November 30, 2009

नारि न मोहे नारि के रूपा!

तुलसीदासजी ने सत्य ही कहा था - "नारि न मोहे नारि के रूपा" और ये सच भी था, जब सौंदर्य , अधिकार और शक्ति की बात होने लगती है तो यह "न मोहे" बीच में आने लगता है। कहाँ से शुरू किया जाए?

पुत्री के जन्म से लें - कन्या भ्रूण हत्या या फिर कन्या शिशु हत्या के पीछे सबसे अधिक कौन जिम्मेदार है? ८० प्रतिशत परिवार की महिलाएं - सास , जिठानी, ननद या स्वयं माँ। पुरूष वर्ग की भागीदारी मात्र २० प्रतिशत की होती है। इस जगह पुरूष वर्ग प्रशंसनीय भूमिका निभा रहा है और ये शत प्रतिशत सत्य है की पिता पुत्र और पुत्री में भेदभाव बहुत कम करता है। इस भेदभाव में सबसे अधिक भागीदारी 'दादी' और 'नानी' माँ या बुआ जैसे पात्रों की होती है.

मेरी बड़ी बेटी का जन्म हुआ, पति बाहर टूर पर थे। मेरी जेठानी को दो बेटियां पहले से ही थी। रात ११ बजे पति लौटे तो सूचना दी गई - 'लड़की हुई है' अब रात में जाकर क्या करोगे? (तब मोबाइल की सुविधा नहीं थी की उनको तुरंत ही सूचित किया जा सकता .) सुबह अस्पताल चले जाना। मेरे पति २० किलोमीटर स्कूटर से चल कर अस्पताल पहुंचे तो मुझे बताया की घर में यह कहा जा रहा था।

समझा जा सकता है की कहने वाला कौन हो सकता है? लेकिन उससे ठीक विपरीत मेरे ससुरजी थे। उनके दोनों बेटों से उनको ५ पोतियाँ मिली किंतु कभी भी उनके जन्म पर उनका मन मैला नहीं हुआ, कभी हमें यह सुनने को नहीं मिला कि एक पोता होता। हमेशा सबसे छोटा बच्चा उनकी "रानी - रानी" होता और वे उसको जान से अधिक प्यार करते थे।

घर में परिवार में नई बहू का आना कितने खुले दिल से स्वीकार किया जाता है, किंतु परिवार में ' न मोहि' वाले हर हाल में होते हैं। अगर जेठानी है तो देवरानी को बहन कम ही बना पाती है- देवर के प्रति अब तक के अपने अधिकारों पर डाका डालने वाली लगने लगती है। माँ को बेटे को बांटने वाली और बहन को भाई की हिस्सेदार। उसको देवर, बेटे और भाई के समान्तर कितने लोग समझ पाते हैं? आखिर क्यों? घर में पैर रखते ही तो वह कुछ करती नहीं है फिर किस लिए लोग ऐसा सोचने लगते हैं?

ऐसा नहीं है - इसके विपरीत भी भूमिका होती है जिनमें पत्नी शामिल है 'न मोहे ' के किरदार में। आते ही पति का सम्पूर्ण अधिकारिणी बनना चाहती है - माँ, भाभी और बहन के प्रति लगाव उन्हें अपनी उपेक्षा लगती है और कभी कभी तो वे अपनी माँ, भाभी और बहन को समान्तर रखना चाहती है। जैसा वे चाहे हो, पति उनके अनुरूप ही चले और सारी कमाई आते ही उनके हाथ में रखी जानी चाहिए।

मिसेज गुप्ता , जब शादी हुई तब भी नौकरी कर रही थी और आज भी कर रही हैं। पति भी उच्च पदस्थ हैं, किंतु शादी के ६ महीने बाद मायके में जाकर रहने लगी क्योंकि उन्हें पता था कि विधवा सास और तीन बहनों का जिम्मेदारी उनके पति के ऊपर है। बहुत दबाव डाला कि उनके मैके में जाकर रहें - लेकिन गुप्ताजी को अपनी माँ और बहनों को लावारिस छोड़ना मंजूर नहीं था और न उन्होंने छोड़ा।
तलाक उनको मिल नहीं सका, आज शादी के ३० साल बाद भी दोनों अलग अलग रह रहे हैं। गुप्ताजी की माँ गुजर गयीं और दो बहनों की शादी हो गई । तीसरी ने शादी से मना कर दिया क्योंकि यदि भाभी भइया के पास आने को तैयार हो जाएँ तो कर सकती हूँ नहीं तो भइया को कौन देखेगा। अब गुप्ताजी को भी वापस आने और न आने से कोई मतलब नहीं रह गया है।

ऐसा नहीं है की एक पढ़ी लिखी प्रबुद्ध कही जाने वाली महिलायें इसका शिकार नहीं है? मिसेज गुप्ता एक जानी मानी गायिका और कालेज में प्रवक्ता हैं।

मैंने इस मुद्दे को सिर्फ इस लिए उठाया है कि सिर्फ आलोचना या अपने अहम् की संतुष्टि के लिए मानव संबंधों या रक्त संबंधों को नकारने या तिरस्कृत करने की मानसिकता में बदलाव लाना चाहिए। नारी जो माँ है - अपनी ममता तले कितने जीवन देती है - वह कैसे इतनी कठोर हो सकती है? अगर सामाजिक संस्थाओं को अपनाया है तो सिर्फ एक नहीं विवाह संस्था के साथ परिवार संस्था भी जुड़ी है तो उसको भी सम्पूर्णता से अपनाइए। परिवार में अधिकतर नारी वर्ग पुरूष वर्ग पर आश्रित होती है। विवाह संस्था ने यदि आपको अधिकार दिए हैं तो कर्तव्यों की डोर भी सौंपी है। उन सबका वहन करने में ही आपकी पूर्णता है। अगर माने तो जिस परिवार को आप छोड़कर आती हैं- माँ, बहन, भाई सब होते हैं और यहाँ भी आपको उनके ही समानान्तर रिश्ते मिलते हैं, उनसे भी वही प्रेम सम्बन्ध बनाइये जो अपने घर में रखती थी।

यह बात सिर्फ एक पत्नी तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पति के परिवार वालों से भी जुड़ी है - जो आपके घर में अपने जन्म के जुड़े रिश्तों को छोड़कर आई है, वे उसे आपसे मिलने चाहिए ताकि वह उनके अभाव को भूल कर आपमें उनके अक्श को देख सके। सारे रीति रिवाज और सम्मान वही उसके प्रति रखिये जो अपनी बेटी के प्रति रखती हैं। ऐसा नहीं की बहू की शादी के बाद विदाई ६ महीने बाद करें और बेटी को चौथे दिन ही बुला लें। ऐसा कौन सा रिवाज है की बेटी के लिए और और बहू के लिए और।

सारा रिश्तों का वैमनस्य इसीलिए पलता है कि हम उसको सहन नहीं कर पाते हैं। इस मुद्देको उठाने के लिए सम्पूर्ण नारी जाति से एक प्रश्न है कि आख़िर क्यों ? 'नारि न मोहे नारि के रूपा' के यथार्थ को हम आज भी झेल रहे हैं। क्या इतनी प्रगति, शिक्षा और प्रबुद्ध होने के बाद भी यह पंक्तियाँ सदैव अपनी प्रासंगिकता को बनाये रहेंगी?

इनको मिथ्या सिद्ध करने के लिए क्या किया जाय? कब इस सत्य को हम झूठा सिद्ध कर पायेंगे।

6 comments:

  1. स्त्रियों की आपसी ईष्‍या ही उनकी सबसे बडी कमजोरी है ।

    ReplyDelete
  2. hamen sabase pahale apani kamajori ko hi door karane ki disha men agrasar hona hai.

    ReplyDelete
  3. रिश्तों के प्रति पसेसिवनेस हर इंसान में होती है, महिलाओं में यह अपने पति, परुष साथी, बेटे या भाई के प्रति होता है. आदमी की रिश्तों के प्रति पसेसिवनेस पत्नी और स्त्री साथियों तक सीमित रहती है. इसके इतर लड़कियां पिता तो लड़के माँ के प्रति पसेसिव होते हैं.

    यह फ्रायड का मत है.

    ---------------------

    पर अगर महिलाऐं भी व्यस्त रहें तो वे भी पुरुषों की तरह इतनी छोटी छोटी बातों पर वैमनस्य नहीं पालेंगी. यह समस्या स्त्री पुरुष की नहीं बल्कि बंद दिमाग और फालतू समय की है, खाली दिमाग शैतान का घर. दिमाग खोलना और इतना काम करना की बेकार लड़ने का तो दूर मिलने जुलने का समय ही मुश्किल से मिले.

    ReplyDelete
  4. ak sashkt aalekh .aise kai udaharn mil jayege jaha kanya ke janm lene par ghar me lakshmi aai hai yh kahkar khushiya manai jati hai .
    kintu aanshik buraiyo ko bdha chdhakar btana smaj me arajkta failana hi hai .

    ReplyDelete
  5. बहुत बढिया सार्थक आलेख. निश्चित रूप से महिलायें ही महिलाओं की दुश्मन होतीं है. और इस सच को सभी महिलाओं ने झेला है, झेलेंगीं.

    ReplyDelete
  6. "नारि न मोहे नारि के रूपा" या "औरत ही औरत की दुश्मन होती है" जैसी बातें पुरुषसत्तात्मक समाज द्वारा फैलायी गयी बातें हैं क्योंकि हमारे समाज में भाषा, मुहावरे, कहावतें, शब्दावलियाँ सब पुरुषों की बनायी हुयी हैं.
    परिवार के अन्दर कौन किस तरह का व्यवहार करता है, यह तो उसके पालन-पोषण और स्वभाव पर निर्भर करता है. यदि औरत का स्वभाव अच्छा नहीं है, तो वह अच्छा व्यवहार कैसे कर सकती है? हम यह नहीं कहते कि सभी औरतें अच्छी हैं और सभी पुरुष खराब. लेकिन, हमारे समाज की बनावट इस तरह की है कि सभी अवगुणों के लिये औरतों को ज़िम्मेदार ठहरा दिया जाता है, और पुरुष बच जाते हैं.
    परिवार को तोड़ने का काम सिर्फ़ औरतें नहीं करतीं, उसके साथ पुरुष भी ज़िम्मेदार है. यदि कोई बहू घर में आकर बेटे पर अपना अधिकार जमाना चाहती है तो बेटा क्यों उसके कहने में आ जाता है. मेरे विचार से ऐसे मामलों में तो बेटे की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है.
    परिवार को बनाये रखने की ज़िम्मेदारी भी सभी की होती है मैं आपकी इस बात से सहमत हूँ कि ससुराल में जाकर बहू को उसे अपना परिवार समझना चाहिये. आखिर जहाँ रहना है वहाँ सभी से अच्छा व्यवहार करके रहने से परिवार की शान्ति बनी रहती है. पर, ये सभी को सोचना चाहिये. मैं आपकी इस बात से भी सहमत हूँ कि औरतों को अपनी बुराइयाँ सबसे पहले दूर करनी चाहिये जिससे कोई उनपर ऐसे इल्जाम न लगा सके.

    ReplyDelete

Note: Only a member of this blog may post a comment.