दिनों से नारी ब्लोग पर लिखने का सोच रही थी, रचना जी से इस बात के लिए डांट भी खा चुकी थी कि अब तक मैने नारी ब्लोग के लिए एक भी पोस्ट नहीं लिखी। लेकिन मैं जब भी कलम उठाती हाथ रुक जाते , समझ ही नहीं आता क्या लिखूं, सब कुछ तो आप सब लोग लिख ही चुके थे, नया कुछ कहने को था ही क्या?दूसरा सवाल जो मेरे मन में उठता है वो ये कि मैं किस आधार पर इस विषय पर लिख सकती हूँ। दो ही आधार नजर आते हैं -
एक तो ये कि मैं खुद नारी हूँ तो नारी होने के नाते कुछ अनुभव अर्जित किए हैं।
लेकिन ये अनुभव कितने विस्तृत हैं?
क्या ये मुझे हर नारी की तरफ़ से बोलने का अधिकार देते है या ये सिर्फ़ मेरे निजी जीवन पर ही लागू होते हैं।
अगर मैं अपने अनुभवों को छोड़ इधर उधर नजर दौड़ाऊं ति क्या मै हर वर्ग की नारी को जानती हूँ, नहीं मैं सिर्फ़ उन नारियों को जानती हूँ जो मेरे संपर्क में आयीं, या मेरे परिवेश से जुड़ी हुई थी।
नारियों को जानने का दूसरा रास्ता है मेरे पास साहित्य, फ़िल्में और मिडिया- प्रिंट और इलेकॉट्रानिक दोनों।
इन सब स्त्रोतों को अगर मिला दूँ तो मुझे लगता है कि भारत कई तहों में जीता है।
नारियों के भी परिवेश काफ़ी विविधता लिए हैं। एक तरफ़ हम बड़े शहरों की नारियां है, पढ़ी लिखी, स्सशक्त, लोगों के कहे की परवाह न करने वालीं, खुले विचारों वाली। कइयों के लिए आदर्श और रश्क का कारण्। हम वो भाग्यशाली महिलाएं हैं जिनके जन्म पर खुशियां मनायी गयी थीं, जिन्हें बड़े लाडों से पाला गया और दुनिया की हर खुशी देने के लिए मां बाप ने दिन रात एक कर दिया।
दूसरी तरफ़ वो स्त्रियां है जिनके पैदा होने पर मातम छा गया था,जिनका पूरा जीवन सिर्फ़ एक बनावटी स्नेह से पगा हैऔर जिन्हें जिन्दगी भर खुद को मार कर दूसरों को सींचना है। जिन्हें रीति रिवाजों के नाम पर मर्दों की गुलामी भी करनी होती है और आज के युग की नारी होने के नाते अपने और दूसरों के पेट की आग बुझाने के लिए हर तरह का जुगाड़ भी करना होता है। मीडिया में खास कर टी वी सिरियलस में जो नारी का चरित्र दिखाया जाता है वो या तो बहुत ही अबला है या बहुत ही सबला। या तो जमाने की जन्मों की सतायी हुई या एक्दम स्कीमिंग टाइप, दंभी, निष्ठुर्।
अब ये पूछे जाने पर कि क्या नारियां ऐसी होती हैं कहा जा सकता है कि नहीं ये भी मर्दों की नारी को बदनाम करने की चाल हैं , सुना है सारे सिरियल लिखने वाले मर्द होते हैं।
जो भी है, मेरे जहन में कुछ बुनयादी सवाल हैं जिनका जवाब मैं आज तक नहीं ढूंढ पायी, उसमें से कुछ सवाल आप के सामने रख रही हूँ, मुझे पक्का विश्वास है किआप के पास जरूर इनमें से कई सवालों के जवाब होगें
1) हममें से कितनी नारियां शादी करने के वक्त इस बात को सहर्ष स्वीकार कर लेतीं कि हमारा भावी पति हाउस हस्बैंड बन के रहना चाह्ता है।
वो घर अच्छे से संभाल सकता है और आप पढ़ी लिखी कामकाजी महिला हैं, क्या हम ऐसी व्यवस्था से खुश होतीं। अगर स्त्री पुरुष समानता है, अगर दोनों को ह्क्क है कि वो बाहर जा कर कमाएं तो क्या दोनों को ये हक्क नहीं कि दोनों में से जो चाहे घरेलू ग्रहस्थ बन कर जीवन जी ले और दूसरा उसको स्पोर्ट कर ले।
2।) हममें से कितनी नारियां अपनी किसी सहेली को और उसके पति को पूर्ण आदर दे सकती अगर वो ऊपर लिखे सिस्टम का हिस्सा होती।
3) आज हर नारी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के लिए नौकरी करना चाह्ती है, उसके लिए जी तोड़ मेहनत भी करती है।
आर्थिक आत्मनिर्भरता होनी भी चाहिए। लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं हो रहा कि कुछ पाने के चक्कर में हम कुछ खो भी रहे हैं।
क्या आज नारी कल से ज्यादा आजाद है? शादी के बाजार में आज ऐसी लड़की की क्या कीमत है जो पैसा नहीं कमाती, अगर वो पढ़ लिख कर भी काम न करना चाहे तो क्या वो ऐसा करने के लिए स्वतंत्र है?
मैने बहुत सी कहानियों में पढ़ा कि अगर एक नारी अपने परिवार को आर्थिक रूप से संभालने लगती है तो उसके अपने मां बाप उसकी शादी नहीं करवाना चाह्ते, क्युं कि सोने के अंडे देने वाली मुर्गी हाथ से निकल जाएगी।
4) हम लोग अक्सर लड़की को ससुराल भेजने में जो तकलीफ़ होती है उसकी बात करते हैं , लड़की के दमन की बात करते हैं। अगर कल घर जमाई मिल जाए तो हममें से कितने लोग इस बात के लिए तैयार हो जायेगें, और क्या घर जमाई का शोषण न होगा ये कहते हुए कि अरे घर का ही आदमी है अब दामाद जैसे नखरे क्या करने।
5) हममें से कितने अपनी बेटी की शादी ऐसे व्यक्ति से करने को तैयार होगें जो हमारी बेटी से कम पढ़ा लिखा हो और कम कमाता हो।
6) किसी लड़की का रेप हो जाए तो हम उसके बारे में काफ़ी आवाज उठायी जाती है, और वो सही भी है लेकिन उन लड़कों का क्या जिनका यौन शौशन होता है, उनके लिए वही कानून बनने चाहिए इसके बारे में हम क्युं इतने जोर से नहीं बोलते
7) घर की चार दिवारी के अंदर होने वाली मारपीट में नारी पर होते अत्याचार को कई बार मीडिया में उछाला जाता है, क्या मर्दों पर ऐसे अत्याचार नहीं होते, होते हैं ये भी आज का सत्य है, पर उसे हम क्युं इतने जोर शोर से नकारते हैं, ऐसी औरतें जो पतियों पर अत्याचार करती हैं शारिरिक रूप से, मानसिक रूप से और भावनात्मक रूप से उन्हें कानून की गिरफ़्त में क्युं नही लिया जाता।
मैने खुद अपनी जिन्दगी अपनी शर्तों पर जी है, फ़िर भी ऊपर के सब सवालों का जवाब मेरे जहन में न है, तो क्या मैं अभी तक अपने विचारों में मुक्त हो सकी हूँ। शायद नहीं, आज भी मेरा मन बचपन से हुए आज तक के समाजिकरण से बंधा है। अगर कोई भारी वस्तु उठानी है या ट्रेन में ऊपर की सीट पर चढ़ना है तो उम्र बराबर होते हुए भी मैं मर्द से अपेक्षा रखुंगी कि वो यहां आगे बड़ कर कमान संभाले।मेरे हिसाब से बात मर्द औरत की नहीं है सारा किस्सा ताकत की लड़ाई का है, जिसकी लाठी उसकी भैंस।
अनूप शुक्ल जी के ब्लोग से मेरी पसंद की एक कविता जो मुझे लगता है आज की नारी पर भी सटीक बैठती है
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम.
पिंजरे जैसी इस दुनिया में,
पंछी जैसा ही रहना है,
भर पेट मिले दाना-पानी,
लेकिन मन ही मन दहना है,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे संवाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम।
आगे बढ़नें की कोशिश में ,
रिश्ते-नाते सब छूट गये,
तन को जितना गढ़ना चाहा,
मन से उतना ही टूट गये,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आबाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम.
पलकों ने लौटाये सपने,
आंखे बोली अब मत आना,
आना ही तो सच में आना,
आकर फिर लौट नहीं जाना,
जितना तुम सोच रहे साथी,
उतना बरबाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम.
आओ भी साथ चलें हम-तुम,
मिल-जुल कर ढूंढें राह नई,
संघर्ष भरा पथ है तो क्या,
है संग हमारे चाह नई
जैसी तुम सोच रहे साथी,
वैसी फरियाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम.
-विनोद श्रीवास्तव
अनीताजी,आपके मन में जो सवाल उठते हैं,वो सभी बहुत स्वाभाविक और सांदर्भिक हैं.यकीन मानिये ऐसे सवाल हम सब के दिलों को अकसर झझकोरते हैं.मेरी सोसाइटी में एक दक्षिण- भारतीय दंपत्ति है,जिनमें से पति घर संभाल रहे हैं,पत्नी बंक की नौकरी करती है,अपनी दोनों बेटियों को उन्होंने बहुत ही अच्छे तरीके से बडा किया है,उनमें से एक तो अब अमेरिका में रह कर डाक्तरी का ऐडवान्स कोर्स कर रही है.पिछले १२ सालों से मै उन सज्जन को कभी बालकनी में कपडे सुखाते, कभी चावल चुनते देख रही हूं,सब्ज़ी लाते,काटते,देख रही हूं.उन्होंने अपनी खुशी से हाउस हस्बैण्ड बनना स्वीकार किया है.
ReplyDeleteअनीता जी मैं यहाँ कही गई बात से १०१ % सहमत हूँ ....संसार दोनों से मिल कर चलता है और चलता रहेगा ...अब वक्त बदल रहा है मियां बीबी जब दोनों जॉब करते हैं तो दोनों ही घर को सँभालते भी हैं ...और इस में अब कोई झिझक या शर्म नही है ..यदि आपस में विचारों का ताल मेल हो और अहम् की बात न आए तो सब कुछ ठीक से चल सकता है ..
ReplyDeletemam thanks for the post will give a detailed comment late night and mam THANK YOU VERY MUCH for making public your affection for me by writing रचना जी से इस बात के लिए डांट भी खा चुकी थी !!!!!!!!!!!!! we both know kaun kisko daanta haen aur kaun kissaey darta haen
ReplyDeleteइला जी, रंजू जी, रचना जी आप तीनों का धन्यवाद कि आप ने मेरी पोस्ट पढ़ने के लिए समय निकाला। इला जी जैसा आपने अपने पड़ौसी के लिए कहा वैसा हमने यहां भी देखा है, लेकिन ये सवाल इस लिए मन में उटा क्योंकि ऐसा हमने सिर्फ़ दक्षिण भारतीय परिवार में ही देखा है, उत्तर भारतीय परिवार में नहीं, उसका कारण शायद ये भी हो सकता है कि दक्षिण भारत में कुछ कुछ जगह अब भी वंश का नाम मां के नाम से चलता है, मेट्रिराकल सोसायटी है, तो स्त्री का वर्चस्व ऊंचा होना स्वाभाविक माना जाता है। बात तो तब बने जब उत्तर भारत के दंपती भी इसे उसी सहजता से स्वीकार कर सकें और उनका समाज भी
ReplyDeleteएक अत्यन्त संतुलित लेख लिखने के लिये आप बधाई की पात्र हैं...
ReplyDeleteपक्षपात करते हुये हम कभी भी अपनी लेखनी से न्याय नहीं कर पाते.. लिखते रहिये
अनिता दी, बहुत दिनों बाद ही सही लेकिन आपकी पोस्ट पढ़कर अच्छा लगा.
ReplyDelete"सारा किस्सा ताकत की लड़ाई का है, जिसकी लाठी उसकी भैंस" ---- आपके सवालों का जवाब इसी एक पंक्ति में है... ताकत की लड़ाई भी तभी होती है जब हम अहम के शिकार होते हैं.. जहाँ एक दूसरे की सत्ता स्वीकारी जाती है वहाँ हाउस-हसबैण्ड,घर-दामाद या कम पढ़े लिखे पति या अधिक वेतन पाने वाली पत्नी जैसे बातें जीवन में मायने नहीं रखतीं. कई परिवारों में ज़्यादा पढ़ीलिखी लड़कियों के पति कम पढ़ेलिखे हैं लेकिन व्यापार में आगे हैं.
1) हममें से कितनी नारियां शादी करने के वक्त इस बात को सहर्ष स्वीकार कर लेतीं कि हमारा भावी पति हाउस हस्बैंड बन के रहना चाह्ता है।
ReplyDeleteanita ji
its human nature to select the best for one self . in india any parents who can give dowry their daughter can get the best possible match even if she is not good looking , not educated . there are instances where very good looking man marry woman who dont match there looks but they take a compensation for it in terms of money . so start giving dowry to woman and man any type working , non working will be acceptable .
besides that the male ego is moreof a problem . major percentage of man will never be happy with a wife who is more qualified and better earner. its a source of disgrace in their mind so wman find it difficult to adjust with such a man and look for match above their qulaification .
on a ligher note the term house husband is as ridiculous !!!!!! as house wife is . because a husband is husband even if he is on the street so is the wife . where did this term came from mam
other questions when more comments come in
बढिया सवाल उठाये हैं। टिप्पणियां भी अच्छी हैं।
ReplyDeleteलेख और कविता दोनो ही बढिया ।
ReplyDeleteअनिता जी ,
ReplyDeleteआपके सारे प्रश्न जायज हैँ - हमारी मानसिकता आज भी पिछली सदी मेँ ही जी रही है
बदलाव आ तो रहे हैँ पर धीरे धीरे ..
- लावण्या
बहुत अच्छे सवाल हैं. सारे सवाल नारियों के लिए हैं. देखें क्या जवाब आते हें? अभी तक के जवाबों में तो केवल हाउस हसबेंड की ही चर्चा है. शायद नारियों के लिए यह सबसे ज्यादा पसंद का मुद्दा है. बाकी सारे सवालों पर तो चुप्पी है.
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