कन्यादान करते समय हमारे कायस्थ समाज मे माता पिता अपनी पुत्री और दामाद के पैर छूते हैं ।
कन्यादान के समय बेटी के हाथ पर कोई न कोई जेवर रखना जरुरी होता हैं क्योकि दान कभी खाली हाथ नहीं किया जाता ।
जेवर हाथ मे रख कर उसका हाथ वर के हाथ मे दिया जाता हैं । जेवर के साथ साथ वस्त्र भी रखना होता हैं ।
क्यों जरुरी हैं ये दान ??
क्या पुत्री कोई वस्तु हैं की आप उसको दान करके अपने किसी पाप का प्रायश्चित करना चाहते हैं ??
क्यों पुत्री और दामाद के पैर माता पिता छुते हैं ??
क्या आप अपने इस दुष्कर्म की माफ़ी मांग रहे हैं की आप अपने सेल्फिश इन्टरेस्ट के लिये दान कर रहे उस का जिसको दुनिया मे आप ही लाये हैं । सेल्फिश इन्टरेस्ट ... ये मैने क्या कह दिया , सही नहीं कहा क्या , की धर्म ग्रंथो मे क्योकि ये लिखा है की कन्यादान से मोक्ष मिलता हैं माता पिता अपना परलोक सुधारने के लिये पुत्री का दान करते हैं ।
कन्याभूण हत्या को अपराध मानने वाला ये समाज क्यों कन्यादान पर चुप्पी साध लेता हैं ?? क्यों कोई भी लड़की मंडप मे इसका विरोध नहीं करती और क्यों किसी भी लड़के का अहम दान लेने पर नहीं कम नहीं होता ।
कम से कम कन्याभूण हत्या के समय तो कुछ ही हफ्तो का जीवन हैं जो खत्म कर दिया जाता हैं और आप इतना हल्ला मचाते हैं पर कन्यादान जैसी परम्परा को जहाँ एक लड़की को जो कम से कम भी १८ साल की हैं वस्तु की तरह दान कर जाता हैं , आप निभाते जाते हैं ।
बहाना
सुयोग्य पात्र के हवाले करते हैं उसको , अरे आज तो वो लड़की खुद ही सक्षम हैं सुयोग्य हैं
जब तक कन्या का दान होता रहेगा तब तक औरते भोग्या बनती रहेगी क्योकि दान मे आयी वस्तु का मालिक उसका जैसे चाहे भोग करे उपयोग करे या काम की ना लगने पर जला दे ।
क्या हमने तरक्की की हैं ?? लगता नहीं क्योकि मानसिक रूप से हम सब आज भी बेकार की परम्पराओं मे अपने को जकडे हुये हैं ।
आलेख आपने पढा , सही नहीं लगा ??
भारतीये संस्कृति के खिलाफ हैं ??
नारी को भड़काने वाला हैं ??
ऐसी बहुत सी बाते आप के मन मे आयेगी , पर अगर एक को भी ये पढ़ कर कन्यादान ना करने की प्रेरणा मिले तो मुझे लगेगा मेरा लिखना सार्थक हुआ ।
मुझे आप के कमेन्ट नहीं , आप की वाह वाही नहीं बस आप की बदली हुई सोच मिलजाये तो एक बदलाव आना शुरू होगा ।
बदलाव लेख लिख कर , पढ़ कर या वाद संवाद करके नहीं आ सकता , बदलाव सोच बदलने से आता हैं , जरुरी नहीं हैं की जो होता आया हैं वो सही ही हैं , और ये भी जरुरी नहीं हैं की सबको एक ही रास्ते पर चलना हैं
आईये सोच बदले नये रास्ते तलाशे और बेटियों का दान ना करके उनको इंसान बनाए ।
जब विवाह करे उस समय चेते नाकि कि अपना विवाह करने के बाद इन सब बातो पर बहस करे । बदलाव व्यक्तिगत होता हैं , चेतना सामजिक होती हैं और एक व्यक्तिगत बदलाव सामाजिक चेतना ला सकता ।
prakriti me pariwartan apne aap hota rahata hai har samaj apne apne riti riwajo ke anusar chalata rahata hai usi samaj ke aap bhi ek ang hai |
ReplyDeleteआप ने जो भी तर्क दिया है वह कुछ लोगो तक ही सिमित है ..संस्कृति मन को शांति और सुसंस्कार देती है मैने अपने जीवन में बहुत से लव मैरेज में भाग लिया हूँ ! बाद में सभी को टूटते ही देखा , जो काफी पढ़े लिखे लोग ही थे !लड़की आत्मनिर्भर होने से भी उसे इस दुनिया के समंदर में बिचरने के लिए कवच की जरुरत पड़ती है ,अन्यथा दुनिया के दरिन्दे चिड - फाड़ कर खा जायेंगे !स्त्री - पुरुष समन्वय का नाम है ! दोनों एक सिक्के के दो पहलू है ! जहा अधिकार की लडाई होती है , वही अशांति उत्पन्न होती है !संस्कार हमेश मनुष्य को परिपक्व करता है ! मजबूती प्रदान करता है ! अब रही कन्यादान की बात , तो दान देने वाला हमेश उच्चा ही होता है ! मेरे ससुर ने मेरे शादी में मेरी पत्नी को कन्यादान दिया ! तो क्या मै उनकी इज्जत करना भूल गया ? आज भी मै उनकी पैर छूकर अभिवादन करता हूँ !आप ने जो कुछ लिखा है आप की सोंच हो सकती है ,पर मै पूरी तरह से सहमत नहीं हूँ .वैसे आप कुछ भी लिखने के लिए स्वतंत्र है ! दान दिल वाले करते है ...हैवान से दान की अपेक्ष नहीं की जा सकती ! राजाहरिश चन्द्र को याद करे ? वैसे आप की लेखनी को सराहे नहीं रह सकता ! अगर आप को मेरे टिपण्णी पर एतराज हो ,तो क्षमाप्राथी हूँ ! धन्यवाद ...
ReplyDeleteलड़की आत्मनिर्भर होने से भी उसे इस दुनिया के समंदर में बिचरने के लिए कवच की जरुरत पड़ती है ,अन्यथा दुनिया के दरिन्दे चिड - फाड़ कर खा जायेंगे !
ReplyDeleteक्यूँ होता हैं ऐसा ?? समाज मे स्त्री को क्यूँ इस लिये कवच चाहिये ? इस गंदे और घिनोने समाज मे बहुत साल रह लिये अब इसको बदले ताकि हमारी लडकिया शादी इस लिये ना करे कि उनको एक सुरक्षा कवच चाहिये . वो शादी इस लिये करे क्युकी उनको जीवन साथी चाहिये . शादी स्त्री कि नियति ना हो . अगर पुरुष को अकेले रहने का अधिकार समाज देता हैं तो स्त्री को भी वही अधिकार संविधान देता हैं
जिन देशों में कन्यादान नहीं होता उन देशो में महिलाओं की सामाजिक स्थिति कैसी है ???
ReplyDeleteहमारे पास दो ही विकल्प हैं
१. संस्कृति सुधार २. संस्कृति से स्वतंत्रता
एक अंजान संस्कृति की ओर जाने से बेहतर है अपनी संस्कृति में सुधार किया जाये ये सब अध्ययन के बाद ही संभव है
सही अर्थ यहाँ देखें
http://religion.bhaskar.com/article/kanyadan-1118874.html
@सुयोग्य पात्र के हवाले करते हैं उसको , अरे आज तो वो लड़की खुद ही सक्षम हैं सुयोग्य हैं
सुयोग्य का मतलब केवल पैसे कमाना भर नहीं होता ...ये तो आप भी जानती हैं .....जीवन में और भी मोड़ आते हैं (बीमारी , वृद्धावस्था आदि)
जितने भी लोग कन्यादान के बारे नहीं जानते हैं / नहीं जानना चाहते ..... आप से सहमती जरूर जता देंगे
विचारणीय लेख तो है तभी तो ये विचार उठे हैं
vicharniy lekh hai aapka.
ReplyDeleteकन्यादान एक प्रथा है, निर्दोष प्रथा। कोई मानसिकता नहीं। किसी बाप ने कन्यादान करके अभिमान भरा गौरव नहीं लिया।
ReplyDeleteजैसे बिन मांगे वस्तु ले लेना चोरी कहलाता है, भले औपचारिकता से पुछें, पर पुछ कर लेना सभ्यता कहलाता है। वही बेटी को सही पति के हाथ सौपने की औपचारिकता कन्यादान कहलाता है।
विवाह अपहरत न माना जाय अत: कन्यादान की प्रथा व्यवहार में आई।
किन्तु यह अंधश्रद्धा है कि कन्यादान बिना मोक्ष नहीं मिलता।
शादी में की जा रही सारी रस्मे कम से कम आज के युग में तो सिर्फ प्रतिक भर रह गई है उनका कोई भी मतलब नहीं होता है न पति पत्नी एक दुसरे को दिए सात वचन निभाते है और न ही ये सात जन्मो का बंधन होता है जिस तरह से सात फेरो से लेकर अन्य चीजे बस रस्म आदायगी भर है उसी तरह कन्यादान भी बस एक रस्म आदायगी ही है | बड़ी चीज है लोगो की सोच अपनी बेटियों के प्रति , भारत में जिन जातियों और धर्मो में कन्यादान की प्रथा नहीं है क्या वह लड़कियों को वस्तु से ज्यादा कुछ समझा जाता है, नहीं वहा भी बेटियों को लेकर वही सोच है | जरुरत इस बात की है की लोगो कि सोच बदले लोग बेटी को भी अपनी संतान माने उसके साथ भी वैसा ही व्यवहार करे जैसे अपने बेटो के साथ करते है और विवाह के बाद अपने और अपने परिवारसे उसके अधिकारों और कर्तव्यो से उसे दूर ना करे | जो ऐसा नहीं कर सकेंगे उनके लिए ये रस्म ख़त्म भी कर दी जाये तो भी उनकी सोच नहीं बदलेगी |
ReplyDeleteहम ये नहीं कहते की हम पुरुष है और आपका ब्लॉग नारी संचालित है अतेव हम आपके ब्लॉग पर नहीं आयेंगे
ReplyDeleteअपितु हम आपके इस प्रयास के लिए धन्यवाद करते है
कुछ पल ही सही परन्तु कुछ अच्छा सोचने का अवसर मिलता है !
समाज के ऐसे पहलू पर चर्चा के लिए धन्यवाद
तकरीबन हर देश और हर संस्कृति मे विवाह के समय बेटी को मंडप तक पिता ही लाता हैं या कोई अभिभावक . अगर आप ध्यान से अन्य संस्कृतियों का अध्यन करेगे तो पायेगे कि बेटी के पिता का स्थान बहुत ऊँचा होता हैं क्युकी वो अपनी बेटी को किसी को देता हैं . लेकिन भारतीये संस्कृति मे बेटी को सौपा नहीं जाता हैं बाकायदा "दान " किया जाता हैं . "दान " करने कि एक प्रक्रिया हैं और दान देने वाला नहीं दान लेने वाला बड़ा होता हैं भारतीये संस्कृति मे . राजा महराजा तक छोटे माने जाते हैं अगर वो दान देते हैं उस साधू , संत से जिसको वो दान देते हैं . दान बहुधा अपने से आर्थिक रूप से कम को दिया जाता हैं लेकिन फिर भी उसको बड़ा माना जाता हैं . दान के समय अपनी सबसे प्रिय वस्तु का दान सबसे बड़ा होता हैं . कन्या दान से बड़ा दान कोई नहीं हैं और मोक्ष प्राप्ति के लिये कन्यादान कि प्रथा शुरू हुई थी . उस समय सुयोग वर का कोई माप दंड नहीं था क्युकी वर कि आयू और कन्या कि आयु मे अंतर बहुत होता था . कम उम्र कि लडकिया और वृद्ध पुरुष . दान करने कि प्रक्रिया को पुरी तरह से कन्यादान मे किया जाता हैं , इसीलिये दामाद "मान्य" होता हैं और दान देने वाला पिता उस से "छोटा " . अब इस मे लड़की कि कोई अहमियत नहीं हैं मात्र इसके कि वो केवल और केवल अपने पिता कि प्रिय वस्तु हैं जिसको दान कर दिया जाता हैं .
ReplyDeleteजो लोग कन्यादान स्वीकार करते हैं वो आर्थिक रूप से कमतर ही होते हैं इसीलिये कन्यादान स्वीकार करते हैं क्युकी उसके साथ बहुत सी अन्य वस्तुए भी मिलती हैं .
अफ़सोस होता हैं कि लोग आज भी कन्या दान जैसी प्रथा को सही साबित करते हैं . जब तक कन्या दान जैसी प्रथा रहेगी लड़की के माता पिता का स्थान नीचा रहेगा और लोग लड़की ना पैदा हो ये दुआ करते रहेगे .
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ReplyDeleteसबसे पहले में ये कहना चाहूंगी की हम जो भी लेख लिखते हैं वो हमारी सोच और हमारे अन्दर की ख़ुशी और आह का मिला जुला मिश्रण ही होता है जो बाहर आने किसी को कुछ सुनाने के लिए बैचेन रहती है बाकि ये सब एक छोटा प्रयास ही होता है हमारा पुरुष को सिर्फ ये बताने का की हमें खुद से अलग मत समझो हम आपलोगों का ही हिस्सा हैं और हमें सिर्फ सम्मान चाहिए और वो आपके सहयोग के बिना कभी पूरा नहीं हो सकता जब रहना साथ है और दोनों एक दुसरे के पूरक हैं और एक दुसरे के बिना सृष्टि आगे बढ ही नहीं सकती तो फिर झगडा किस के साथ ये लड़ाई सिर्फ प्यार और सम्मान की है और पुरुष के प्रयास के बिना ये अधुरा है | कोई माने या न माने में इस बात को मानती हूँ | क्युकी अगर पुरुष नारी के बिना अधुरा है तो नारी भी पुरुष के बिना अधूरी है इसमें कोई दो राय नहीं |
ReplyDeleteजन्म कुंडली का पहला भाव शिव है तो सप्तम भाव पार्वती है | यही बात नर से नारायण और नारी से नारायणी होने की कला सिखाती है |
बाकि आप सभी को महाशिवरात्रि की बहुत - बहुत बधाई दोस्तों |
खुबसूरत और विचारणीय लेख बहुत - बहुत बधाई दोस्त |
ReplyDeleteजब सभी लोग अपने परिश्रम का अन्न खाते थे तो पिता के लिए पुत्र की भांति पुत्री भी उपार्जन का साधन थी. पहले कन्या के पिता द्वारा वर पक्ष से पशुधन या अन्य प्रकार का द्रव्य लेकर ही कन्या का विवाह किया जाता था. इस प्रथा को समाप्त करने के लिए कहा गया कि कन्या का दान किया जाना चाहिए. दान का अर्थ बदले में बिना कुछ पाये देना होता है. हिन्दुओं में अधिकांश विवाह वर-कन्या के सगे सम्बंधियों द्वारा तय किए जाते हैं. अत: 'कन्यादान' शब्द का प्रयोग उचित है. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पहले स्वयंवर की प्रथा थी जिसमें विवाह के इच्छुक युवक एकत्र होते थे तथा उनमें से मनचाहा चयन कन्या ही करती थी. जहां तक स्त्री के सम्पत्ति होने या न होने का प्रश्न है स्त्रियां अपना मूल्य बखूबी समझती हैं
ReplyDeleteमीनाक्षी
ReplyDeleteपूरक शब्द केवल और केवल पति - पत्नी के सम्बन्ध मे आता हैं .
आज के समय मे नारी पत्नी के अलावा भी बहुत जगह पर पुरुष के साथ काम करती हैं . बार बार पूरक शब्द कि बात करके आप उन सब नारियों को जो पत्नी नहीं हैं एक कमी का एहसास दिलाती हैं . ये सामाजिक सोच हैं जहां शादी को नियति मान लिया जाता हैं . इस ब्लॉग पर ही इस विषय मे काफी बहस हुई हैं . किसी ऑफिस मे काम करने वाली स्त्री अपने बॉस या जूनियर कि पूरक नहीं हो सकती हैं . नारी सशक्तिकर्ण "पूरक" सभ्यता से बहुत ऊपर हैं
रही बात सम्मान कि तो मांगना क्यूँ हैं वो आप का जनम सिद्ध अधिकार हैं . संविधान और न्याय भी नारी को समान मानता हैं . सम्मान माँगा नहीं जाता हैं अर्जित किया जाता हैं . जो आप का हैं उसको अगर आप किसी और से मांगती हैं तो आप खुद को खुद ही दूसरे से छोटा बनाती हैं .
हमारे समाज मे जरुरत हैं कि नारी अपनी सोच बदले . जो slave mentality उसको समाज कि कंडिशनिंग देती हैं उस से उबरे और बात पूरक कि नहीं बराबरी कि करे . जिस दिन हर नारी अपने को एक स्वतंत्र इकाई मान कर , शादी को अपनी नियति नहीं एक कर्म मानेगी उस दिन वो दान होने से अपने को रोक सकेगी .
गौरव
ReplyDeleteकन्यादान मात्र एक शब्द नहीं हैं ये एक ऐसा कार्य हैं जो पत्नी को पति कि संपत्ति बनाता हैं और बेटी के पिता को दामाद से नीचे का दर्जा देता हैं , लडके कि अहमियत को बढाता हैं और लड़की कि अहमियत को कम करता हैं . आप से आग्रह हैं कि आप केवल अपनी बात पोस्ट के विषय मे ही कहे . विषयांतर ना करे आप स्वतंर हैं इस ब्लॉग का लिंक देकर अपने ब्लॉग पर पोस्ट लिखने के लिये . आपके पाठक क्या कहते हैं वहाँ आकर हम सब भी पढ़ेगे .
दीदी ,
ReplyDeleteमैंने तो इतिहास ही बताया था .. खैर ...
@....इस ब्लॉग का लिंक देकर अपने ब्लॉग पर पोस्ट लिखने के लिये . आपके पाठक क्या कहते हैं वहाँ आकर हम सब भी पढ़ेगे
ये बात लोजिकल लगी और एक स्वस्थ सोच का प्रतीक भी ...... कभी समय निकाल कर (और ज्यादा रीसर्च करके ) हो सका तो पोस्ट बनाने का प्रयास रहेगा ..
एग्रीगेटर की कमीं से भी फर्क पड़ा है , वर्ना एक नया ब्लॉग ही बनाता संस्कृति पर .. एक ही ब्लॉग पर पोस्ट शेड्यूल करना बहुत मुश्किल होता है :(
इस टोपिक को बीच में से हटाते हुए अभी तो .........
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आपको और सभी बहनों को
शिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं
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ReplyDelete.
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रचना जी,
आपकी बात सही है कि हिन्दू विवाह में कन्यादान व उस से जुड़ी रस्मों जैसे वधू के पिता द्वारा वर के पैर छूना, पैर धोना, कन्या के साथ वस्त्र, जेवर, धनादि देना आदि से यह संदेश तो जाता ही है कि कन्या भी एक संपत्ति मात्र है... मैं तो यही कहूँगा कि अन्य चीजों की तरह धर्म को भी स्थितियों में आये परिवर्तन को स्वीकार कर इस सब बातों को हमारे धार्मिक कर्मकांडों से निकाल देना चाहिये...
"सभी धर्मों के धर्मग्रंथों में बहुत सी ऐसी बातें लिखी गई या बताई गई हैं जो उस युग के मनुष्य की अवैज्ञानिक धारणाओं, सीमित सोच, सीमित ज्ञान (या अज्ञान), तत्कालीन देश-काल की परिस्थितियों व लेखक के अपने अनुभवों या मजबूरियों पर आधारित हैं, आज के युग में इन मध्य युगीन या उससे भी प्राचीन बातों की कोई प्रासंगिकता या उपयोग नहीं रहा, यह सब बातें आज आदमी की कौम को जाहिलियत व वैमनस्य की ओर व महिलाओं को समाज में दोयम दर्जे की ओर धकेल रही हैं, इन सभी बातों को आप बेबुनियाद-बेकार-बकवास की श्रेणी में रख सकते हैं और अब समय आ गया है कि धर्माचार्यों को अपने अपने ग्रंथों की विस्तृत समीक्षा कर इन बातों को Disown कर देना चाहिये। "
...
कन्यादान की परंपरा गलत तो है वधू से ये संकल्प भी कराया जाता है कि अब से पति के ही कुल व गोत्र से उसकी पहचान होगी.जो बात पुरूषों धार्मिक विद्वानों को भी उठानी चाहिये थी उसे यदि केवल महिलाएँ उठा रही है तो वो बात गलत नहीं हो जाती.ये बदलाव कर देने से पुरूषों और धर्म का कोई नुकसान नहीं है.मै अंशुमाला जी से पूरी तरह सहमत हूँ कि इस प्रथा के बंद हो जाने से भी लडकियों की स्थिति में फर्क नहीं आएगा एक दो बार ये बात कह भी चुका हूँ लेकिन फिर सोचता हूँ कि यदि कोई गलत मान्यता हमारे बीच है तो उसकी तरफ से मुँह भी नहीं मोडा जा सकता.कन्यादान,अच्छा पति पाने या पति की लम्बी आयु के लिये किये जाने वाले व्रत या पति के पैर छूने या फिर पिता या पति के उपनाम का इस्तेमाल करना छोडने से भी स्त्रियों की दशा नहीं सुधरने वाली लेकिन फिर भी साहित्य में खुद महिलाएँ इन प्रश्नों को उठाती रही है क्योंकि सवाल केवल स्त्री के अधिकारों का नहीं उसके स्वतंत्र अस्तित्व और अस्मिता को बनाए रखने का भी है.फिर भले ही शुरू मे कुछ लोगों को ये मजाक लगता रहा हो.यही कारण है कि स्त्री सशक्तिकरण की जो धारा सुषुप्त होकर बह रही थी उसे थोडी गति मिली है.कल तक जिन बातों पर महिलाएँ ध्यान तक नहीं देती थी वही अब उन्हें झिंझोडने लगी है.सो ऐसी प्रथाओं के प्रति उदासीन रवैया नहीं रखा जाना चाहिये.पुरूष नहीं समझेंगे तो महिलाएँ ही सोचना शुरू करेंगी.हाँ ये मैं मानता हूँ कि पहले दहेज घरेलू हिंसा कन्या भ्रूण हत्या यौन शोषण जैसे मुद्दों को प्राथमिकता देनी चाहिये जिनसे महिलाएँ सीधे प्रभावित होती है या जिनके बीच में धर्म का सवाल नहीं आता या जिन पर आम सहमति बनाना आसान हो.
ReplyDelete@अंशुमाला जी पिछली पोस्ट पर टिप्पणी के बारे में स्पष्ट करने के लिये धन्यवाद.
@रचना जी,उस दिन आपकी मेल थोडी देर से देख पाया था इसलिये सोचा कि सीधे पोस्ट पर ही चलूँ.स्नेह तो बना ही रहेगा.
दहेज घरेलू हिंसा कन्या भ्रूण हत्या यौन शोषण
ReplyDeleterajan
yae sab kyun hotaa haen ?? kaaran wahii stri aur purush ki samajik sthiti mae samantaa nahin haen
smantaa nahin haen to kin karnao sae nahin haen
unkarano mae ek kaarn haen kanyadaan jiski vajah sae ladki kae abhibhavak apnae ko apmaanit samjtey haen wo varpaksh sae neechay ho jaatey haen
aur isiiliyae log beti nahin chahtey haen