उस दिन अपनी एक डॉक्टर मित्र संजना के यहाँ किसी काम से गयी थी ! संजना अपने क्लीनिक में मरीजों को देख रही थी ! मुझे हाथ के संकेत से अपने पास ही बैठा लिया ! सामने की दोनों कुर्सियों पर एक अति क्षीणकाय और जर्जर लगभग ८० वर्ष के आस पास की वृद्ध महिला और एक नौजवान लड़की, लगभग १६ -१७ साल की, बैठी हुईं थीं ! वृद्धा की आँखों पर मोटा चश्मा चढ़ा हुआ था ! कदाचित वह अपनी पोती के साथ अपनी किसी तकलीफ के निदान के लिये संजना के पास आई थीं ! संजना ने उनकी सारी बातें ध्यान से सुनीं और प्रिस्क्रिप्शन लिखने के लिये पेन उठाया ! आगे का वार्तालाप जो हुआ उसे आप भी सुनिए –
संजना - अम्मा जी अपना नाम बताइये !
पोती - आंटी ज़रा जोर से बोलिए दादी ऊँचा सुनती हैं !
संजना - अम्मा जी आपका नाम क्या है ?
पोती - दादी आंटी आपका नाम पूछ रही हैं !
दादी - नाम ? मेरो नाम का है ? मोए तो खुद ना पतो !
संजना – तुम ही बता दो उन्हें याद नहीं आ रहा है तो !
पोती – आंटी दादी का नाम तो मुझे भी नहीं पता ! हम तो बस दादी ही बुलाते हैं !
संजना – अम्माजी आपको घर में किस नाम से बुलाते हैं सब ?
इतनी देर में वार्तालाप के लिये सही वोल्यूम सेट हो गया था !
दादी – घर में तो सब पगलिया पगलिया कहत रहे ! छोट भाई बहन जीजी जीजी कहके बुलात रहे ! सादी के बाद ससुराल में अम्माजी बाऊजी दुल्हन कह के बुलात रहे ! मोए कबहूँ मेरो नाम से काऊ ने ना बुलायो ! तो मोए तो पतो ही नईं है ! ना जाने का नाम रखो हतो बाउजी ने !
संजना – घर में और रिश्तेदार भी तो होंगे जो आपसे बड़े होंगे वो कैसे बुलाते थे ?
दादी – हाँ बुलात तो रहे पर कोई को मेरो नाम लेबे की कबहूँ जरूरत ही ना परी ! सब ऐसे ही बुलात रहे बिसेसर की दुल्हन, के रोहन की माई और के रजनी की माई ! बच्चा बच्ची सब अम्मा, माई कहके बुलात रहे !
विश्वेश्वर उनके पति का और रोहन और रजनी उनके बच्चों का नाम था !
संजना – अरे कोई तो होगा आस पड़ोस में जो आपको किसी नाम से बुलाता होगा !
दादी सोच में डूबी कुछ असहज हो रही थीं !
दादी – हाँ बुलात काहे नहीं रहे ! रामेसर और दुलारी दोऊ देबर ननद भाभी कहत रहे ! उनके बाल गोपाल बबलू, बंटी, गुडिया, मुनिया सब ताईजी कहत रहे ! भाई बहिन के बच्चा कोऊ बुआ तो कोई मौसी कहत रहे ! नन्द के बच्चा मामी कहके बुलात रहे ! आस पड़ोस के लोग कोई काकी तो कोई चाची कहके बुलात रहे ! मेरे को अपनो नाम सुनबे को कोई काम ही ना परो कबहूँ ! मोए सच्चेई याद ना परि है कि मेरो का नाम है !
पोती को भी दिलचस्पी हो रही थी वार्तालाप में बोल पडी !
पोती – अच्छा दादी दादाजी आपको किस नाम से बुलाते थे ?
दादी सकुचा गईं !
दादी – जे कैसो सवाल है लली ? हमार जमाने में मरद अपनी जोरू को नाम ना ले सकत थे ! ना उन्होंने कभी मोए पुकारो ! बस पास आयके काम बता देत थे सो हम कर दिया करती थीं ! कभी बहुत जरूरत परी तो ‘नेक सुनियो’ से काम चल जात थो !
दादी घोर असमंजस में थीं ! मैं भी सोच रही थी वाकई स्त्री की क्या पहचान है ! उसका अपना सारा परिचय इतने टुकड़ों में बँट जाता है कि वह स्वयं अपनी पहचान खो देती है ! वृद्धा दादी की याददाश्त क्षीण हो गयी थी ! वे इसीका इलाज कराने आयी थीं ! विडम्बना देखिये उन्हें बाकी सबके नाम याद थे लेकिन अपना नाम ही याद नहीं था ! शायद इसलिये कि अपनी याददाश्त में उन्हें उनके अपने नाम से कभी किसीने पुकारा ही नहीं ! शायद इसलिए कि उन्होंने कभी अपने लिये जीवन जिया ही नहीं ! अनेक रिश्तों में बंधी वे अपने दायित्व निभाती रहीं और अपनी पहचान खोती रहीं और उससे भी बड़ी बात बच्चों तक को उनका नाम याद नहीं है जैसे स्त्री का अपना कोई स्थान, कोई वजूद या कोई पहचान नहीं है वह महज एक रिश्ता है और उसका दायित्व उस रिश्ते के अनुकूल आचरण करना है ! इन सारे रिश्तों की भीड़ में वह कभी ढूँढ नहीं पाती कि उसका स्वयं अपने आप से भी कोई रिश्ता है जिसके लिये उसे सबसे अधिक जागरूक और प्रतिबद्ध होने की ज़रूरत है !
यह संस्मरण सत्य घटना पर आधारित है ! हैरानी होती है यह देख कर कि आज के युग में भी ऐसे चरित्रों से भेंट हो जाती है जो सदियों पुरानी स्थितयों में जी रहे हैं ! ग्रामीण भारत में जहाँ आज भी शिक्षा का प्रसार यथार्थ में कम और सरकारी फाइलों में अधिक है ऐसे उदाहरण और भी मिल सकते हैं ! सोचिये, जागिये और कुछ ऐसा करिये कि कम से कम आपके आस पास रहने वाली हर स्त्री सबसे पहले खुद से रिश्ता जोड़ना सीख सके !
साधना वैद
समझोते से जिन्दगी कटती हैं जी नहीं जाती । अपने अपने घरो मे बस एक बार अपने घरो की महिलाओ से पूछ कर देखे " क्या वो जिन्दगी जी रही हैं या काट रही हैं " और आप को जो जवाब मिले उसको पूरी इमानदारी और सचाई से यहाँ बांटे । आप की माँ का जवाब आप की सोच को सही दिशा दे सकता हैं बस कुछ मिनट माँ के साथ इस प्रश्न को पूछने मे लगाए ।
sadhna
thank you for sharing this post with us
i tried to convey this message many times on this blog { see the above link}
woman were mere robots in the indian society without name and a place to call their own .
people still feel the PLACE OF INDIAN WOMAN is the same .
on many blogs specially some by woman i have seen woman bloggers trying to give a message to society that the woman should remain submissive , and only that woman who is submissive is a woman and only that woman who is beautiful is a woman
they dont follow what they write they merely write to get comments
i know there will be very few comments on your post but the message is strong and clear
THANKS
साधना जी बहुत सही और सार्थक पहलू पर बात की.....अपने दायित्वों को निबाहते हुई
ReplyDeleteसभी औरतें अपने जीवन को जीना तो भूल ही जाती है...... आभार आपका इस वैचारिक पोस्ट के लिए ....
सोचिये, जागिये और कुछ ऐसा करिये कि कम से कम आपके आस पास रहने वाली हर स्त्री सबसे पहले खुद से रिश्ता जोड़ना सीख सके....सार्थक सोच...शानदार पोस्ट.
ReplyDeleteबढिया पोस्ट ।हमारे यहाँ जब शादी का कोई निमन्त्रण पत्र आता है तो पुरूषों के तो नाम लिखे होते है परन्तु कार्ड के अन्त में लिख दिया जाता हैं कि "कृप्या महिलाओं का बुलावा भी इसी कार्ड द्वारा स्वीकार किया जाए "।क्या बकवास हैं?इस बारे में पढे लिखे लडकों को पहल करनी चाहिये।वहीं महिलाओं को चाहिये कि वे अपने आस पडोस में महिलाओँ को नाम से बुलाऐं न कि मिसेज गुप्ता,मिसेज शर्मा,गोलू या सोनू की मम्मी आदि।
ReplyDeleteविचारणीय विषय
ReplyDeleteसचमुच औरतों/लडकियों का नाम कब गुम जाता था, पता ही नहीं चलता था।
हो सकता है अब भी बहुत सी औरतें खुद को भूलती जा रही हों।
वैसे मैं कई बार अपना ही मोबाईल नम्बर भूल जाता हूँ। कभी मिलाना ही नही पडता है ना :) सच में
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साधना जी बहुत ही अच्छी पोस्ट ये ... विचारनीय बात ये है की आधुनिक समाज में रहने वाली स्त्री को भी क्या पहचान मिल पाई है ??.. और कितनी स्त्रियाँ ऐसी है जो पहचान पाना चाहती है??.. अगर ढूडने निकलेंगे तो बहुत कम ... बहुत तकलीफ होती है देख कर .. इस पर जितना लिखें उतना कम है ...
ReplyDeleteआपका प्रयास सराहनीय है ... शुभकामनाएं
बिल्कूल सही कहा विवाह के पहले किसी की बेटी और विवाह के बाद किसी की बहु या पत्नी के रूप में ही नारी की पहचान हो पाती है | मुश्किल से कुछ नारिया ही है जो अपनी असली पहचान बना पाती है | रही बात नाम की तो आप को बताऊ मराठियों में विवाह के बाद लड़की का सरनेम तो बदलत ही है उसका नाम ही बदल दिया जाता है जो नाम वो अब तक सुनते आई है जो उसकी एक छोटी पहचान होती है उसे भी बदल कर पति अपने इच्छा अनुसार रख देता है और ये बाकायदा एक रस्म होती है |
ReplyDeleteग्रामीण भारत में ही नहीं बल्कि कमोबेश यह स्थिति शहरों में कई स्थानों में जब ही दिखती हैं तो इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जब दीया तले ही अँधेरा है तो दूर की कौन सोचेगा! एक औरत ही एक औरत की तकलीफों से बखूबी वाकिफ होकर उसके समाधान की दिशा में सार्थक प्रयास/कदम उठा सकती हैं..यही सब को करना होगा ...
ReplyDelete......नारी जागरूकता भरी प्रस्तुति के लिए धन्यवाद....
मुझे लगता है की डॉ.साहिबा को उनसे ये पूछना था की आपकी सहेलियां आपको किस नाम से पुकारती थी
ReplyDeleteखैर काफी विडंबनात्मक पोस्ट है ,सचमुच अफसोसजनक
साधना जी ,इसे हम सबके साथ बांटने के लिए धन्यवाद आपका
महक
बहुत बढ़िया पोस्ट. बहुत अच्छी लगी. विचारने को बहुत कुछ मिला.
ReplyDeleteएक और बेवजह की पोस्ट---
ReplyDeleteउस वृद्ध की उम्र????????८० वर्ष ???????????????
इतनी उम्र में आदमी अपने को भूल जाता है और आप नाम याद रखने की बात कर रहीं हैं. हमारी दादी तो इससे ज्यादा उम्र में हम सब को छोड़ कर गईं थीं और उन्हें तो अपना नाम याद था हाँ कभी-कभी याददाश्त के कमजोर होने के कारण अपने किये हुए काम ही भूल जातीं थीं, कई बार एक घंटे पहले किये काम को ही भूल जातीं थीं.
कुछ सार्थक लिखिए, इसकी कमी दिख रही है, आजकल यहाँ.
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
हाँ आज भी ऐसे चरित्र जीवित हैं ,और क्या पता आगे भी मिल जायें , हम अभी सभ्य कहाँ हुए हैं ?
ReplyDeleteहाँ आज भी ऐसे चरित्र जीवित हैं ,और क्या पता आगे भी मिल जायें , हम अभी सभ्य कहाँ हुए हैं ?
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रया के लिये धन्यवाद सेंगर जी लेकिन दुःख हुआ जानकर कि आपको पोस्ट बेवजह की लगी ! आप उसके केन्द्रीय कथ्य को ही नहीं समझ पाए ! यहाँ सवाल सिर्फ नाम भूलने का नहीं है ! आपकी दादी को ही नहीं अन्य बहुत सी दादियों को ईस उम्र में भी अपना नाम याद हो सकता है ! जिस सत्य और तथ्य ने मुझे विचलित किया था वह यह था कि उस वृद्ध महिला का जीवन कितने रिश्तों और दायित्वों में विभाजित होकर रह गया था कि उसे कभी अपनी युवावस्था में भी अपना नाम जानने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई ! कभी उसने अपने अस्तित्व अपने वजूद अपनी पहचान को स्थापित करने के लिये दो पल भी नहीं जिए ! क्या हमारे समाज में अनगिनत ऐसी स्त्रियाँ नहीं हैं जो सिर्फ और सिर्फ यंत्रवत अपने घर परिवार के लिये जीती जाती हैं ! वे खुद तो अपने बारे में सोचती ही नहीं घर के अन्य सदस्य भी कभी उनके बारे में नहीं सोचते ! अभी तक आपने शायद ध्यान नहीं दिया होगा ! अब ज़रा सूक्ष्मता से अपने आस पास के लोगों के जीवन को ज़रूर देखियेगा ! वहाँ ऐसी कई स्त्रियाँ आपको दिखाई दे जायेंगी जिन्हें अपना नाम बेशक याद होगा लेकिन जिन्होंने अपनी खुशी के अनुसार अपने मन से उन्मुक्त होकर शायद ही कभी दो दिन बिताये होंगे !
ReplyDeletesadhna
ReplyDeletedont bother when dr sanger says "the post is useless" because according to him what ever we write is useless .
In any case if you see his comments you will find जय बुन्देलखण्ड always there . It surprises me that he is so conscious of his state being recognized but he fails to recognize the importance of woman empowerment
औरत के जीवन का एक कटु यथार्थ...
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