February 15, 2010

तुलना कर तौलें नहीं!


                                     "तुलना" करने के लिए  सभी भाषाओं में अलंकारों का प्रयोग किया जाता है . उसका प्रयोग साहित्य कि दृष्टि से अच्छा भी लगता है, किन्तु जब यह सामान्य जीवन में उतर कर आता है तब इसकी भूमिका बड़ी ही विध्वंसक भी हो सकती है. अच्छे परिणाम तो कम ही समझ आते हैं , जब भी देखा है एक नहीं तो दूसरे के ऊपर इसका प्रभाव विपरीत ही पड़ता नजर आता है.

                       यह तो निश्चित है कि दो पीढ़ियों के बीच में वैचारिक मतभेद  मूल्यों  और  मान्यताओं के प्रति आस्था में फर्क होने से होता है. जब परिवेश , शिक्षा और जीवनचर्या बदल रही है तो पीढ़ी कि सोच भी बदलेगी ही. उसकी सोच और आचरण भी अपने समय के अनुरूप ही होंगे. मैं अपने युवाकाल कि बात करती हूँ - जब मैं उस उम्र में थी तो हमारे बुजुर्गों को हमारे जीवनचर्या में कमियां नजर आती थीं , और वे हर बात में टोका करते थे. आज वही काम हम करने लगे हैं. 

                         ये दो पीढ़ियों के अंतर ही आलोचना और तुलना के लिए जिम्मेदार बन जाता है और कभी कभी ये हमारे स्वभाव का एक अंश बन जाता है.  तुलना किसी भी दृष्टि से सार्थक नहीं होती है. जब हम दो इंसानों, चीजों और या फिर परिस्थितियों को तौल नहीं सकते  - जैसे  एक आकृति कि पुनर्रचना हूबहू नहीं कि जा सकती है ( बशर्ते कि मशीन निर्मित न हो) वैसे ही किसी भी हालत में हम दो की तुलना करें तो कम या अधिक अंतर अवश्य ही पायेंगे. तुलना हम चाहें अपनी वस्तु को बेहतर साबित करने के लिए करें या फिर दूसरे कि वस्तु को हीन समझ कर करें - उसका प्रभाव  हमें अच्छा देखने को कम ही मिलता है. उसके स्वरूप और परिणाम सदैव ही कष्टकारक होते हैं ( अपवाद इसके भी होते हैं.).

                           सुचिता जी कि छोटी बहू बड़े घर कि आई , हाथों हाथ ली गयी, उसकी हर चीज को तारीफ बाधा- चढ़ा कर की जा रही है. बड़ी बहू साधारण परिवार की लड़की थी परन्तु सयंमित और संतुलित थी. छोटी बहू के आते ही  सुचिता जी ने लेन - देन  , उपहार और उनकी स्थिति की रिश्तेदारों में तुलना शुरू कर दी. सिर्फ अपने बेटों कि तुलना नहीं की. कि जहाँ उनका बड़ा बेटा जनरल स्टोर का मालिक है और छोटा इंजीनियर . 
                            बड़ी बहू चुचाप सुनती रहती लेकिन क्या उसका संयम और संतुलन ऐसी स्थिति में कायम रह सकता है. जब आप दूसरे के सामने उसको नीचा दिखने के लिए माहौल बना रही हों. यही तुलना कल यदि बड़ी बहू के संयम को तोड़ दे और वह उत्तर और प्रत्युत्तर करने लगे तो ?
                           ये तुलना भी एक मानसिक प्रवृति है, जिसके लिए हर कोई विषय बन जाता है. हर क्षेत्र में देखिए माँ - बाप अपने दो बच्चों के बीच तुलना करते हैं? शिक्षक भी अपने छात्रों के बीच तुलना करते हैं. नौकर अपने मालिकों की तुलना करते हैं. पति और पत्नी भी आपस में तुलना करते हैं. स्वयं बच्चे अपने को दूसरे से तुलना करते हैं. 

--बड़ा बेटा तो इस उम्र में कमाने लगा था, ये अभी तक निठल्ला बैठा है.   (बेटे से बेटे की  तुलना)
-- तुमसे तो मेरी बेटी अच्छी है, हर काम में माहिर है, पता नहीं क्या सीख कर आई हो? ( बहू से बेटी की तुलना)
-- मैं तुम्हारी उम्र में दस लोगों कि गृहस्थी संभाल   रही थी. (अपनी दूसरों से)

-- ये पैसा बेटे में लगाओ तो बुढ़ापे में तुम्हारे काम आएगा.  (बेटी बेटे में )
-- अपने उस मित्र को देखो, हर समय पढता रहता है . (मित्र से)
-- इस बार इतने नंबर आने चाहिए कि मेरा सर नीचा न हो.
--  मेरे अमुक मित्र कि पत्नी को देखो कितनी होशियार है.
-- मेरे जीजाजी तो ............. 


                       ऐसे कितने ही उदहारण हैं , जिनसे हम सभी दो चार हुआ करते हैं और फिर इसके परिणामों से भी. ये तुलना किसी भी स्तर पर हो सकती है. इसी कोई सीमा नहीं है. बच्चे हों या बड़े हों अपनी अपनी सोच के अनुसार इसको लेते हैं. बहुत कम ऐसे होते हैं , जो इन बातों को नजरंदाज कर दें. 
                     मैं तो इस तुलना कि प्रवृति को एक मानसिक विकार कि दृष्टि से ही देखती हूँ क्योंकि  जिस सोच  या अभिव्यक्ति से सार्थक परिणाम न हों वह अच्छी कैसे हो सकती है?  घर में दो बहुयों कि तुलना, बहू और बेटी की तुलना या  दो भाइयों की तुलना. जिसको भी आप हीन बता रहे हैं , वह उसको सहज नहीं ले सकता है. वह हीन है या उससे कम है ये अहसास कोई दूसरा दिलाये तो बहुत बुरा लगता है. हो सकता है कि वह स्वयं इस बातको सोचता हो किन्तु तुलना करने से हम किसी कि बराबरी नहीं कर सकते हैं. इससे आपस में वैमनस्यता उत्पन्न होती है. आप की भी भूमिका इसमें सार्थक नहीं साबित होती है. तुलना करने वाला अपना सम्मान खो बैठता है. साथ ही दूसरे के मन में आपके प्रति मलिनता भी आ सकती है. हो सकता है जिससे आप जिसकी तुलना कर रहे हैं वह इस बारे में न सोचता हो, वह अपने स्तर पर खुश हो, लेकिन आपकी तुलना उनको दो को एक सीढ़ी ऊपर और नीचे खड़ा कर सकती है और बराबरी पर खड़े दो भाई या कोई भी इस अंतर को सहज स्वीकार नहीं कर पाते हैं.
                     यही तुलना बाल मन पर और भी घातक प्रभाव डाल देती है, उनका बाल मन बहुत ही कोमल होता है कभी कभी ये तुलना उनको अंतर्मुखी बना देता है, इसके विपरीत वह उत्श्रंखल भी हो सकता है. दोनों ही स्थितियां उसके लिए घातक हैं. वह दूसरे को चोट पहुँचाने के बारे में सोच सकता है, या स्वयं अपने को हानि पहुँचाने के बारे में कदम उठा सकता है. ऐसी घटनाएँ भी देखने को मिलती हैं की छते भाई - बहन को क्षति पहुंचाई या बच्चे ने आत्महत्या कर ली.

                     आपसी संबंधों में ये तुलना के तनाव की जननी बन सकती है. यह आवश्यक नहीं है कि आपके साथी को अपनी तुलना किसी के साथ अच्छी ही लगे. कितना ही सुलझा हुआ इंसान या औरत हो. अपने निजी रिश्तों के बीच किसी तीसरे को किसी भी रूप में जगह नहीं देते हैं फिर चाहे तारीफ हो या फिर कुछ और. इसके दुष्परिणाम भी आये दिन देखने को मिलते ही रहते हैं.
                    अक्सर समाचार होता है कि छात्र या छात्र ने फेल होने के दर से आत्महत्या कर ली..........


                                  हम एक समाचार कि तरह से पढ़ कर अख़बार रख देते हैं किन्तु कभी इस ओर सोचा ही नहीं कि इसमें व्यक्तिगत तुलना की भावना बसी होती है. . बड़े भाई और बहनों कि उपलब्धियों या सहपाठी और मित्रों कि उपलब्धियों से कभी कभी स्वयं कि तुलना में कमतर पाने पर हादसे हो जाया करते हैं.


                     इनको बचने के लिए ये आवश्यक है कि कभी तुलना में किसी को तौलें नहीं -- सबके लिए सब कुछ हासिल करना मुनासिब नहीं होता.
 

8 comments:

  1. अच्‍छा आलेख। तुलना करना मानवीय स्‍वभाव है और इसके परिणाम इतने विध्‍वंशकारी होते हैं कि बोलने वाला तो बोल जाता है लेकिन परिणाम उस व्‍यक्ति को भुगतने पड़ते हैं जिसके बारे में कहा गया है। निश्‍चय ही आपने अच्‍छा मुद्दा उठाया है बधाई।

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  2. ek sadhaa huae aalekh sochnae par majboor karegaa

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  3. तुलना मानवीय स्वभाव जरूर है लेकिन एक सीमा तक। सीमा लांघने के परिणाम सदैव दुखदायी होते है।

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  4. मैं आपकी बात से पूर्णरूपेण सहमत हूँ. दहेज-प्रथा के समाप्त न होने के लिये ज़िम्मेदार बहुत हद तक यही तुलना की प्रवृत्ति है. इसी से बचने के लिये लड़कियाँ स्वयं अपने माँ-बाप पर दहेज़ देने के लिये ज़ोर डालती हैं.

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  6. बहुत ही विचारपरक आलेख....बिलकुल सच कहा,आपने....ये तुलनात्मक प्रवृत्ति कितने ही मन को ठेस पहुंचाती है...और दो लोगों के बीच क्लेश बढाने का काम करती है....पर यह मानवीय मन की ऐसी कमजोरी है जिससे शायद ही कोई अछूता हो...कई बार अनजाने में ही हम अपने दो बच्चों के बीच या उनके मित्रों के साथ उनकी तुलना कर जाते हैं...पर हमें इस से उबरने की कोशिश करनी चाहिए...बहुत ही सार्थक आलेख...सोचने को मजबूर करती हुई.

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  7. आपके इस प्रभावशाली आलेख से शत प्रतिशत सहमत हूँ मैं...
    बहुत सुन्दर ढंग से आपने विषय को विवेचित किया है...
    नकारात्मकता नकारात्मकता को ही परिपोषित करती है,यह कभी सकारात्मक प्रभाव नहीं छोड़ सकती..कभी कल्याणकारी नहीं हो सकती...

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