May 30, 2011

कही हम गलत रीति -रिवाजों या परम्पराओं को स्थापित तो नहीं कर रहे

कुछ दिनों पूर्व मेरी एक रिश्तेदार महिला  मेरे घर आई . (जो की स्वयं काफी पढ़ी लिखी है तथा शिक्षण क्षेत्र में अच्छे पद पर कार्यरत है )..उन्होंने मुझे गुरुवार के दिन कपडे धोते देख कर टोका और कहा कि तुम्हे पता नहीं कि गुरुवार को कपडे नहीं धोना चाहिए ...मैंने उनसे कारण पुछा तो वे कहने लगी ..तुम नई उम्र कि लडकियों की यही तो ख़राब बात है ...हर चीज़ में कारण पूछने लगती हो ....फिर उन्होंने बताया कि ऐसा मानते है कि गुरुवार को कपडे धोने से घर का बुरा होता है ...फिर मैंने उनसे कहा कि फिर तो गुरुवार को पोछा भी नहीं लगाया जाना चाहिए ...और किचेन भी नहीं साफ किया जाना चाहिए ...क्योंकि इस काम को करने में इस्तेमाल किये जाने वाले कपडे को पानी से धोना पड़ता है ..तो वे कहने लगी कि यह रिवाज़ तो सिर्फ पहने जाने वाले मैले कपड़ो के लिए है ...मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की  कि ऐसा हो सकता है कि पुराने समय में हफ्ते में एक दिन आराम के उद्देश्य से या किसी और कारण से गुरुवार को कपडे न धोये जाते होंगे ...पर इसके पीछे कोई वैज्ञानिक कारण नहीं नज़र आता ...तो वे नाराज सी होने लगी .....दुसरे दिन बातो ही बातो में उन्होंने मुझसे कहा कि तुम्हारे घर में भगवन गलत दिशा में रखे है ...और गलत दिशा में भगवन रखने से पूजा नहीं लगती ...मैंने सोचा कि मैं उन्हें बताऊ कि भगवन कि पूजा अर्चना तो अपनी अपनी श्रद्धा कि बाते है ....और भगवन ने कब कहा है कि इस दिशा में मूर्ती रखो या इस दिशा में मत रखों ...लेकिन प्रत्यक्ष में  मैंने उन्हें कोई जवाब न देना ही उचित समझा ..क्योंकि मुझे मालूम था कि मैं कितना भी समझाउंगी ...वे समझने वाली नहीं है ...

मुझे अन्दर ही अन्दर बहुत दुःख हुआ क्योंकि कोई कम पढ़ी लिखी महिला ऐसा कहती तो शायद मैं समझ सकती थी ...लेकिन एक उच्च शिक्षित ...उस पर भी शिक्षण के क्षेत्र में कार्यरत महिला से यह उम्मीद नहीं थी . प्रायः यह देखा गया है कि किसी घर या परिवार में रीति रिवाजों ., परम्पराओं कि स्थापना महिला ही करती है ..इसलिए महिलाओ को इस विषय में बहुत सचेत हो जाना चहिये कि कही वे गलत रीति -रिवाजों या परम्पराओं को स्थापित तो नहीं  कर रही ...हर परंपरा गलत नहीं होती ...लेकिन यह विचार कर लेना चाहिए कि आज के परिवेश में इसका क्या औचित्य है ...बहुत सी परम्पराए तथा रीति - रिवाज़ पुराने समय के हिसाब से बनाये गए थे ..क्योंकि ऐसा करना उस समय कि ज़रुरत थी ...धीरे धीरे वे रिवाजों के रूप में स्थापित हो गए ..पर  आज ज़रुरत है कि बदले समय के हिसाब से उन्हें ढाले.

एक और जगह मैंने देखा कि बारात निकलने वाली थी तो दुल्हे को उसकी माँ के कमरे में ले जाया गया और बाकि औरते हसते हुए कमरे के बहार खड़ी रही ...मैंने पुछा कि यह कौन सा रिवाज़ हो रहा है ..तो उस घर कि औरतो ने हस्ते हुए बताया कि दूल्हा बारात के लिए निकलते वक़्त अपनी माँ का दूध पीता है ..फिर रवाना होता है ...मुझे बड़ा अजीब सा लगा ...२६-२७ साल का नव युवक और उसकी माँ यह रिवाज़ कैसे निभा पाएंगे ...बाद में इस पर मैंने विचार किया तो लगा कि जैसे पुराने समय में बाल विवाह की परंपरा थी और उस समय घर की स्त्रीया बारात में नहीं जाया करती थी ..तो बारात के लिए निकलते वक़्त दुल्हे (जो कि एक छोटा सा बच्चा रहता था , ) को माँ का दूध पिला कर ही निकलते होंगे ...पर आज के समय में इस परंपरा का पालन करना तो मुर्खता पूर्ण ही कहा जायेगा ...
इसीलिए नारी को इस विषय में सचेत और सावधान हो जाना चाहिए ...क्योंकि नारी  ही घर-परिवार को चलाती है और रीति -रिवाजों और परंपराओ को सहेज कर उन्हें आगे बढाती है ..और जब नारी ऐसे गलत रीति रिवाजों और अंध विश्वासों कि स्थापना अपने परिवार में करेगी ..तो परिवार के अन्य सदस्य भी वही सीखेगे ...


10 comments:

  1. after a long time a good post on naari blog

    naari blog members please wake up and write

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  2. अक्सर ऐसे अन्धविश्वासो से दो चार होती हूँ .. मंगल ,गुरूवार ,शनिवार सर नहीं धोना ,नाखून नहीं काटना ,बाल नहीं कटवाना ...कोई सही कारण तो पता चले

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  3. परिवारों में अंधविश्वासों को स्थापित किए रहने में स्त्रियों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। यदि स्त्रियाँ स्वयं ही इन अंधविश्वासों के विरुद्ध उठ खड़ी हों तो इन्हें समाप्त होने में देर नहीं लगेगी। अंधविश्वासों के विरुद्ध सजग नारियों को एक जुट हो कर अभियान चलाना चाहिए।

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  4. नारी ब्लाग पर ये पोस्ट वाकई नारी की आंख खोलने वाली है, जो कहीं उलझी हुई है,

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  5. बहुत सुन्दर आंख खोलने वाली पोस्ट,
    - विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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  6. शनिवार को खरीदा गया ए.सी सही चल रहा है....इस बात का प्रमाण मिलने पर भी लोग अपने विश्वास पर अटल रहते देखे गए हैं...ऐसी सोच रखने वाली स्त्रियाँ ज़्यादा है लेकिन पुरुष भी कम नहीं... दोनों को ही ऐसे अंधविश्वासों को तोड़ना है... सार्थक पोस्ट...

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  7. itna kuchh to hai par log maan nah rahe hai..
    bahut sarthak lekh
    achha hai

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  8. मैंने अपनी जिन्दगी में इस बात पर कभी ध्यान नहीं दिया कि किस दिन सर धोना है और किस दिन नाखून काटना है (क्योंकि मेरी माँ ने भी इन बातो को महत्व नहीं दिया) पर मेरी बेटी को बार बार ससुराल में ये सुनना पड़ रहा है कि तुम्हे ये भी नहीं पता और ये instruction भी मिलते है किस दिन क्या करना

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    1. Mam mere mayke me bhi kabhi in baato pr dyan nhi diya gya aur ab sasural me yhi sb sunna pdh rha hai mujhe.koi sahi reason to btata nhi bs nhi krna to nhi krna.q nhi krna ye kisi ko nhi pta

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  9. अपेक्षा इसी तरह की पोस्ट की रहती है....कुछ कारण किसी काल-विशेष में सार्थक रहे होंगे जैसे रात को झाडू न लगाने का...पहले घरों में रौशनी के प्रबंध आज के जैसे तो होते नहीं थे इस कारण रात को झाडू लगाना प्रतिबंधित कर रखा गया था....
    सुन्दर पोस्ट, सार्थक पोस्ट..साधुवाद
    जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड

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