June 17, 2008

नारी सशक्तिकरण --- थोड़ा अल्पविराम !!

पिछले दिनों रचना जी के एक बड़े ही महत्त्वपूर्ण प्रश्न "नारी सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट {woman empowerment } का क्या मतलब हैं ??" पर कई मित्रों ने अपने अपने विचार रखे और धीरे धीरे विचारों की धारा आगे बढ़ती गयी.... फ़िर एक और प्रश्न जन्मा "नारी सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट " क्या "फेमिनिस्म" हैं याउसमे फरक है ? इस प्रश्न के उत्तर में पुरूष मित्रों की टिप्पणियों ने प्रभावित किया .. सबकी राय अपने आप में महत्त्वपूर्ण लगी…
दूसरी तरफ़ रचना जी के इस कथन को "नारी सशक्तिकरण की समर्थक नारियाँ किसी की आँख की किरकिरी नहीं बनना चाहती हैं . पढ़ कर सोचने पर विवश हो गयी कि क्या यह सच है... आँख की किरकिरी तो नारी तब से बन गयी थी जिस दिन उसने घर से पहला कदम बाहर निकाला था...
यहाँ पुरूष के उस वर्ग की ही बात हो रही है जो नारी को घर की चारदीवारी में ही देखना चाहता है….......
रचना जी के प्रश्नों पर बहस होते होते बात मेरे अपने विचारों पर जा पहुँची... प्रगति के इस दौर में विचार भी तेज़ी से एक दिशा से दूसरी दिशा की ओर दौड़ते हैं.. विचार विपरीत दिशा की ओर दौड़ते हुए अतीत में चले गए ... जब जब नारी ने अपना आत्मविश्वास खोया.... या अपनी गौरव गरिमा भूली... उसकी ममता और सेवाभाव को कायरता समझा गया...कुछ देर के लिए भी कमज़ोर पड़ी... तो समाज ने एक पल भी न लगाया उसे अबला कह कर अनेको बंधनों में बाँध लिया... उसकी आजादी छीन कर घर की चार दीवारी में बंद कर दिया...
समय बदला ....उसकी चेतना जागी.... अपने अधिकार की मांग करने लगी.... संघर्ष के उस दौर में ज्ञान का उजाला पाकर घर के बाहर एक बार निकली तो फ़िर उसने पीछे मुड कर न देखा.... अपने अन्दर की शक्ति देख कर आत्मविश्वास जागा... उसके इसी अदम्य विश्वास को देख कर '''कवि सुमन" कह उठे

" है आज भरा मुझमे कितना रे बल का पारावार नही
मुझको अबला कहने का अब कवि' को भी अधिकार नही "


विकास के पथ पर स्त्री पुरूष के साथ साथ चलते कब आगे निकल गयी उसे ख़ुद पता न चला…
कब उसने पुरूष के अहम् को तोडा... कब वह ख़ुद अपने ही अहम् में डूब कर अपने ही वजूद को पाने निकल पड़ी…!! स्त्री और पुरूष दोनों ही इस बात से अनजान जब अपने आस पास देखते हैं तो
अपने आप को अकेला पाते हैं...!!!

इसलिए नारी सशक्तिकरण से जुड़ी अंतर्राष्ट्रीय संस्थायें बढ़ रही हैं और अकेली औरत को अकेले ही जीवन राह पर चलने की सुविधायें जुटा रही हैं ..! नारी को आगे बढ़ते देख कर खुशी मिलती है... गर्व महसूस होता है वहीं लगता है कि ऐसी सफलता कोई मायने नही रखती है जहाँ पुरूष हीन भावना से ग्रस्त होकर अकेला हो जाए या ग़लत दिशा की ओर भटक जाए...

ऐसे नाज़ुक विषय पर बस इतना ही लिखना काफ़ी है ? ?
शायद नही ...!!!!
लेकिन एक नए चिंतन के लिए विचारों को थोड़ा अल्पविराम देना ज़रूरी है !!!

7 comments:

  1. Meenakshi ji, Beautiful expression! Aap bahut achha likhi hein. Khaskar mujhe wo dono panktiyan kafi pasnd aayi..."mujhko...."


    I read "Urvashi"’when I was in class 9th. I liked it very much and mujhe us book ki kuch lines ab bhi yaad hein. It is written by the poet-Ramdhari Singh dinkar. Mujhe 'Urwashi’ki ek pankti yaad aa rahi hai which I am putting here:

    "देवी! ग्लानि क्या, इतिहासों में यदि प्रथित हम नहीं हुए!”
    [Dinkar addresses the women to not be sad if History has denied them a Space.]

    I think it says everything! :-)

    Thanks and rgds.
    www.rewa.wordpress.com

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  2. कब उसने पुरूष के अहम् को तोडा... कब वह ख़ुद अपने ही अहम् में डूब कर अपने ही वजूद को पाने निकल पड़ी…!! स्त्री और पुरूष दोनों ही इस बात से अनजान जब अपने आस पास देखते हैं तो
    अपने आप को अकेला पाते हैं...!!!

    बहुत ही सही बात लिख दी आपने मीनाक्षी जी ..मैं भी यही कहती हूँ की दोनों के बिना यह सृष्टि अधूरी है बस जरुरत है एक दूसरे के विचारों को समझने की

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  3. चर्चा को आगे बढ़ने के लिये थैंक्स । और इस लिंक के लिये भी । लिंक के short form पर भी गौर करे !!!!!!! आपकी बात का पुरजोर समर्थन कर रहा हैं मीनाक्षी जी !!!!!!!!!!!!!

    मेरे विचार मे

    "नारी और पुरूष एक दूसरे के पूरक हैं " ये सन्दर्भ केवल पति पत्नी के लिये ही होता पर नारी सशक्तिकरण जब हम बात करते हैं तो हम नारी का रिश्ता नारी से , पुरूष से और समाज से तीनो को लेते हैं । पुरूष के रूप मे पति भी हैं , बेटा भी , पिता भी , दोस्त भी , प्रेमी भी , गुरु भी । और आज कल कि नारी अविवाहित भी हैं और अकेली अपने काम करने मे सक्षम भी सो " नारी सशक्तिकरण " उस नज़रिये से देखे जहाँ नारी लीक से हट कर काम करना चाहती हैं और करती भी हैं । जहाँ तक पति पत्नी के सम्बन्ध हैं मेरा मानना भी यही हैं कि इस जगह नारी और पुरूष एक दूसरे को अगर पूर्णता नहीं देते तो वह शादी ही अधूरी हैं और ऐसे संबंधो को निभाना या ना निभाना एक ही बात हैं ।

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  4. मीनाक्षी सधे और संयत शब्दों मे अच्छा लिखा है ।

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  5. bahut sashakta post,har pankti se sehmat hai hum aapke.

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  6. अकेली औरत को अकेले ही जीवन राह पर चलने की सुविधायें जुटा रही हैं ..! नारी को आगे बढ़ते देख कर खुशी मिलती है... गर्व महसूस होता है वहीं लगता है कि ऐसी सफलता कोई मायने नही रखती है जहाँ पुरूष हीन भावना से ग्रस्त होकर अकेला हो जाए या ग़लत दिशा की ओर भटक जाए...
    मीनाक्षी जी सधे और संयत शब्दों मे अच्छा लिखा है. वास्त्विकता यही है कि उत्साह में कुछ पल भले ही अकेले प्रसन्न्तादायक प्रतीत हों किन्तु दीर्घकाल में न पुरुष और न स्त्री अकेले रह सकते हैं, रह भी नहीं रहै हैं, जहां भी स्त्री को यह लगता है कि वह अकेली चल रही है, तब भी कोई न कोई पुरुष उसके साथ किसी न किसी रिश्ते से जुड्कर अवश्य ही सहयोग कर रहा होता है, ऐसा ही पुरुष के साथ भी है.

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  7. नारी और पुरूष दोनों ने मिल कर समाज का निर्माण किया. दोनों ने व्यक्तिगत और संयुक्त जिम्मेदारी और अधिकार आपस में बांटे. फ़िर धीरे-धीरे इस व्यवस्था में बिसंगातियाँ आनी शुरू हो गईं. पुरुषों के अधिकारों का और नारियों की जिम्मेदारियों का दायरा बढ़ता गया. शिक्षित नारियों में यह दायरा कुछ सीमित हुआ है पर अनपढ़ नारियों में यह दायरा बढ़ता जा रहा है. वह अनपढ़ नारियां जो खेतों में, बिल्डिंग साइट्स और घरों में नौकरी करती हैं, ऐसी नारियों की संख्या बहुत ज्यादा है. उन्हें सशक्त करने का अभियान चलाया जाना चाहिए. जब तक यह नहीं होता तब तक नारी मुक्ति की बात करना बेमानी हो जाता है.

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