November 24, 2009

सिर का आंचल पैरों की पायल - क्यों छोड़ी गई?

सिर का आँचल और पैरोंकी पायल क्यों छोड़ी गई, कभी इसके बारे में भी विचार किया गया है? ये उसकी मजबूरी थी और फिर जब तक वह सिर पर आँचल रखे रही क्या मिला? बस घर वालों की चाकरी और चार बातें. बरसों पहले वह सिर पर आँचल रख कर ही पढने जाती रही. मेरी एक सहपाठी, जब ९ में admission लेने आई तो सफेद साड़ी में ही थी. उम्र थी मुश्किल से १५ साल. हम बच्चे इस बात को समझ नहीं पाए कि यह धोती और वह भी सफेद ही क्यों पहनती है? हाई स्कूल में फॉर्म में उसके पिता की जगह पति का नाम लिखा गया. वह जब ५ में थी तभी शादी हुई थी और बिना गौना हुए ही विधवा हो गयी.
बरसों तक घर में बैठ कर पढ़ी और जब कुछ समझा तो स्कूल की जिद की. ससुराल वाले चाहते की वह घर आ जाये और घर में रहे हमारे पास सब कुछ ही जिन्दगी कट जायेगी. उस १५ साल की लड़की जिसको यह पता नहीं कि पति क्या होता है? और शादी कैसी होती है? उसके लिए जिन्दगी काटने की बात हो रही थी. तब उसने सिर से आँचल हटा दिया था. क्या बुरा किया था? अपने आत्मविश्वास से उसने पढ़ाई की. हमेशा प्रथम श्रेणी लेकर पास हुई.

नौकरी में आने के बाद उसने शादी करनी चाही तो घर वाले भड़क गए किन्तु उसका साथी हिम्मत वाला मिला सबसे टक्कर ली और आज दोनों बहुत सुखी हैं। उस आँचल तले जिया होता तो आज क्या होती.

ये आंचल हटा कर उसने कुछ बुरा नहीं किया? सिर से आँचल रखे हुआ अगर खिसक जाए तो कुछ गहर वाले कहते थे कि इसके सिर में एक कील गाध दो इसका आँचल बार बार खिसक जाता है। ये शब्द किसके लिए - अपनी बेटी के लिए और बहू के लिए तो इसके आगे सोच ही लीजिये। कभी तो क्रांति होती ही है न।

ये आँचल मेरे बचपन से पहले भी मेरी पापा की बुआ ने हटाया था। १८ साल कि उम्र में ६ महीने की बेटी लेकर विधवा हुई थीं। जमीदारों का घर था, कोई कमी नहीं थी लेकिन वे थीं एक स्वतंत्रता सेनानी कि बहन और उन्होंने बगावत कर दी। ससुराल छोड़ कर मायके आ गई और फिर पढ़ लिख कर नौकरी की। चाहती तो अपने मायके मेंही रह कर आराम से अपना जीवन जी सकती थीं लेकिन उनकी खुद्दारी थी और सफेद साड़ी पहन कर सारी जिन्दगी नौकरी की , अपनी बेटी को पढाया लिखाया और ख़ुद ही उसको नसीहत भी दी कि अपने आत्म सम्मान के साथ कोई समझौता नहीं। संघर्ष भले हो पर आश्रित होकर न जिए।

कभी का नारी के दृष्टिकोण से सोचा है की सिर पर आँचल रख कर काम कितनी मुश्किल से कर पाती है। जब उसको पुरूष के कंधे से कन्धा मिलकर कम करना है तो फिर हाथ भी जल्दी ही चलने पड़ते हैं और काम उससे कई गुना ज्यादा होता है। नौकरी के साथ उसकी घर के जिम्मेदारियों में कमी नहीं आ जाती है बल्कि उसको दोगुना काम होता है।
परम्पराएँ अभी भी हैं, और ९० प्रतिशत है, सिर पर आँचल लेकर ही अपने से बड़ों के पैर छुए जाते हैं। अभी ये संस्कृति बाकि है। चाहे वह बहू और या बेटी।
पायल पहले पायल थीं, बेड़ियाँ थीदो -दो तीन-तीन किलो चाँदी की बेड़ियाँ हुआ करती थीघर में चलने में काफी थी किंतु बाहर निकल कर उनको तो तोडना ही थालेकिन छोड़ा उन्हें आज भी नहीं हैजब उनकी जरूरत होती है पहनी भी जाती हैंआफिर या स्कूल में छम-छम करते नहीं जाया जा सकता है चाहे फिर छात्रा हो या फिर टीचर या अन्य कामकाजी महिला। इसलिए इस को नारी के दृष्टिकोण से देखें फिर उस पर कलम चलायें.

11 comments:

  1. सही बात है मैं भी जब गाँव मे रहती थी तो शहर की सडक तक साईकल पर खूँघट निकाल कर जाती थी अस्पताल मे नौकरी के कारण गाँव के लोग वहाँ दिखाने आते तो कहते कि यहाँ कोई बात नहीं घूँघट उठा लो कौन सा कोई देख रहा है तो मुझे गुस्सा आता कि अब अपना मतलव है तो घूँघट उठा लो । ये क्यों नहीं कहते कि गाँव मे भी मत निकाला करो। फिर एक दो साल बाद मैने किसी की परवाह न करते हुये अपने आप ही निकालना बन्द कर दिया। कई बार गिरने से भी बची। पता नहीं नारी के नज़रिये से ये समाज कब देखना शुरू करेगा । अच्छा आलेख है शुभकामनायें

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  2. मूल्य निर्णय न देकर आलोचनात्मक ब्याख्यान अच्छा लगा। सार्थक शब्दों के साथ तार्किक ढ़ंग से विषय के हरेक पक्ष पर प्रकाश डाला गया है।

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  3. मुझे यह बात समझ में नहीं आई...सर पर आँचल से हमारी समानता का क्या लेना-देना....आज हमारी राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल सर पर आँचल रख कर ...देश के सर्वोच्च आसन पर विराजमान है.....क्या उनको इस जगह तक पहुँचने में इस आँचल ने कोई रोड़ा अटकाया है..????

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  4. अच्छा और प्रेरणादायक!

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  5. मैंने अपने लेख में बस आचँल और पायल की ही बात तो नहीं की थी । इन सबसे मेरे कहने का तात्पर्य था छोटे कपड़े तनिक भी भारतीय औरतो के लिए और हमारी संस्कृति के लिए ठीक नहीं है, और इस बात को आपके ब्लोग पर हि बहुत सी औरतो नें स्वीकार्य किया , आप आचँल और पायल को बीच में लाकर सबको मुद्दे से भटकांने की कोशिश कर रही है ।

    मैं ये नहीं कह रहा कि औरतो को पायल पहनना या आँचल रखना चाहिए सर पर । उसकी जगह और सी बहुत चिजो नें ले रखी है , और आपकी बात से बिल्कुल सहमत हूँ कि मार्डन समय औरत आँचल करके मर्द के साथ नहीं चल पायेगी । ठिक है मान लेता हूँ कि आँचल ठिक नहीं है तो क्या दुपट्टे में भी कोई दिक्कत आयेगी जोब करते समय । क्या स्कर्ट और जींस पहना जायेगा तभी ओफीस का काम हो पायेगा ?क्या स्कूल में जब छात्रायें स्कर्ट पहनें जायेंगी तभी पढ़ाई हो पायेगी? आप नें कह दिया कि पूराने समय में पायल मतलब बेड़ीया थी , तब आप कहेंगी शायद दुपट्टे का प्रयोग उस समय किसी और कारण के लिए किया जाता हो ।

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  6. मुझे नहीं लगता कि हमें सफाई देने की आवश्यकता है। सफाई देते देते जीवन की शाम हो जाएगी परन्तु जिसे नहीं समझना नहीं समझेगा।
    घुघूती बासूती

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  7. aurat ko yae karna chahiyae aur yae nahin karna chahiyae ........

    yae 2009 haen aur kyaa is sadi mae bhi aurat apane nirany khud nahin lae saktee

    sar par palla ho yaa naa ho yae hamara vyaktigat nirnay hona chahiyae

    pratibha patil laeti haen theek haen wahii priyanka gandhi shirt aur top bhi pehnati haen

    baat samaan adhikar ki haen ki aurat aur purush ko yae adhikaar samaan rup sae haen wo soch sakae ki unko kyaa karna haen , kyaa khana hane kyaa pehnaa haen

    vaesae
    aurat kae sar par aachal ho aur paero mae payal ho yae paramparaa kisnae shuru ki thee aur kyun ???

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  8. इन सबसे मेरे कहने का तात्पर्य था छोटे कपड़े तनिक भी भारतीय औरतो के लिए और हमारी संस्कृति के लिए ठीक नहीं है,

    bhartiyae sanskriti aurat kae kapdo par nahin teeki haen mithilesh ji

    bhartiyae sanskriti kae anurup hi bhartiyae samvidhan haen jahan sabko samaan adhikaar haen apni pasand kaa pehnaae kaa

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  9. पहली बार इस बहस में शामिल हो रहा आप सभी को नमस्कार.

    लेख के आधार पर निष्कर्ष रूप में आप क्या कहना चाहती हैं पहले यह स्पष्ट करें और दूसरों की राय भी मांगे.

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  10. मिथलेश जी,

    मैंने मुद्दे से भटकने की कोशिश नहीं की है. जो सच है वह सच है. बहुत छोटे कपड़ों की वकालत मैं नहीं कर रही हूँ. लेकिन सर पर पल्ले की बात मैंने सही कही. जो भूमिका राष्ट्रपति महोदया की है वह हर आम औरत की नहीं है. अगर सिर्फ शासन ही करना होता तो वह पल्ला नहीं घूँघट डाल कर भी कर सकती थी. yahi इंदिरा गाँधी के साथ था. देश चलाया जा सकता है लेकिन घर और बाहर दोनों सभांलने वाली के लिए क्या मुश्किलें होती हैं यह कोई भुक्तभोगी ही बता सकता है. वह पहले घर के काम करती है,पति बच्चों के लिए खाना पका कर रखती है और फिर कभी कभी बगैर नाश्ता किये ही अपने काम पर भाग निकलती है. कभी बस पकड़नी होती है और कभी रिक्शे के लिए इन्तजार करना होता है. ऐसी स्थिति में सर पर पल्ला और साड़ी पहन कर भागने की स्थिति कितनी हास्यास्पद बन जाती है.
    सूट पहन कर दौड़ सकती है और अपने कामों को अधिक फुर्ती से कर सकती है. ऐसा नहीं है जरूरत पर वह पल्ला भी रखती है. लेकिन उस बंधन की अनिवार्यता को नकारना ही उसकी मजबूरी है.

    @ सेंगर जी,

    आप की बातों से मैं असहमत नहीं हूँ, लेकिन क्या जो कदम दुर्गा भाभी , लक्ष्मी बाई , सरोजिनी नायडू ने उठाये थे वे अपने समय के लिए क्रांतिकारी नहीं थे. उस समय समाज उनके इन कदमों से सहमत नहीं था. नारी उस समय परदे में रहा करती थी. आम नारी के लिए शिक्षा जैसी चीज सपना थी.
    अपनी संस्कृति के विपरीत जाने के लिए मैं भी सहमत नहीं हूँ. मैंने सर से पल्ला और पैर की पायल हटाने की बात के कारणों को प्रस्तुत किया था , किसी और के विषय की व्याख्या नहीं की .

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  11. अच्छा और प्रेरणादायक!

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