July 22, 2012

जिम्मेदारियां : पत्नी के घर की !



विवाह करके आज भी लडके और उसके घर वालों का यही होता है कि जिस लड़की से वे शादी करने जा रहे हैं . वह आकर इस घर की जिम्मेदारियां संभाले और उनमें हाथ बँटाये . ये एक कटु सत्य है फिर किसी ऐसी लड़की से शादी करना , जिसके भाई बहनों और माँ बाप की जिम्मेदारी उठानी हो कोई भी पसंद नहीं करता है। जिम्मेदारी बांटना तो बहुत दूर की बात है यहाँ तो ऐसी भी स्थिति आ जाती है कि अगर लड़की शादी से पहले नौकरी कर रही है तो उससे पहले कमाए हुए पैसे का हिसाब भी माँगा जाता है कि जो कमाया उस पैसे का क्या किया ? ये सिर्फ एक विचार नहीं है बल्कि एक सत्य है। इसका एक पहलू यह भी है कि वह बेटी जिसे पढ़ा लिखा कर उसके माँ बाप काबिल बनाते हैं और जब वह कमाती है तो उस पर उसके पति और ससुराल वालों का अधिकार होता है। अपने बेटे को पढ़ाने लिखाने पर जो पैसा खर्च वह करते हैं तो उसके बदले तो वह बेटे की कमाई के हकदार होते हैं फिर बेटी की कमाई के हक़दार उसके माँ बाप क्यों नहीं हो सकते हैं? फिर जिम्मेदारियों की बात कौन और कैसे कर सकता है?

आम तौर पर लडके वाले अपने लडके के पैदा होने से लेकर पढाई तक का खर्च बहू के घरवालों से वसूल करना चाहते हैं और ऐसे ही लोग होते हैं जो बहू की कमाई का हिसाब भी माँगते हैं। फिर दृष्टि से कमजोर लड़कियों का हाथ थम कर उनके घर के लोगों की जिम्मेदारी लेने वाले लोग कहाँ से मिलेंगे ? अभी हमारे समाज में ऐसे उदारवादी लोग नहीं मिलते हैं कि वह शादी करके जिम्मेदारी उठाने को सहज रूप से ले लें। अपने घर की जिम्मेदारी उठाने के लिए पत्नी पर पूरा पूरा दबाव रख सकते हैं। इस पुरुष प्रधान समाज में अभी सोच इतनी उन्नत नहीं हुई है कि पत्नी के घर की जिम्मेदारी वह उठा सके या फिर उसके परिवार वाले इस काम में उनका सहयोग करें . जानबूझ कर ऐसे परिवार में शादी करने का तो कोई सोच ही नहीं सकता है लेकिन अगर भविष्य में ऐसा दुर्भाग्यवश हो जाए और इन स्थितियों में दामाद ससुराल की जिम्मेदारियों में हाथ बांटता है तो घर वाले ही नहीं बल्कि और रिश्तेदार और समाज के तथाकथित ठेकेदार उसको जोरू का गुलाम , ससुराल का चेरा जैसे शब्दों से नवाजते रहते हैं . कोई कुछ करना चाहे तो ये समाज व्यंग्य करने में पीछे नहीं रहता है और फिर समाज बनता किससे है ? हम लोगों से न तो हमें अपनी ही सोच बदलनी चाहिए . यहाँ पर कितने ऐसे होते हैं कि जिनके खाने के दांत और दिखने के के और होते हैं। बाहर समाज सेवक /सेविका और घर में बहू के प्रति व्यवहार तानाशाह वाला मिलता है।

वैसे अपवाद इसके भी हैं , मेरे एक कजिन की ससुराल में भाभी के भाई नहीं थे , सिर्फ बहनें ही थी और जिसमें से एक बहन कुछ मानसिक रोग का शिकार भी थी। उसने शादी के वक़्त इस बात को जान लिया था कि इस परिवार की जिम्मेदारी भविष्य में मुझे उठानी है और उसने शादी की - घर वालों ने भी इस बारे में कुछ नहीं कहा। उसके सास ससुर का निधन हो चुका है लेकिन उस साली की शादी करने के बाद जब उसका तलाक हो गया तो अब रहती तो वह अपने ही घर में है लेकिन उसकी मानसिक स्थिति जब भी ख़राब होती है वह बराबर उसके प्रति सजग रहता है . उसकी साली के पास या तो पत्नी को छोड़ता है या फिर अपने बच्चों को ताकि कोई अनहोनी न कर बैठे और उसके समान्य होने पर भी पूरा पूरा ध्यान रखता है। कभी इस बारे में पत्नी या साली से ये नहीं कहा कि उसको इससे कोई भी परेशानी है। अभी पृथ्वी वीरों से खाली नहीं है लेकिन ऐसे कितने लोग हैं?


विवाह अगर भारतीये सभ्यता में "दो परिवारों का मिलन " माना जाता हैं तो दोनों परिवारों की जिम्मेदारी दंपत्ति पर क्यूँ नहीं होती ??? केवल लड़की अपना घर परिवार छोड़ कर दूसरे  परिवार की जिम्मेदारी उठाने के लिये क्यूँ बाध्य हैं ? आज जब परिवारों में महज एक बच्चे की बात होती हैं और अगर वो बेटी ही हो तो उसके माता पिता  की जिम्मेदारी उसके पति की क्यूँ नहीं हैं ??? 
अगर पत्नी के लिये सास ससुर की सेवा फर्ज हैं तो पति के लिये उनके सास ससुर की सेवा फर्ज क्यूँ नहीं हैं ???

5 comments:

  1. काफी ज़रुरी मुद्दा उठाया है आपने..
    रिश्ता तो बराबरी का होना चाहिए..
    इस भेदभाव के लिए औरतें कम जिम्मेवार नहीं हैं...
    अगर कोई लड़का अपने ससुराल वालों का ध्यान रखे तो अपने और ससुराल दोनों के अडोस-पड़ोस से उसे 'जोरू का गुलाम' का खिताब दे दिया जाता है...
    पूरे समाज को मानसिकता बदलनी होगी...

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  2. रचना जी
    बहुत सटीक विषय उठाया है, यही विचार मेरे मन में कई दिनों स ेचल रहा था, आखिर बेटी की कमाई पर बाप की जगह पति का हक क्यों?
    या कि बेटी को अपनी कमाई अपना क्यों नहीं?
    पर एक बात मैं फिर भी कहना चाहूंगा कि पुरूषों ने गुलामी की जो जंजीर महिलाओ को डाल दी उसे तोड़ना ही होगा। मैं बहुत सोंचता हूं तो पाता हूं कि महिला अपने मांग में सिंदूर क्यों करे, गले में मंगलसुत्र क्यों पहने और हाथ मंे चुड़ी भी क्यों पहने, यही सब तो जंजीर डाला गया। या तो महिलओ को इसे उतार फेंकना चाहिए या शादी शुदा पुरूषांे के लिए भी कोई निशानी गढ़नी चाहिए...
    समानता का यह संधर्ष मेरी समझ से तभी आगे बढ़ेगा...

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  3. इस मामले में मैं किस्मतवाली हूँ...
    मेरे पति ने हमेशा मेरे घर वालों की हर तरह की जिम्मेदारी निभाई है, निभा रहे हैं और निभाते रहेंगे...
    उन्होंने कभी भी कोई सवाल नहीं किया...न ही कभी किसी भी तरह की कोताही की...
    ये तो हुई मेरी बात..
    लेकिन आपने जो भी कहा है, शत-प्रतिशत सही है...ऐसा होता हुआ देखा है...
    लेकिन यह भी सच है, भारतीय क़ानून में बेटी को माता-पिता की संपत्ति की अधिकारिणी माना गया है तो माता-पिता की जिम्मेदारी लेने का भी ज़िक्र है...उसका पालन कितना होता है मैं नहीं जानती...लेकिन ये दोनों प्रावधान हैं...
    अच्छा मुद्दा है ये...

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  4. Bahut hi badhiya rachna....
    Es baare me sab ko sochna chahiye ....

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  5. अदा जी इस बारे में मैं भी अपने पति की तारीफ करूंगी कि उन्होंने दोनों ही परिवारों के सदस्यों का बराबर ख्याल रखा है . चाहे मेरे परिवार के सदस्यों की बीमारी हो या कोई और तकलीफ वे साथ खड़े रहे हें और अपने परिवार में भी यही हाल है.
    --

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