January 14, 2010

एकल जीवन : समाज के लिए कितना सार्थक!


नर और नारी समाज के दो मजबूत स्तम्भ हैं और इनके ऊपर ही परिवार , विवाह जैसी संस्थाओं की नींव रखी हुई है किन्तु समाज के बदलते स्वरूप में - ये स्तम्भ दरकने लगे हैं। 'स्व' में घिरा मानस 'पर' के साथ जीना क्यों नहीं चाहता है और अगर ऐसा है तो क्या इस विषय में समाज के प्रबुद्ध लोगों को विचार नहीं करना चाहिए?

लखनऊ विश्वविद्यालय के एक सर्वेक्षण के अनुसार : महिलाओं में इस बात का समर्थन किया है की एकाकीपन गृहस्थ महिलाओं की अपेक्षा जीवन के हर क्षेत्र में कामयाबी दिलाने और आत्मविश्वास के बढ़ने में सहायक रहा है।
किसी का दामन थाम कर चलने की जो मजबूरी उनकी माँ में थी - वह विरासत में उन्हें भी मिली थी किन्तु जब यथार्थ के धरातल पर खुद को अकेले खड़े पाया तो जमीन और सख्त लगती साथ ही पैरों में ताकत भी अधिक लगी। उन्हें तब चिंता दायें - बाएं देखने की नहीं बल्कि सामने अपने बच्चों या स्वयं अपने भविष्य को देखने की थी और इस चिंता ने उन्हें कमजोर नहीं दृढ बनाया। परिवार , समाज और अपने दायरे में
लड़ने की शक्ति मिली

इस सर्वेक्षण में अविवाहित, तलाकशुदा, विधवा और परित्यक्ता महिलाओं को शामिल किया गया था। इसमें ९३ प्रतिशत महिलाओं ने इस बात को स्वीकार किया की उनका एकाकीपन कार्य और व्यवसाय के क्षेत्र में कामयाबी में सहायक बना। इसमें उच्च पदस्थ ही नहीं बल्कि मजदूरी, सब्जी बेचनेवाली, दुकान चलने वाली हर वर्ग एक आयु समूह की महिलाएं हैं।

इस एकाकी जीवन जीने वाली महिलाओं में अधिकतर अपने जीवन से संतुष्ट मिली। अविवाहित चाहे जिस कारण से रही हों किन्तु समझौते का जीवन जीने से बेहतर खुद अपना जीवन जीना है। परित्यक्ताओं की पृष्ठभूमि में : स्वतः परित्यक्त तो कोई नहीं होना चाहता किन्तु बदचलन पति, दहेज़ लोलुप ससुराल वाले या सौत के साथ रहने से बेहतर उन्होंने अलग जीना माना। अपना स्वाभिमान, जीवन और बच्चे सुरक्षित हैं। अपने प्रयासों से आत्मनिर्भर हैं - प्रताड़ना और घुटन से मुक्त है। स्वतः चुने इस एकाकी जीवन में उन्हें संतुष्टि है।
यद्यपि एकाकी जीवन से संतुष्ट होने वाली ८७ प्रतिशत महिलाओं ने कहा की उनके यौन शोषण का खतरा रहता है। जबकि ५४ प्रतिशत मानती है कि वे पुरुष के प्रति आकर्षण से मुक्त नहीं है। सर्वे में शामिल ५३ प्रतिशत महिलाओं ने माना कि जीवन में विवाह को जरूरत से अधिक महत्व दिया जाता है। जबकि ६५ प्रतिशत महिलाओं ने जीवन में पति की जरूरत को बेमतलब महत्व देने वाला माना।

इसके अतिरिक्त वे विधवाएं जो कि निम्न श्रेणी में काम करने वाले कर्मचारियों की पत्नी है और आज उनके स्थान पर नौकरी कर रही हैं ।
"मुआ शराब पीकर पीटत रहे और रुपैयाऊ न देत रहे। अब बहन हम रुपैयाऊ कमात हैं और बाल बच्चन को अच्छा खबात - पिआत है।"
आज पूर्णतया संतुष्ट जीवन जी रही हैं।
घर में मैड का काम करने वाली ८० प्रतिशत महिलाओं के पति शराबी है या फिर किसी बुरी लत के शिकार हैं - अपनी कमाई तो देते ही नहीं है और पत्नी की कमाई भी मार पीट कर ले जाते हैं।
वे जरूर अकेले रह कर भी खुश नहीं रह पाती हैं।

ये सर्वेक्षण किसी विघटन की कहानी नहीं कह रहा है बल्कि ये संकेत कर रहा है कि जीवन में आत्मसंतुष्टि ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। जो किसी समाज और परिवार की धरोहर नहीं है। यह एक संकेत है कि हमें इस दिशा में भी विचार करना होगा की इन विसंगतियों को कैसे दूर किया जाय और समाज का जो स्वरूप तर्कसंगत है उसको कैसे बचाया जाय।

9 comments:

  1. मेरा भी यही सोचना है, विवाह और संतानुत्पत्ति को हतोत्साहित किया जाए, और अविवाहित रहने वाले युवाओं या परिवार न बढ़ाने का फैसला करने वाले जोड़ों को सामाजिक, आर्थिक व अन्य प्रोत्साहन दिए जाने चाहिए. कम से कम जनसँख्या पर लगाम लगेगी, और युवाओं का जो समय और उर्जा परिवार में खपती है उसे वे काम में लगा सकेंगे.

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  2. change is the way of life there are many aspects why it happens

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  3. प्रताड़ित जीवन से एकल जीवन बेहतर ही होता होगा। वैसे जिसे जिसमें सुविधा लगे वही करना चाहिए। विवाह करना आवश्यक भी नहीं है। हाँ, बच्चों को जन्म देने से पहले विवाह कितना स्थाई है इस पर विचार अवश्य होना चाहिए। बच्चों को स्वस्थ वातावरण व जहाँ तक सम्भव हो माता पिता दोनों का प्यार मिलना ही चाहिए। किन्तु घर में यदि कलह होती हो तो बेहतर है कि बच्चों को शान्ति से जहाँ उन्हें सुविधा हो वहाँ रहने दिया जाए। परन्तु उत्तरदायित्व तो दोनों का ही है।
    घुघूती बासूती

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  4. विवाह संस्‍था समाज द्वारा संचालित रही है, इसलिए समाज का ही उत्तरदायित्‍व होता है कि वह इस विवाह संस्‍था को सुचारू रखे और परिवार में स्‍त्री और पुरुष दोनों के सम्‍मान की रक्षा करे। लेकिन आज समाज बिखर गया है, इसी कारण महिलाओं पर होने वाले अत्‍याचारों की सुनने वाला कोई नहीं है। महिला अपने आप में परिपूर्ण है, इसलिए जब वह अकेली होती है तब वह उन्‍नति के शिखर छूती है। लेकिन जिस आत्‍मसम्‍मान के साथ महिला अकेलेपन का सामना करती है यदि उसी आत्‍मसम्‍मान के साथ परिवार में भी रहे तब अत्‍याचार कम होते हैं। परिवार में रहकर कमजोर बनना ही महिला पर अत्‍याचार को निमन्‍त्रण देना है। आज के युग में जब समाज बिखराव पर है तब महिला को विश्‍वास ही उसके काम आएगा।

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  5. samay badal raha hai soch badal rahi hai...so nari ki soch bhi badal rahi hai. vo swawlambi hai isliye usme aatm vishwas bhi badha hai..swawlamban ne nari ko uski chhipi sampoornta ka ehsaas aur vishwas dilaya hai.

    isliye purush ko chahiye ki vo bhi samay k sath badle aur atyachaar karne ki bajaye istri ko sathi samjhe. varna to yeh chinta ka vishey hai hi ki srishti ki yeh rachna nari jiki maa banNe ke liye hi utpatti hui hai (kyuki maa ban kar hi nari srishti ko aage badha sakti hai) vo apne kartavye se vimukh ho jayegi aur srishti dava-dol ho jayegi.

    aisa hi ek article purush ki soch per bhi adharit hona chahiye...

    aur yeh article purush k liye ek soch me badlaav lane ka maadhyam bhi hai ki ab purusho ko apni soch me badlaav lana chahiye. afterall nari-purush ek dusre k purak hai ye baat ham sab ko maanNi chahiye.

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  6. इस सर्वेक्छन और आलेख ने काफी कह दिया .
    एकल जीवन विवाह संस्था का आदर्श पर्याय भले नहीं बन सकता , हाँ जब वैवाहिक जीवन ही विष बन जाये या विवाह ही स्व की आहुति मांगे तो एकल जीवन में ही मुक्ति है . खुद के फैसलों से खुद की खुशी जीना और आत्मुन्नती सबका अधिकार है .चाहे वह विवाह संस्था के अंतर्गत हो या बाहर .लेकिन सृष्टि की निरंतरता , स्त्री पुरुस दोनों के योग और संतति के लालन पालन के कर्तव्य से भी बंधी है.विवाह की नियामक संहिता को दुरुस्त करना है और वह आपसी समझ और विश्वास से ही पाया जा सकता है .उसका एकमात्र आधार स्त्री पुरुस के परस्पर संबंधों में ' समता ,समानता ,स्नेह, सम्मान ,saajhedaree ' में ही हो सकता है.

    रेखाजी के स्पष्ट ,तार्किक और तथ्यात्मक विश्लेषण में बहुत प्रश्न छुपे हैं .वक्त का तकाजा है की पूरे समाज को इसके उत्तरों के लिए तैयार होना पड़ेगा.वर्त्तमान रूप , आज के वक्त और न्याय , दोनों कसौटियों पर असफल ही नहीं पीड़ा दाई बना रहेगा .

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  7. जीवन के जो आधारभूत स्तम्भ है उनकी अहमियत को हम नकार नहीं सकते लेकिन हम अपनी सोच को एक नयी दिशा दे सकते हैं की अपनी और बड़ों की समझदारी से इन संस्थाओं को तोड़ने की नहीं और मजबूत करने की कोशिश करें. अपनी पुरातन सोच को अगर बदल लें और सबके सुख और दुःख के लिए समान अनुभूति रखे अधिकारों और दायित्वों को बराबर का दर्जा दें तो कुछ भी असंभव नहीं है.
    एकाकी जीवन बहुत अच्छा साबित नहीं हो सकता है लेकिन परतंत्रता और घुटन से बहुत अच्छा हो सकता है. पुरुष और महिला दोनों की सोच में परिवर्तन आ रहा है और हमें उसके अनुकूल आचरण और व्यवहार के लिए स्वयं को तैयार कर लेना चाहिए बल्कि जिन्हें हम दिशा दे सकते हैं , जो भटक रहे हैं उन्हें भी दिशा देनी चाहिए. ये चिरजीवी संस्थाएं ही सृष्टि का आधार हैं और सदैव ही रहेंगी.

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  8. यह प्रश्न मूलतः समाज जो की है नहीं, के विकास से जुड़ा है .
    कोई भी अंग अलग् थलग होकर विकसित नहीं हो सकता . लेकिन इसके लिए एक उचित धरातल का होना जरूरी है . वह धरातल आज कहीं दिखाई नहीं देता इसलिये यह अवस्था आ रही है . इसका भविष्य में क्या परिणाम होता है यह तो स्पष्ट नहीं है . लेकिन पश्चिम की तरह यह जनसंख्या नियंत्रण का प्रभावी अस्त्र साबित हो सकता है .
    इसमे मूल रुकावट सुरक्षा की ही है .

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  9. nari ka bvasayic upyog ho raha hai is liye is tarike ke programe dikhaye ja rahe hai nari ke sasaktikaran ke liye gyan ka hona aawasyak hai

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