February 19, 2010

अपनी परम्पराओं की ओर लौटना होगा


दहेज एक सामाजिक बुराई है। सिर्फ कानून के माध्यम से इसे नहीं रोका जा सकता है। कुछ राज्यों में इसका बड़ा भयावना चेहरा देखने को मिल रहा है। यहां लड़के का पालन-पोषण, उसकी शिक्षा-दिक्षा को एक इनवेस्टमेंट के रूप में देखा जाता है। विवाह के अवसर पर इसे सूद समेट उगाहना, लड़के के माता-पिता अपना अधिकार समझते है। इसके कारण कितने परिवार टूटते है? कितने परिवारों में जीवन भर के लिए मनो-मालिन्य पैदा हो जाता है कहना मुश्किल है।

शर्माजी ने अपनी जिंदगी की शुरूआत बहुत निचले स्तर से की थी, लेकिन बेटे के जन्म के बाद उनके सपनों को पंख लग गए। जो खुद नहीं हासिल कर पाए, अब बेटे के माध्यम से पाने की ठान ली। जिस दिन अपने बेटे का एडमीशन इंजीनियरिंग कालेज में कराया, उसी दिन से बेटे के ऊपर खर्च का हिसाब रखना भी शुरू कर दिया। पढ़ाई समाप्त करने के बाद बेटे को अच्छी कम्पनी में नौकरी मिल गई। लेकिन शर्माजी अपने खर्च किए गए पैसे का पूरा उपभोग करना चाहते थे इसलिए उन्होंने बेटे की नौकरी के लिए उसी कंपनी मे जुगाड़ किया जहां वे स्वयं नौकरी करते थे। ताकि रिटायरमेंट के बाद भी बेटे के साथ रहते हुए नौकर गाड़ी की सुविधाएं भोग सके। ये उनके इंवेस्टमेंट का पहली किस्त थी। दूसरी किस्त थी बेटे की शादी में मिलने वाला दहेज।

दहेज में नगद, ज्वैलरी, गाड़ी, सामान सभी की लिस्ट पहले से तैयार कर ली गई। उन्होंने एक अनुमान लगा लिया था कि उन्हें शादी बीस से पच्चीस लाख के बीच में करनी है। कई रिश्ते आए। लड़कियां भी पसंद आई, पर बात-चीत पैसे पर आकर टूट जाती। शर्माजी चाहते थे कि आने वाली लड़की पढ़ाई में भी उसके टक्कर की हो। यानी दोनों हाथ में लड्डू। आखिरकार उन्हें एक रिश्ता मिल भी गया। लड़की पढ़ी-लिखी थी, नौकरी करती थी। घर से भी ये लोग मजबूत थे। शर्माजी ने अपनी सभी बातें उनके सामने स्पष्ट कर दीं। लड़की वालों ने भी हामी भर दी।

लड़की वाले खानदानी रईस थे और शर्माजी ने बेटे को सीढ़ी बनाकर लखपती बनने के सपने संजोये थे। दोनों की सोच में अंतर था। बड़ी-बड़ी धूमधाम से बारात आई। लड़की वालों ने शर्माजी को उनकी कल्पना से भी बढ़कर दान-दहेज दिया।
शादी के बाद शर्माजी का घर दहेज के सामान से भर गया। जो देखता उनके भाग्य को सराहता। वे भी गर्व से कहते कि उन्होंने अपने बेटे की शादी जिला ऊपर की है। बता दे कोई, जिसके घर में इतना दहेज आया हो। यह कहते हुए, दरवाजे के बाहर खड़ी चमचमाती कार देखकर उनका सीना गर्व से फूल जाता।

इस तरह शादी तो जिला ऊपर हो गई, पर ब्याह कर जो लड़की आई, वह अपने इस नए परिवार के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त थी। उसे अपनी सास का रुढ़िग्रस्त बर्ताव पसंद नहीं था। उसकी अपनी पसंद नापसंद थी, जो सास के साथ मेल नहीं खाती थी। छोटी-छोटी बातों को लेकर घर में कलह होने लगी। पूरा परिवार बहू के मैके के वैभव तले इस कदर दबा हुआ था कि उसकी किसी भी बात का विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाता। माँ की बहू पर शासन करने की बलवती इच्छा मन ही मन कसमसा कर रह जाती। उन्हें कई बार अपनी बहू के हाथों अपमानित होना पड़ता। पर कह कुछ नहीं पाती, जो वैभव वो भोग रही थी, उसे छोड़ कर जाने की कल्पना ही उन्हें असहनीय लगती।

शर्मा दम्पत्ति के पास संसारिक दिखावे की हर वस्तु थी, पर मन की शांति नहीं थी। जिस घर में रहने के इतने सपने देखे थे, वह अब बेगाना लगने लगा था। जिला ऊपर शादी करने का दर्प भी टूटने लगा था। कई बार सोचते, अगर बेटे की शादी अपनी हैसियत के लोगों के साथ की होती तो अच्छा होता। पर अब कुछ नहीं हो सकता था। वे अपना बेटा ऊँची कीमत पर बेंच चुके थे और बिकी हुई चीज पर वह अपना हक किस मुँह से जताते। हालात इस कदर बिगड़े की बेटे ने माँ-बाप को घर की शांति के लिए घर छोड़ देने को कह दिया।

शर्मा दम्पत्ति के पास घर छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। वे चुपचाप गांव जाकर अपने पुश्तैनी मकान में रहने लगे। जहां किसी तरह की सुविधा नहीं थीं। यहां तक बिजली भी नहीं आती थी। पर क्या कर सकते थे, जो बोया था वही काट रहे थे।

तो कुल मिलाकर मामला ये है कि पहले हमारे समाज में शादी सिर्फ दो आत्माओं का मिलन नहीं था, इसके माध्यम से दो परिवार भी जुड़ते थे। पर आज शादी के समय में लड़की वाले सिर्फ लड़के को देखते हैं और लड़के वाले पैसे को। बाकी की चीजे नगण्य है। इसलिए सामाजिक समस्याएं भी खड़ी हो रही। अगर हम एक स्वस्थ और अच्छी जिंदगी जीना चाहते हैं, तो हमें अपनी परम्पराओं की ओर लौटना पड़ेगा।

-प्रतिभा वाजपेयी

2 comments:

  1. यहाँ तो शुक्र है कि शर्मा जी का बेटा अपने घर में रह रहा है उसको अलग घर देकर सुसराल वालों ने नहीं रखा
    विवाह हमेशा अपने स्तर के लोगों में ही करना चाहिए . तौरतरीके और स्तर बराबर होने से किसी को भी नीचा देखने कि जरूरत नहीं होती. एक नहीं आज मध्यम वर्गीय कितने शर्मा जी हैं जो अपने बेटों को पढ़ा कर अपने लिए अटूट वैभव का सपना देख रहे हैं और जीने भी लगते हैं लेकिन दिवास्वप्न सा यह भ्रम बहुत जल्दी टूटने लगता है. ये बड़े घर की कीमत चाहे हम लड़की के लिए खरीद करदें या फिर लड़के के लिए खरीदें बहुत महँगी पड़ती है. आज नहीं तो कल चुकानी ही पड़ती है. वह पैसे के रूप में नहीं आत्मसम्मान की कीमत पर.

    ये दहेज़ ही तो है, जो कितनी लड़कियों कि शादी न हो पाने के कारण माँ-बाप को आत्महत्या तक करनी पड़ जाती है. पता नहीं हम कब इस से मुक्त होपायेंगे.

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  2. एकदम सटीक वर्णन किया है आपने....ऐसे असंख्य केस देखे हैं मैंने...
    लेकिन तब पछिताये क्या होत जब चिड़िया चुग गयी खेत...

    पहले ही इन बातों को ध्यान में रख सचेत हो जाएँ लोग तो फिर बात ही क्या...

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