October 07, 2008

मैं नहीं मानती ३३ फीसद आरक्षण मिल जाने से स्त्री-सशक्तीकरण को मजबूती मिलेगी

यह बात पिछले कई दिनों से मेरे दिमाग में करवटें ले रही थी, जिसे मैं आज आपसे भी बांटना चाहती हूं।
संसद से लेकर सड़क तक ३३ फीसद आरक्षण के लिए हो-हल्ला काटने वाली महिलाएं मुझे अक्लमंद कम, बेअक्ल ज्यादा लगती हैं। ३३ फीसद हिस्सेदारी, खुदा-न-खास्ता, अगर उन्हें मिल भी गई, तो संसद या राजनीति में ऐसी कौन-सी 'बहुत बड़ी क्रांति' वे कर देंगी, जिसके सामने भगत सिंह की क्रांति का कद भी छोटा लगने लगे? आप यह मान कर चलें कि ३३ फीसद आरक्षण मिलने या न मिलने पर भी अधिकार और फैसले की चाबी अंततः रहेगी पुरुषों के ही हाथों में। सब जानते हैं कि राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता, फिर इस ३३ फीसद आरक्षण या महिलाओं की तो औकात ही क्या है! यह ३३ फीसद का अधिकार पुरुष वर्चस्व के आगे कुछ भी तो नहीं है।
जिस ३३ फीसद आरक्षण के लिए समय-असमय संसद और संगठन की महिलाएं बेचैन हो उठती हैं, उनसे अगर यह पूछा जाए कि तमाम राजनीति दलों के भीतर से वे मजबूत नेतृत्व की सिर्फ ३३ महिला सांसदों के नाम ही बता दें, तो मैं दावे के साथ कह सकती हूं, सब की सब एक-दूसरे की बगलें ही झांकेंगी। नाम तो दूर, वे यह तक नहीं बता सकेंगी कि उनकी राजनीतिक दलों के भीतर 'हैसियत' क्या और कितनी है! उनके कितने निर्णयों को उनका दल और पुरुष वर्ग सहृदय स्वीकार करता है। मेरे ख्याल से ऐसी स्थिति और इतनी औकात किसी भी दल की महिला सांसद की उनके दल के भीतर नहीं होगी। न ही हो सकती है।
इस 'न' होने का बहुत साफ कारण है कि पुरुष महिला के आदेश या निर्णय तले दब जाए, ऐसा हो ही नहीं सकता। हमारे धर्मग्रंथ तक पुरुषों को महिलाओं के सामने न झुकने को ही कहते हैं। तो फिर वे ३३ फीसद हिस्सेदारी लेकर आखिर करेंगी क्या? जितना दिमागी और भाषाई जमाखर्च आप ३३ फीसद के लिए कर रही हो, उतनी ही ताकत लगाकर अगर हर दल में ३३-३३ महिला सांसदों की सशक्त भूमिका के लिए खर्च करो तो बहुत सारे सामंती वर्चस्व टूट सकते हैं। मैं तो कहती हूं, ३३ नहीं पूरा-पूरा सौ फीसद सशक्त नेतृत्व होना चाहिए। ताकि दुनिया को पता तो चले कि यह महिलाओं की आवाज है।
कुछ रोज पहले मैंने वामपंथी दल में महिलाओं की 'न' के बराबर भूमिका से जुड़ा मुद्दा अपने ब्लॉग पर उठाया था, जिस पर तमाम प्रतिक्रियाएं मुझको मिली थीं। बहुतों ने इस कमी को महसूस किया था और स्वीकारा था कि महिला-नेतृत्व बढ़ना चाहिए। आज मैं उस बात को सिर्फ वामदलों तक सीमित न कर, हर दल तक विस्तार देना चाहती हूं कि वहां सिर्फ 'महिलाएं' नहीं बल्कि उनकी 'बेहद मजबूत हैसियत और नेतृत्व' भी होना चाहिए।
महिलाओं के रूप में, आज हमारे सामने दो मजबूत नेतृत्व मौजूद हैं, सोनिया गांधी और मायावती के रूप में। मगर इन दो विपरित दलों की महिला नेतृत्व होने बावजूद भी, वहां उतनी संख्या में महिलाएं नहीं हैं, जितना की पुरुष हैं। यानी कि महिलाओं ने ही महिला नेतृत्व को अपने बीच से दूर कर रखा है। यह एक बड़ा और गंभीर मुद्दा है। मगर आज तक इस मुद्दे पर बात करने या उठाने की ज़हमत न पार्टी की आला-कमान ने उठाई होगी, न उनकी किसी भी महिला सांसद ने। क्या यह सब किसी डर के तहत है या फिर कोई और ही बात है? या जैसा कि हम मानते चले आए हैं कि 'पुरुष नेतृत्व ही श्रेष्ठ नेतृत्व है' इसे स्वीकार लें!
मैंने आज तक नहीं सुना या पढ़ा कि सोनिया गांधी या मायावती ने कभी कहीं आम सभा में पार्टी में महिला नेतृत्व या अधिकार की कमी का मुद्दा उठाया हो। या उस पर चिंता प्रकट की हो। क्या यहां भी स्त्री-वर्चस्व उसी रूप में मौजूद है, जिस रूप में पुरुष वर्चस्व है? लगता तो ऐसा ही है।
भाजपा जिस उग्रता से हिंदुत्व का मुद्द जन के बीच उठाती है, क्या कभी उसने इतनी ही उग्रता से अपनी पार्टी के भीतर महिला नेतृत्व का मुद्दा उठाया होगा? क्यों सुषमाजी आप ही बात दें?
जहां तक मेरी सोच गवाही देती है, ३३ फीसद आरक्षण पर हाय-तौबा मचाने वाली नेत्रियों को पूरे १०० फीसद नेतृत्व और अधिकार की मांग अपनी-अपनी पार्टियों के भीतर उठानी चाहिए। मैं नहीं मानती ३३ फीसद आरक्षण मिल जाने से स्त्री-सशक्तीकरण को मजबूती मिलेगी। इसका फायदा केवल वहीं उठा पाएंगी जिनका दरजा आम में नहीं, खास में आता है। मगर यहां हमें आम महिला नेतृत्व के बारे में सोचना व लड़ना होगा। इस नेतृत्व को मजबूती और राह तभी मिल सकती है, जब पार्टी की मुख्य कमान संभाले महिला नेता ही महिलाओं के विषय के सोचे। ३३ फीसद से कहीं ज्यादा जरूरी है, महिलाएं अपने बीच की विभाजन रेखा को खत्म करें। बराबरी का हक अगर मांगना है, तो नेतृत्व और अधिकार का मांगो न।

3 comments:

  1. जिसमे क्षमता है उसे पूरा मौका मिलना चाहिए, पर किसी को जबरन लिफ्ट कराने से कोई फायदा नहीं है. फ़िर वह चाहे पिछड़ा आरक्षण हो या दलित आरक्षण या महिला आरक्षण. वैसे आरक्षण के हिमायती नेता ख़ुद के इलाज के लिए डॉक्टरों की जाति देखते हैं या उनकी योग्यता?

    अगर मायावती जैसी कई महिलाएं ख़ुद को साबित कर के बता दें तो कौन ऐसा दल होगा जो पुरूष उम्मीदवारों को दरकिनार कर उन्हें टिकट न दे? वरना आज के हालातों में तो ३३% का लाभ केवल राबड़ी देवियों को ही मिलेगा.

    मेरिटोक्रेसी को कड़ाई से लागू कर दिया जाए तो समस्याएं ख़ुद सुलझ जाएँगी.

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  2. आरक्षण से न किसी का भला हुआ है न होगा. नारी अपनी समर्थता के आधार पर आगे जा सकती है, बस उस के रास्ते में रुकाबटें नहीं डालनी चाहिए.

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  3. आरक्षण एक बैसाखी होती है जो बस घिसट घिसट कर चलना सिखाने के लायक होती है बराबरी के लिए जरुरी है अपने रास्ते ख़ुद तय करना और अपनी बनाई प्राथमिकताओं की बात करना
    मेरा सोचना है कि समाज में तमाम रूढियां अभी भी होने के बावजूद अगर महिलाएं आगे आना चाहती है और उसके लिए कोशिश करतीं हैं तो सफलता जरूर मिलेगी

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