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माफ कीजिये में ब्लॉग पर देर से आई और इसलिए देर से कमेन्ट कर रही हूँ -
मैंने और मेरे पिताजी ने भी प्राण लिया था की उस घर में मेरी शादी नहीं होगी जो लोग दहेज़ मांगेंगे। मेरे ससुराल वालों ने कोई मांग नहीं रखी लेकिन यहाँ बात खत्म नहीं होती। शादी की हर रस्म में लड़की के ही घर से कुछ न कुछ जाता रहा जो मेरे पिताजी ने अपनी ख़ुशी और सक्षमता से किया। मैं नौकरी करती थी इसलिए मैंने अपना खर्चा जहाँ तक हो सका खुद उठाया, कोशिश की पिताजी पर थोड़ा कम भर आये। पर शादी की रस्म से सभी ही वाकिफ हैं।
मुझे लगता है की अगर हमें देहेज को जड़ से हटाना है तो शादी की परंपरा को ही फिर से परिभाषित करना पड़ेगा क्यूंकि कोई कितना भी कोशिश कर ले किसी न किसी रूप में दहेज़ की प्रथा चलती रहेगी। या दूसरा रास्ता है Court Marriage.
" जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की " "The Indian Woman Has Arrived " एक कोशिश नारी को "जगाने की " , एक आवाहन कि नारी और नर को समान अधिकार हैं और लिंगभेद / जेंडर के आधार पर किया हुआ अधिकारों का बंटवारा गलत हैं और अब गैर कानूनी और असंवैधानिक भी . बंटवारा केवल क्षमता आधारित सही होता है
February 16, 2010
दहेज़ नहीं लिया दिया बस पिता ने अपनी हैसियत से बेटी ब्याह दी
दहेज़ नहीं लिया दिया बस पिता ने अपनी हैसियत से बेटी ब्याह दी क्या यही कहना हें रिचा का अगर हाँ तो क्यूँ शादी कि हर रस्म मे देना केवल बेटी के पिता को ही होता हैं ? रिचा का कमेन्ट पढे और अपना कमेन्ट भी दे और सोचे जरुर कि इस मानसिकता को बढ़ने या घटाने के लिये आप नए क्या किया । क्या आप मानते हैं कि ऐसे समझोते करते रहने से समाज मे कभी कोई बदलाव आयेगा या जो रास्ता रिचा बता रही हैं वही एक सकारात्मक सुधार ला सकता हैं । अपने समय मे किसी कुरीति को "समझोता " कह कर आगे बढाने मे अपने योगदान का कितना आकलन आप करते हैं और ये महज स्त्री या पुरुष कि बात नहीं हैं समाज कि हैं ।
धार्मिक रूप से यदि देखें तो कन्या पक्ष से वर पक्ष को धन देने की कोई व्यवस्था हिन्दू धर्म में नहीं की गयी है...लोक व्यवहार में यह मान्यता रही है कि चूँकि पिता की संपत्ति पर उसके समस्त संतानों का अधिकार होता है,जो कि साधारणतया एक विवाहिता पुत्री विवाहोपरांत अपने पिता से नहीं लिया करती.. तो पिता अपनी कन्या को विवाह काल में कुछ धन उसके आर्थिक सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए देते हैं..
ReplyDeleteलेकिन अब चूँकि शान शौकत दिखाने के लिए जो भी ताम झाम किये जाते हैं,कुछ भी धन के बिना तो संभव है नहीं...इसलिए आज के दिन में दहेज़ न भी लिया जाय तो विवाह एक बहुत ही खर्चीला उत्सव हो गया है...कोर्ट मैरेज इसका समाधान नहीं..बल्कि इसका समाधान यह है कि विवाहोत्सव को एक धार्मिक उत्सव के रूप में अत्यंत सात्विक व शालीन ढंग से मनाया जाय...
विवाह में मंत्र अग्नि तथा प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठानों का बड़ा ही महत्त्व है,इसे यूँ ही नकारना कदापि कल्याणकारी न होगा...
मैंने कई दक्षिण भारतीय विवाह देखे हैं और उनसे अतिशय प्रभावित हुई...उन विवाहों में मंदिर में वर कन्या पक्ष के सभी सदस्य जाते हैं,वैदिक मत्रोच्चार के मध्य विवाह संपन्न होता है ,उभय पक्षों को प्रसादम वितरण किया जाता है और उसके बाद यदि इच्छा हुई तो एक भोज का आयोजन होता है और यदि आर्थिक अक्षमता हुई तो यह नहीं भी होता है..क्योंकि इसकी कोई बाध्यता नहीं होती...
यदि सौहाद्रपूर्ण वातावरण में वर कन्या पक्ष वाले इसके लिए अपने आप को तोयार कर लें तो फिर प्रश्न ही नहीं आएगा अनावश्यक अर्थ व्यय का...
कोर्ट मैरिज भी एक समाधान हो सकता है. लेकिन अगर कोई अपने पारम्परिक ढंग से विवाह करना चाहता है, तो मुझे रंजना जी की सलाह भी ठीक लग रही है.
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