भारतीये समाज के अपने नियम हैं जो व्यक्ति से व्यक्ति , जाति से जाति , धर्मं से धर्म और लिंग से लिंग के लिये फरक हैं । ये नियम अपनी सुविधा के लिये जब चाहे बना लिये जाते हैं और जो इनके विरोध मे खडा होता हैं उसको "रीबैल " यानी " परम्परा भंजक " कहा जाता ।
समाज के नियम कानून और संविधान से हमेशा इतर होते हैं क्युकी कानून और संविधान मे एक से नियम होते हैं सब के लिये ।
क्यूँ हम सब कानून और संविधान कि बात ना करके हमेशा वेद पुराण बाइबल कुरआन गुरु ग्रन्थ साहिब की बात करते हैं । किसने कहा ये सब ग्रन्थ कुछ नहीं सीखते पर क्या आप वाकयी इन ग्रंथो मे लिखी हर बात मानते हैं या केवल कुछ बाते जो आप को सुविधाजनक लगती हैं उनको मान कर अपना लेते हैं और बार बार उनको हर जगह दोहराते रहते हैं । जितनी शिद्दत से आप ने ये धर्म ग्रन्थ पढे हैं क्या उतनी शिद्दत से आपने अपने संविधान को कभी पढ़ा और समझने कि कोशिश की हैं ।
भारत का संविधान सब को बराबर मानता हैं हर धर्म को , हर जाती को और हर लिंग को । फिर क्यूँ ये समाज किसी को बड़ा और छोटा मानता हैं और क्यूँ ये समाज नारी को हमेशा दोयम का दर्जा देता हैं ।
नारी के नाम को बदलना शादी के बाद
नारी को देवी कह कर पूजना पर उसको समान अधिकार ना देना यहाँ तक कि पैदा होने का भी { कन्या भुंण हत्या }
नारी का बलात्कार अगर वो किसी कि बात का प्रतिकार करे { कल एक लड़की को छेड़ा गया , प्रतिकार करने पर गाडी मे खीच कर बलात्कार किया गया }
नारी को जाति आधरित बातो पर मारना { एक लड़की को गैर जाति युवक से प्यार करने की सजा उसको ८ कम नगन अवस्था मे चलाया गया पूरे गाव के सामने और रुकने पर कोडे से मारा जाना }
ना जाने कितनी खबरे थी कल के अखबार मे इस लिये आग्रह हैं कि धर्म ग्रंथो और सामजिक नियमो से उठ कर कानून और संविधान कि जानकारी ले । उसको पढे और बांचे ताकि समाज मे फैले "असमानता " को दूर किया जा सके ।
धर्म ग्रन्थ , समाज के नियम , कानून और संविधान , चुनाव सही करे
ना तो लोग धर्म ग्रंथो की ठीक से व्याख्या करते है और ना ही संविधान की सभी बस अपने मतलब के हिसाब से उसे मानते और नहीं मनाते हैऔर अपने स्वार्थो के हिसाब से उसका अर्थ निकलते है |
ReplyDeleteबिलकुल सही। आप से सहमति है।
ReplyDeleteहाँ ...... लेख के इस हिस्से से सहमत हूँ की संविधान की जानकारी होनी चाहिए ....
ReplyDeleteरचना जी,
ReplyDeleteमुझे लगता है कि आज ज्यादातर पढी लिखी व समझदार महिलाऐं जो अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हैं वो धर्म का संपूर्ण निषेध तो नहीं करती परंतु उसके नाम पर थोपी गई तमाम स्त्री विरोधी व पुरूषों को महिमामंडित करने वाली मान्यताओं को नहीं मानती फिर चाहे करवा चौथ हो या अहोई अष्टमी.धर्म का स्वरूप पहले ऐसा नही रहा होगा लेकिन समाज के कमजोर तबकों(स्त्री व दलितों) को दबाऐं रखने के लिये ये बुराईयाँ धर्म के साथ जोड दी गई(वो भी इसलिये सम्भव हो पाया क्योंकि धर्म या धर्मग्रंथ ईश्वर द्वारा नहीं बनाये गये सत्ताधारी वर्गों ने ही इन्हें अपनी सुविधानुसार बनाया या इनकी व्याख्या की हैं).परंतु अब इन बुराईयों को धर्म से अलग किये जाने की जरूरत हैं वर्ना कोई कारण नही कि महिलाओं का विश्वास धर्म के बजाय कानून व संविधान पर ही अधिक हो वो और कुछ न सही स्त्री के लिये समानता(अवसरों की समानता)की बात तो करते हैं.
रचना जी,
ReplyDeleteआपने जो भी अत्याचार, बलात्कार आदि गिनाये हैं वे अपराध प्रव्रत्ति के मनुष्य/ मानसिकता के कार्य हैं न कि धर्म व समाज के कानून या नियम..
.....अनाचारी असमाजिक तत्व( वे तत्व जो समाज व धर्म के विरुद्ध कार्य करते हैं इसीलिये असामाजिक शब्द बना)अप्नी सुविधा एवं शक्ति व दखल के अनुसार उन्हें कुछ भी रूप दे देते हैं...जैसे अपराधी कानून को तोडने व नेता/ कुछ सरकारें/ संस्थायें/ कोर्पोरेट जगत के लोग संविधान के विरुद्ध कार्य कार्य करते पाये जाते हैं....
---शादी के बाद नाम बदलने का नियम मध्य युगीय है जो संतान केअधिकार, निश्चितीकरण व जायदाद आदि के हक आदि के लिये बनी.....सीता, पार्वती, द्रौपदी,रुकमिनी, मदालसा,रानी लक्ष्मी बाई आदि ने कब नाम बद्ले थे.....
---कानून व संविधान में भी हिन्दू ला, मुस्लिम पर्सनल ला आदि धार्मिक नियमों को स्थान दिया गया है...कानून /संविधान कहीं आसमान से नहीं उसी समाज व धार्मिक नियमों से आये है...
----अतः निश्चय ही हमें प्रत्येक स्थान पर सही , उचित, मानवोचित चुनाव करना चाहिये ..
--जहां तक लिन्ग से लिन्ग, धर्म से धर्म,व्यक्ति से व्यक्ति, जाति से जाति के भेद की बात है वह सामान्य सहज़, जनहित न्याय है---एक ही अपराध की सज़ा सामान्य व्यक्ति, विशेष्ग्य, अधिकारी, शासक, धर्म-गुरु को अलग अलग ही दी जानी चाहिये.ताकि समाज में उचित संदेश जाय...अधिक अधिकार =अधिक दायित्व.. न्याय भी इस प्रकार के अपने विवेकाधीन ग्यान का उपयोग करता है..
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