October 07, 2010

मेट्रो मे आरक्षित महिला कोच के बहाने

लोग कहते हैं की अगर महिला को पुरुष के समकक्ष खड़ा होना हैं तो उसको आरक्षण से ऊपर उठाना होगा .सही हैं
मै भी आरक्षण के खिलाफ हूँ
लेकिन फिर मै किसी भी काम को नारी के लिये आरक्षित भी नहीं मानती ।
मै नहीं मानती की शादी ही नारी की नियति हैं
मै नहीं मानती की बच्चे पैदा करना ही नारी की सम्पूर्णता हैं
मै नहीं मानती की घर का काम नारी का और बाहर का काम पुरुष का हैं
और अगर ये समाज नारी के लिये इस काम को आरक्षित करता हैं तो वो सब महिला जो ये सब काम करते हुए जीविका के लिये धन भी रही हैं उनको आरक्षण का पूरा अधिकार

मेरा सर उनके लिये आदर से झुक जाता हैं
जो कोख मे मास के शिशु को लेकर दौड़ कर ब्लू लाइन बस मे चढ़ती हैं , क्यूँ नहीं हो कम से कम १० सीट हर बस मे गर्भवती महिला के लिये
जो प्रसव के तुरंत बाद १० दिन मे नौकरी वापस जाती हैं और इसके लिये दूध को सुखाने वाली गोली भी लेती क्यूँ नहीं दफ्तर मे उनके लिये एक नर्सरी आरक्षण हो की वो बच्चे को भी साथ ला सकती हैं और समय से दूध पिला सकती हैं
जो दफ्तर से काम करके घर आती हैं और तुरत बच्चो का होमवर्क कराती हैं , सास को दवा देती हैं , घर के लिये खाना भी बनाती हैं क्यूँ नहीं आरक्षित हो उनके लिये समाज मे एक अलग जगह

कहना बड़ा आसान होता हैं की नारी की नौकरी पुरुष से स्पर्धा हैं , जबकि सच ये हैं वो हर नारी जो नौकरी करती हैं और घर भी चलाती अपने लिये वो उन सब से ज्यादा आरक्षण की हकदार हैं जो केवल घर चलाती हैं क्युकी उसने आरक्षित हर काम को पूरा करके वो सब काम भी किये हैं जो उसके लिये आरक्षित नहीं थे


दिल्ली मेट्रो मे कोच का आरक्षण हो गया हैं महिला के लिये ।
कम से कम महिला की कोच मे कोई गर्भवती महिला चढ़ेगी तो उसको सीट देने के लिये पुरुष की तरफ नहीं देखना होगा , कोई ना कोई महिला खड़ी हो कर उसको सीट दे ही देगी

कोई नारी जो अपने दुधमुहे को दूध पिलाना चाहे तो उसको अपने बे पर्दा होने का डर नहीं होगा

खुश हूँ की सरकार चेत गयी हैं पता नहीं वो महिला कब चेतेगी जो निरंतर समाज को खुश करने के लिये कहती हैं की काम काजी महिला अपने "आरक्षित कर्तव्य" पूरी तरह नहीं निभाती ।

12 comments:

  1. इस समाज में जितने भी प्रकार के लोग हैं सब एक से नहीं होते. महिलाओं के लिए ऑफिस में या उसके पास डे केयर सेंटर के लिए सरकार ने आज से २३ साल पहले ICMR के तत्वाधान में सर्वेक्षण करवाया था और उसके लिए १५०० विभिन्न वर्ग की कामकाजी महिलाओं को लिया गया था. उससे मैं जुड़ी थी और उसका अध्ययन व विश्लेषण भी मैंने किया था. आज तक क्या हुआ? मेट्रो में आरक्षण मिल गया बहुत बड़ी बात. कामकाजी महिलाएं जो कुछ कर ले जाती हैं वो घर वालों के लिए आलोचना का विषय बना होता है और उसका काम करना उसके लिए अभिशाप ही बना रहता है. उसने शिक्षा ग्रहण की , उसके अन्दर क्षमता है तो वह काम कर रही है लेकिन "आरक्षित कर्त्तव्य' तो कहीं कहीं घर में रहने वाली भी नहीं निभा रही हैं लेकिन वे आलोचना का पात्र नहीं है. वह कामकाजी है तो चर्चा का विषय है.

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  2. मेरी बात को इतनी सहजता से कहने के लिये आभार

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  3. आप की बातो से सहमत हु | मुंबई की लोकल में तो हमेसा से महिलाओ के लिए अलग दो कोच होते है एक आगे या पीछे और एक बीच में साथ ही आफिस टाइम में उनके लिए एक पूरी ट्रेन ही चलती है लेडिस स्पेशल जिसमे सभी कोच महिलाओ के लिए ही होते है | बसों में भी उनके लिए सीट आरक्षित होती है अब तो उन सीटो की संख्या भी बढ़ा दी गई है | वैसे ये बात हमने कई बार मुंबई में देखी है की लोग तुरंत ही किसी के कहे बिना ही किसी वृद्ध को या किसी गर्भवती महिला को तुरंत ही अपनी सीट दे देते है | कुछ नालायक लोगों को छोड़ दीजिये | मैट्रो ने ये पहल की है तो उसका स्वागत है |

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  4. मैंने कई बार बच्चों ,महिलाओं और वृद्धों को सीट दी है।जब सीट पर बैठा रहता हूँ तो कई बार पास ही खडी हुई अपनी हमउम्र महिला (लडकी?)को अपनी तरफ गुस्से से देखते पाकर उसे भी सीट दे देता हूँ।वो तो बैठ जाती है पर अब पास में बैठे हुए लोग खासकर महिलाऐं ऐसे घूरकर देखती हैं की बस ।अब हम शकल से ही शरीफ नहीं लगते तो इसमें हम क्या करें ?

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  5. कल ही मेरी मेट्रो में एक महाशय से इसी बात पर बहस हो गई. वे किसी लड़की को बोल रहे थे कि जब तुम्हारे लिए एक कोच आरक्षित है तो तुम सभी को वहीँ जाना चाहिए. मैंने कहा सरकार ने बाकि सभी कोचों मैं आरक्षण व्यवस्था को नहीं बदला, तो अभी भी ये यहाँ बैठ सकती है. महाशय यही कोई ५० के आस पास थे. वे बौखला कर उलटे सीधे तर्क देने लगे. मैं बोला अंकल आपकी बेटी भी तो ट्रेवल करती होगी. इस पर भी वे नहीं माने. बोले ऐसे तो एक पूरी मेट्रो इनके लिए आरक्षित कर दो. जब मैंने देखा कोई फायदा नहीं इन्हें समझाने का तो मैं चुप होके सहमति में सर हिला दिया, मेरा स्टेशन भी आ चूका था, सो उतर गया. विडंबना ये भी थी कि उनके साथ सभी यात्रियो कि सहमति भी थी, जो उनके फालतू के तर्कों पे उनके साथ हंस कर उनका साथ दे रहे थे.

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  6. आपसे सहमत हूँ. औरतों के लिए लेडीज़ कोच एक ज़रूरत थी. आजकल तो मेट्रो में बदतमीजी भी बहुत बढ़ गयी है.
    और कुछ लोगों की सोच का क्या कहें? जब पत्नी, बेटी या बहू घर में पैसे कमाकर लाती है, तब तो बड़ा अच्छा लगता है, पर वो कैसे इतना सब मैनेज करती है, इस ओर कोई नहीं देखना चाहता.

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  7. आपसे सहमत हूँ. औरतों के लिए लेडीज़ कोच एक ज़रूरत थी. आजकल तो मेट्रो में बदतमीजी भी बहुत बढ़ गयी है.

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  8. दिल्ली की संस्कृति के बारे में तो बात ही करना बेकार है। इस बात पर तो शोध होना चाहिए की ये कौन लोग हैं जिनके कारण देश की राजधान सबसे असुरक्षित है महिलाओं के लिए चाहे वो घर हो या बाहर।
    रही बात कामकाजी महिला की तो महिला तो सब कामकाजी हैं चाहे वे घर में हो या बाहर .यह भेद किसने किया की जो बाहर काम करे वो कामकाजी !!

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  9. महिलाओं के लिए इस तरह की व्यवस्था को सकारात्मक रूप में देखा जाना चाहिए. सफ़र के दौरान इस तरह के लोगों की संख्या बढती ही जा रही है जो महिलाओं की समस्या से मजे लेते हैं. सरकार के साथ हम सभी को भी इस तरफ सकारात्मक रूप से काम करना होगा.
    जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड

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  10. sarkar ke iss kadam se main bahut khush hoon..aap mahilayon ko badhayi ho...lekin ye arkshad agar rajniti mein na ho to behtar hai..uski vajah hai... main naari ka samaan karta hoon..aisa kyun sochta hoon ye janne ke liye mere blog ka lekh padhe..

    mahila aarkshad adhunik naari par ek prashchinh..

    मुन्ना की अम्मा या बंटी की मम्मी

    रामदीन की लुगाई या mrs शर्मा

    पंडितजी की बहु या बिज़नस tycoon कपूर साहब की daughter in-law.

    किसी की बहन

    किसी की बेटी

    किसी की बीवी

    किसी की माँ

    सोचती हूँ कहाँ है मेरी पहचान ...?

    कहीं चूल्हे चाकी में दिन गुजारती हूँ

    और कहीं ..vacuum cleaner और washing machine में

    साड़ी से निकल कर पतलून भी पहन ली

    लेकिन क्या अपने वजूद से लिपटी उस पुरानी सोच को उतार पायीं हूँ?

    जो मुझे मेरी खुद की पहचान नहीं बनाने देता ....?

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  11. @ अभिषेक जी

    तो आप क्या चाहते हैं ? सारी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी जाये ? नियमो और नैतिकता में कुछ फर्क होता है की नहीं ? मेट्रो में एक अलग कोच ट्रेन में दो कोच , और विशेष महिला ट्रेन , ये सभी नियम हैं और हमको इनका पालन करना ही पड़ेगा परन्तु ये सारे नियम अनैतिक तो हैं ही |

    अगर सामान श्रम पर सामान वेतन मिलता है तो सामान धन पर सुविधाएँ सामान क्यूँ नहीं ?

    आपने तो लगता है मेट्रो में बहुत सफ़र किया है .चलिए बताइए

    कभी किसी 20-25 varsh की लडकी को किसी 80 वर्ष के बुजुर्ग को महिला सीट से उठाते हुए देखा है ? मैंने देखा है अक्सर ही विश्वविद्यालय से राजीव चौक के बीच तो कई बार

    कभी किसी ही महिला किसी भी वृद्ध या विकलांग के लिए सीट छोड़ते हुए देखा है भले ही वो विकलांगो के लिया आरक्षित सीट पर ही क्यूँ न बैठी हो ? मैंने १५ माह में केवल १ बार अक्षरधाम में देखा है बाकी तो केवल निर्लज्जता ही देखी है |

    अच्छा आपने पलवल या गज़ाबाद से दिल्ली आने वाले महिला ट्रेन देखी है ?उसमे इतनी जगह होती है की महिलाएं सोते हुए आ सकती हैं |
    उसके आआगे और पीछे आने वाले साधारण ट्रेन देखी है ? जो खुश किस्मत होते हैं उनको २ इंच जगह पैरों के लिए और २ इंच जगह हाथ के लिए मिल जाती है |

    जहाँ तक उन महिलाओं की बात है जिनको सच में आवश्यकता होती है सीट की तो उनको टी अब नहीं मिलेगी क्यूँकी उस कोच में तो कोई लड़का होगा नहीं |

    वैसे मैं अगर अकेला नहीं होता तो हाथ और सर पर काली पट्टी बांध कर उसी कोच में जाता

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  12. @अंकित जी, आपका गुस्सा जायज है पर आपकुछ बिंदुओं को नजरंदाज कर रहे हैं. सामान वेतन मिलता है पर वह तभी मिल पता है जब उसके लिए कानून है. चाहे हमारे समाज में नारियो ने काफी तरक्की कर ली हो पर अभी बहुत बड़ा हिस्सा शोषित ही है. भीड़ में जो अभद्र व्यव्हार महिलाओं के साथ होता है वह स्वीकार्य नहीं है. महिलाओ को हर कदम पर पुरुषों से ज्यादा मुश्किलें उठानी पड़ती है, हो सकता है आप उन पुरुषों की श्रेणी में न हो परन्तु बहुत सरे पुरुष ऐसे होते हैं कि मौका मिला नहीं कि बहाने से हाथ मारना जैसी अभद्र हरकतें करते हैं. ऐसी स्थिति में उन्हें आरक्षण कि आवश्यकता है, ये मेरा मानना है.

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