मैंने एक बार जीवन के अंत को करीब से देखा था, ठीक 10 साल पहले। कैंसर के साथ अपनी पहली लड़ाई के दौरान एक बार मुझे लगा था कि शायद जिंदगी कमजोर पड़ रही है। उन हालात में, जिंदगी की डोर बस किसी तरह हाथ में कस कर पकड़े रहने की जद्दोजहद और जिद ने मुझे जीना सिखा दिया।
मेरे मामले में शुरुआत ही गलत हुई, जैसा कि हिंदुस्तान में कैंसर के मामलों में आम तौर पर होता है। जब बीमारी को लेकर पहली बार अस्पताल पहुंची तो ट्यूमर काफी विकसित अवस्था में था, स्टेजिंग के हिसाब से टी-4बी। लेकिन अच्छी बात यह थी कि बीमारी किसी महत्वपूर्ण अंग तक नहीं पहुंची थी।
इलाज तय हुआ- तीन सीइकिल कीमोथेरेपी ट्यूमर को छोटा करने और उसके आस-पास छितरी कैंसर कोशाओं को समेटने के लिए, उसके बाद सर्जरी और फिर तीन साइकिल कीमोथेरेपी शरीर में कहीं और छुपी बैठी कैंसर कोशिकाओं के पूरी तरह खात्मे के लिए। उसके बाद रेटियोथेरेपी भी- ट्यूमर की जगह पर किसी कैंसर कोशिका की संभावना को भी जला कर खत्म कर देने के लिए। यानी रत्ती भर भी कसर छोड़े बिना धुंआधार हमले हुए ट्यूमर पर। और आखिर उसे हार माननी पड़ी। लेकिन उस इलाज, खास तौर पर कीमोथेरेपी के मारक हमलों ने कमजोर बीमार कोशिकाओं के साथ-साथ नाजुक रक्त कणों को भी उसी तेजी से खत्म करना शुरू कर दिया।
यह समय था जब मुझे खांसी के साधारण संक्रमण से लड़ने के लिए भी सफेद रक्त कणों की पूरी फौज की जरूरत थी और उधर दवाइयों के असर से शरीर में सफेद रक्त कणों की संख्या 6,000 या 8000 के सामान्य स्तर से घटते-घटते चार सौ और उससे भी कम रह गई थी। और मुझे पता था कि कीमोथेरेपी के दौरान ऐसी स्थिति में साधारण खांसी का कीटाणु भी इंसान को आराम से पछाड़ सकता है।
उस समय खुद को किसी नए कीटाणु के हमले से बचाने के लिए खाना-पानी उबाल-पका कर लेने, खाने के पहले साबुन से हाथ धोने और बाद में ब्रश करने, बार-बार गरारे करने जैसे सरल उपायों से लेकर कड़ी एंटीबायोटिक दवाओं और सभी से दूर अकेले कमरे (आइसोलेशन) में 10 दिनों तक रहने और हवा में मौजूद कीटाणुओं को शरीर में जाने से रोकने के लिए नाक पर मास्क बांधे रहने जैसी हर कोशिश की। फिर भी रक्त कणों की संख्या गिरती ही गई। एक समय ऐसा आया जब लगा, मुट्ठी में रेत की तरह जिंदगी तेजी से फिसलती जा रही है और किसी भी समय खत्म हो जाएगी।
तब मुझे याद आए वो अच्छे दिन जो मैंने जिए थे, बिना उनकी अच्छाई का एहसास किए। वो सब लोग जिन्होंने मेरे लिए कुछ अच्छा किया था। यहां तक कि मैंने उन सबकी एक फेहरिस्त बना डाली और तय किया कि अगर जिंदगी बाकी रही तो उनका ऋण मैं किसी तरह उतारने की कोशिश जरूर करूंगी। हालांकि उस कठिन समय से उबरने में कुछ ही दिन लगे, लेकिन वह समय एक युग की तरह बीता। उन तीन-चीर दिनों में लगा कि सिर्फ जिंदा रहना भी एक नेमत है, जिंदगी चाहे जैसी भी हो। सिर्फ जीते रहना भी उतना सहज नहीं, जितना हम सोचते हैं।
उस दौरान मैं देख रही थी अपने स्वस्थ लगते शरीर को मौत के करीब पहुंचते, और नहीं जानती थी कि आगे क्या है। उस दौरान मैंने समझा कि जिंदा रहने का अर्थ सिर्फ जिए जाना नहीं है। हर दिन कीमती है और लौट के आने वाला नहीं है। और यह भी कि कोई दिन, कोई भी पल आखिरी हो सकता है और कल हमेशा नहीं आता।
अब बीते कल को पीछे छोड़ चुकी हूं, लेकिन उसके सबक आज भी मेरे सामने हैं। ठीक होने के बाद कोई औपचारिक संगठन बनाए बिना ही, कैंसर से लड़ कर जीत चुकी कुछ और महिलाओं के साथ या अकेले ही कैंसर जांच और जागरूकता शिविरों में शामिल होती हूं, अस्पतालों के कैंसर ओपीडी में अपने अनुभव और जानकारी वहां इलाज करा रहे मरीजों के साथ बांटती हूं, उनकी जिज्ञासाओं, आशंकाओं, उलझनों को दूर करने की कोशिश करती हूं तो लगता है जीवन सार्थक है। और अपने इन्हीं अनुभवों को ज्यादा-से ज्यादा लोगों से बांटने के मकसद से उन्हें पुस्तक रूप भी दे डाला- ऱाधाकृष्ण प्रकाशन (राजकमल) नई दिल्ली से छपी- ' इंद्रधनुष के पीछे-पीछे : एक कैंसर विजेता की डायरी '।
इलाज के उस 11 महीने लंबे दौर ने मुझे सिखाया कि खुद को पूरी तरह जानना, समझना और अपनी जिम्मेदारी खुद लेना जीने का पहला कदम है। अगर मैं अपने शरीर से परिचित होती, उसमें आ रहे बदलावों को पहले से देख-समझ पाती तो शायद बेहद शुरुआती दौर में ही बीमारी की पहचान हो सकती थी। और तब इलाज इतना लंबा, तकलीफदेह और खर्चीला नहीं होता।
अपने इस सबक को औरों तक पहुंचाने की कोशिश करती हूं। स्तनों को अपने हाथों से और आइने में देख कर खुद जांचने का सरल, मुफ्त लेकिन बेशकीमती तरीका महिलाओं को बताती हूं ताकि उन्हें भी वह सब न झेलना पड़े जो मुझे झेलना पड़ा। अफसोस की बात है कि हिंदुस्तान के अस्पतालों तक पहुंचने वाले कैंसर के चार में से तीन मामलों में बीमारी काफी विकसित अवस्था में होती है जिसका इलाज कठिन और कई बार असफल होता है। किसी बढ़ी हुई अवस्था के कैंसर की जानकारी पाकर हर बार सदमा लगता है कि क्यों नहीं इसकी तरफ पहले ध्यान दिया गया।
अफसोस इसलिए और बढ़ जाता है कि खास तौर पर महिलाएं अपनी तकलीफों को तब तक छुपाए रखती हैं, सहती रहती हैं, जब तक यह उनकी सहनशक्ति की सीमा के बाहर न हो जाए। (और सबसे खतरनाक बात यह है कि आम तौर पर कैंसर में दर्द सबसे आखिरी स्टेज पर ही होता है। यह बिल्ली की तरह दबे पांव आने वाली बीमारी है, और शरीर के किसी वाइटल अंग में पहुंचने के बाद उसके कामकाज में रुकावट डालती है, तब ही इसके होने का एहसास हो पाता है।) शायद यह सोच कर कि अपनी तकलीफों से दूसरों को क्यों परेशान किया जाए। जबकि बात इसके एकदम उलट है। परिवार की धुरी कहलाने वाली महिला अगर बीमार हो तो पूरा परिवार अस्त-व्यस्त हो सतका है। इसलिए ज़ंग लगने के पहले से ही धुरी की सार-संभाल होती रहे तो जीवन आसान हो जाता है।
सभी, खास तौर पर महिलाएं जागरूक होना सीखें, अपने शरीर और सेहत के बारे में और बीमारयों के बारे में, ताकि जहां तक हो सके उन्हें दूर रखा जा सके या शुरुआत में ही पता लगाकर खत्म किया जा सके। जीने के और भी कुछ गुर हैं- शरीर और जिंदगी को थोड़ा और सक्रिय बनाने की कोशिश, कसरत और खान-पान की अच्छी आदतों के अलावा नफा-नुकसान का हिसाब किए बिना कभी-कभी किसी के लिए कुछ अच्छा करने की कोशिश। तभी हम भरपूर जी पाएंगे, सही मायनों में जिंदगी।
read about R Anuradha first on chokher bali . I was numbed with her
ReplyDelete"fight" against cancer and on her post there i gave a comment
"BRAVO BRAVO BRAVO
the life must have learnt a leason on how to live"
she has now joined the naari group and has written this first post
R ANURADHA IS A LIVING
EAMPLE OF " जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "
she is now writing AGAINST CANCER
i have requested her to write on regular basis for us
u can also send your querries if any and also buy her book
I SALUTE ANURADHA AND FEEL THAT BY JOINING OUR BLOG SHE HAS RISEN THE
STATUS OF OUR BLOG
hats of to you young lady i am sure life will keep learning HOW TO LIVE from you
केंसर विजेता को सलाम.
ReplyDeleteजीना इसी का नाम है...।
ReplyDeletejindagi ko jeene ka je tareeka....
ReplyDeleteGUTAN se nikal kae jindagi ki apni mutti mai...
bahut khoob
मौत के बाद ज़िंदगी की दूसरी लड़ाई में भी विजयी भव:
ReplyDeleteधन्यवाद, एक बार फिर, मेरा उत्साह बढ़ाने का और मेरा इतनी गर्मजोशी से यहां, नारी पर स्वागत करने का।
ReplyDeleteहर संभव मौके पर मैं कोशिश करती हूं कि कैंसर के बारे में जागरूकता बढ़ाने की दिशा में कुछ कर सकूं। सिर्फ जागरूकता ही इस मानवीय त्रासदी के खिलाफ सबसे बड़ा हथियार है।
और, यह त्रासदी आखिरकार किसी एक या कुछ के नहीं, हम सबके हिस्से में आती है। इसलिए हम जितनी जल्दी और अच्छी तरह इसे समझ पाएँगे हम सबके लिए अच्छा होगा।
बहुत अच्छी पोस्ट लिखी है। अपने अनुभव हमसे बाँटने के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
आपका जीवन वास्तव एक प्रेरणा दायक जीवन है.
ReplyDeleteइस से बहुत कुछ सीखा जा सकता है.
उज्जवल भविष्य के लिए बहुत-बहुत शुभकामनाएं.
कठिनाइयों पर धैर्य और जिजीविषा के दम पर विजय पाने की प्रेरणा देती है यह पोस्ट। अनुराधा के जज़्बे को सलाम। ऐसी ही प्रेरणादायी पोस्टें आती रहें यही कामना है।
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