August 01, 2008

हम शादी कब करेगे ??

न जाने कितनी बार कितनी नारियों ने ये प्रश्न किया हैं , हम शादी कब करेगे ?? , और उत्तर मे सुना हैं " ये लड़कियों को हमेशा शादी की इतनी जल्दी क्यों रहती हैं " । ना जाने कितनी लड़किया शादी के वादे के भरोसे गर्भवती हुई और उनका गर्भपात करवाया गया और चरित्र हीन भी वही कहलाई । आज जब लड़कियों ने नए रास्ते पर चलते हुए ये कहा की
"शादी की इतनी जल्दी क्या हैं , शादी की इतनी जरुरत क्या हैं और शादी सामाजिक नहीं व्यक्तिगत मामला हैं " तो हर तरफ़ से पुरूष की आवाज आ रही हैं
परिवार बचाओ , समाज बचाओ ....................
वही पुरूष जो कभी नारी को कहता था शादी की इतनी जल्दी क्या हैं आज शादी के महातम को बखान रहा हैं
बार बार समझा रहा हैं की नारी - पुरूष एक दूसरे के पूरक हैं .
परिवार भारतीय समाज की धूरी हैं सो परिवार बचाना जरुरी हैं , आपस मे मिल कर कुछ हल निकलेगा ।
लेकिन जितने भी हल सुझाए जाते हैं उन सब मे नारी को बराबरी ना करने का आवाहन होता हैं , होती हैं एक सीख कैसे ससुराल मे जा कर सास - ससुर का सम्मान करो । कैसे घर मे रह कर घर को मजबूत करो ।
और बहुत से लोग तो महिमा मंडन कर रहे हैं उन नारियो का जो "सोशल अब्यूज " का शिकार हैं ताकि बाकी लडकियां उन से सीख ले और अपनी शक्ति को परिवार बनाने और फिर उस बचाने के लिये लगा दे । बाकी सब तो होता रहेगा !!!!!
आज जब नारी को शादी उतनी जरुरी नहीं लगती जितनी अपनी पढाई और आर्थिक स्वतंत्रता तो बाकि आधी दुनिया मे एक हड़कंप आ गया लगता हैं । आज जब नारी संविधान से मिले बराबरी के अधिकार की बात करती हैं जो व्यवहारिक रूप मे उसे नहीं मिला हैं तो समाज मे सबको लग रहा हैं की एक असंतुलन की स्थिती बन गयी हैं या बनाई जा रही हैं जिसे हवा देती हैं नारीवादी बहनें॥
नारी के किये हुए हर कार्य को "नारीवाद " का फतवा देना ही ग़लत हैं । क्योकि नारीवाद को समाज नेगेटिव सोच से देखता हैं । अपने लिए सही चुनने का अधिकार , ख़ुद सोचने का अधिकार और अधिकार समानता का । क्या हर परिवार मे हर नारी को हर वो अधिकार मिलता हैं जो एक पुरूष को मिलता हैं । क्या हर नारी से ये पूछा जाता हैं तुमको क्या पसंद हैं ? हम यहाँ बात कर रहे मूल भूत अधिकारों की जो संविधान से मिले हैं जिनमे हमेशा " equal opportunity " को मान्यता दी गयी हैं ।

14 comments:

  1. are wo baat hoti hai n "hum karen to rashlila tum karo to charitra dhila" yahi sach hai.

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  2. रचना जी,

    शादी करना... या न करना एक व्यक्तिगत फ़ैसला या कोई मजबूरी हो सकती है लेकिन इसका समाज पर कोई असर नहीं होता कहना गलत है. और यह बात सिर्फ़ पुरुष किसी अविवाहित से पूछते हों ऐसा नहीं है.. स्त्रियां भी अविवाहित लडकियों से पूछती हैं कि शादी कब कर रही हो ? यह एक साधारन सा सामान्य प्रश्न है इसका नारी की आजादी, किसी के गर्भवती होने या नारी और पुरुष की बराबरी से कुछ लेना देना नहीं है.
    पुरुष और नारी एक दूसरे के पूरक हैं इसमें शायद ही किसी को संदेह हो. परिवार समाज का और समाज देश का निर्माण करता है..

    विवाह सिर्फ़ दैहिक संबन्ध न हो कर भावनात्मक और आत्मिक संबंन्ध है और जीवन के आखिरी चरण में इसका महत्व पता चलता है... कुछ बातें सिर्फ़ अपने अनुभव से ही सीखी जा सकती हैं.

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  3. दरअसल भारतीय समाज एक परम्परावादी समाज है। और शादी हमारे समाज की एक सर्वस्वीक़त परम्परा रही है। अब चूंकि ज्यादातर लोग परम्परावादी होते हैं, इसलिए वे इस तरह की बातें करते हैं।
    वैसे भी अब महिलाएं अपने पैरों पर खडी हो रही हैं, उनकी पास आर्थिक ताकत है और वे इस सोच को चैलेंज कर रही हैं।

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  4. आपकी बात में दम है.

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  5. बदल रहा है अब सब ...मुझे तो अपने आस पास शादी से पहले अपनी पढ़ाई और पैरों पर पहले खडे होने वाली चेहरे ज्यादा दिखायी देते हैं जो एक आने वाले समय का शुभ संकेत है |

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  6. सही कह आपने । चोखेर बाली पर तो पिछले कुछ दिनों से इसी विषय़ पर बहस छिड़ी है ।उनका भी लिंक दिया जा सकता है ।
    आज की यह पोस्ट इन्हीं बहसों पर है -
    http://sandoftheeye.blogspot.com/2008/08/blog-post.html


    सादर

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  7. sujata
    लिंक लगा दिया हैं , समझ नहीं आ रहा था कहां सही लगेगा सो नहीं दिया था पर अब इस पोस्ट को देख कर सही जगह मिल गयी .
    सस्नेह

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  8. "शादी की इतनी जल्दी क्या हैं , शादी की इतनी जरुरत क्या हैं और शादी सामाजिक नहीं व्यक्तिगत मामला हैं "
    शादी की जल्दी न हो ठीक है, किन्तु शादी की जरूरत क्या है और शादी सामाजिक नहीं व्यक्तिगत मामला है इस कथन से में सहमत नहीं हूं और मेरा मानना है कि विश्व की अधिकांश महिलायें व पुरुष इससे सहमत नहीं होंगे, कम से कम महिलायें सहमत नहीं होंगी.
    सर्वप्रथम शादी को अस्वीकार करने का मतलब और परिणाम पहले लेखिका स्वयं विचार कर लें. शादी ही परिवार व समाज का आधार होती है, समझ मे नहीं आ रहा विदुषी लेखिका आदिम व्यवस्था की बात कर रही हैं या मुक्त शारीरिक सम्बंधों की.
    शादी व्यक्तिगत मामला बिल्कुल नहीं है क्योकि इस परंपरा का सृजन समाज ने अपने सदस्यों व परिवार के संरक्षण के लिये किया था और आज भी समाज का सहयोग ही व्यक्ति व परिवार को बचाये हुये है. व्यक्तिगत मामला लिव इन रिलेशनशिप हो सकता है किन्तु शादी नहीं. शादी सामाजिक ही नहीं, धार्मिक व कानूनी मामला भी है लेखिका गंभीर होकर विचार करें तो सहमत होंगी कि इसके साथ कर्तव्य और अधिकार दोनों जुडे हैं.
    रही पुरुष द्वारा शादी व परिवार की वकालत करने की बात तो क्या पुरुष को ही शादी व परिवार की आवश्यकता है? परिवार की आवश्यकता नारी को नहीं है? इस बात का जबाब नारी ही दें तो अच्छा रहेगा. मेरा मानना यह है कि शादी की व्यवस्था जितनी क्षीण होगी परिवार भी समाप्त होने लगेगा और उसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव महिलाओं व बच्चों पर पडेगा और पुरुष अराजक हो जायेगा.
    हो सकता है लेखिका के अनुभव शादी, परिवार व समाज को लेकर अच्छे न रहे हों किन्तु अपवाद नियम नहीं होते सभी पुरुष जंगली व भेडिया नहीं होते जिस प्रकार सभी महिलायें विषकन्यायें नहीं होतीं.

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  9. हां, शादी शिक्षा प्राप्ति में बाधक नहीं होनी चाहिये. कई बार यह भी देखा जा सकता है कि लडकी की शिक्षा मायके मे न हो सकी और विवाहोपरांत शिक्षा पूर्ण हुई.
    www.rashtrapremi.com

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  10. बेहद अफ़सोस की बात हे की आज नारी के ऐसे विचार दुनिया के अस्तित्व के सामने खतरा बन रहे हे,जो ये नही जानती की स्त्री - पुरूष के मिलन के बिना संसार अधुरा हे,नारी तब पूर्ण कहलाई हे जब उसने इस संसार में नए जीव को खिलाया,ये सही हे की शादी की इतनी जल्दी नही हे,जब स्त्री या पुरूष कुछ बन न जाए , मगर शादी व्यक्तिगत नही सामाजिक मामला हे , क्यूंकि शादी के इस बंधन पर समाज की नींव , दुनिया का आधार हे,हमने आगे भी कही लिखा था की संसार का कोई ऐसा जीव नही हे जो अपनेआप पनपता हे, स्त्री या पुरूष में से किसी एक से ही तो संसार नही बसता हे,दोनों का बराबरी का हिस्सा हे,क्यूँ हम ये नही मानते और सिर्फ़ पुरूष को टारगेट कर रहे हे,आपका ये सेंटेंस बिल्कुल ग़लत हे और दुनिया के अस्तित्व के खिलाफ हे की ""नारी को शादी उतनी जरुरी नही लगती"" नारी पर होते अत्याचार,नारी को देखने की निगाह ग़लत हे ये सब बातो से हम सहमत हे....और उसमे बदलाव आए ये भी जरुरी हे और इस विषय में यहाँ चर्चा हो,विचारो का आदान प्रदान हो ये भी जरुरी हे मगर ये कहना की शादी जरुरी नही हे,इस से स्त्री पर अत्याचार होते हे ,सरासर ग़लत सोच हे,

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  11. "शादी की इतनी जल्दी क्या हैं , शादी की इतनी जरुरत क्या हैं और शादी सामाजिक नहीं व्यक्तिगत मामला हैं"
    रचना जी आप ने इतना सा सवाल उठाया है। लोग समझ रहे हैं आप शादी से ही इन्कार कर रही हैं।
    आप सही है, आज नारी अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के निर्माण की ओर आगे बढ़ रही है। अभी यह संख्या नगण्य ही है लेकिन फिर भी हाय़ तोबा मची है। लेकिन यह हाय तोबा का कारण एक और है वह मादा भ्रूण हत्या से उत्पन्न आबादी में असंतुलन। अब पुरुषों को अपने लिए जीवन साथी का अभाव खल रहा है। यह अभाव ही सिखाएगा कि कितनी बड़ी त्रुटि हुई है। तभी नारी के महत्व को समझा जाएगा। लेकिन अभी परंपरागत रूप से बने मूल्यों से छुटकारा पाने में समाज को बहुत लंबा समय लगेगा। अभी तो स्वयं बहुमत नारी ही इन पुरातन पुरुष प्रधान मूल्यों की बन्दी है।

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  12. दिनेश जी धन्यवाद मेरी बात को इतनी सहज शब्दों मे कहने के लिये . ऊपर आए कमेन्ट देखकर मे ख़ुद सोच मे पड़ गयी की मेने कहा ये सब लिखा या कहा हैं पर कई बार ऐसा होता हैं की पाठक लेख को अपनी मनः स्थितिसे पढ़ता हैं . मेने इस पोस्ट मे तो क्या पुरानी अपनी किसी भी पोस्ट मे या अपनी किसी भी कमेन्ट मे कही भी ब्लॉग पर कभी भी ना तो शादी के विरोध मे बात की हैं और ना ही मुमुक्त शारीरिक सम्बंधों को सही या गलत बताया हैं

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  13. Jahan baat fundamental rights ki aati hai to kahin per mahilaon ko purushon se jyada bhi adhikar mila hua hai like....agar purush warg mahilaon ko ched de to unki watt lag jati hai...lekin agar mahilayen purushon ko ched de (ajkal ke parivesh mein ye bhi ho raha hai) to usper aanch tak nahi aati hai. But, haan mahilayen ab bhi mulbhut adhikar se vanchit hai aur isme dosh mahilaon ka hi hai. Kyunki adhikar dene matra ki vastu nahi hai kyunki adhikar hamare paas hai bsharten ham use use karna nahi jante hein!

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  14. पुरूष अपना स्वार्थ सोचता है. नारी अपना स्वार्थ सोचे. दोनों बराबर हैं. दोनों स्वतंत्र हैं. एक बात और हो सकती है, नारी और पुरूष दोनों मिल कर दोनों का संयुक्त स्वार्थ सोचें.

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