं को पूरे समाज का ठेकेदार न समझें तो बेहतर होगा।
ReplyDeleteसही कह रही है ।